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मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण

Lokesh Pal June 19, 2025 02:25 18 0

संदर्भ

हाल ही में, केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने जोधपुर स्थित ICFRE ‘एरिड फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट’ (AFRI) में ‘मरुस्थलीकरण और सूखे से निपटने के लिए रणनीतियाँ’ विषय पर एक राष्ट्रीय कार्यशाला आयोजित की। यह कार्यशाला विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस के अवसर पर आयोजित की गई थी।

  • केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस पर संशोधित ग्रीन इंडिया मिशन भी जारी किया है।

ग्रीन इंडिया मिशन (GIM) के बारे में

  • ग्रीन इंडिया मिशन (GIM), जिसे ‘ग्रीन इंडिया के लिए राष्ट्रीय मिशन’ के रूप में भी जाना जाता है, जलवायु परिवर्तन पर भारत की राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan on Climate Change-NAPCC) का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
  • इस मिशन का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से निपटने के साथ-साथ भारत के वन क्षेत्र की रक्षा करना, उसे पुनर्स्थापित करना और उसमें वृद्धि करना है।
  • GIM जैव विविधता, जल संसाधनों और मैंग्रोव तथा आर्द्रभूमि जैसे पारिस्थितिकी तंत्रों को बेहतर बनाने पर ध्यान केंद्रित करता है, साथ ही कार्बन को अवशोषित करने में भी मदद करता है।
  • मिशन के लक्ष्य
    • वन/वृक्ष क्षेत्र को 5 मिलियन हेक्टेयर (mha) तक बढ़ाना तथा अन्य 5 mha वन और गैर-वन भूमि की गुणवत्ता में सुधार करना।
    • कार्बन भंडारण, जल प्रबंधन और जैव विविधता जैसी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को बढ़ावा देना।
    • वन-आधारित गतिविधियों से आय बढ़ाकर 3 मिलियन परिवारों की आजीविका में सुधार करना।
  • उप-मिशन: GIM के पाँच उप-मिशन हैं, जिनमें से प्रत्येक हरितीकरण के एक अलग पहलू पर केंद्रित है:-
    • वन क्षेत्र को बढ़ाना: वन गुणवत्ता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं में सुधार करना।
    • पारिस्थितिकी तंत्र का पुनर्स्थापन: वनों की कटाई और वन क्षेत्र में वृद्धि करना।
    • शहरी हरियाली: शहरों और आस-पास के क्षेत्रों में अधिक वृक्षारोपण।
    • कृषि-वानिकी और सामाजिक वानिकी: बायोमास को बढ़ावा देना और कार्बन सिंक बनाना।
    • आर्द्रभूमि का पुनर्स्थापन: महत्त्वपूर्ण आर्द्रभूमि को पुनर्स्थापित करना।

  • वित्तपोषण एवं व्यय
    • जुलाई 2024 तक 17 राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश को 155,130 हेक्टेयर में वृक्षारोपण और पारिस्थितिकी पुनर्स्थापन के लिए 909.82 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। 
    • इस मिशन के तहत 10 वर्षों (2021-30) की अवधि के दौरान 1.0 मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में वनीकरण गतिविधियों के कार्यान्वयन के लिए वित्तीय परिव्यय ₹12,190 करोड़ है।

संशोधित GIM

  • अरावली, पश्चिमी घाट, उत्तर-पश्चिम भारत के शुष्क क्षेत्र, मैंग्रोव और भारतीय हिमालयी क्षेत्र जैसे संवेदनशील परिदृश्यों में हस्तक्षेप करने के लिए एक ‘सूक्ष्म-पारिस्थितिकी तंत्र’ दृष्टिकोण अपनाया जाएगा।
  • लक्ष्य
    • भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) के अनुमानों के आधार पर यह भी अनुमान लगाया गया है कि भारत सभी पुनर्स्थापन गतिविधियों के संयोजन से 3.39 बिलियन टन का कार्बन सिंक हासिल कर सकता है।
    • इसके लिए अनुमानित 24.7 मिलियन हेक्टेयर से अधिक वन और वृक्ष आवरण में वृद्धि की आवश्यकता होगी।
    • वर्तमान में वार्षिक रूप से 2 मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में वनरोपण/वृक्षारोपण किया जा रहा है। इस प्रवृत्ति को जारी रखते हुए वर्ष 2025-30 के दौरान अतिरिक्त 12 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र को हरित आवरण के तहत लाया जाना चाहिए।

