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सिविल और आपराधिक मामलों के मध्य अंतर

Lokesh Pal August 18, 2025 05:25 5 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने दो ऐसे मामलों में हस्तक्षेप किया है, जिनमें उच्च न्यायालयों ने दीवानी विवादों में आपराधिक कार्यवाही जारी रखने की अनुमति दी थी। भारत की न्याय व्यवस्था में सिविल और आपराधिक कानून के बीच मौलिक अंतर है।

वर्तमान मामलों के बारे में

  • प्रकरण-1 (राजस्थान उच्च न्यायालय): प्लाईवुड भुगतान विवाद से संबंधित मामले में गिरफ्तारी-पूर्व जमानत देने से इनकार के आदेश को पलट दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा “एक बार बिक्री लेन-देन हो जाने पर कोई आपराधिक विश्वासघात नहीं होता है।”
  • प्रकरण-2 (इलाहाबाद उच्च न्यायालय): एक न्यायाधीश ने एक व्यावसायिक लेन-देन विवाद में आपराधिक कार्यवाही की अनुमति दी। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे “चौंकाने वाला” और “न्याय का उपहास” बताया।

सिविल कानून बनाम आपराधिक कानून

पहलू सिविल कानून आपराधिक कानून
उद्देश्य / प्रयोजन व्यक्तियों/संगठनों के बीच विवादों को सुलझाना और अधिकारों/दायित्वों को लागू करना। समाज की रक्षा करना तथा राज्य/समाज के लिए हानिकारक कृत्यों हेतु अपराधियों को दंडित करना।
शामिल पक्ष वादी (शिकायतकर्ता) बनाम प्रतिवादी। राज्य (अभियोजक के माध्यम से) बनाम अभियुक्त।
अपराध की प्रकृति निजी अपराध, जो व्यक्तिगत अधिकारों को प्रभावित करता है। सार्वजनिक अपराध, जो  बड़े पैमाने पर समाज को प्रभावित करता है।
उदाहरण संपत्ति विवाद, अनुबंध का उल्लंघन, तलाक, बच्चे की हिरासत, बकाया राशि की वसूली। चोरी, हत्या, हमला, धोखाधड़ी, बलात्कार, आपराधिक विश्वासघात।
उपाय / परिणाम
  • क्षतिपूर्ति (मौद्रिक मुआवजा)
  • निषेधाज्ञा (कुछ करने या न करने का न्यायालय का आदेश)
  • विशिष्ट निष्पादन।
  • दंड (कारावास, जुर्माना, मृत्युदंड)।
  • समाज का निवारण और संरक्षण।
साक्ष्य का भार संभावनाओं की अधिकता (संभावना न होने की अपेक्षा अधिक)। उचित संदेह से परे (बहुत सख्त मानक)।
आवश्यक प्रमाण का मानक कम → साक्ष्य का संतुलन। उच्चतर → प्रमाण को उचित संदेह को समाप्त करना चाहिए।
मामला कौन प्रारंभ करता है? पीड़ित पक्ष (व्यक्ति/संगठन)। राज्य (पुलिस जाँच या  अभियोजन पक्ष)।
परिणाम / निर्णय प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया जाता है (क्षतिपूर्ति का भुगतान/अदालत के आदेश का पालन की बाध्यता)। अभियुक्त को दोषी करार दिया जाता या बरी कर दिया जाता।
दंड / दायित्व मुआवजा, क्षतिपूर्ति, अधिकारों का प्रवर्तन। कारावास, जुर्माना, सामुदायिक सेवा, या मृत्युदंड।
संहिता सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC), 1908 और विभिन्न सिविल कानून। भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860; दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973।
ओवरलैप कुछ मामले सिविल लग सकते हैं, लेकिन यदि धोखाधड़ी का इरादा मौजूद हो (जैसे, अनुबंध का उल्लंघन + धोखाधड़ी) तो आपराधिक प्रावधान भी लागू हो सकते हैं। उसी कृत्य के नागरिक निहितार्थ भी हो सकते हैं, लेकिन आपराधिकता केवल मेन्स रीआ (Mens Rea) (दोषपूर्ण उद्देश्य) से ही उत्पन्न होती है।

