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भक्ति से मृत्यु: नायक-पूजा और उसके असंतोष

Lokesh Pal October 18, 2025 01:48 80 0

संदर्भ

तमिलनाडु के करूर में अभिनेता से राजनेता बने विजय की रैली में हुई दुखद भगदड़ भारतीय राजनीति में व्यक्ति-पूजा के घातक जोखिमों को रेखांकित करती है, जहाँ नायक भक्ति प्रायः लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं के प्रति प्रतिबद्धता पर हावी हो जाती है।

द्रविड़ राजनीति और देवत्व का संस्थागतकरण

  • सिद्धांतों का विरोधाभास: यद्यपि द्रविड़ आंदोलन ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के विरुद्ध एक तर्कवादी और धर्म-विरोधी सुधार के रूप में शुरू हुआ था, लेकिन चुनावी राजनीति में प्रवेश करते ही इसने विडंबनापूर्ण रूप से राजनीतिक नायक-पूजा को संस्थागत रूप दे दिया।
  • एक राजनीतिक उपकरण के रूप में सिनेमा: फिल्में, गीत और संवाद राजनीतिक संदेश देने के माध्यम बन गए।
    • द्रमुक और बाद में अन्नाद्रमुक ने एमजीआर और जयललिता जैसे करिश्माई व्यक्तित्वों को सिनेमाई आकर्षण और राजनीतिक वैधता का सम्मिश्रण करते हुए अर्द्ध-देवता में बदल दिया।
  • प्रतीकात्मक उपाधियाँ और पौराणिक कल्पना: नेताओं को उपाधियों के माध्यम से देवता का  बनाया गया:-
    • करुणानिधि को ‘चोल राजा’ के रूप में 
    • एमजीआर को ‘पारी वल्लाल’ के रूप में
    • जयललिता को ‘इधायदेवम अम्मा’  के रूप में।
      • इस प्रकार सिनेमा और राजनीति तमिलनाडु के सार्वजनिक जीवन के अविभाज्य स्तंभ बन गए।

दार्शनिक और ऐतिहासिक चिंतन

  • अंबेडकर का वक्तव्य: संविधान सभा (25 नवंबर, 1949) में अपने भाषण में, डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने ‘राजनीति में भक्ति’ के विरुद्ध चेतावनी देते हुए कहा:-
    • ‘राजनीति में, भक्ति या नायक-पूजा पतन और अंततः तानाशाही की ओर ले जाने वाला एक निश्चित मार्ग है।’
    • उन्होंने चेतावनी दी कि सिद्धांतों से व्यक्तित्वों में निष्ठा स्थानांतरित करने से लोकतंत्र का नैतिक आधार कमजोर होता है।
  • भगत सिंह का तर्कवाद: ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ किताब में, भगत सिंह ने लिखा है:
    • ‘निर्मम आलोचना और स्वतंत्र चिंतन क्रांतिकारी विचार के दो आवश्यक लक्षण हैं।’
    • उन्होंने नायक-पूजा को एक बौद्धिक पतन के रूप में देखा जो तर्कसंगत बहस को दबा देता है।
  • एम.एन. रॉय का अवलोकन: रॉय ने कहा कि ‘व्यक्ति नहीं, बल्कि नायक-पूजा ही असली अपराधी है’, यह तर्क देते हुए कि समाज, नेताओं को मिथक बनाकर अपने लिए जीवन की चुनौतियाँ स्वयं उत्पन्न करते हैं।

करिश्माई रूप की नैतिकता: एक वेबरियन आलोचना

  • करिश्माई सत्ता: मैक्स वेबर ने करिश्माई सत्ता को व्यक्ति के असाधारण गुणों के प्रति समर्पण में निहित शक्ति के रूप में वर्गीकृत किया है। हालाँकि यह शुरू में क्रांतिकारी है, यह संस्था-विरोधी और स्वाभाविक रूप से अस्थिर है।
  • उत्तराधिकार की समस्या: जब करिश्मा व्यक्तित्त्व प्रभावी होता है, तो संस्थाओं में स्वतंत्र वैधता का अभाव होता है। नेतृत्व परिवर्तन वंशवादी नियंत्रण या सत्ता संघर्ष में बदल जाता है, जैसा कि कई क्षेत्रीय दलों में देखा गया है।
  • नियमितीकरण की लीक (Rut of Routinization): वेबर ने तर्क दिया कि करिश्मा को ‘नियमित’ किया जाना चाहिए अर्थात नियमों, कानूनों और संस्थाओं के माध्यम से कानूनी-तर्कसंगत सत्ता में परिवर्तित किया जाना चाहिए। जब ​​इसका विरोध किया जाता है, तो यह सत्तावादी लोकलुभावनवाद को जन्म देता है और कानून के शासन को नष्ट करता है।
  • नैतिक त्याग: जो नागरिक किसी करिश्माई नेता के सामने नैतिक निर्णय सौंप देते हैं, वे नैतिक त्याग करते हैं, तर्क के स्थान पर भावनाएँ अपनाते हैं। यह अंबेडकर की संवैधानिक नैतिकता की प्रतिध्वनि है, जो व्यक्तित्वों के प्रति नहीं, सिद्धांतों के प्रति निष्ठा की माँग करती है।

