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भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली

Lokesh Pal July 23, 2025 02:29 18 0

संदर्भ

हाल ही में बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 2006 के मुंबई ट्रेन बम विस्फोटों की शृंखला (जिसमें 187 लोग मारे गए थे और 800 से अधिक घायल हुए थे) में पूर्व में दोषी ठहराए गए सभी 12 लोगों को बरी किए जाने से भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रभावशीलता पर गंभीर चिंताएँ उत्पन्न हो गई हैं।

  • उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला था कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे दोष सिद्ध करने मेंपूरी तरह विफलरहा।

केस अवलोकन

  • घटना: 11 जुलाई, 2006 को मुंबई उपनगरीय ट्रेनों में 7 सिलसिलेवार विस्फोट हुए।
  • प्रारंभिक दोषसिद्धि: वर्ष 2015 में, मकोका (महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम) न्यायालय ने 5 को मृत्युदंड और 7 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

निर्णय में उठाए गए मुद्दे

  • आपराधिक न्याय प्रणाली की विफलता
    • जाँच और अभियोजन: साक्ष्य, गवाहों की विश्वसनीयता और कानूनी जाँच में कमियाँ देखी गई।
    • न्याय में देरी: अंतिम निर्णय में 19 वर्ष लगना, अभियुक्तों और पीड़ितों के अधिकारों का उल्लंघन।
    • गवाह संरक्षण: कमजोर व्यवस्था के कारणसाधारण गवाहों पर निर्भरता बढ़ जाती है।
    • स्वीकारोक्ति की स्वीकार्यता: अदालतें प्रायः पुलिस द्वारा दर्ज किए गए स्वीकारोक्ति आधारित बयानों को खारिज कर देती हैं।
  • प्रणालीगत चुनौतियाँ
    • पुलिस पर दबाव: शीघ्र परिणाम की राजनीतिक और सार्वजनिक माँग → जल्दबाजी में गिरफ्तारियाँ।
    • समन्वय का अभाव: पुलिस, अभियोजन पक्ष और न्यायपालिका के बीच।
    • तकनीकी कमियाँ: पुरानी पद्धतियाँ, वीडियो-रिकॉर्डेड स्वीकारोक्ति की आवश्यकता।
  • सामूहिक विफलता: न केवल पुलिस, बल्कि अभियोजन, न्यायपालिका और नीतिगत ढाँचा भी।
  • बरी होने के निहितार्थ
    • निर्दोषों के लिए: जीवन के 19 वर्षों का नुकसान।
    • समाज के लिए: असली अपराधियों को अभी भी सजा नहीं मिली।
    • व्यवस्था के लिए: पुलिस, अभियोजन और न्यायपालिका में जनता के विश्वास का क्षरण।

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के बारे में

  • आपराधिक न्याय नीतियों और संगठनों की एक प्रणाली है, जिसका उपयोग राष्ट्रीय और स्थानीय सरकारें सामाजिक नियंत्रण बनाए रखने, अपराध को रोकने और विनियमित करने, तथा कानून तोड़ने वालों को दंडित करने के लिए करती हैं।
  • भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System- CJS) ब्रिटिश औपनिवेशिक कानूनी ढाँचे पर आधारित है— जो भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code- IPC), दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code- CrPC), भारतीय साक्ष्य अधिनियम और कई विशेष कानूनों द्वारा शासित है।
  • उद्देश्य
    • अपराध को रोकना और नियंत्रित करना।
    • सार्वजनिक व्यवस्था और शांति बनाए रखना।
    • पीड़ितों और अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा करना।
    • अपराधियों को दंडित करना और उनका पुनर्वास करना।
    • जीवन और संपत्ति की रक्षा करना।
  • कानूनी ढाँचा
    • न्यायपालिका का प्रशासन सर्वोच्च न्यायालय (संघीय) और उच्च न्यायालयों (राज्य) द्वारा किया जाता है।
    • संघीय कानून (IPC, CrPC, साक्ष्य अधिनियम) सभी एजेंसियों को नियंत्रित करते हैं।

नए अधिनियमों द्वारा प्रतिस्थापित

  • भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860: भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023
  • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973: भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita- BNSS), 2023
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872: भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA), 2023

