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डिजिटल संवैधानिकता

Lokesh Pal December 08, 2025 04:34 8 0

संदर्भ

हाल ही में सरकार ने मोबाइल फोन निर्माताओं के लिए वर्ष 2026 से संचार सहयोगी ऐप को अनिवार्य रूप से प्री-इंस्टॉल करने संबंधी आदेश को वापस ले लिया।

  • भारत सरकार की यह भूमिका तब सामने आई जब अधिकांश हितधारकों ने अस्पष्ट डेटा संग्रहण, सहमति का अभाव, निगरानी और असीमित डेटा भंडारण के बारे में चिंता जताई।

संचार साथी ऐप और हालिया अंक के बारे में

  • यह दूरसंचार विभाग (DoT), संचार मंत्रालय द्वारा विकसित एक नागरिक-केंद्रित दूरसंचार सुरक्षा और उपयोगकर्ता-संरक्षण प्लेटफॉर्म है।
  • मुख्य उद्देश्य: मोबाइल उपभोक्ताओं को अपने उपकरणों और डिजिटल पहचान को सुरक्षित रखने, साइबर-संबंधी धोखाधड़ी से निपटने और चोरी हुए उपकरणों और धोखाधड़ी से प्राप्त सिम जैसे दूरसंचार संसाधनों के दुरुपयोग को कम करने के लिए सशक्त बनाना।
  • मुख्य विशेषता (चक्षु): नागरिकों को संदिग्ध धोखाधड़ी वाले संचार (जैसे- फर्जी कॉल, SMS, या फर्जी नो योर कस्टमर (KYC), वित्तीय धोखाधड़ी, या प्रतिरूपण से संबंधित व्हाट्सएप संदेश) की सक्रिय रूप से रिपोर्ट करने की अनुमति देता है।
  • डिवाइस सुरक्षा: यह डिवाइस को केंद्रीय उपकरण पहचान रजिस्टर (CEIR) के साथ एकीकृत होता है ताकि उपयोगकर्ता डिवाइस के विशिष्ट IMEI नंबर का उपयोग करके सभी दूरसंचार नेटवर्क पर खोए/चोरी हुए मोबाइल फोन को ब्लॉक और ट्रेस किया जा सके।
  • पहचान सत्यापन (TAFCOP): यह ग्राहकों को उनके पहचान प्रमाण के आधार पर उनके नाम पर जारी किए गए मोबाइल कनेक्शनों की सूची की जाँच करने और किसी भी अज्ञात या अनधिकृत नंबर (TAFCOP सेवा के माध्यम से) के डिस्कनेक्शन की रिपोर्ट करने या अनुरोध करने में सक्षम बनाता है।
  • अधिदेश विवाद: दूरसंचार विभाग द्वारा मोबाइल फोन निर्माताओं को सभी नए उपकरणों पर ऐप को अनिवार्य रूप से पहले से इंस्टॉल करने के हालिया आदेश ने एक बड़ी राजनीतिक और कानूनी बहस शुरू कर दी है।
    • आलोचकों ने इसे जासूसी ऐप’ (Snooping App) कहा और तर्क दिया कि यह उपयोगकर्ता की पसंद और सहमति को कम करके निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
  • सरकार द्वारा कदम को वापस लेना: नागरिक समाज, विपक्षी दलों और ऐप्पल जैसी वैश्विक तकनीकी कंपनियों के व्यापक विरोध के बाद, सरकार ने 48 घंटों के भीतर अनिवार्य प्री-इंस्टॉलेशन आदेश को रद्द कर दिया, यह स्पष्ट करते हुए कि ऐप स्वैच्छिक है और उपयोगकर्ताओं को इसे इंस्टॉल करने, हटाने या निष्क्रिय करने की स्वतंत्रता है।