आधुनिक राजनीति में नायक-पूजा की चिंताएँ और परिणाम

  • राजनीतिक चाटुकारिता और जवाबदेही का क्षरण: नायक-पूजा सांस्कृतिक प्रशंसा से राजनीतिक समर्पण में बदल गई है, जहाँ नेता के प्रति निष्ठा कानून या पार्टी विचारधारा के प्रति निष्ठा से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
    • संस्थाएँ सत्ता पर सवाल उठाने से हिचकिचाती हैं, जिससे व्यवस्थागत जवाबदेही का अभाव उत्पन्न होता है। शासन व्यक्तिगत हो जाता है और नियंत्रण और संतुलन समाप्त हो जाते हैं।
  • आलोचना का दमन और लोकतांत्रिक पतन: किसी नेता पर सवाल उठाने को तेजी से ‘पार्टी-विरोधी’ या ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार दिया जा रहा है, जिससे असहमति और बहस को हतोत्साहित किया जा रहा है।
    • रचनात्मक आलोचना, जो लोकतंत्र के लिए आवश्यक है, भावनात्मक अपीलों और दिखावटी राजनीति द्वारा प्रतिस्थापित हो रही है, जिससे संस्थागत विमर्श कमजोर हो रहा है।
  • ‘शैडो स्टेट’ का उदय: नायक पंथ एक अनौपचारिक ‘शैडो स्टेट’ का गठन करते हैं अर्थात परिवार, सहयोगियों, प्रशंसक क्लबों और वफादारों का नेटवर्क जो निर्णय लेने को नियंत्रित करता है।
    • नौकरशाही और मीडिया व्यक्तिगत सत्ता के अधीन हो जाते हैं, कैबिनेट प्रणाली और विधायी जाँच को दरकिनार कर देते हैं। इसका परिणाम अस्पष्ट शासन और संरक्षण-आधारित राजनीति है।
  • वंशवादी निरंतरता और योग्यता का क्षरण: व्यक्तित्व-केंद्रित राजनीति वंशवादी उत्तराधिकार को बनाए रखती है, जहाँ पारिवारिक विरासत योग्यता पर प्रभावी हो जाती है।
    • सत्ता परिवर्तन योग्यता पर नहीं, बल्कि करिश्मे पर निर्भर हो जाता है, जिससे राजनीतिक अभिजात्यवाद और संस्थागत कमजोरी बनी रहती है।
  • मनोवैज्ञानिक और सामाजिक लागत: नागरिक प्रायः नैतिक शिशुवाद का प्रदर्शन करते हैं, भावनात्मक जुड़ाव के लिए तर्कसंगत निर्णय का त्याग करते हैं।
    • समाज प्रशंसक-आधारित शिविरों में ध्रुवीकृत हो जाता है, और सार्वजनिक स्थान आक्रामकता का क्षेत्र बन जाते हैं। करूर भगदड़ त्रासदी इस बात का प्रतीक है कि कैसे नायक भक्ति सचमुच मानव सुरक्षा पर हावी हो सकती है।