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के घटक

इसमें पाँच मुख्य घटक शामिल हैं, जो न्याय सुनिश्चित करने के लिए समन्वित तरीके से कार्य करते हैं:

  • पुलिस: प्रथम संपर्क बिंदु, प्राथमिकी दर्ज करना, अपराधों की जाँच करना, संदिग्धों को गिरफ्तार करना, साक्ष्य एकत्र करना और आरोप-पत्र दाखिल करना।
    • संरचना: राज्य-नियंत्रित, पुलिस महानिदेशक (Director General of Police- DGP) के नेतृत्व में, DGP से लेकर कांस्टेबलों तक पदानुक्रम।
    • अंतरराज्यीय/अंतरराष्ट्रीय मामलों के लिए केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI), खुफिया जानकारी के लिए केंद्रीय खुफिया ब्यूरो (CIB) और आंतरिक सुरक्षा के लिए केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) जैसी केंद्रीय एजेंसियाँ।
  • न्यायपालिका: निष्पक्ष सुनवाई करती है, कानून के शासन को बनाए रखती है, निर्णय सुनाती है और सजा तय करती है।
    • संरचना
      • सर्वोच्च न्यायालय: सर्वोच्च न्यायालय, अपील और संवैधानिक मामलों को सँभालता है।
      • उच्च न्यायालय: राज्य-स्तरीय, अधीनस्थ न्यायालयों की देख-रेख करता है और रिट मामलों का प्रबंधन करता है।
      • अधीनस्थ न्यायालय
        • सत्र न्यायालय: गंभीर अपराधों (जैसे- हत्या, मृत्युदंड, उच्च न्यायालय की पुष्टि के अधीन) का निपटारा करते हैं।
        • न्यायिक मजिस्ट्रेट: प्रथम श्रेणी (3 वर्ष तक कारावास) और द्वितीय श्रेणी (1 वर्ष तक)।
  • अभियोजन पक्ष: आपराधिक मुकदमों में राज्य का प्रतिनिधित्व करना, साक्ष्यों की जाँच करना, उचित प्रक्रिया सुनिश्चित करना और दोषियों को दोषसिद्धि के लिए प्रयास करना।
    • कार्य: केस फाइलें रखना, साक्ष्य प्रस्तुत करना, गवाहों से जिरह करना और अनुचित तरीकों का प्रयोग किए बिना उचित दंड की माँग करना।
  • कारागार और सुधार प्रणाली: विचाराधीन और दोषियों की हिरासत सुनिश्चित करना, सुधार और पुनर्वास सुनिश्चित करना।
    • कार्य: भोजन, वस्त्र, चिकित्सा देखभाल, व्यावसायिक प्रशिक्षण और पुनर्वास कार्यक्रम (जैसे- योग, परामर्श) की सुविधा प्रदान करना।
  • कानूनी सहायता और समर्थन सेवाएँ: संविधान के अनुच्छेद-39A के तहत गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों के लिए न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करना।

संवैधानिक ढाँचा

कानून/प्रावधान

महत्त्वपूर्ण कार्य

अनुच्छेद-20 पूर्वव्यापी कानूनों और दोहरे खतरे से सुरक्षा।
अनुच्छेद-21 जीवन और शीघ्र सुनवाई का अधिकार।
अनुच्छेद-22 मनमानी गिरफ्तारी से सुरक्षा।
सूची II, अनुसूची VII पुलिस और जेल राज्य सूची के विषय हैं।

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली से संबंधित आँकड़े

  • कुल अपराध: NCRB की रिपोर्ट (भारत में अपराध 2023, सितंबर 2024 में जारी) के अनुसार, भारत में वर्ष 2023 में लगभग 59.24 लाख संज्ञेय अपराध दर्ज किए गए, जो वर्ष 2022 में दर्ज 60.63 लाख मामलों की तुलना में 2.3% की मामूली कमी दर्शाता है।
  • अपराध दर: अपराध दर (प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर मामले) 427.4 रही, जबकि पिछले वर्ष यह 445.9 थी।
  • न्यायाधीशों की संख्या: भारत में 21,285 न्यायाधीश हैं, अर्थात् प्रति दस लाख जनसंख्या पर लगभग 15 न्यायाधीश
    • यह वर्ष 1987 के विधि आयोग की प्रति दस लाख जनसंख्या पर 50 न्यायाधीशों की सिफारिश से काफी कम है।
  • लंबित मामले: सितंबर 2024 तक, विभिन्न न्यायालयों में लगभग 4.2 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनमें से 33.4% मामले आपराधिक मामलों के हैं।
  • सजा की दर: IPC अपराधों के लिए कुल सजा की दर 59.3% है, जो वर्ष 2022 के 57.2% से बेहतर है।
  • पुलिस का बुनियादी ढाँचा: वास्तविक पुलिस बल प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर 157 है, जबकि संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनुशंसित संख्या 222 है, जो महत्त्वपूर्ण रूप से कम कर्मचारियों की संख्या को दर्शाता है।

