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संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द शामिल करने पर बहस

Lokesh Pal July 02, 2025 02:25 17 0

संदर्भ 

हाल ही में उपराष्ट्रपति ने आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को जोड़ने को ‘सनातन की भावना का अपमान’ बताया।

भारतीय संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ का अर्थ

धर्मनिरपेक्ष

  • भारतीय संदर्भ में ‘धर्मनिरपेक्ष‘ शब्द का अर्थ है कि राज्य किसी भी धर्म का पक्ष नहीं लेता।
    • भारत सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता का पालन करता है, जिसका अर्थ है कि राज्य किसी विशेष धर्म के साथ जुड़े बिना या उसका समर्थन किए बिना सभी धर्मों को समान रूप से स्वीकार करता है और उनका सम्मान करता है।
  • संवैधानिक आधार: भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14, 15, 16, 25 और 26 सभी नागरिकों के लिए समानता तथा धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं।
    • राज्य यह सुनिश्चित करता है कि धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए और सभी व्यक्तियों को अपने धर्म का स्वतंत्र रूप से पालन करने, प्रचार करने और उसे मानने का अधिकार है।
  • मुख्य विशेषताएँ 
    • धार्मिक स्वतंत्रता: प्रत्येक व्यक्ति को विवेक की स्वतंत्रता का अधिकार है, जिसका अर्थ है कि राज्य धार्मिक मामलों में तब तक हस्तक्षेप नहीं कर सकता है, जब तक कि सार्वजनिक व्यवस्था या अन्य मौलिक अधिकार प्रभावित न हों।
    • सभी धर्मों के लिए समान सम्मान: भारत सभी धर्मों के साथ समान सम्मान का समर्थन करता है, धार्मिक प्रथाओं के लिए एक समावेशी मंच प्रदान करता है।

समाजवादी

  • ‘समाजवादी’ शब्द का तात्पर्य उस आर्थिक विचारधारा से है, जो सामाजिक न्याय और आर्थिक असमानता को कम करने पर जोर देती है।
    • यह सभी संसाधनों पर राज्य के नियंत्रण का समर्थन नहीं करता है, बल्कि निजी क्षेत्र के विकास के साथ सार्वजनिक कल्याण को संतुलित करने का प्रयास करता है।
  • संवैधानिक आधार: 42वें संशोधन (1976) ने प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द को शामिल किया।
    • हालाँकि, समाजवाद का भारतीय मॉडल लोकतांत्रिक है, साम्यवादी नहीं
    • यह मिश्रित अर्थव्यवस्था के विचार का समर्थन करता है, जहाँ सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्र सह-अस्तित्व में रहते हैं।
    • राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (भाग IV) भूमि सुधार, कल्याणकारी योजनाओं और आर्थिक समानता प्राप्त करने के लिए धन के वितरण जैसी नीतियों को बढ़ावा देकर सामाजिक न्याय के लिए दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।
  • मुख्य विशेषताएँ 
    • कल्याणकारी राज्य: एक समाजवादी राज्य यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक नागरिक को शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों तक पहुँच प्राप्त हो, विशेषतः हाशिए पर स्थित और वंचित लोगों को।
    • आर्थिक न्याय: राज्य उन जगहों पर हस्तक्षेप करके धन और आय में असमानताओं को कम करने की दिशा में कार्य करता है,  जहाँ निजी उद्यम समान रूप से आवश्यक सेवाएँ प्रदान नहीं कर सकते हैं।
      • यह गरीबी उन्मूलन, सामाजिक सुरक्षा और हाशिए पर स्थित समुदायों के लिए सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों में देखा जाता है।

धर्मनिरपेक्षता का पश्चिमी मॉडल

  • पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्राँस जैसे देशों में अपनाए जाने वाले मॉडल, धर्म और राज्य के बीच कठोर अलगाव का समर्थन करते हैं।
    • इस विचारधारा के अनुसार, राज्य किसी धार्मिक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं करता और साथ ही कोई धर्म राज्य की नीतियों को प्रभावित नहीं कर सकता है
  • संयुक्त राज्य अमेरिका पहले संशोधन के स्थापना खंड (Establishment Clause) पर आधारित एक मॉडल का अनुसरण करता है, जो सरकार को किसी भी धर्म की स्थापना करने या किसी धर्म के प्रति पक्षपात दिखाने से रोकता है।
  • फ्राँस लैसिटे नामक एक सिद्धांत का पालन करता है, जो और भी कठोर है। यह धर्म और सार्वजनिक जीवन के बीच पूर्ण अलगाव पर जोर देता है।