अद्यतित मिशन के प्रमुख विषयगत क्षेत्र

  • अरावली पहाड़ियों का पुनरुद्धार: गुजरात से दिल्ली तक 700 किलोमीटर का विस्तार; विश्व की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक।
  • पश्चिमी घाट पुनरुद्धार: गुजरात से तमिलनाडु तक 1,600 किलोमीटर; 34 वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक।
  • हिमालयी ढलान का पुनरुद्धार: मृदा अपरदन को रोकना, भूस्खलन को नियंत्रित करना, वर्षा जल संचयन में सुधार करना।
    • विधियाँ: देशज प्रजातियाँ रोपना।
      • ढलानों को स्थिर करने के लिए अवनालिका मुंहबंदी (Gully Plugging) और समोच्च ट्रेंचिंग जैसी तकनीकें।
  • पूर्वोत्तर में हस्तक्षेप: स्थानीय रूप से उपयुक्त, प्रौद्योगिकियों के साथ झूम कृषि को संबोधित करना।
    • सीबकथॉर्न वृक्षारोपण: पारिस्थितिकी और आजीविका को बढ़ाने के लिए हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, उत्तराखंड और सिक्किम में बढ़ावा देना।
  • शुष्क उत्तर-पश्चिमी भारत: वायु, अत्यधिक चारण, खराब भूमि प्रबंधन, वनस्पति हानि के कारण मृदा अपरदन।
    • रणनीतियाँ
      • वायु रोधक बाड़ लगाना।
      • चारागाहों को नियंत्रित करना, मृदा और जल का संरक्षण करना।
      • वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देना।

विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस के बारे में

  • प्रत्येक वर्ष  17 जून को मनाया जाता है।
  • स्थापना: वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCCD) को अपनाने के उपलक्ष्य में।
  • उद्देश्य: मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे के बारे में जन जागरूकता को बढ़ावा देना और स्थायी भूमि प्रबंधन के लिए कार्रवाई को प्रोत्साहित करना।
  • वर्ष 2025 की थीम: ‘भूमि को पुनर्स्थापित करना। अवसरों का दोहन करना’।

मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण के बारे में

  • भूमि क्षरण वह प्रक्रिया है जिसमें भूमि संसाधनों (जिसमें मृदा, वनस्पति और जल शामिल हैं) की जैविक या आर्थिक उत्पादकता जटिलता मानवीय गतिविधियों या प्राकृतिक प्रक्रियाओं के कारण कम हो जाती है या नष्ट हो जाती है।
  • UNCCD के अनुसार, मरुस्थलीकरण ‘शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों के परिणामस्वरूप होने वाला भूमि क्षरण है।’
    • भारत अपने भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 30% (लगभग 97.85 मिलियन हेक्टेयर) मरुस्थलीकरण की समस्या से जूझ रहा है।

रैंक

राज्य/संघ राज्य क्षेत्र

मरुस्थलीकरण एवं क्षरण के अंतर्गत क्षेत्र (हेक्टेयर में)

1 राजस्थान 21,237,669 हेक्टेयर
2 महाराष्ट्र 14,306,029 हेक्टेयर
3 गुजरात 10,248,057 हेक्टेयर
4 लद्दाख (UT) 7,111,968 हेक्टेयर
5 कर्नाटक 6,959,847 हेक्टेयर

