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परिसीमन एवं दक्षिणी राज्य

Lokesh Pal March 01, 2025 03:35 147 0

संदर्भ

संविधान में प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन अनिवार्य है, फिर भी दक्षिणी राज्यों के विरोध के कारण संसदीय सीटों का आवंटन वर्ष 1976 से अपरिवर्तित रहा है।

परिसीमन के बारे में

परिसीमन से संबंधित संशोधन

  • 31वाँ संशोधन अधिनियम, 1973: छह मिलियन से कम आबादी वाले राज्यों को जनसंख्या आधारित परिसीमन अभ्यास से बाहर रखा गया।
  • 42वाँ संशोधन: आपातकाल के दौरान अधिनियमित, इसने वर्ष 2001 की जनगणना तक संसदीय और राज्य विधानसभा सीटों की कुल संख्या को स्थिर कर दिया था।
    • उद्देश्य: इस उपाय से यह सुनिश्चित हुआ कि उच्च जनसंख्या वृद्धि वाले राज्य संसद में प्रतिनिधित्व खोए बिना परिवार नियोजन उपायों को लागू कर सकें।
  • 84वाँ संशोधन अधिनियम (वर्ष 2001): सरकार को वर्ष 1991 की जनगणना के जनसंख्या आँकड़ों के आधार पर प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों को पुनः समायोजित और युक्तिसंगत बनाने का अधिकार दिया गया।
  • 87वाँ संशोधन अधिनियम (वर्ष 2003): इसमें वर्ष 1991 की जनगणना के आधार पर नहीं, बल्कि वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का प्रावधान किया गया।
    • हालाँकि, यह कार्य लोकसभा में प्रत्येक राज्य को आवंटित सीटों की संख्या में परिवर्तन किए बिना भी किया जा सकता है।

  • परिभाषा: परिसीमन एक संवैधानिक आदेश है, जिसे प्रत्येक जनगणना के बाद संसद में सीटों की संख्या और निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को नवीनतम जनसंख्या आँकड़ों के आधार पर समायोजित करने के लिए किया जाता है।
  • संवैधानिक प्रावधान
    • अनुच्छेद-82: यह अनिवार्य करता है कि संसद प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन अधिनियम पारित करे।
    • अनुच्छेद-170: इसके अनुसार प्रत्येक राज्य को अपनी विधानसभा सदस्यों के चुनाव के लिए प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाना चाहिए।
      • ये विभाजन परिसीमन अधिनियम में निर्धारित प्रावधानों के अनुसार किया जाना चाहिए।
  • पिछला परिसीमन: परिसीमन आयोग चार बार स्थापित किए गए हैं: वर्ष 1952, वर्ष 1963, वर्ष 1973 और वर्ष 2002।

परिसीमन आयोग

  • विषय: परिसीमन आयोग एक संवैधानिक निकाय है।
    • जिसका कार्य निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का पुनर्निर्धारण करना और
    • अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटें आवंटित करता है।
  • सदस्यों में शामिल हैं
    • सर्वोच्च न्यायालय का एक एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश।
    • मुख्य चुनाव आयुक्त।
    • संबंधित राज्य चुनाव आयुक्त।
  • शक्तियाँ
    • निर्णय लेना: सदस्यों के बीच मतभेद होने की स्थिति में, बहुमत की राय ही मान्य होती है।
    • कानूनी प्राधिकरण: इसके आदेश वैधानिक होते हैं और न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं होते हैं।

  • विधायी ढाँचा: वर्ष 1952 में परिसीमन आयोग अधिनियम, अधिनियमित किया गया था।
  • आयोग की नियुक्ति: परिसीमन आयोग की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India- ECI) के सहयोग से की जाती है।
  • परिसीमन की आवश्यकता: प्रवास, विकास और जनसांख्यिकीय परिवर्तनों के कारण जनसंख्या वितरण में परिवर्तन होता है।
    • परिसीमन प्रतिनिधित्व में समानता बनाए रखने के लिए इन परिवर्तनों को प्रतिबिंबित करता है।
  • वर्तमान स्थिति: क्षेत्रों के बीच जनसंख्या वृद्धि असमानताओं के बावजूद, संसद और राज्य विधानसभाओं में सीटों की संख्या वर्ष 1976 से अपरिवर्तित बनी हुई है।