भारतीय और पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता के बीच मुख्य अंतर

पहलू

भारत की धर्मनिरपेक्षता

पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता

धर्म में राज्य की भूमिका लोक कल्याण के लिए धार्मिक प्रथाओं को विनियमित करने में सक्रिय भूमिका। तटस्थ रुख, धार्मिक मामलों में शामिल होने से बचना। धर्म एक निजी मामला है।
धार्मिक हस्तक्षेप राज्य हानिकारक धार्मिक प्रथाओं (जैसे- अस्पृश्यता, बाल विवाह) को सुधारने के लिए हस्तक्षेप करता है। राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता है, जब तक कि धार्मिक प्रथाएँ व्यक्तिगत अधिकारों या सार्वजनिक व्यवस्था का उल्लंघन न करती हों।
सार्वजनिक रूप से धार्मिक अभिव्यक्ति सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक अभिव्यक्ति की अनुमति दी गई, जिससे सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान सुनिश्चित हो। सार्वजनिक संस्थानों में धार्मिक प्रतीकों पर प्रतिबंध (जैसे- फ्राँस में सिर पर स्कार्फ बाँधने पर प्रतिबंध)।
सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ धर्मनिरपेक्षता धार्मिक विविधता को समायोजित करती है और बहुलवाद को बढ़ावा देती है। धर्मनिरपेक्षता का उदय चर्च की शक्ति को सीमित करने और धार्मिक नियंत्रण से व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने से हुआ।

प्रस्तावना में संशोधन

  • आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा प्रस्तुत किया गया।
    • इसमें समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्द जोड़े गए।
    • मूल प्रस्तावना: संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य।
    • संशोधित प्रस्तावना: संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य। इसने “राष्ट्र की एकता” को “राष्ट्र की एकता और अखंडता” में भी परावर्तित कर दिया।

प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ने का समर्थन करने वाले न्यायिक निर्णय 

  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): धर्मनिरपेक्षता संविधान की एक बुनियादी विशेषता है।
    • न्यायालय ने धर्म के प्रति राज्य की तटस्थता पर जोर दिया, जिससे सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार सुनिश्चित हुआ।
  • मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): समाजवाद को एक संवैधानिक आदर्श के रूप में बरकरार रखा गया, जो आर्थिक न्याय पर केंद्रित था।
    • यह कल्याण और सामाजिक न्याय के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है, न कि सभी उद्योगों पर राज्य के नियंत्रण को।
  • एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): धर्मनिरपेक्षता एक मूल सिद्धांत है।
    • न्यायालय ने सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करने और किसी भी प्रकार के धार्मिक भेदभाव को रोकने के राज्य के कर्तव्य की पुष्टि की।
  • डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2024): न्यायालय ने संविधान के 42वें संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार करने से इनकार कर दिया।
    • इसने धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को बरकरार रखा, यह कहते हुए कि वे लोगों द्वारा व्यापक रूप से स्वीकार किए जाते हैं और समझे जाते हैं।
  • एम. इस्माइल फारुकी बनाम भारत संघ (1994): न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्य धार्मिक स्थलों का अधिग्रहण तभी कर सकता है, जब वे धार्मिक प्रथा का अनिवार्य हिस्सा न हों। 
    • न्यायालय ने पुष्टि की कि धर्मनिरपेक्षता यह सुनिश्चित करती है कि राज्य किसी भी धर्म का पक्ष न ले।

प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को बनाए रखने के पक्ष में तर्क