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में चुनौतियाँ

पुलिस से संबंधित चुनौतियाँ

  • हिरासत में हिंसा और दुर्व्यवहार: कानूनी प्रतिबंधों (सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन, 1980) के बावजूद, हिरासत में हिंसा और मौतें जारी हैं, जिससे जनता का विश्वास कम हो रहा है।
    • वर्ष 2016-2022 के बीच 11,656 हिरासत में मौतें दर्ज की गईं, जबकि वर्ष 2001- 2021 के बीच 1,888 मामलों में केवल 26 मामलों में दोषसिद्धि हुई (दोषसिद्धि दर 5%)।
    • यह मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद-21) का उल्लंघन करता है और कानून प्रवर्तन में अविश्वास को बढ़ावा देता है।
  • भ्रष्टाचार: रिश्वतखोरी, जबरन वसूली और आपराधिक तत्त्वों के साथ साँठगाँठ सामान्य है।
    • यह निष्पक्ष जाँच को कमजोर करता है और अपराधियों को न्याय से बचने का मौका देता है।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप: राजनीतिक प्रभाव पुलिस की नियुक्तियों, स्थानांतरणों और जाँच को प्रभावित करता है, जिससे स्वायत्तता प्रभावित होती है।
  • महिला अधिकारियों की कमी और कम संख्या: पुलिस-जनसंख्या अनुपात 157 प्रति 1,00,000 (वर्ष 2024) है, जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनुशंसित 222 से कम है।
    • अत्यधिक कार्यभार से दबे पुलिस बलों को अपराध की रोकथाम और जाँच, विशेष रूप से महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की जाँच में कठिनाई होती है।
  • अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा और प्रशिक्षण: आधुनिक फोरेंसिक उपकरणों, पुराने हथियारों और साइबर अपराधों तथा उन्नत जाँच के लिए अपर्याप्त प्रशिक्षण का अभाव।
    • कमजोर साक्ष्य संग्रह के कारण दोषसिद्धि दर कम होती (उदाहरण के लिए, 2024 में साइबर अपराधों के लिए 24.2%) है।

न्यायपालिका से संबंधित चुनौतियाँ

  • लंबित मामले और विलंबित न्याय: वर्ष 2024 में लगभग 4.2 करोड़ मामले लंबित थे, जिनमें से 33.4% आपराधिक मामले थे।
    • देरी शीघ्र सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन (हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य, 1979) है।
    • ‘विलंबित न्याय, न्याय से वंचित करने के समान है,’ जिससे जनता का विश्वास कम होता है और पीड़ितों की पीड़ा बढ़ती है।
  • न्यायाधीशों की कमी: भारत में प्रति दस लाख लोगों पर 15 न्यायाधीश हैं, जो अनुशंसित 50 से काफी कम है।
    • अत्यधिक कार्यभार वाली न्यायपालिका मामलों के निपटारे को धीमा कर देती है, जिससे लंबित मामले और बढ़ जाते हैं।
  • कम दोषसिद्धि दर: वर्ष 2022 में IPC की कुल दोषसिद्धि दर 54.2% ( वर्ष 2020 में 59.2% से कम) थी।
    • यह खराब जाँच गुणवत्ता, छेड़छाड़ किए गए साक्ष्य और न्यायिक अक्षमताओं को दर्शाता है, जिससे अपराधी दायित्व से बच निकलते हैं।
  • राजनीतिक और भ्रष्ट प्रभाव: न्यायिक प्रक्रियाओं पर राजनीतिक दबाव के कारण पक्षपातपूर्ण निर्णय या प्रभावशाली अभियुक्तों को बरी किया जा सकता है।
    • निष्पक्षता को कमजोर करता है, जैसा कि हाई-प्रोफाइल मामलों में देखा गया है, जहाँ अभियुक्त बाहरी दबावों के कारण दायित्व से बच निकलते हैं।