भारत में मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण के प्रमुख कारण

  • वनों की कटाई: कृषि, शहरीकरण और सड़कों तथा उद्योगों जैसी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के कारण वन क्षेत्र में कमी आई। उदाहरण के लिए, वर्ष 1951-1972 से 3.4 मिलियन हेक्टेयर। 
    • वर्तमान वन क्षेत्र (21.7%, ISFR 2023) 33% लक्ष्य से कम है, जिससे मृदा की स्थिरता एवं नमी बरकरार रहती है।
    • लकड़ी काटने और झूम खेती के कारण हिमालय और पूर्वोत्तर में वनों की कटाई अत्यधिक है।
  • अस्थायी कृषि पद्धतियाँ: रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से मृदा की उर्वरता कम हो जाती है। उदाहरण के लिए, पंजाब, हरियाणा। 
    • अत्यधिक सिंचाई से जलभराव और मृदा की लवणता होती है, जिससे 30 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित होती है।
    • पूर्वोत्तर में ‘स्लेश-एंड-बर्न’ कृषि (झूम) मृदा के पोषक तत्वों को नष्ट कर देती है।
  • जलवायु परिवर्तन: बढ़ते तापमान और अनियमित मानसून से सूखे की आवृत्ति बढ़ जाती है (उदाहरण के लिए, मराठवाड़ा, 2023), जिससे मृदा सूख जाती है।
    • बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाएँ (जैसे- केरल, 2018) मृदा की ऊपरी परत को नष्ट कर देती हैं।
    • लंबे समय तक सूखे के कारण वनस्पति आवरण में कमी से रेगिस्तानीकरण में तीव्रता आती है।
  • जनसंख्या दबाव: उच्च जनसंख्या (1.4 बिलियन) भूमि की माँग को बढ़ाती है, जिससे वन और घास के मैदान कृषि भूमि में बदल जाते हैं।
    • बस्तियों और कृषि के लिए सीमांत भूमि पर अतिक्रमण से पारिस्थितिकी तंत्र का क्षरण होता है।
    • संसाधनों का अत्यधिक उपयोग मृदा एवं जल संसाधनों पर दबाव डालता है।
  • शहरीकरण: तीव्र शहरी विस्तार (वर्ष 2050 तक 50% शहरी आबादी का अनुमान) उर्वरता भूमि और आर्द्रभूमि पर अतिक्रमण करता है।
    • निर्माण गतिविधियाँ और कंक्रीटीकरण मृदा की पारगम्यता को कम करते हैं, जिससे अपवाह एवं कटाव बढ़ता है।
  • मृदा क्षरण: हालिया अनुमानों के अनुसार, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र (TGA) का लगभग 33%, अर्थात् लगभग 115 से 120 मिलियन हेक्टेयर (Mha) क्षेत्र, मृदा क्षरण से प्रभावित है।
    • अत्यधिक चारण, एकल फसल और वनस्पति आवरण से यह समस्या उत्पन्न होती है।
  • भारी वर्षा और खराब भूमि प्रबंधन भारत-गंगा के मैदानों जैसे क्षेत्रों में अपरदन को बढ़ाता है।
  • गलत जल संसाधन प्रबंधन: बड़े बांधों (जैसे- भारत-गंगा के मैदानों में) पर अत्यधिक जोर जलभराव और लवणता का कारण बनता है।
    • खराब जलग्रहण प्रबंधन और अपर्याप्त वर्षा जल संचयन भूजल को कम करता है, जिससे मृदा सूख जाती है।
  • औद्योगिक और वायुमंडलीय प्रदूषण: औद्योगिक अपशिष्ट और कारखानों (जैसे- उर्वरक, चमड़ा उद्योग) से अनुपचारित अपशिष्ट मृदा और जल को दूषित करते हैं।
    • SO2, NOx और भारी धातुओं जैसे वायु प्रदूषक मृदा की गुणवत्ता को खराब करते हैं।
    • शहरी अपशिष्ट डंपिंग से शहरी क्षेत्रों में मृदा की उत्पादकता कम हो जाती है।