  • संवैधानिक मूल्यों को दर्शाते हुए: समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ भारत के न्याय, समानता और धार्मिक स्वतंत्रता के मूल मूल्यों को समाहित करते हैं।
    • वर्ष 1976 में 42वें संशोधन के अंतर्गत ‘समाजवादी’ शब्द को जोड़ने से आर्थिक न्याय के विचार को बल मिला और ‘धर्मनिरपेक्ष‘ शब्द ने धार्मिक समानता को प्रदर्शित किया।
  • धर्मनिरपेक्षता एक मौलिक विशेषता के रूप में: धर्मनिरपेक्षता यह सुनिश्चित करती है कि राज्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करे, सभी नागरिकों के लिए धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी दे, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों में बरकरार रखा गया है।
    • अनुच्छेद-25 अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म का पालन करने के अधिकार की गारंटी देता है, जो दर्शाता है कि भारत की धर्मनिरपेक्षता संविधान में निहित है।
  • सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना: ‘समाजवादी’ शब्द कल्याणकारी राज्य के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है, जो आर्थिक न्याय सुनिश्चित करता है और असमानताओं को कम करता है।
    • यह स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और गरीबी उन्मूलन जैसे क्षेत्रों में राज्य के हस्तक्षेप पर जोर देता है।
  • सामाजिक सद्भाव बनाए रखना: धर्मनिरपेक्षता भारत के विविध समाज में एकता और बंधुत्व को बढ़ावा देती है, जिससे इसके कई धार्मिक, जातीय तथा सांस्कृतिक समूहों के बीच शांति एवं सद्भाव बनाए रखने में सहायता मिलती है।
    • एस.आर. बोम्मई (1994) मामले ने पुष्टि की कि बहु-धार्मिक समाज में एकता बनाए रखने के लिए धर्मनिरपेक्षता महत्त्वपूर्ण है।
  • समान अवसर सुनिश्चित करना: ‘समाजवादी’ एक मिश्रित अर्थव्यवस्था के विचार को पुष्ट करता है, जहाँ सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्र सह-अस्तित्व में रहते हैं, जिससे आर्थिक भागीदारी और कल्याण के लिए समान अवसर सुनिश्चित होते हैं।
    • राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (भाग IV) राज्य को धन के पुनर्वितरण और सामाजिक असमानताओं को दूर करने की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
  • लोकतांत्रिक सिद्धांतों की रक्षा करना: धर्मनिरपेक्षता यह सुनिश्चित करती है कि राज्य तटस्थ रहे, किसी भी राजनीतिक या धार्मिक समूह को अनुचित लाभ प्राप्त करने से रोके, जो लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
  • न्यायिक समर्थन: सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की मूल विशेषताओं के रूप में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ को शामिल करने की पुष्टि की है।
    • डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2024) मामले में न्यायालय ने इन शब्दों को हटाने की याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि ये व्यापक रूप से स्वीकार्य हैं और संविधान के मूल ढाँचे के लिए आवश्यक हैं।
  • राजनीतिक वैधता: समर्थकों का तर्क है कि संशोधन संवैधानिक प्रक्रियाओं के माध्यम से लागू किया गया था, जो लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधियों की इच्छा को दर्शाता है।
    • उदाहरण के लिए, मिनर्वा मिल्स मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रस्तावना में 42वाँ संशोधन न केवल संविधान के ढाँचे के भीतर था, बल्कि इसने इसके दर्शन को भी जीवंतता प्रदान की।