अभियोजन-संबंधी चुनौतियाँ

  • सुबूत का बोझ: प्रतिपक्षी व्यवस्था की निर्दोषता की धारणा अभियोजकों पर उचित संदेह से परे अपराध सिद्ध करने का बोझ डालती है, जो प्रायः कमजोर पुलिस जाँच के कारण बाधित होता है।
    • इससे दोषसिद्धि की दर कम होती है और न्याय मिलने में देरी होती है।
  • पुलिस पर निर्भरता: अभियोजक पुलिस द्वारा एकत्रित साक्ष्यों पर निर्भर रहते हैं, जो अधूरे, छेड़छाड़ किए हुए या खराब तरीके से प्रलेखित हो सकते हैं।
    • कमजोर मामले अदालत में असफल हो जाते हैं, जैसा कि वर्ष 2006 के मुंबई ट्रेन विस्फोटों जैसे मामलों में बरी होने के मामले में देखा गया है।
  • संसाधनों की कमी: विशेष रूप से जिला अदालतों में सरकारी अभियोजकों के लिए सीमित प्रशिक्षण और संसाधन।
    • जटिल मामलों, विशेष रूप से साइबर अपराध जैसे उभरते अपराधों, पर बहस करने में प्रभावशीलता कम हो जाती है।

जेल से संबंधित चुनौतियाँ

  • अत्यधिक भीड़भाड़: भारत की जेलों में 75% से अधिक कैदी विचाराधीन हैं।
    • यह कैदियों के सम्मान और स्वास्थ्य के अधिकारों का उल्लंघन करता है (राममूर्ति बनाम कर्नाटक राज्य, 1997) और संसाधनों पर दबाव डालता है।
  • अमानवीय स्थितियाँ: खराब स्वच्छता, अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवा, और भोजन/कपड़ों की कमी, विशेषतः महिला कैदियों के लिए (आर.डी. उपाध्याय बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 2006)
    • इससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ और मौतें होती हैं, आत्महत्याएँ और हिरासत में मौतें गंभीर चिंता का विषय हैं।
  • कम धन और कम कर्मचारी: जेल आधुनिकीकरण के लिए प्रशिक्षित कर्मचारियों और धन की कमी।
    • मुल्ला समिति (1980) ने बेहतर सुविधाओं और कर्मचारियों के प्रशिक्षण की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
  • कानूनी सहायता का अभाव: कई विचाराधीन कैदी, विशेषतः हाशिए पर स्थित समूहों से, कानूनी सहायता तक पहुँच के अभाव में, हिरासत की अवधि बढ़ा देते हैं।
    • यह अनुच्छेद-21 के अधिकारों का उल्लंघन करता है, क्योंकि बिना परीक्षण के लंबे समय तक हिरासत में रखना असंवैधानिक है (हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य, 1979)।

प्रणालीगत और सामाजिक चुनौतियाँ

  • जातिगत और लैंगिक पूर्वाग्रह: दलितों और आदिवासियों की असमान गिरफ्तारियाँ और दोषसिद्धि।
    • यद्यपि जनसंख्या में उनकी संयुक्त हिस्सेदारी 24.2% है, जेलों में उनका प्रतिनिधित्व काफी अधिक है, लगभग 34%।
    • महिलाएँ हिरासत में हिंसा और जेलों में अपर्याप्त सुविधाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं।
  • बढ़ते नए अपराध: डिजिटलीकरण और कम डिजिटल साक्षरता (वर्ष 2024 में आर्थिक अपराधों में 9.7% की वृद्धि) के कारण साइबर अपराध, संगठित अपराध और सफेदपोश अपराध बढ़ रहे हैं।
    • वर्तमान व्यवस्था में इनसे प्रभावी ढंग से निपटने के लिए विशेष प्रशिक्षण और बुनियादी ढाँचे का अभाव है।
  • जनता के विश्वास में कमी: भ्रष्टाचार, हिरासत में हिंसा और न्याय में देरी नागरिकों में भय और अविश्वास पैदा करती है।
    • विश्व न्याय परियोजना (World Justice Project- WJP) के विधि शासन सूचकांक 2023 के अनुसार भारत 142 देशों में 79वें स्थान पर है।
    • अपराधों की रिपोर्टिंग को हतोत्साहित करता है, विशेषतः हाशिए पर पड़े समुदायों में।
  • किशोर न्याय में कमियाँ: विशेष पुलिस इकाइयों का अभाव, अप्रशिक्षित मजिस्ट्रेट और किशोरों के लिए अपर्याप्त देखभाल (किशोर न्याय अधिनियम, 2000)।
    • युवा अपराधियों के पुनर्वास और पुनः एकीकरण में बाधा उत्पन्न होती है, जिससे पुनरावृत्ति का जोखिम बढ़ जाता है।

