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निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन

Lokesh Pal February 08, 2024 05:50 187 0

संदर्भ

लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के लिए निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन वर्ष 2026 के बाद पहली जनगणना के आधार पर किया जाने का निर्णय लिया गया है।

संबंधित तथ्य

COVID-19 महामारी एवं उसके बाद केंद्र सरकार की ओर से देरी के कारण वर्ष 2021 की जनगणना मूल रूप से स्थगित कर दी गई थी।

परिसीमन आयोग और इसकी संरचना

  • परिसीमन आयोग को राज्य विधानसभा एवं लोकसभा चुनावों के लिए विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं के परिसीमन एवं संशोधन की जिम्मेदारी सौंपी गई है।
  • नियुक्ति: भारत के राष्ट्रपति द्वारा एवं भारत के चुनाव आयोग के सहयोग से कार्य करता है।
  • सदस्य: उच्चतम न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश (अध्यक्ष), मुख्य चुनाव आयुक्त एवं संबंधित राज्य के चुनाव आयुक्त।
  • पूर्ण शक्ति: इसके आदेशों में कानून की शक्ति है और किसी भी अदालत के समक्ष उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है।
    • इसके आदेश लोकसभा और संबंधित विधानसभाओं के समक्ष रखे जाते हैं लेकिन उनमें कोई संशोधन की अनुमति नहीं होती है।

परिसीमन क्या है?

  • किसी देश या विधायी निकाय वाले प्रांत में क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएँ तय करने का कार्य या प्रक्रिया है।
  • परिसीमन का कार्य एक निकाय को सौंपा गया है जिसे परिसीमन आयोग (Delimitation Commission) या सीमा आयोग (Boundary Commission) कहा जाता है।
  • वर्ष 1952, 1962, 1972 और 2002 के अधिनियमों के तहत परिसीमन आयोग चार बार (1952, 1963, 1973 और 2002) स्थापित किए गए हैं।
  • वर्ष 2003 के 87वें संशोधन अधिनियम में 2001 की जनगणना के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का प्रावधान किया गया था। 

आवधिक परिसीमन अभ्यास का महत्त्व

  • आनुपातिक प्रतिनिधित्व बनाए रखना
    • राज्य/केंद्रशासित प्रदेश के सभी निर्वाचन क्षेत्रों में समान जनसंख्या वितरण बनाए रखने के लिए सीमाओं का समायोजन (नवीनतम जनगणना के डेटा का उपयोग करके)।
    • संतुलित चुनावी परिदृश्य: यह चुनाव में सभी राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों को सुनिश्चित करने के लिए क्षेत्रीय प्रभागों के समान आवंटन की गारंटी प्रदान करता है।

परिसीमन आयोग की संवैधानिक आवश्यकता

  • अनुच्छेद-82 के तहत संसद प्रत्येक जनगणना के बाद एक परिसीमन अधिनियम लागू करती है। अधिनियम लागू होने के बाद, परिसीमन आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा यह आयोग, निर्वाचन आयोग के साथ मिलकर कार्य करता है।
  • अनुच्छेद-170 के तहत राज्यों को भी प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन अधिनियम के अनुसार क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है।
  • पर्याप्त प्रतिनिधित्व: अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों के लिए।
    • एक वोट एक मूल्य का सिद्धांत

परिसीमन प्रक्रिया क्यों रुकी हुई है?

  • जनसंख्या नियंत्रण उपायों को प्रोत्साहित करने हेतु
    • सभी संबंधित राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों को समान प्रतिनिधित्व की अनुमति देकर देश के संघीय सिद्धांतों को बनाए रखना।
    • अधिक जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों में सीटों की संख्या अधिक नहीं होती है।

वर्तमान परिदृश्य में परिसीमन से संबंधित मुद्दे

  • जिन राज्यों में पहले से ही अधिक जनसंख्या थी उन राज्यों की तुलना में जिन राज्यों में सुधार हुआ उनमें जनसंख्या विस्फोट हुआ है।
  • जनगणना के आधार पर असंगत परिसीमन: वर्ष 2002-08 में परिसीमन वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर किया गया था, लेकिन सीटों की कुल संख्या वर्ष 1971 की जनगणना के अनुसार निर्धारित की गई थी।
    • वर्ष 2003 के 87वें संशोधन अधिनियम ने वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर परिसीमन की वकालत की, लेकिन यह लोकसभा में प्रत्येक राज्य के लिए सीट आवंटन में बदलाव हेतु बाध्य नहीं था।
  • जनसंख्या नियंत्रण विसंगति: जनसंख्या नियंत्रण में कम रुचि दिखाने वाले राज्य संसद में अधिक संख्या में सीटें हासिल कर सकते हैं।
    • दक्षिणी राज्यों, जिन्होंने परिवार नियोजन पर जोर दिया, को सीट कटौती के जोखिम का सामना करना पड़ा।
  • उत्तर-दक्षिण प्रतिनिधित्व असमानता: अनुमान लगाया है कि परिसीमन होने से उत्तर भारतीय राज्यों को अधिक सीटें मिल सकती हैं, जबकि दक्षिणी राज्यों को नुकसान हो सकता है, जिससे प्रतिनिधित्व में क्षेत्रीय असंतुलन के बारे में चिंता बढ़ गई है।
    • उदाहरण के लिए: पिछली जनगणना के आँकड़ों एवं जनसंख्या अनुमान के आधार पर, वर्ष 2026 में परिसीमन के बाद, बिहार एवं उत्तर प्रदेश में कुल 222 सांसद होंगे, जबकि चार दक्षिण भारतीय राज्यों का लोकसभा में कुल प्रतिनिधित्व 165 होगा।

परिसीमन के संभावित विकल्प

  • वर्तमान लोकसभा प्रतिनिधित्व को बनाए रखने का प्रस्ताव: लोकसभा में सांसदों की संख्या को वर्तमान संख्या 543 तक सीमित की जा सकती है, जिससे विभिन्न राज्यों के वर्तमान प्रतिनिधित्व में कोई व्यवधान नहीं होगा।

राज्य विधायी प्रतिनिधित्व को बढ़ाना: लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता को पूरा करने के लिए प्रत्येक राज्य में विधायकों की संख्या वर्तमान जनसंख्या के अनुरूप (राज्यसभा सीटों की संख्या में बदलाव किए बिना) बढ़ाई जा सकती है।

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