नैतिकता, संवैधानिक नैतिकता और लोकतंत्र में नायक-पूजा के खतरे

  • नैतिक शिशुवाद और तर्क का त्याग: नायक-पूजा नागरिकों को तर्कसंगत भागीदारी के बजाय भावनात्मक निर्भरता को प्रोत्साहित करके शिशु बना देती है।
    • यह आलोचनात्मक जाँच-पड़ताल की जगह अंध श्रद्धा को स्थापित कर देती है, जिससे लोकतंत्र की नैतिक परिपक्वता नष्ट हो जाती है।
    • जब लोग नैतिक निर्णय करिश्माई व्यक्तियों के हाथों में सौंप देते हैं, तो वे स्वायत्त नैतिक एजेंटों के रूप में कार्य करना बंद कर देते हैं, यह इमैनुएल कांट के उस विचार का उल्लंघन करता है जिसमें वे स्वयं को ‘स्वयं में साध्य’ मानते हैं, जो तर्क और नैतिक नियमों द्वारा निर्देशित होता है।
  • एक नैतिक दिशासूचक के रूप में संवैधानिक नैतिकता: अंबेडकर के दृष्टिकोण से प्रेरित भारतीय संविधान नागरिकों से संवैधानिक नैतिकता के साथ कार्य करने की अपेक्षा करता है – समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे सिद्धांतों के प्रति निष्ठा, न कि व्यक्तियों के प्रति।
    • नायक-पूजा कानून के शासन की जगह भावनाओं का शासन और संवैधानिक जवाबदेही की जगह व्यक्तिगत समर्पण स्थापित करके इस नैतिकता का उल्लंघन करती है।
    • अनुच्छेद 51A(a) (संविधान के प्रति सम्मान) और अनुच्छेद 51A(h) (वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवतावाद का विकास) नैतिक रूप से प्रत्येक नागरिक को तर्कसंगतता बनाए रखने और व्यक्ति-पूजा का विरोध करने के लिए बाध्य करते हैं।
  • नेतृत्व नैतिकता और विनम्रता का कर्तव्य: नैतिक नेतृत्व के लिए संयम, विनम्रता और संस्थागत प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है, आत्म-देवीकरण की नहीं।
    • महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री जैसे महान नेताओं ने करिश्मा-चालित प्रभुत्व के बजाय सादगी और जवाबदेही को अपनाया। सद्गुण नैतिकता के अनुसार, सच्चा नेतृत्व सामूहिक सशक्तिकरण को बढ़ावा देने में निहित है, न कि व्यक्तिगत महिमामंडन में।
  • नागरिक नैतिकता और नागरिक का उत्तरदायित्व: लोकतंत्र केवल अच्छे नेताओं पर ही नहीं, बल्कि नैतिक रूप से जागरूक नागरिकों पर भी स्थापित होता है।
    • नागरिकों का नैतिक कर्तव्य है कि वे प्रश्न करें, आलोचना करें और भागीदारी करें – जॉन स्टुअर्ट मिल के इस सिद्धांत को दोहराते हुए कि स्वतंत्रता में ‘महान व्यक्तियों की भी आलोचना करने की स्वतंत्रता’ शामिल होनी चाहिए। निष्क्रिय प्रशंसा इस नागरिक नैतिकता को कमजोर करती है, जिससे जनोन्माद फैलाने वालों को पनपने का अवसर मिलता है।
  • मीडिया और नैतिक जिम्मेदारी: मीडिया का नैतिक कर्तव्य सूचना देना है, न कि आदर्श बनाना। नेताओं को सनसनीखेज बनाना लोकलुभावनवाद को बढ़ावा देता है और सार्वजनिक तर्क को धुंधला करता है। पत्रकारिता की ईमानदारी के लिए आवश्यक है कि प्रशंसा कभी भी जाँच-पड़ताल से अधिक न हो – सत्य को एक लोकतांत्रिक गुण के रूप में बनाए रखना।
  • सामूहिक नैतिक जिम्मेदारी: नायक-पूजा एक सामूहिक नैतिक विफलता को उजागर करती है, नागरिकों, संस्थानों और शिक्षा प्रणालियों की जो नैतिक स्वतंत्रता और नागरिक साहस का पोषण करने में विफल रहती हैं।
    • इस नैतिक आधार के पुनर्निर्माण के लिए करुणा, आलोचनात्मक विचार और असहमति का साहस विकसित करना आवश्यक है।
  • सहानुभूति और करुणा-कट्टरता में लुप्त गुण: नायक-पूजा सहानुभूति और नैतिक चिंतन को नष्ट कर देती है, जो एक मानवीय समाज के मूल गुण हैं। कट्टर भक्ति अनुयायियों को नेता के नाम पर होने वाली पीड़ा के प्रति अंधा बना देती है, जिससे नैतिक अंधापन उत्पन्न होता है।
    • करूर त्रासदी इस बात का प्रतीक है कि नैतिक असंवेदनशीलता कैसे सचमुच जान ले सकती है। नायक-पंथ नागरिक संवाद को भीड़ की भावनाओं तक सीमित कर देते हैं, जिससे बंधुत्व की संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन होता है।
    • करुणामय सेवा पर आधारित नैतिक शासन, व्यक्तिगत महिमामंडन की तुलना में जन कल्याण को प्राथमिकता देता है, एक ऐसा गुण जिसे भारत को पुनः प्राप्त करना होगा।