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में सरकारी सुधार और पहल

  • नए आपराधिक कानून (वर्ष 2023)
    • भारतीय न्याय संहिता 2023 (Bharatiya Nyaya Sanhita- BNS), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita- BNSS), और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (Bharatiya Sakshya Adhiniyam- BSA) ने क्रमशः भारतीय दंड संहिता (1860), आपराधिक प्रक्रिया संहिता (1973), और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (1872) का स्थान ले लिया।
    • प्रमुख विशेषताएँ
      • भारतीय न्याय संहिता (BNS): नए अपराधों (जैसे- संगठित अपराध, आतंकवाद) को परिभाषित करता है, सामुदायिक सेवा को दंड के रूप में लागू करता है, और पीड़ित को मुआवजा देने को प्राथमिकता देता है।
      • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita- BNSS): समयबद्ध जाँच (जैसे- गंभीर अपराधों के लिए 60 दिन) अनिवार्य करता है, वीडियो-रिकॉर्ड किए गए स्वीकारोक्ति की अनुमति देता है, और फोरेंसिक साक्ष्य संग्रह को मजबूत बनाता है।
      • भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Bharatiya Sakshya Adhiniyam- BSA): साक्ष्य नियमों का आधुनिकीकरण करता है, डिजिटल अपराधों के अनुरूप इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य और विशेषज्ञ राय को स्वीकार करता है।
  • पुलिस आधुनिकीकरण कार्यक्रम
    • पुलिस बलों के आधुनिकीकरण (Modernisation of Police Forces- MPF) योजना, जो वर्ष 2000 में शुरू की गई थी तथा वर्ष 2014 के बाद और मजबूत हुई, बुनियादी ढाँचे, हथियारों और प्रशिक्षण के उन्नयन के लिए धन आवंटित करती (उदाहरण के लिए- वर्ष 2017-2022 के लिए ₹26,000 करोड़) है।
    • मुख्य विशेषताएँ
      • पुलिस को फोरेंसिक उपकरणों, सीसीटीवी और साइबर अपराध इकाइयों से सुसज्जित करता है।
      • नए अपराधों (जैसे, साइबर अपराध, वित्तीय धोखाधड़ी) से निपटने के लिए प्रशिक्षण अकादमियाँ स्थापित करता है।
      • लैंगिक आधारित अपराधों से निपटने के लिए महिला अधिकारियों की भर्ती में (वर्ष 2022 तक महिलाओं के विरुद्ध 4.45 लाख मामले) वृद्धि करता है।
  • न्यायिक सुधार: फास्ट-ट्रैक और विशेष न्यायालय
    • मुकदमों में तेजी लाने के लिए आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2018 के तहत फास्ट-ट्रैक विशेष न्यायालयों (Fast-Track Special Courts- FTSC) और विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत लोक अदालतों की स्थापना।
    • मुख्य विशेषताएँ
      • FTSC महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध अपराधों को लक्षित करते (उदाहरण के लिए, दुष्कर्म और POCSO मामलों के लिए वर्ष 2023 तक 1,634 FTSC कार्यरत) है।
      • लोक अदालतें छोटे-मोटे विवादों को सुलह-समझौते के माध्यम से सुलझाती हैं और वर्ष 2022 में 1.2 करोड़ मामलों का निपटारा करेंगी।
  • जेल सुधार: आधुनिकीकरण और पुनर्वास
    • मॉडल जेल मैनुअल (वर्ष 2016) और केंद्रीय वित्त पोषण का उद्देश्य जेलों का आधुनिकीकरण, स्थितियों में सुधार और पुनर्वास को बढ़ावा देना है।
    • मुख्य विशेषताएँ
      • स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवा और व्यावसायिक प्रशिक्षण (जैसे- योग, परामर्श) को उन्नत करता है।
      • अच्छे आचरण वाले दोषियों के लिए खुली जेलों (वर्ष 2010 में 44 जेल) का विस्तार करता है।
      • महिला-विशिष्ट सुधारों में अलग वार्ड और प्रसव पूर्व/प्रसवोत्तर देखभाल शामिल है (आर.डी. उपाध्याय बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 2006)
  • कानूनी सहायता विस्तार
    • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority- NALSA) द्वारा सुदृढ़ीकृत विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987, अनुच्छेद-39A के अंतर्गत हाशिए पर स्थित समूहों को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करता है।
    • मुख्य विशेषताएँ
      • जिलों और जेलों में कानूनी सहायता क्लीनिकों को वित्तपोषित करता है।
      • विचाराधीन कैदियों, महिलाओं और दलितों/आदिवासियों की सहायता करता है।
  • प्रौद्योगिकी एकीकरण: ई-न्यायालय और डिजिटल उपकरण
    • ई-कोर्ट परियोजना (चरण I: 2007, चरण II: 2015, चरण III: 2023) दंड प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 द्वारा समर्थित न्यायिक प्रक्रियाओं का डिजिटलीकरण करती है।
    • मुख्य विशेषताएँ
      • ई-कोर्ट वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई और केस प्रबंधन को संभव बनाते (उदाहरण के लिए, वर्ष 2023 तक 3,000 ई-कोर्ट चालू हो गए) हैं।
      • वर्ष 2022 का अधिनियम जाँच में सुधार के लिए बायोमेट्रिक डेटा संग्रह (जैसे- उंगलियों के निशान, आइरिस स्कैन) की अनुमति देता है।