डिजिटल संविधानवाद के बारे में

  • अर्थ और मूल सिद्धांत: डिजिटल संविधानवाद का तात्पर्य मौलिक संवैधानिक मूल्यों  स्वतंत्रता, गरिमा, समानता (गैर-मनमानी सहित), जवाबदेही और विधि के शासन को डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र तक विस्तारित करना है।
    • ऐसे विश्व में, जहाँ प्रौद्योगिकी तेजी से शासन में मध्यस्थता कर रही है, इन सिद्धांतों को नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए डिजिटल प्रणालियों के डिजाइन, तैनाती और विनियमन का मार्गदर्शन करना चाहिए।
  • डिजिटल संविधानवाद की मुख्य विशेषताएँ: डिजिटल संविधानवाद की विशेषताएँ नए अभिकर्त्ताओं, शक्ति के नए रूपों और बहु-स्तरीय शासन पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं।
    • डिजिटल अधिकारों का संरक्षण: यह सुनिश्चित करता है कि निजता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सूचना तक पहुँच जैसे मौलिक अधिकार डिजिटल स्पेस में सुरक्षित रहें, और नागरिकों को राज्य एवंनिजी दोनों पक्षों द्वारा प्रौद्योगिकी के दुरुपयोग से सुरक्षित रखें।
    • डिजिटल प्लेटफॉर्म की जवाबदेही: डिजिटल कंपनियों को उपयोगकर्ता अधिकारों का सम्मान करने, व्यक्तिगत डेटा एकत्र करने, उपयोग करने और साझा करने के तरीके में पारदर्शिता सुनिश्चित करने और भेदभाव व सेंसरशिप से बचने के लिए एल्गोरिदम को विनियमित करने के लिए जवाबदेह बनाता है।
    • डिजिटल संप्रभुता (Digital Sovereignty): यह किसी राष्ट्र के अपने डिजिटल स्पेस पर नियंत्रण पर जोर देता है, जिसमें डेटा निवास कानून, डिजिटल बुनियादी ढाँचे का विनियमन और एक वैश्वीकृत, परस्पर जुड़े डिजिटल वातावरण में नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा शामिल है।
    • न्यायिक निगरानी (Judicial Oversight): यह सुनिश्चित करता है कि न्यायालय संवैधानिक सिद्धांतों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए डिजिटल कानूनों और सरकारी कार्यों की समीक्षा करें और यदि राज्य या कॉर्पोरेट संस्थाओं द्वारा नागरिकों के डिजिटल अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है तो कानूनी उपाय प्रदान करें।
    • डिजिटल समावेशन को बढ़ावा: सभी नागरिकों के लिए डिजिटल संसाधनों तक समान पहुँच सुनिश्चित करता है, डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देता है और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना डिजिटल अर्थव्यवस्था में भागीदारी को सक्षम बनाता है।
    • डिजिटल प्रणालियाँ, जो अब शासन में मध्यस्थता करती हैं: आधुनिक लोक प्रशासन और निजी सेवा वितरण तेजी से इन पर निर्भर हो रहे हैं:-
      • बायोमेट्रिक डेटाबेस (Biometric Databases)
        • आधार (भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण)
        • डिजि यात्रा चेहरा पहचान प्रणाली
          • ये प्रणालियाँ न केवल पहचान प्रमाणित करती हैं बल्कि बड़े पैमाने पर निगरानी करने में सक्षम स्थायी बायोमेट्रिक निशान भी बनाती हैं।
      • स्वचालित और पूर्वानुमानित एल्गोरिदम
        • पूर्वानुमानित पुलिसिंग एल्गोरिदम
        • स्वचालित कल्याण लक्ष्यीकरण प्रणालियाँ
        • वित्तीय संस्थानों द्वारा प्रयुक्त क्रेडिट स्कोरिंग एल्गोरिदम
          • ये उपकरण प्रायः पारदर्शिता या मानवीय अपील तंत्र के बिना कल्याण, पुलिस निर्णयों, वित्तीय अवसरों आदि तक पहुंच का निर्धारण करते हैं ।