हालिया न्यायिक डेटा (राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड – NJDG, अगस्त 2025)

  • दीवानी मुकदमे: औसत निपटान समय 4.91 वर्ष है, जिनमें से मात्र 37.91% मामलों का निपटान एक वर्ष के भीतर किया गया।
  • आपराधिक मुकदमे: 70.17% एक वर्ष के भीतर निपटाए गए।
  • दीवानी आदेशों का निष्पादन: औसत 3.97 वर्ष।
  • जमानत आवेदन: औसत रूप से 6.12 महीने
  • निहितार्थ: दीवानी मुकदमेबाजी की धीमी गति, वादियों को भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 के आपराधिक प्रावधानों का दुरुपयोग करके विरोधी पक्ष पर समझौते के लिए दबाव डालने के लिए प्रोत्साहित करती है।

संवैधानिक और कानूनी आयाम

  • अनुच्छेद-14 (विधि के समक्ष समता): आपराधिक प्रक्रिया का मनमाना प्रयोग समान संरक्षण को कमजोर करता है।
  • अनुच्छेद-21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार): गलत तरीके से अपराधीकरण व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सीधा उल्लंघन करता है।
  • प्रासंगिक संहिताएँ
    • भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023- आपराधिक अपराधों को परिभाषित करती है।
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023- आपराधिक प्रक्रिया को नियंत्रित करती है।
    • सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC), 1908- सिविल प्रक्रिया को नियंत्रित करती है।
  • BNS, 2023 के अंतर्गत प्रमुख प्रावधान
    • धारा 316: धोखाधड़ी (IPC, 1860 की धारा 420 के अनुरूप)।
    • धारा 337: आपराधिक विश्वासघात (IPC, 1860 की धारा 406 के अनुरूप)।

सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख उदाहरण

  • हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (वर्ष 1992)- दीवानी विवादों में आपराधिक कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित किए।
  • पेप्सी फूड्स लिमिटेड बनाम विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (वर्ष 1998)- स्पष्ट किया कि दीवानी मामलों में आपराधिक कानून का प्रयोग उत्पीड़न के साधन के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।
  • इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन बनाम NEPC (वर्ष 2006)- यह सिद्धांत स्थापित किया गया कि मात्र अनुबंध का उल्लंघन धोखाधड़ी के समकक्ष नहीं माना जा सकता, जब तक कि अनुबंध की शुरुआत में ही धोखाधड़ी का आशय या उद्देश्य विद्यमान न हो।

मुद्दे एवं चिंताएँ

  • न्यायिक अतिक्रमण: उच्च न्यायालय स्थापित कानूनों और सर्वोच्च न्यायालय के उदाहरणों को दरकिनार कर रहे हैं।
  • व्यवसायियों का उत्पीड़न: BNS के आपराधिक प्रावधानों का ऋण वसूली तंत्र के रूप में दुरुपयोग किया जा रहा है।
  • लंबित मामलों का संकट: दीवानी मामलों में देरी से गलत तरीके से अपराधीकरण को बढ़ावा मिलता है।
  • न्यायिक विश्वसनीयता का क्षरण: असंगत निर्णय न्याय प्रणाली में विश्वास को कमजोर करते हैं।

आगे की राह

  • न्यायिक सुसंगतता: उच्च न्यायालयों को सर्वोच्च न्यायालय के उदाहरणों का सख्ती से पालन करना चाहिए।
  • अद्यतन दिशा-निर्देश: भजनलाल मामले में दिए गए दिशा-निर्देश का विस्तार करके आधुनिक वाणिज्यिक विवादों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए।
  • सिविल न्याय सुधार: त्वरित गति आधारित सिविल/वाणिज्यिक न्यायालय स्थापित करना।
    • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR), लोक अदालतों और मध्यस्थता को बढ़ावा देना।
  • विधायी स्पष्टता: वाणिज्यिक विवादों में BNS की धारा 316 (धोखाधड़ी) और 337 (आपराधिक विश्वासघात) के प्रयोग के लिए कठोर सीमाएँ लागू करना।
  • डेटा पारदर्शिता: परीक्षण, अपील और निष्पादन चरणों में समय-सीमा पर निगरानी रखने के लिए NJDG को बेहतर बनाना।

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