समिति की सिफारिशें और न्यायिक हस्तक्षेप

  • मालिमथ समिति, 2003: इसने आपराधिक न्याय प्रणाली के मुद्दों से निपटने के लिए विभिन्न सिफारिशें कीं, जैसे कि मामूली उल्लंघनों के लिए सामाजिक कल्याण अपराधनामक अपराधों की एक नई श्रेणी शुरू करना, जिनका निपटारा जुर्माना लगाकर या सामुदायिक सेवा करके किया जा सकता है।
  • माधव मेनन समिति, 2007: इसकी स्थापना आपराधिक न्याय पर एक राष्ट्रीय नीति का मसौदा तैयार करने के लिए की गई थी। इसने सुधार प्रक्रिया का मार्गदर्शन करने के लिए विभिन्न सिद्धांतों और रणनीतियों का सुझाव दिया, जैसे कि आपराधिक न्याय के प्रत्येक चरण में मानवीय गरिमा और मानवाधिकारों का सम्मान सुनिश्चित करना।
  • मुल्ला समिति, 1983: न्यायमूर्ति ए.एन. मुल्ला की अध्यक्षता में जेल सुधारों पर एक अखिल भारतीय समिति। इसकी स्थापना मौजूदा जेल कानूनों और स्थितियों की समीक्षा करने के लिए की गई थी, जिसका उद्देश्य मानवीय व्यवहार और अपराधी पुनर्वास को बढ़ावा देना था।
  • वोहरा समिति, 1993: इसने सिफारिश की कि विभिन्न स्रोतों से खुफिया जानकारी एकत्र करके और उचित कार्रवाई करके आपराधिक न्याय प्रणाली के मुद्दों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए एक संस्था स्थापित की जाए।
  • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय: प्रताप सिंह बनाम भारत संघ (वर्ष 2006) पुलिस जवाबदेही के लिए; ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (वर्ष 2014) में अनिवार्य एफआईआर पंजीकरण के लिए, विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) में कार्यस्थल पर उत्पीड़न कानूनों के लिए।