डिजिटल संविधानवाद पारंपरिक संविधानवाद से किस प्रकार भिन्न है:

पारंपरिक संविधानवाद राज्य की प्रत्यक्ष कार्रवाइयों जैसे- कानून, कार्यकारी आदेश, पुलिस कार्रवाई  को नियंत्रित करता है तथा सरकारी शक्ति की जांच के लिए न्यायिक समीक्षा पर निर्भर करता है।

  • हालाँकि, डिजिटल संविधानवाद अदृश्य, एल्गोरिथम-संचालित निर्णय लेने से संबंधित है, जहाँ परिणाम मानव अधिकारियों द्वारा नहीं, बल्कि निम्नलिखित द्वारा निर्धारित होते हैं:-
    • पूर्वानुमानित एल्गोरिथम (स्वचालित डेटा संचालित मॉडल, जो व्यवहार या जोखिम का पूर्वानुमान लगाने के लिए पिछले पैटर्न का उपयोग करते हैं, और पुलिसिंग, कल्याण आधारित निर्णयों को प्रभावित करते हैं)।
    • बायोमेट्रिक पहचानकर्ता (अद्वितीय शरीर-आधारित चिह्न-उंगलियों के निशान, आईरिस स्कैन, चेहरे की विशेषताएँ, जिनका उपयोग पहचान प्रमाणीकरण और स्थायी डिजिटल निशान की पहचान के लिए किया जाता है)
    • निरंतर मेटाडेटा संग्रह (व्यवहार संबंधी प्रतीकों जैसे- स्थान लॉग, डिवाइस ID, कॉल रिकॉर्ड, का निरंतर संग्रह जो सामग्री पढ़े बिना उपयोगकर्ता गतिविधि का मानचित्रण करता है)
  • ये प्रणालियाँ पृष्ठभूमि में गोपनीय रूप से कार्य करती हैं, तथा राज्य और निजी शक्ति की एक नई व्यवस्था का निर्माण करती हैं, जिसे विनियमित करने के लिए पारंपरिक संवैधानिक सुरक्षा उपाय निर्मित नहीं किए गए थे।

संविधानवाद के बारे में

  • संदर्भ: यह एक राजनीतिक दर्शन या विचार है कि सरकार का अधिकार मौलिक कानूनों के एक समूह से प्राप्त और सीमित होता है, जिसे आमतौर पर संविधान में संहिताबद्ध किया जाता है।
    • यह एक मूल सिद्धांत है जो सरकारी शक्ति का प्रयोग करने वालों को एक उच्चतर कानून (संविधान) की सीमाओं के अधीन करता है।
    • यह अनिवार्य रूप से व्यक्तियों की सरकार को कानूनों की सरकार में बदल देता है, जिससे राज्य को मनमाने ढंग से कार्य करने से रोका जा सकता है।