प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने के तर्क

  • मूल उद्देश्य को खतरा: कुछ लोगों का तर्क है कि प्रस्तावना में संशोधन करने से संविधान निर्माताओं की मूल मंशा कमजोर हो जाती है। उनका तर्क है कि नए शब्दों को शामिल करने से संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित मूल चरित्र में बदलाव आता है।
    • उदाहरण के लिए, विष्णु शंकर जैन की याचिका: मूल संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर इन अवधारणाओं को प्रस्तावना से बाहर रखने का निर्णय किया।
      • 15 नवंबर, 1948 को प्रोफेसर के.टी. शाह ने ‘धर्मनिरपेक्ष, संघीय और समाजवादी राष्ट्र’ शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा, लेकिन संविधान सभा (Constituent Assembly- CA) ने लंबी चर्चा के बाद इसे खारिज कर दिया।
      • 25 नवंबर, 1948 को दूसरा संशोधन प्रस्तुत किया गया और संविधान के मसौदे में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को शामिल करने पर चर्चा की गई। उसे भी खारिज कर दिया गया।
      • 3 दिसंबर, 1948 को संविधान के अनुच्छेद-18 में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को शामिल करने का तीसरा प्रयास किया गया, जिसे भी संविधान सभा ने खारिज कर दिया।
  • अलोकतांत्रिक प्रविष्टि: आपातकाल (वर्ष 1975- वर्ष 1977) के दौरान 42वें संशोधन के माध्यम से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए थे।
    • यह प्रविष्टि न तो किसी व्यापक जनचर्चा का परिणाम थी और न ही जन-इच्छा की अभिव्यक्ति, बल्कि यह आपातकाल की असामान्य परिस्थितियों में की गई एक राजनीतिक रणनीति मात्र थी।
  • मूल संविधान के साथ विरोधाभास: संविधान सभा ने जानबूझकर प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को बाहर रखा था।
    • डॉ. बी.आर. अंबेडकर सहित संविधान निर्माताओं ने प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे वैचारिक शब्दों को शामिल करने का विरोध किया था।
    • बाद में मूल निर्माताओं की सहमति के बिना इन शब्दों को जोड़ा गया, जिससे वे संविधान की मूल दृष्टि के साथ असंगत हो गए।
  • राजनीतिक और वैचारिक अधिरोपण: प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करने को कुछ लोग आपातकाल के दौरान कांग्रेस सरकार द्वारा एक वैचारिक अधिरोपण के रूप में देखते हैं।
    • ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द की आलोचना एक ऐसे शब्द के रूप में की गई है, जो तटस्थता को इस तरह से मजबूर करता है, जो भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के विपरीत है।
    • आलोचकों का तर्क है कि ‘समाजवाद’ अब भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था में प्रासंगिक नहीं है और यह बाजार-संचालित नीतियों को प्रतिबंधित करके निर्वाचित सरकारों की आर्थिक स्वतंत्रता को सीमित करता है।
  • धर्मनिरपेक्षता अलग तरह से विकसित हुई है: आलोचकों का तर्क है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी मॉडल से अलग तरीके से विकसित हुई है, जिसमें धर्म और राज्य का सख्त पृथक्करण शामिल नहीं है।
    • कुछ लोग तर्क देते हैं कि प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द अनावश्यक है क्योंकि संविधान पहले से ही अनुच्छेद-14, 15 और 16 के माध्यम से धार्मिक समानता सुनिश्चित करता है, जो धार्मिक आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
  • समाजवाद नीतिगत लचीलेपन को सीमित करना: ‘समाजवादी’ शब्द भारत को राज्य-नियंत्रित नीतियों से जोड़कर सरकारों की आर्थिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करता है।
    • वर्ष 1991 के बाद के आर्थिक सुधारों ने भारत को बाजार-उन्मुख अर्थव्यवस्था की ओर स्थानांतरित कर दिया है।
    • ‘समाजवादी’ शब्द नीति विकल्पों को सीमित कर सकता है, जिससे निजीकरण या बाजार उदारीकरण के पक्ष में नीतियों को अपनाने से रोका जा सकता है।
  • समान अधिकारों पर ध्यान दें, विचारधाराओं पर नहीं: ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ को हटाने का तर्क इस विचार के इर्द-गिर्द घूमता है कि प्रस्तावना का उपयोग वैचारिक प्रतिबद्धताओं को बढ़ावा देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
    • इसके बजाय, इसे सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार और मौलिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। 
      • आलोचकों का तर्क है कि प्रस्तावना में न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे सार्वभौमिक सिद्धांतों को प्रतिबिंबित किया जाना चाहिए, बिना किसी विशेष आर्थिक या धार्मिक विचारधारा को निर्दिष्ट किए।
  • न्यायिक अतिक्रमण: आलोचकों का तर्क है कि संविधान की मूल विशेषताओं के रूप में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को बनाए रखकर सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक अतिक्रमण किया है।
    • न्यायपालिका ने इन शब्दों के दायरे को उनके मूल उद्देश्य से कहीं ज्यादा बढ़ा दिया है।
    • इससे यह चिंता उत्पन्न हुई है कि कि न्यायपालिका ऐसे मूल्यों को निर्धारित कर रही है, जिन्हें लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए, क्योंकि वही जन-इच्छा के वास्तविक प्रतिनिधि होते हैं, जबकि न्यायिक व्याख्याएँ कभी-कभी इस इच्छा से भिन्न हो सकती हैं।

क्या भारत वास्तविक रूप से समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष है?