आगे की राह

  • लोकतांत्रिक अखंडता के लिए संस्थागत सुधार: चुनाव आयोग, न्यायपालिका और मीडिया की स्वतंत्रता को व्यक्तित्व-पूजा के विरुद्ध मजबूत बनाना।
    • संस्थागत नैतिकता को लोकलुभावन आवेगों पर शासन की निष्पक्षता, न्यायसंगतता और निरंतरता को बनाए रखना चाहिए।
  • संस्थागत नैतिकता और पारदर्शिता सुनिश्चित करना: यह सुनिश्चित करने के लिए कि संस्थाएँ व्यक्तिगत निष्ठा के बजाय संवैधानिक नैतिकता से कार्य करें, नैतिक ऑडिट, निष्ठा तंत्र और पारदर्शिता ढाँचे लागू करना।
  • नागरिक और सांस्कृतिक परिवर्तन: ऐसे नागरिक तैयार करने के लिए स्कूलों में नागरिक शिक्षा, वैज्ञानिक सोच और आलोचनात्मक तर्क को एकीकृत करना जो स्वतंत्र रूप से प्रश्न पूछ सकें, विश्लेषण कर सकें और कार्य कर सकें।
  • तर्कसंगत सार्वजनिक संवाद को बढ़ावा देना: सार्वजनिक बहसों, नागरिक अभियानों और मीडिया साक्षरता अभियानों को प्रोत्साहित करना जो जुड़ाव को भावनात्मक वीरता से विचार-आधारित और साक्ष्य-आधारित चर्चाओं की ओर ले जाएँ।
  • राजनीतिक और नेतृत्व नैतिकता: वंशवादी उत्तराधिकार और संरक्षण की राजनीति पर अंकुश लगाने के लिए आंतरिक पार्टी चुनाव, नेतृत्व की कार्यकाल सीमा और पारदर्शी वित्तपोषण सुनिश्चित करें। सामूहिक निर्णय लेने को एक लोकतांत्रिक नैतिकता के रूप में बढ़ावा दें।
  • नैतिक नेतृत्व मॉडल विकसित करना: करिश्मा या लोकलुभावनवाद के बजाय सत्य, अपरिग्रह और संयम जैसे गांधीवादी गुणों द्वारा निर्देशित, सेवा, विनम्रता और आत्म-संयम में दृढ़ नेताओं को प्रशिक्षित और प्रोत्साहित करें।
  • मीडिया उत्तरदायित्व और जनसंचार नैतिकता: व्यक्तित्व महिमामंडन और दुष्प्रचार के विरुद्ध संपादकीय संहिताओं को लागू करना। जनता का विश्वास और जागरूक नागरिकता बहाल करने के लिए तथ्य-आधारित पत्रकारिता को बढ़ावा देना और संपादकीय स्वतंत्रता की रक्षा करना।
  • सामाजिक और संरचनात्मक पुनर्विन्यास: विकेंद्रीकृत, टीम-आधारित शासन और नागरिक पहलों को प्रोत्साहित करना जो व्यक्तित्व की तुलना में भागीदारी को प्राथमिकता देते हैं, साझा उत्तरदायित्व की नैतिकता को सुदृढ़ करते हैं।
  • जन राजनीति में सार्वजनिक नैतिकता और सुरक्षा: राजनीतिक रैलियों के लिए भीड़ प्रबंधन मानकों, नैतिक प्रचार मानदंडों और जवाबदेही प्रोटोकॉल को कानूनी रूप से लागू करना।
    • नागरिकों की भी नैतिक जिम्मेदारी है कि वे जागरूकता, सुरक्षा और संयम के साथ इसमें भाग लें, तथा करूर भगदड़ जैसी त्रासदियों को रोकना।

निष्कर्ष

सच्चा लोकतंत्र श्रद्धा से नहीं, तर्क से पनपता है। जैसा कि अंबेडकर ने चेतावनी दी थी, राजनीतिक भक्ति पतन की ओर ले जाती है। भारत को नेता-पूजा से संवैधानिक नागरिकता की ओर बढ़ना होगा, भावनात्मक भक्ति के बजाय नैतिक जागरूकता, संस्थागत सम्मान और तर्कसंगत नागरिक सहभागिता को बढ़ावा देना होगा।

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