किशोरचंद्र छगनलाल राठौड़ वाद, 2024

  • न्यायिक समीक्षा की शक्ति: सर्वोच्च न्यायालय ने परिसीमन आयोग के आदेशों की समीक्षा करने के अपने अधिकार की पुष्टि की, यदि वे स्पष्ट रूप से मनमाने हैं या संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।
  • समीक्षा का सीमित दायरा: जबकि परिसीमन मामलों में न्यायिक समीक्षा आमतौर पर प्रतिबंधित है, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह पूर्ण प्रतिबंध नहीं है।
  • हस्तक्षेप के लिए आधार: न्यायालय तब हस्तक्षेप कर सकता है, जब परिसीमन आदेश स्पष्ट रूप से संवैधानिक मूल्यों और मौलिक सिद्धांतों का विरोधी प्रतीत होता है।

2001 परिसीमन: सीमा परिवर्तन और दक्षिणी विरोध

  • सीमा परिवर्तन: वर्ष 2001 में निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं को पुनर्निर्धारित किया गया।
  • सीट आवंटन अपरिवर्तित: सीमा परिवर्तन के बावजूद, लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में प्रत्येक राज्य के लिए सीटों की संख्या समान रही।
    • कारण: सीटों की मौजूदा संख्या को बरकरार रखने का निर्णय मुख्यतः दक्षिणी राज्यों के विरोध के कारण लिया गया।

परिसीमन को लेकर दक्षिणी राज्यों की आशंका के कारण

  • धीमी जनसंख्या वृद्धि: तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिणी राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है, जिसके परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे उत्तरी राज्यों की तुलना में धीमी वृद्धि हुई है।
    • उदाहरण: आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल ने प्रतिस्थापन स्तर की प्रजनन क्षमता (प्रति महिला 2.1 बच्चे) प्राप्त कर ली है या उसके निकट हैं।
    • आंध्र प्रदेश ने वर्ष 2004 में और केरल ने वर्ष 1988 में ऐसा किया था।
  • प्रतिनिधित्व में कमी का भय: यदि परिसीमन नवीनतम जनसंख्या डेटा पर आधारित है, तो दक्षिणी राज्य संसद में अपनी सीटें खो सकते हैं, जिससे उनका राजनीतिक प्रभाव कम हो सकता है।
  • आरक्षित सीटों का पुनर्आवंटन: परिसीमन की प्रक्रिया से प्रत्येक राज्य में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या में परिवर्तन हो सकता है।
  • आर्थिक असमानताएँ: दक्षिणी राज्य भारत के सकल घरेलू उत्पाद और कर राजस्व में 30% से अधिक का योगदान करते हैं, लेकिन उन्हें डर है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व में कमी के कारण संसाधन आवंटन और नीतिगत लक्ष्य में उपेक्षा हो सकती है।
    • राज्य, कर राजस्व की राजस्व-उत्पादन क्षमता को दर्शाता है। वित्त वर्ष 2022 में, तमिलनाडु 1,26,644 करोड़ रुपये के साथ सबसे आगे रहा, उसके बाद कर्नाटक (1,11,494 करोड़ रुपये), तेलंगाना (92,910 करोड़ रुपये), आंध्र प्रदेश (85,265 करोड़ रुपये) और केरल (71,833 करोड़ रुपये) का स्थान रहा।
  • क्षेत्रीय असंतुलन: दक्षिणी राज्यों का तर्क है कि केवल जनसंख्या के आधार पर परिसीमन से उत्तरी राज्यों को असमान रूप से लाभ होगा, जिससे दक्षिणी राज्यों की राजनीतिक शक्ति में कमी आएगी।
  • क्षेत्रीय दलों पर प्रभाव: दक्षिणी क्षेत्रीय दलों को भय है कि परिसीमन से राष्ट्रीय राजनीति में उनका प्रभाव कमजोर हो जाएगा, क्योंकि उत्तरी राज्य संसद पर प्रभावी हो जाएँगे।
    • वर्तमान में दक्षिणी राज्यों से लोकसभा में सीटों की संख्या 129 है, जो कुल सीटों की संख्या 543 का लगभग 24% है।
  • राष्ट्रीय दलों को लाभ: जिन राजनीतिक दलों का हिंदी पट्टी में मजबूत आधार है, उन्हें उत्तरी राज्यों में प्रतिनिधित्व बढ़ने से काफी लाभ हो सकता है।
  • व्यापक चिंताएँ
    • वृद्ध जनसंख्या: दक्षिणी राज्यों को वृद्ध जनसंख्या की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, जो समय के साथ उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को और कम कर सकता है।
    • संघवाद और समानता: आलोचकों का तर्क है कि केवल जनसंख्या के आधार पर परिसीमन संघवाद और न्यायसंगत प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों को कमजोर करता है, क्योंकि यह आर्थिक रूप से उन्नत राज्यों के योगदान को नजरअंदाज करता है।
    • अपर्याप्त वित्तपोषण
      • जनगणना आधार परिवर्तन: वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों ने चिंताएँ बढ़ा दी हैं।
      • वित्तीय निहितार्थ: दक्षिणी राज्यों को भय है कि वर्ष 1971 से वर्तमान जनगणना के आँकड़ों पर स्थानांतरित करने से फंडिंग कम हो सकती है और संसदीय प्रतिनिधित्व कम हो सकता है।