समाजवादी

  • समाजवाद के लिए
    • 42वें संशोधन (1976) के माध्यम से प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ा गया, जो सभी नागरिकों के लिए आर्थिक न्याय और कल्याण के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
    • भारत एक मिश्रित अर्थव्यवस्था का अनुसरण करता है, जिसमें सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्र सह-अस्तित्व में हैं, जो मनरेगा, पीडीएस और सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल जैसी कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से सामाजिक समानता सुनिश्चित करता है।
    • सरकार स्वास्थ्य, शिक्षा और गरीबी उन्मूलन जैसे क्षेत्रों में हस्तक्षेप करना जारी रखती है, समाज के हाशिए पर पड़े तथा वंचित वर्गों की आवश्यकताओं को पूरा करती है।
    • भूमि सुधार और प्रगतिशील कराधान जैसे समाजवादी सिद्धांत भारत के शुरुआती वर्षों में महत्त्वपूर्ण थे, जिनका उद्देश्य धन और भूमि वितरण में असमानताओं को दूर करना था।
  • विरुद्ध
    • वर्ष 1991 के बाद से, आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण ने भारत को पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर मोड़ दिया है, जिससे समाजवादी मॉडल कमजोर हो गया है और आर्थिक नियोजन में राज्य की भूमिका कम हो गई है।
    • भारत में बाजार-संचालित नीतियों को अपनाने और उद्योगों पर राज्य के नियंत्रण की तुलना में निजी क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता देने के कारण ‘समाजवादी’ शब्द कमजोर हो गया है।
    • आलोचकों का तर्क है कि समाजवादी आदर्श पुराने हो चुके हैं, क्योंकि वैश्वीकरण और FDI ने भारत को पूँजीवादी मॉडल की ओर मोड़ दिया है, जिससे सार्वजनिक कल्याण पर ध्यान कम हो गया है।
    • निजीकरण और आर्थिक विकास का पक्ष लेने वाली नीतियों ने समाजवाद के सामाजिक कल्याण पहलू को कमजोर कर दिया है, जिससे यह शब्द आज कम प्रासंगिक हो गया है।

धर्मनिरपेक्ष

  • धर्मनिरपेक्ष के पक्ष में तर्क 
    • भारत की धर्मनिरपेक्षता संविधान में निहित है, जिसमें अनुच्छेद- 25 से 28 धार्मिक स्वतंत्रता और सभी धर्मों के लिए समान सम्मान की गारंटी देते हैं।
    • ‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ मॉडल राज्य को सामाजिक सद्भाव और समानता सुनिश्चित करने के लिए धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप करने की अनुमति देता है, जैसा कि अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाने, बाल विवाह को विनियमित करने और तीन तलाक को प्रतिबंधित करने जैसे सुधारों में देखा गया है।
    • धर्मनिरपेक्षता सुनिश्चित करती है कि किसी भी धर्म को राज्य द्वारा प्राथमिकता नहीं दी जाती है और सभी नागरिकों को, चाहे उनकी आस्था कुछ भी हो, समान अधिकार और अवसर मिलते हैं।
    • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों [जैसे केशवानंद भारती (1973) तथा एस.आर. बोम्मई (1994)] ने संविधान की एक बुनियादी विशेषता के रूप में धर्मनिरपेक्षता को मजबूत किया है, जो राज्य की धार्मिक तटस्थता सुनिश्चित करता है।
  • विपक्ष में तर्क
    • धार्मिक राजनीति और सांप्रदायिकता भारत में धर्मनिरपेक्षता को चुनौती देना जारी रखती है, धर्म-आधारित राजनीतिक दल और ध्रुवीकरण राज्य की तटस्थता को कमजोर कर रहे हैं।
    • राजनेता प्रायः चुनावी लाभ के लिए धर्म का प्रयोग करते हैं, जिससे कुछ नीतियों और कार्यों में धार्मिक पक्षपात होता है। यह नागरिकता संशोधन अधिनियम (Citizenship Amendment Act- CAA) और राम मंदिर मुद्दे जैसे कानूनों पर बहस में देखा जाता है।
    • राज्य के सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता मॉडल की कभी-कभी धार्मिक मामलों में अत्यधिक हस्तक्षेप करने के लिए आलोचना की जाती है, जिससे धर्म में राज्य की अनुचित भागीदारी के आरोप लगते हैं।
    • कुछ लोग तर्क देते हैं कि भारत में धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के संबंध में अधिक और धार्मिक तटस्थता के संबंध में कम हो गई है, जो इसके मूल उद्देश्य को कमजोर करती है।