संविधानवाद के मूल्य

  • संविधानवाद एक विकासशील विचारधारा है, जिसके सिद्धांत सदियों से निरंकुश शासन के विरुद्ध संघर्षों और आधुनिक लोकतांत्रिक आकांक्षाओं द्वारा आकार लेते रहे हैं।
  • संविधानवाद के मूल मूल्य (19वीं शताब्दी का आधार): संविधानवाद निरंकुश राजतंत्र की प्रतिक्रिया के रूप में उभरा, जिसका उद्देश्य असीमित संप्रभु शक्ति पर लगाम लगाना था। इसके मूलभूत सिद्धांतों में शामिल थे:-
    • लिखित संविधान: एक सर्वोच्च, संहिताबद्ध दस्तावेज जो व्यक्तिगत विवेक के स्थान पर बाध्यकारी नियमों को स्थापित करता है।
    • विधि का शासन: यह विचार कि कोई भी व्यक्ति, यहाँ तक कि संप्रभुता भी विधि से ऊपर नहीं है।
    • शक्तियों का पृथक्करण: सत्ता के संकेंद्रण को रोकने और निरंकुशतापूर्ण (निरपेक्ष) अधिकार का प्रतिकार करने के लिए विधायी, कार्यपालिका और न्यायिक शाखाओं में प्राधिकार का विभाजन।
    • ये मूल्य राज्य को सीमित करने और पूर्वानुमानित, उत्तरदायी शासन स्थापित करने पर केंद्रित थे।
  • संविधानवाद का समकालीन विकास: जैसे-जैसे लोकतांत्रिक विचार परिपक्व हुआ, संविधानवाद का विस्तार सत्ता को सीमित करने से लेकर व्यक्तियों को सशक्त बनाने तक हुआ:-
    • लोकतंत्र एक आधारभूत सिद्धांत के रूप में: लोकप्रिय संप्रभु और प्रतिनिधि संस्थाएँ इसकी प्रमुख विशेषताएँ बन गईं।
    • नकारात्मक से सकारात्मक संविधानवाद की ओर परिवर्तन: राज्य की कार्रवाई को सीमित करने के अलावा, संविधान अब कल्याण और न्याय को बढ़ावा देने के लिए सकारात्मक कर्तव्य भी निर्धारित करते हैं।
    • मौलिक अधिकारों और मानव गरिमा की केंद्रीयता: आधुनिक संविधानवाद स्वतंत्रता, समानता, निरंकुशता को रोकने और गरिमा को प्राथमिकता देता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि राज्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सक्रिय रूप से रक्षा करे।
    • इस प्रकार, आज संविधानवाद केवल सरकार पर नियंत्रण रखने पर नहीं, बल्कि अधिकारों की सुरक्षा और मानव सशक्तिकरण पर केंद्रित है।
  • राज्य-संबंधी’ मिथक का खंडन
    • वैश्वीकरण और डिजिटल शासन ने संवैधानिक मानदंडों को राज्य से आगे बढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, निजी निगमों और डिजिटल प्लेटफॉर्म तक पहुँचा दिया है।
    • इसने एक बहुलवादी, समग्र और खंडित संवैधानिक पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया है, जहाँ जवाबदेही, अधिकारों की सुरक्षा और संवैधानिक नैतिकता जैसे सिद्धांत सीमाओं के पार भी संचालित होते हैं।
    • इसलिए आधुनिक संविधानवाद सुवाह्य है, नए शासन क्षेत्रों के अनुकूल है, और राज्य और गैर-राज्य दोनों प्रकार की शक्तियों को विनियमित करने के लिए आवश्यक है।

भारत में डिजिटल संविधानवाद की आवश्यकता

  • पुट्टस्वामी के बाद का संवैधानिक अधिदेश: न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) एवं अन्य बनाम भारत संघ (2017) मामले में अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निजता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दिए जाने के बाद, सभी राज्य डिजिटल प्रणालियों को आवश्यकता, आनुपातिकता और निष्पक्षता की कसौटियों पर खरा उतरना होगा, जिससे अधिकार-आधारित डिजिटल ढाँचा अपरिहार्य हो जाएगा।
  • प्रौद्योगिकी के विकासात्मक लाभों को मान्यता: डिजिटल प्रणालियों ने बड़ी प्रगति को संभव बनाया है, जैसे कि JAM ट्रिनिटी, जिसने 52 करोड़ लोगों को औपचारिक अर्थव्यवस्था में लाया और कल्याणकारी योजनाओं के रिसाव को ₹2.7 लाख करोड़ तक कम किया, लेकिन अब इन लाभों को एक ऐसे ढाँचे के भीतर संचालित होना चाहिए निजता संबंधी सुरक्षा को समाहित करता हो।
    • JAM ट्रिनिटी (जन धन-आधार-मोबाइल) भारत के डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे को संदर्भित करता है जो लक्षित, पारदर्शी और वास्तविक समय आधारित सार्वजनिक सेवाएँ प्रदान करने के लिए जन धन बैंक खातों, आधार-आधारित पहचान सत्यापन और मोबाइल कनेक्टिविटी को जोड़ता है।
  • भविष्य के लिए संवैधानिक उपाय: चूँकि शासन में डेटा और एल्गोरिदम का उपयोग बढ़ता जा रहा है, इसलिए भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि डिजिटल अवसंरचनाएँ गरिमा, स्वायत्तता, समानता से युक्त हों, जिससे प्रौद्योगिकी मौलिक अधिकारों का हनन किए बिना विकास को समर्थन दे सके।