भारत में मरुस्थलीकरण एवं भूमि क्षरण के प्रभाव

  • कृषि उत्पादकता और खाद्य सुरक्षा में गिरावट: अपरदन और लवणीकरण के कारण ऊपरी मृदा के नष्ट होने से फसल की पैदावार कम हो जाती है।
    • राष्ट्रीय वर्षा आधारित क्षेत्र प्राधिकरण के अनुसार, भारत की 40% कृषि भूमि क्षरित हो चुकी है, जिससे महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे प्रमुख राज्यों में उत्पादकता प्रभावित हो रही है।
    • क्षरण की आर्थिक लागत प्रति वर्ष ₹3.18 लाख करोड़ है, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 2.5% है।
  • ग्रामीण गरीबी एवं आजीविका तनाव में वृद्धि: भारत की 70% से अधिक ग्रामीण आबादी आजीविका के लिए भूमि एवं वनों पर निर्भर है।
    • शुष्क राजस्थान और तेलंगाना के कुछ हिस्सों में, उत्पादकता में कमी से मौसमी पलायन और ऋण चक्र को बढ़ावा मिलता है।
  • जैव विविधता हानि और पारिस्थितिकी तंत्र पतन: मरुस्थलीकरण आवासों को नष्ट कर देता है और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं (जैसे- परागण, बीज प्रसार) को बदल देता है।
    • अरावली और पश्चिमी घाटों में वनों की कटाई और मृदा के कटाव के कारण भारतीय पैंगोलिन और मिरिस्टिका दलदली प्रजातियों जैसे देशज वनस्पतियों एवं जीवों का नुकसान हुआ है।
    • WWF लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट वर्ष 1970 तथा वर्ष 2020 के बीच निगरानी की गई वन्यजीव आबादी में 68% की गिरावट को प्रदर्शित करती है।
  • जल और भूजल की कमी: वनस्पति आवरण और मृदा की छिद्रता का नुकसान वर्षा जल के रिसाव को बाधित करता है।
    • भारत में 60% से अधिक जिले भूजल-तनावग्रस्त हैं (CGWB, 2023)।
  • जलवायु परिवर्तन त्वरण: मृदा के कार्बनिक पदार्थों के नुकसान और वनस्पति आवरण में कमी के कारण क्षरित भूमि अधिक कार्बन उत्सर्जित करती है।
    • भूमि क्षरण भारत में मुख्य रूप से कृषि, वनों की कटाई और बायोमास जलाने से GHG उत्सर्जन (MoEFCC 2022) में 17% का योगदान देता है।
  • प्राकृतिक आपदाओं का बढ़ता जोखिम: क्षारित भूमि पर मृदा अपरदन, भूस्खलन और बाढ़ तीव्र हो जाती है।
    • हिमालयी राज्यों में, क्षरित ढलानों (जैसे- जोशीमठ, हिमाचल) में वृक्षों के नुकसान और अस्थिर मृदा के कारण प्रायः भूस्खलन होता है।
  • सामाजिक-राजनीतिक अस्थिरता और पलायन: भूमि क्षरण के कारण विशेष तौर पर मराठवाड़ा, कच्छ और बुंदेलखंड जैसे शुष्क भूमि क्षेत्रों में संकटपूर्ण पलायन होता है। 
    • पलायन से शहरी बुनियादी ढाँचे पर दबाव पड़ता है तथा अंतर-राज्यीय असमानताएँ बढ़ती हैं। 
    • इससे संवेदनशील क्षेत्रों में भूमि और जल संसाधनों को लेकर संघर्ष भी बढ़ सकता है।

भारत में मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण से निपटने के लिए सरकारी हस्तक्षेप

  • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना (NAP), 2023: SDG लक्ष्य 15.3 (भूमि क्षरण तटस्थता) के साथ संरेखित करने के लिए वर्ष 2001 NAP का अद्यतन संस्करण।
    • लक्ष्य: वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर क्षरित भूमि को पुनर्स्थापित करना।
    • भारत, पेरिस समझौते के अंतर्गत, वर्ष 2030 तक 2.5 से 3 बिलियन टन CO₂ समतुल्य (CO₂ eq) अतिरिक्त कार्बन सिंक सृजित करने के अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों का समर्थन करता है।
  • CAMPA निधि (प्रतिपूरक वनरोपण निधि)
    • इसके लिए उपयोग किया जाता है: क्षरित भूमि पर वनरोपण; वन्यजीव आवास का पुनर्स्थापन; खनन क्षेत्रों में पारिस्थितिकी-पुनर्स्थापन।
    • उदाहरण: CAMPA + GIM राजस्थान, गुजरात, हरियाणा में ‘वन दीवार पहल’ को संयुक्त रूप से वित्तपोषित कर रहा है।
  • राष्ट्रीय वनरोपण कार्यक्रम (National Afforestation Programme-NAP)
    • क्षरित वनों के पुनर्वनीकरण के लिए केंद्र प्रायोजित योजना।
    • संयुक्त वन प्रबंधन समितियों (JFMCs) के माध्यम से कार्यान्वित किया जाता है।
    • सामुदायिक भागीदारी और संधारणीय वन उपयोग पर ध्यान केंद्रित करना।
  • अमृत ​​सरोवर मिशन (2022): भारत में आर्द्रता संतुलन बनाए रखने और जैव विविधता का समर्थन करने के उद्देश्य से 75,000 जल निकायों का पुनर्जीवन (कायाकल्प) किया जाएगा।
    • भारत@75 आजादी का अमृत महोत्सव का हिस्सा।
  • नीति और कानूनी हस्तक्षेप
    • राष्ट्रीय वन नीति (1988): 33% वन क्षेत्र का लक्ष्य।
    • राष्ट्रीय पर्यावरण नीति (2006): संरक्षण-आधारित भूमि उपयोग को बढ़ावा देती है।
    • नई खनिज नीति (1993): खनन से होने वाले पर्यावरण प्रदूषण को कम करने का प्रयास करती है।
  • भारतीय वन अधिनियम (1927) और वन अधिकार अधिनियम (2006): समुदाय-आधारित संरक्षण के लिए कानूनी समर्थन प्रदान करता है।
  • शैक्षणिक और नागरिक अभियान: मिशन लाइफ (पर्यावरण के लिए जीवन शैली) स्थायी भूमि उपयोग के लिए व्यक्तिगत कार्रवाई को बढ़ावा देता है।
    • स्कूल इको-क्लब, वृक्षारोपण अभियान और जागरूकता कार्यक्रम मरुस्थलीकरण शिक्षा से जुड़े हैं।
  • तकनीकी और संस्थागत नवाचार
    • मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस (ISRO, SAC, 2021): जिला स्तर पर परिवर्तनों की निगरानी करता है।
  • राष्ट्रीय वनरोपण निगरानी प्रणाली (National Afforestation Monitoring System- NAMS): वनरोपण प्रयासों का मूल्यांकन करने के लिए GIS/उपग्रह उपकरणों का उपयोग करता है।
  • भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI): वन आवरण और CO2 पृथक्करण प्रवृत्तियों पर द्विवार्षिक रिपोर्ट जारी करता है।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग
    • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UN Convention to Combat Desertification- UNCCD) में भारत की अहम् भूमिका है।
      • वर्ष 2019 में COP14 की मेजबानी की और भूमि पुनर्स्थापन में वैश्विक प्रयासों का नेतृत्व करने का संकल्प लिया।
      • 26 मिलियन हेक्टेयर के पुनर्स्थापन के लिए प्रतिबद्ध।
    • अफ्रीका, मध्य एशिया के साथ पारिस्थितिकी पुनर्स्थापन के मॉडल साझा करने के लिए दक्षिण-दक्षिण सहयोग।
    • COP16 (2024, रियाद): समुदाय द्वारा संचालित पुनर्स्थापन और सूखे से निपटने पर जोर दिया गया।
    • G20 वैश्विक भूमि पहल: वर्ष 2040 तक 50% तक क्षरित भूमि को कम करने के लिए भारत की G20 अध्यक्षता (2022) के साथ संरेखित।

समुदाय-आधारित और राज्य-स्तरीय अभियान

अभियान / परियोजना

विषयगत क्षेत्र

एक पेड़ माँ के नाम नागरिकों की भागीदारी से राष्ट्रव्यापी वृक्षारोपण आंदोलन
मातृ वन माताओं के सम्मान में अरावली में परिवारों द्वारा वृक्षारोपण
हिमाचल वन मित्र योजना हिमालयी ढलानों को पुनर्स्थापित करने के लिए सामुदायिक वन
तेलंगाना का हरिता हरम राज्य के वृक्ष आवरण को राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र के वर्तमान 24% से बढ़ाकर 33% करना।

