छत्तीसगढ़ का गेरू स्टूडियो भारत के 4,000 वर्ष पुराने शिल्प-ढोकरा शिल्पकला को संरक्षित करने में सहायता कर रहा है।
ढोकरा शिल्पकला:
माना जाता है कि “ढोकरा” शब्द मध्य भारत के पारंपरिक धातु लोहार ‘ढोकरा दामर’ जनजातियों के नाम से लिया गया है।
प्राचीन शिल्प: यह एक परंपरा है जो 4,000 वर्ष से भी अधिक पुरानी है, जिसे धातु ढलाई के सबसे पुराने ज्ञात तरीकों में से एक माना जाता है।
उत्पत्ति: इसकी उत्पत्ति का पता छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदायों से लगाया जा सकता है, जहाँ यह उनकी सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं के एक अभिन्न अंग के रूप में विकसित हुआ।
तकनीक और प्रक्रिया: इसमें धातु की ढलाई के लिए ‘लॉस्ट-वैक्स तकनीक’, या ‘साइर पर्ड्यू’ (Cire Perdue) का उपयोग किया जाता है।
ढोकरा शिल्पकला की अनूठी प्रक्रिया:
आधार के रूप में ‘मृदा के कोर’ का निर्माण।
मधुमक्खी के मोम को मृदा के ऊपर उकेरा जाता है, जिससे जटिल डिजाइन का निर्माण होता है।
मोम के मॉडल को मृदा में लपेटा जाता है, फिर गर्म किया जाता है, जिससे मोम पिघल जाता है और बाहर निकल जाता है, जिससे मूल मूर्तिकला के आकार में एक रिक्त स्थान का निर्माण होता है।
पिघली हुई धातु, जो आमतौर पर पीतल और कांस्य का संयोजन होता है, इस रिक्त स्थान में डाली जाती है, जो पिघले हुए मोम द्वारा छोड़े गए रिक्त स्थान को भर देती है।
ठंडा होने और जमने के बाद, मृदा के सांचे को तोड़ दिया जाता है, जिससे अंतिम धातु की ढलाई का पता चलता है।
कलात्मकता और डिजाइन: ढोकरा शिल्पकला की सुंदरता ग्रामीण आकर्षण और जैविक रूपांकनों में निहित होती है:
प्रकृति, पौराणिक कथाओं और दैनिक जीवन से ली गई प्रेरणा।
रूपांकनों में जानवर, पक्षी, देवता और आदिवासी प्रतीक शामिल हैं।
लघु मूर्तियों में आभूषण, मूर्तियां और कार्यात्मक वस्तुएं शामिल हैं।
चुनौतियाँ: शहरीकरण और मशीनीकृत उत्पादन तकनीकें इस शिल्प को खतरे में डालती हैं।
घटते कुशल कारीगरों और आधुनिक सामग्रियों के कारण खतरा पैदा हो गया है।
संरक्षण के लिए पहल:सरकारी पहल और एनजीओ के समर्थन से जमीनी स्तर पर ढोकरा शिल्पकला को संरक्षित और पुनर्जीवित करने के प्रयास चल रहे हैं।
इसके अलावा, शिल्पी सहकारी समितियाँ और शिल्प समूह, संसाधन और सहायता प्रदान करते हैं।
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