आगे की राह

  • पुलिस जवाबदेही और प्रशिक्षण बढ़ाना: पारदर्शी DGP नियुक्तियों और 2 वर्ष  के कार्यकाल के लिए सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों (प्रताप सिंह बनाम भारत संघ, 2006) को लागू करना।
    • साक्ष्य की गुणवत्ता में सुधार के लिए फोरेंसिक और साइबर अपराध जाँच में पुलिस को प्रशिक्षित करना।
  • गवाह सुरक्षा को मजबूत बनाना: विश्वसनीय गवाही सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत गवाह सुरक्षा कार्यक्रम स्थापित करना, जिससे मुंबई बम विस्फोट मामले में उजागर हुए सामान्य गवाहों पर निर्भरता कम हो।
  • न्यायिक क्षमता बढ़ाना: न्यायिक रिक्तियों को भरकर प्रति मिलियन पर 50 न्यायाधीशों की संख्या का लक्ष्य प्राप्त  (विधि आयोग की सिफारिश) करना ।
    • 4.2 करोड़ लंबित मामलों (वर्ष 2024) को कम करने के लिए फास्ट-ट्रैक और विशेष अदालतों का विस्तार करना।
  • जेल के बुनियादी ढाँचे का आधुनिकीकरण: जेलों में भीड़भाड़ (वर्ष 2020 में 70% विचाराधीन कैदी) को कम करने और स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवा और पुनर्वास कार्यक्रमों में सुधार के लिए जेल आधुनिकीकरण के लिए धन आवंटित करना।
  • कानूनी सहायता की पहुँच में सुधार: विचाराधीन कैदियों, विशेष रूप से हाशिए पर पड़े समूहों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने हेतु अनुच्छेद-39A के कार्यान्वयन को मजबूत करना ताकि लंबी हिरासत को कम किया जा सके।
  • जाँच में तकनीक अपनाना: वीडियो-रिकॉर्ड किए गए एकल बयानों को अनिवार्य बनाना और साक्ष्य की विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए फोरेंसिक उपकरणों में निवेश करना, ताकि वर्ष 2006 के मुंबई बम विस्फोटों जैसे मामलों में देखी गई कमियों को दूर किया जा सके।
  • प्रणालीगत पूर्वाग्रहों का समाधान: पुलिस और न्यायिक अधिकारियों को जातिगत और लैंगिक पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए प्रशिक्षित करना, ताकि दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के लिए समान व्यवहार सुनिश्चित हो सके।
  • तकनीकी उन्नति: पता लगाने की दर में सुधार, बेहतर गुणवत्ता वाली जाँच और अभियुक्तों की दोषसिद्धि के लिए अधिक जाँच अधिकारियों और अभियोजकों, प्रौद्योगिकी के उपयोग में उनके नियमित प्रशिक्षण और सुसज्जित फोरेंसिक प्रयोगशालाओं की आवश्यकता है।
    • उदाहरण: ई-कोर्ट परियोजना का उद्देश्य भारत में न्यायालयों के कामकाज को कंप्यूटरीकृत करना और न्यायिक प्रणाली को अधिक कुशल बनाना है।
    • सर्वोच्च न्यायालय विधिक अनुवाद सॉफ्टवेयर (Supreme Court Vidhik Anuvaad Software- SUVAS) और सुप्रीम कोर्ट पोर्टल फॉर असिस्टेंस इन कोर्ट्स एफिशिएंसी’ (Supreme Court Portal for Assistance in Court’s Efficiency- SUPACE) को अपनी प्रणालियों में शामिल करना।

SUVAS आदेशों/निर्णयों को स्थानीय भाषाओं में रूपांतरित करने के लिए एक AI-सक्षम अनुवाद उपकरण है, जबकि SUPACE को AI अनुसंधान सहायक उपकरण के रूप में कार्य करने के लिए विकसित किया जा रहा है।

निष्कर्ष

भारत की सर्वोच्च न्यायिक सेवा (CJS), एक मजबूत कानूनी ढाँचे पर आधारित होने के बावजूद, देरी, भ्रष्टाचार और संसाधनों की कमी जैसी समस्याओं से ग्रस्त हैं, जैसा कि वर्ष 2006 के मुंबई ट्रेन बम धमाकों में अभियुक्तों के बरी होने के मामलों से स्पष्ट है। जनता का विश्वास बहाल करने और समय पर न्याय सुनिश्चित करने के लिए पुलिस, न्यायपालिका, अभियोजन, कारागार और कानूनी सहायता में तत्काल सुधार जरूरी हैं।

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