बहुपक्षीय समझौते और रूपरेखा

  • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNCCD), 1994
    • उद्देश्य: वर्ष 2030 तक भूमि क्षरण तटस्थता (Land Degradation Neutrality- LDN) प्राप्त करना (SDG 15.3 के साथ संरेखित)।
    • भारत ने वर्ष 2019 में नई दिल्ली में COP-14 की मेजबानी की और 26 मिलियन हेक्टेयर क्षरित भूमि को पुनर्स्थापित करने के लिए प्रतिबद्धता जताई।
  • सतत् विकास लक्ष्य (SDGs)
    • SDG 15.3: वर्ष 2030 तक मरुस्थलीकरण से निपटना तथा क्षरित भूमि और मृदा को पुनर्स्थापित करना।
    • SDG 1 (गरीबी उन्मूलन), 2 (भूखमरी उन्मूलन) और 13 (जलवायु कार्रवाई) से जुड़ा हुआ है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्स्थापन पर संयुक्त राष्ट्र दशक (वर्ष 2021-2030): UNEP और FAO की संयुक्त पहल है।
    • लक्ष्य: बड़े पैमाने पर भूमि क्षरण को रोकना।
    • भूदृश्य दृष्टिकोण और पुनर्स्थापन निवेश को बढ़ावा देना।
  • बॉन चैलेंज (2011): वर्ष 2030 तक 350 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को पुनर्स्थापित करने की वैश्विक पहल है।
    • भारत ने वर्ष 2020 तक 21 मिलियन हेक्टेयर और वर्ष 2030 तक अतिरिक्त 5 मिलियन हेक्टेयर भूमि को पुनर्स्थापित करने का संकल्प लिया।

वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाएँ

देश/क्षेत्र

दृष्टिकोण

चीन– लोएस पठार बड़े पैमाने पर वनरोपण और सीढ़ीनुमा कृषि ने बंजर पहाड़ियों को उत्पादक भूमि में बदल दिया।
इथियोपिया– टिग्रे क्षेत्र समुदाय द्वारा संचालित पत्थर की मेड़बंदी, खाई खोदने और जलग्रहण तकनीक ने उत्पादकता को पुनर्जीवित किया।
इजराइल – नेगेव रेगिस्तान ड्रिप सिंचाई, रेगिस्तानी खेती, और लवणमृदा खेती।
कोस्टारिका पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए भुगतान (Payment for Ecosystem Services- PES) से वन क्षेत्र को पुनः प्राप्त करने में मदद मिली।
ब्राजील (सेराडो क्षेत्र) कृषि वानिकी मॉडलों ने पैदावार बढ़ाते हुए कटाव को कम किया।

मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण से निपटने के लिए वैज्ञानिक और सहभागी दृष्टिकोण

वैज्ञानिक दृष्टिकोण

  • सूक्ष्म पारिस्थितिकी तंत्र आधारित पुनर्स्थापन: प्रत्येक भूमि खंड का मूल्यांकन मृदा के प्रकार, देशज प्रजातियों, आर्द्रता प्रोफाइल और भूमि उपयोग के लिए किया जाता है।
    • उदाहरण: राजस्थान में अरावली वन दीवार परियोजना में वायु द्वारा कटाव को रोकने के लिए मृदा-विशिष्ट देशज प्रजातियों का उपयोग किया जाता है।
  • भूदृश्य-स्तरीय योजना: जल प्रतिधारण और वनस्पति विकास को अधिकतम करने के लिए पुनर्स्थापन को पर्वतमाला, ढलानों और घाटियों के साथ डिजाइन किया गया है।
    • वाटरशेड-प्रथम दृष्टिकोण: मृदा-आर्द्रता-वन आवरण संबंधों को एक साथ पुनर्स्थापित किया जाता है।
    • उदाहरण: सुखोमाजरी मॉडल (हरियाणा)एकीकृत वाटरशेड प्रबंधन ने वन पुनर्जनन और जल उपलब्धता में वृद्धि की।
  • सहायक प्राकृतिक पुनर्जनन (Assisted Natural Regeneration- ANR): न्यूनतम बाह्य रोपण के साथ मौजूदा वनस्पति की रक्षा एवं पोषण करता है।
    • उदाहरण: भद्रा और बांदीपुर क्षेत्रों में कर्नाटक के ANR प्रयासों ने न्यूनतम लागत के साथ कैनोपी आवरण में सुधार किया।
  • कृषि वानिकी और सिल्वी-पशुपालन प्रणालियाँ: उत्पादक भूमि उपयोग के लिए कृषि, वानिकी और पशुधन को जोड़ती हैं।
    • उदाहरण: बुंदेलखंड एवं गुजरात में बांस और बबूल आधारित सिल्वी-पशुपालन प्रणालियाँ बंजर भूमि का पुनर्वास करती हैं।