डिजिटल शक्ति नियंत्रण के वैश्विक उदाहरण

  • यूरोपीय संघ का सामान्य डेटा संरक्षण विनियमन (General Data Protection Regulation-GDPR) ढाँचा: यूरोपीय संघ का सामान्य डेटा संरक्षण विनियमन, एल्गोरिथम संबंधी निर्णयों के लिए स्पष्टीकरण का अधिकार और भूल जाने का अधिकार जैसे मजबूत डिजिटल अधिकार स्थापित करता है, जो डेटा प्रशासन में पारदर्शिता, जवाबदेही और स्वायत्तता को समाहित करता है।
  • यूरोपीय संघ का कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) अधिनियम जोखिम-आधारित मॉडल: यूरोपीय संघ का प्रस्तावित कृत्रिम बुद्धिमत्ता अधिनियम, AI प्रणालियों को जोखिम श्रेणियों में वर्गीकृत करता है, जैसे अस्वीकार्य, उच्च और सीमित जोखिम एवं मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्च-जोखिम वाले अनुप्रयोगों के लिए ऑडिट, मानवीय निगरानी और कठोर अनुपालन मानकों को अनिवार्य करता है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका का राज्य-स्तरीय गोपनीयता ढाँचा: संयुक्त राज्य अमेरिका एक विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण अपनाता है, जहाँ कैलफोर्निया उपभोक्ता गोपनीयता अधिनियम (CCPA) जैसे कानून डेटा संग्रह तक पहुँचने, उसे सही करने, हटाने और ऑप्ट-आउट करने के अधिकार प्रदान करते हैं, लेकिन संघीय गोपनीयता कानून के अभाव के कारण सुरक्षा में व्यापक अंतर होता है।
  • वैश्विक दक्षिण का डिजिटल संप्रभुता परिप्रेक्ष्य: भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं को गोपनीयता संरक्षण और समावेशन में संतुलन स्थापित करना होगा, क्योंकि पश्चिमी मॉडलों को बिना सोचे-समझे अपनाने से वे नागरिक हाशिए पर चले जाएंगे जो आवश्यक सार्वजनिक सेवाओं के लिए आधार से जुडी प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) और अन्य डिजिटल प्रणालियों पर निर्भर हैं।