दक्षिणी राज्यों की प्रतिक्रियाएँ

  • जनसंख्या आधारित परिसीमन का विरोध: तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के नेताओं ने प्रतिनिधित्व और राजनीतिक प्रभाव खोने से संबंधित चिंता जताई है।
  • वैकल्पिक मानदंड की माँग: दक्षिणी राज्य केवल जनसंख्या के बजाय जनसंख्या, आर्थिक योगदान और विकास संकेतकों के संयोजन के आधार पर परिसीमन का समर्थन करते हैं।
  • जनसंख्या वृद्धि को प्रोत्साहित करना: आंध्र प्रदेश जैसे कुछ राज्यों ने अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बनाए रखने के लिए उच्च जन्म दर को प्रोत्साहित करने की नीतियों पर भी विचार किया है।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए केवल जनसंख्या आधारित दृष्टिकोण की कमियाँ

  • सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं की उपेक्षा: केवल जनसंख्या पर ध्यान केंद्रित करने से विभिन्न क्षेत्रों में विविध सामाजिक-आर्थिक संदर्भों की अवहेलना होती है।
  • प्रभावी परिवार नियोजन को दंडित करता है: जिन राज्यों ने जनसंख्या वृद्धि को सफलतापूर्वक नियंत्रित किया है, उनमें प्रतिनिधित्व कम होने का जोखिम है।
  • विकास को कमजोर करता है: जिन क्षेत्रों में विकास में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है, उन्हें आनुपातिक राजनीतिक प्रभाव नहीं मिल सकता है।
  • कम प्रतिनिधित्व की संभावना: “एक व्यक्ति, एक वोट” सिद्धांत धीमी जनसंख्या वृद्धि वाले क्षेत्रों को हानि पहुँचा सकता है।
  • समग्र मानदंडों की आवश्यकता: शिक्षा, आर्थिक विकास और क्षेत्रीय चुनौतियों जैसे कारकों को शामिल करने से एक निष्पक्ष प्रतिनिधित्व प्रणाली का निर्माण हो सकता है।

आगे की राह 

  • संतुलित दृष्टिकोण: परिसीमन में जनसंख्या के साथ-साथ आर्थिक योगदान, कर राजस्व और मानव विकास सूचकांक जैसे कारकों पर विचार किया जा सकता है।
  • सीट वृद्धि की सीमा तय करना: किसी भी राज्य को मिलने वाली सीटों की अधिकतम संख्या को सीमित करने से अत्यधिक असंतुलन को रोका जा सकता है।
  • परिवार नियोजन की पहल को मान्यता देना और पुरस्कृत करना: जिन राज्यों ने परिवार नियोजन कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक लागू किया है, उन्हें मान्यता दी जानी चाहिए और पुरस्कृत किया जाना चाहिए।
  • संघवाद को मजबूत करना: यह सुनिश्चित करना कि जनसंख्या के आकार की परवाह किए बिना, दक्षिणी राज्य राष्ट्रीय निर्णय लेने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँ।

निष्कर्ष

परिसीमन भारत के संघीय ढाँचे और क्षेत्रीय समानता को प्रभावित करता है। इसलिए, निष्पक्ष प्रतिनिधित्व और एकता के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

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