सहभागी दृष्टिकोण

  • संयुक्त वन प्रबंधन समितियाँ (Joint Forest Management Committees- JFMCs): वन-निर्भर समुदायों को वनरोपण, संरक्षण और सतत् कटाई में शामिल करती हैं।
    • MoEFCC के अनुसार, 1.18 लाख से अधिक JFMCs 2.3 करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र का प्रबंधन करते हैं।
  • स्वयं सहायता समूह (SHG) और किसान उत्पादक संगठन (FPOs): नर्सरी विकास, हर्बल खेती और सतत् भूमि प्रथाओं में प्रशिक्षित।
    • उदाहरण: मध्य प्रदेश में, ग्रीन इंडिया मिशन के तहत SHG देशज घास और चारा प्रजातियों का उपयोग करके गाँव की सामान्य भूमि को पुनर्स्थापित करते हैं।
  • जनजातीय और पारंपरिक ज्ञान एकीकरण: पवित्र उपवन (कर्नाटक में देवराकाडु, झारखंड में सरना) जैसी प्रथाएँ प्राकृतिक रूप से जैव विविधता को संरक्षित करती हैं।
  • महिलाओं के नेतृत्व में वनरोपण आंदोलन: महिलाओं के नेतृत्व वाले SHG उत्तराखंड में वन पंचायतों और हरियाणा एवं दिल्ली में मातृ वन पहल का प्रबंधन करते हैं।
    • उदाहरण: एक पेड़ माँ के नाम अभियान ने अरावली में देशज वृक्ष लगाने के लिए लाखों महिलाओं को संगठित किया।

भारत में मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण से निपटने की चुनौतियाँ

  • खंडित संस्थागत ढाँचा और खराब अभिसरण: कई मंत्रालय (पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, जल शक्ति मंत्रालय) बिना किसी सामंजस्य के योजनाओं का क्रियान्वयन करते हैं।
    • एकीकृत परिदृश्य-स्तरीय प्राधिकरण की कमी समन्वित कार्यान्वयन में बाधा डालती है।
    • CAMPA, ग्रीन इंडिया मिशन और मनरेगा के तहत वनरोपण प्रायः बेमेल लक्ष्यों और साझा डेटाबेस की कमी के कारण संघर्ष करते हैं।
  • कमजोर सामुदायिक सहभागिता और स्वामित्व: कई राज्यों में, संयुक्त वन प्रबंधन समितियाँ (JFMC) और ग्राम पंचायतें निष्क्रिय हैं या उनके पास तकनीकी सहायता का अभाव है।
    • स्थानीय भागीदारी के लिए प्रोत्साहन (जैसे- वन उपज से राजस्व, इको-टूरिज्म) कम या विलंबित रहते हैं।
    • बिहार और मध्य प्रदेश में कमजोर लाभ-साझाकरण तंत्र के कारण वन संरक्षण में समुदाय की भागीदारी कम दर्ज की गई है।
  • प्राकृतिक पुनर्जनन में बाधा डालने वाली आक्रामक प्रजातियाँ: प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, लैंटाना कैमरा और पार्थेनियम जैसी प्रजातियाँ अवक्रमित क्षेत्रों में आक्रामक रूप से प्रसारित होती हैं, जिससे स्थानीय जैव विविधता का हनन होता है।
    • पश्चिमी राजस्थान और कर्नाटक के शुष्क वनों पर बड़े पैमाने पर आक्रमण हो रहा है, जिससे सहायक प्राकृतिक पुनर्जनन मुश्किल हो रहा है।
  • आंकड़ों का अभाव और कमजोर निगरानी तंत्र: भूमि क्षरण पर उपग्रह डेटा (जैसे- मरुस्थलीकरण एटलस) को उप-जिला या ब्लॉक स्तर पर लगातार अद्यतित नहीं किया जाता है।
    • मूल कारण का पता लगाना, बायोमास सत्यापन और ‘थर्ड पार्टी ऑडिट’ दुर्लभ हैं।
    • MoEFCC की अपनी समीक्षा में कई राज्यों में NAMS (राष्ट्रीय वनरोपण निगरानी प्रणाली) के खराब रखरखाव की बात कही गई है।
  • नीतिगत उदासीनता और बजटीय सहायता का अभाव: अधिकांश वनरोपण और भूमि पुनर्स्थापन योजनाएँ केंद्र द्वारा प्रायोजित हैं, तथा राज्यों से सीमित निधि प्राप्त होती है।
  • भूमि क्षरण को बुनियादी ढाँचे या शहरी विकास जैसे क्षेत्रों की तुलना में कम प्राथमिकता दी जाती है।