चुनौतियाँ और चिंताएँ जिनका समाधान आवश्यक है

  • निगरानी का विस्तार और भयावह प्रभाव: डिजिटल निगरानी अब मेटाडेटा, चेहरे की पहचान, डिवाइस ID, लोकेशन लॉग और व्यवहार मॉडलिंग के माध्यम से गोपनी यरूप से कार्य करती है, जिससे भय का माहौल बनता है जो असहमति और लोकतांत्रिक भागीदारी को हतोत्साहित करता है।
    • उदाहरण: वर्ष 2023 में दिल्ली के विरोध स्थलों पर चेहरे की पहचान की सुविधा लागू करने से बड़े पैमाने पर पहचान संभव हुई।
  • कमजोर गोपनीयता सुरक्षा और व्यापक सरकारी छूट: डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023 राज्य को व्यापक छूट प्रदान करता है, जिससे सार्थक सहमति, निगरानी या पारदर्शिता के बिना डेटा संग्रह संभव हो जाता है, जिससे सहमति के लिए अनिवार्य क्लिक-थ्रू’ प्रक्रिया अपनाई जाती है।
    • उदाहरण: पहले कल्याणकारी योजनाओं और मोबाइल नंबरों के साथ आधार को अनिवार्य रूप से जोड़ने के परिणामस्वरूप लाखों लोगों के लिए सहमति अनिवार्य हो गई थी।
  • एल्गोरिथम शासन संबंधी जोखिम: चूँकि AI प्रणालियाँ कल्याणकारी लाभों, पुलिस व्यवस्था, क्रेडिट स्कोरिंग और रोजगार के अवसरों के लिए पात्रता तय करती हैं, इसलिए संवैधानिक मूल्यों को पूर्वाग्रह, मनमानी और अस्पष्ट परिणामों को रोकने के लिए डिजिटल निर्णय लेने की प्रक्रिया को आधार प्रदान करना होगा।
    • उदाहरण: डिजी यात्रा फेशियल रिकग्निशन प्रणाली (2024) ने महिलाओं और अल्पसंख्यक समूहों के लिए अपेक्षाकृत अधिक भ्रामक सकारात्मक परिणाम प्रदर्शित किए, जो एल्गोरिथ्मिक पूर्वाग्रह के व्यापक वैश्विक पैटर्न की पुनर्पुष्टि करते हैं।
    • गोपनीय प्रक्रिया के परिणाम AI या एल्गोरिथम प्रणालियों द्वारा लिए गए ऐसे निर्णयों को संदर्भित करते हैं जहाँ निर्णय के पीछे की प्रक्रिया, तर्क या मानदंड छिपे हुए, अस्पष्ट या व्याख्या करने योग्य नहीं होते हैं।
  • साइबर अपराध का बढ़ता दबाव: वर्तमान सरकारी आँकड़ों के अनुसार, साइबर अपराध के मामले वर्ष 2023 में 15.9 लाख से बढ़कर वर्ष 2024 में 20.4 लाख हो गए हैं, जिससे सरकार को संचार सहयोगी जैसे हस्तक्षेप-आधारित ट्रैकिंग उपकरणों के उपयोग को औचित्य प्रदान करना पड़ा, और इस प्रक्रिया में अनुपात, दायरे और संवैधानिक सुरक्षा उपायों को लेकर गंभीर चिंताएँ उत्पन्न हुई हैं।।
  • राज्य प्रणालियों और बड़ी तकनीकी कंपनियों में सत्ता का संकेंद्रण: सत्ता का संकेंद्रण तकनीकी डिजाइनरों, कानून प्रवर्तन एजेंसियों और निजी कंपनियों के नियंत्रण में होता है। इससे एक असमान स्थिति पैदा होती है जहाँ नागरिक निष्क्रिय डेटा विषय तो होते हैं, लेकिन सक्रिय अधिकार-धारक नहीं होते, जैसा कि उदार लोकतंत्रों में माना जाता है।
    • उदाहरण: वर्ष 2024 के चुनाव चक्र के दौरान प्रमुख प्लेटफार्मों द्वारा अचानक कंटेंट को हटा दिए जाने से पारदर्शी शिकायत तंत्र के बिना पत्रकार और रचनाकार प्रभावित हुए।
  • निगरानी कानून और निरीक्षण तंत्र का अभाव: भारत में न्यायिक वारंट, आनुपातिकता जाँच, संसदीय जाँच या स्वतंत्र लेखा परीक्षा के लिए वैधानिक ढाँचे का अभाव है, जिससे व्यापक निगरानी प्रणालियाँ संवैधानिक सीमाओं के बिना कार्य कर पाती हैं।
    • उदाहरण: CMS (केंद्रीय निगरानी प्रणाली) और नेटग्रिड, जिनका वर्ष 2024 में विस्तार किया जाएगा, एक समर्पित निगरानी कानून के बिना कार्य करना जारी रखते हैं।
  • तकनीकी विफलता के कारण डिजिटल बहिष्कार और अधिकारों का उल्लंघन: बायोमेट्रिक और ऐप-आधारित प्रमाणीकरण पर निर्भरता बुजुर्गों, दिव्यंगों, उंगलियों के अस्पष्ट निशान वाले शारीरिक श्रम करने वालों और कम कनेक्टिविटी वाले क्षेत्रों में रहने वालों को बाहर कर देती है, जिससे कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँच संवैधानिक अधिकारों के स्थान पर दोषपूर्ण तकनीक पर निर्भर हो जाती है।
    • उदाहरण: आधार बायोमेट्रिक विफलताओं के कारण झारखंड के कुछ हिस्सों में राशन देने से इनकार कर दिया गया (2024), जिससे भुखमरी को रोकने के लिए आपातकालीन मैन्युअल सत्यापन करना पड़ा।
  • डिजिटल शासन में संघीय दबाव और कार्यपालिका का अतिक्रमण: केंद्रीकृत डिजिटल निगरानी परियोजनाएँ प्रायः राज्य सरकारों को अस्वीकृत कर देती हैं, और कार्यकारी अधिसूचनाएँ प्रायः संसद को दरकिनार कर देती हैं, जिससे सहकारी संघवाद और शक्तियों का पृथक्करण कमजोर होता है।
    • उदाहरण: संचार सहयोगी पूर्व-स्थापना अधिदेश (2025) ने विधायी बहस को दरकिनार कर दिया और इसे वापस लेने से पहले कई राज्यों की आपत्तियों को उत्तेजित किया।