भारत में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के लिए आगे की राह

  • धार्मिक समानता और सामाजिक न्याय को मजबूत करना: भारत की यह जिम्मेदारी है कि वह धार्मिक अल्पसंख्यकों के हाशिए पर जाने की किसी भी प्रवृत्ति को रोके तथा धार्मिक स्वतंत्रता और समानता की संवैधानिक गारंटी को सुदृढ़ रूप से बनाए रखे।
    • साथ ही, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पर ध्यान केंद्रित करते हुए हाशिए पर स्थित लोगों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रमों तथा सामाजिक सुरक्षा जाल का विस्तार करके समाजवादी सिद्धांतों को सुदृढ़ करना।
  • धार्मिक ध्रुवीकरण का नियंत्रण और समावेशी विकास को बढ़ावा देना: धार्मिक भावनाओं का शोषण करने के लिए राजनीतिक दलों को जवाबदेह ठहराकर धार्मिक ध्रुवीकरण और सांप्रदायिकता को संबोधित करना।
    • साथ ही समावेशी विकास पर ध्यान केंद्रित करना, यह सुनिश्चित करते हुए कि सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्र आर्थिक असमानताओं को कम करना तथा सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान करना।
  • राज्य के हस्तक्षेप और धार्मिक स्वतंत्रता को संतुलित करना: व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए सामाजिक न्याय (जैसे- अस्पृश्यता, बाल विवाह) के लिए हानिकारक धार्मिक प्रथाओं में राज्य के हस्तक्षेप को बनाए रखना।
    • समाजवाद को स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और रोजगार जैसी आवश्यक सेवाएँ प्रदान करने में राज्य के हस्तक्षेप पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, निजी उद्यम में हस्तक्षेप किए बिना आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना चाहिए।
  • समाजवाद को आधुनिक आर्थिक वास्तविकताओं के अनुकूल बनाना: समाजवाद को वैश्विक आर्थिक परिवर्तनों को प्रतिबिंबित करने के लिए विकसित किया जाना चाहिए, आवश्यक सेवाएँ प्रदान करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप के साथ बाजार सुधारों को संतुलित करना चाहिए।
    • समावेशी विकास पर ध्यान केंद्रित करना, जहाँ निजी उद्यम और सार्वजनिक क्षेत्र दोनों सामाजिक समानता तथा आर्थिक न्याय में योगदान करते हैं।
  • धार्मिक तटस्थता सुनिश्चित करना और आर्थिक कल्याण को बढ़ावा देना: राज्य को धार्मिक मामलों में तटस्थ रहना चाहिए, सभी धर्मों के लिए समान व्यवहार सुनिश्चित करना चाहिए।
    • दलितों, आदिवासियों और महिलाओं जैसे हाशिए पर स्थित समुदायों के लिए कल्याणकारी योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए आय असमानताओं को कम करके आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना।
  • सार्वजनिक क्षेत्र और कल्याणकारी राज्य: सार्वजनिक क्षेत्र को निजी क्षेत्र के विकास को प्रोत्साहित करते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और बुनियादी ढाँचे जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में एक आवश्यक भूमिका निभानी जारी रखनी चाहिए।
    • कल्याणकारी राज्य मॉडल को बुनियादी सेवाओं और आर्थिक कल्याण तक सार्वभौमिक पहुँच पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
  • न्यायिक निगरानी और नीति कार्यान्वयन: न्यायिक निकायों को संविधान की बुनियादी विशेषताओं के रूप में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को सुदृढ़ करना जारी रखना चाहिए।
    • ऐसी नीतियों को लागू करना, जो किसी भी समुदाय के हाशिए पर जाने से बचते हुए धार्मिक समानता, आर्थिक कल्याण और समावेशी विकास सुनिश्चित करें।

निष्कर्ष

भारत की धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद, जैसा कि प्रस्तावना में परिलक्षित होता है, इसकी संवैधानिक पहचान के लिए केंद्रीय बने हुए हैं। हालाँकि इनके क्रियान्वयन में चुनौतियाँ हैं, लेकिन ये सिद्धांत विविधतापूर्ण और गतिशील समाज में न्याय, समानता तथा धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए महत्त्वपूर्ण बने हुए हैं।

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