आगे की राह: भारत में मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण से निपटना

  • एकीकृत पुनर्स्थापन ढाँचे के माध्यम से योजनाओं को एकीकृत करना: CAMPA, ग्रीन इंडिया मिशन, PMKSY (वाटरशेड) तथा MGNREGA के तहत प्रयासों को मिलाकर एक एकीकृत मिशन-मोड कार्यक्रम संचालित करना।
    • GIS-आधारित परिदृश्य मानचित्रों (ISRO द्वारा मरुस्थलीकरण एटलस) का उपयोग करके जिला स्तर पर नियोजन को संरेखित करना।
  • सामुदायिक भागीदारी और पारिस्थितिकी-उद्यमिता को प्रोत्साहित करना: जनजातीय और ग्रामीण समुदायों को कार्बन क्रेडिट प्रोत्साहन, वन उपज मूल्य श्रृंखलाएँ और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं (PES) के लिए भुगतान प्रदान करना।
    • नर्सरी विकास, चारा बैंकों और मृदा के पुनर्स्थापन के लिए महिलाओं के नेतृत्व आधारित SHG को बढ़ावा देना।
  • कृषि-पारिस्थितिक भूमि उपयोग और जलवायु-लचीली खेती को बढ़ावा देना: इसमें मुख्य रूप से कृषि वानिकी को मुख्यधारा में लाना, शून्य-बजट प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करना तथा निम्न उपज वाले और क्षतिग्रस्त क्षेत्रों में फसल विविधीकरण को बढ़ावा देना शामिल है।
    • सिल्वी-पशुपालन मॉडल को बढ़ाना और बाजरा, बाँस और कस्टर्ड सेब जैसी रेगिस्तान-संगत फसलों को बढ़ावा देना।
  • प्रौद्योगिकी का उपयोग करके निगरानी को मजबूत करना: वनस्पति, आर्द्रता और स्थलाकृति के लिए उपग्रह-आधारित निगरानी (NAMS, ISRO एटलस के माध्यम से) को बढ़ाना।
    • पुनर्स्थापना परिणामों और प्रारंभिक चेतावनियों की वास्तविक समय निगरानी के लिए AI, ड्रोन और IoT सेंसर तैनात करना।
  • भूमि क्षरण तटस्थता (LDN) के लिए लक्ष्यों को स्थानीयकृत करना: भारत के 26 राष्ट्रीय पुनर्स्थापन लक्ष्य को शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और आदिवासी क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हुए जिला-विशिष्ट कार्य योजनाओं में बदलना।
    • LDN लक्ष्यों को SDG, जलवायु अनुकूलन योजनाओं और ग्राम पंचायत विकास योजनाओं (GPDP) से जोड़ना।
  • शिक्षा और कौशल के माध्यम से क्षमता का निर्माण करना: भूमि पुनर्स्थापन विषयों को स्कूल पाठ्यक्रम, PRI मॉड्यूल और क्षेत्र प्रशिक्षण में एकीकृत करना।
    • युवाओं के लिए राष्ट्रीय ‘इको-रेस्टोरेशन फेलोशिप’ शुरू करना, उन्हें डेटा संग्रह, नर्सरी संचालन और मृदा संरक्षण में शामिल करना।
  • जलवायु और विकास नीति में मरुस्थलीकरण को मुख्यधारा में लाना: GDP गणना, जलवायु भेद्यता सूचकांक और बुनियादी ढाँचा नियोजन उपकरणों में भूमि क्षरण संकेतक शामिल करना।
    • सुनिश्चित करना कि पीएम गति शक्ति, जल जीवन मिशन और स्मार्ट सिटी मिशन के तहत परियोजनाएँ भूमि-तटस्थ मानदंडों को अपनाएँ।

निष्कर्ष

संशोधित ग्रीन इंडिया मिशन (2025) भारत के पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्स्थापित करने, मरुस्थलीकरण से निपटने और वर्ष 2030 तक भूमि क्षरण तटस्थता प्राप्त करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। वैज्ञानिक, भागीदारी और तकनीकी दृष्टिकोणों को एकीकृत करके, इसका उद्देश्य पारिस्थितिक संतुलन और स्थायी आजीविका को सुरक्षित करना है।

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