दार्शनिक आधार- डिजिटल संविधानवाद एक विकास के रूप में:

  • डिजिटल संविधानवाद अतीत से कोई विच्छेद नहीं है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों का एक नई तकनीकी वास्तविकता में स्वाभाविक विस्तार है। जैसे-जैसे दैनिक जीवन ऑनलाइन होता जा रहा है, पुराने एनालॉग आधारित कानूनी ढाँचे डिजिटल शक्ति के नए रूपों के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
  • डिजिटल युग में नए शक्ति असंतुलन:
    • डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र ने शक्ति की नई विषमताएँ पैदा कर दी हैं जिनका पारंपरिक जाँच प्रक्रिया से समाधान नहीं हो सकता।
    • सरकार अब व्यापक निगरानी प्रणालियों के माध्यम से बिग डेटा का संचयन करती है, जिसे प्रायः बढ़ती साइबर अपराध की घटनाओं के संदर्भ में औचित्य प्रदान किया जाता है।
    • बड़ी तकनीकी कंपनियाँ भी अधिकारों और विकल्पों को आकार देती हैं, संचार साथी प्रकरण में एप्पल का प्रतिरोध दर्शाता है कि कैसे निजी कंपनियाँ सार्वजनिक नीति को प्रभावित कर सकती हैं।
  • संवैधानिक सीमाएँ कई स्तरों पर लागू होनी चाहिए
    • आज संवैधानिक सुरक्षा को प्रभावी रूप से विभिन्न स्तरों पर कार्य करना होगा, जिसमें राष्ट्रीय कानून, GDPR जैसे- अंतरराष्ट्रीय नियामक ढाँचे, कॉर्पोरेट नीतियाँ और नागरिक समाज की सक्रियता एक समग्र प्रणाली के रूप में समन्वित हों।।
    • इसलिए भारत की प्रतिक्रिया बहुस्तरीय और समन्वित होनी चाहिए, न कि केवल अदालतों या संसद तक सीमित।
  • मूल संवैधानिक सिद्धांतों की रक्षा
    • इसका उद्देश्य संविधान को पुनः लिखना नहीं है, बल्कि स्वचालित और डेटा-संचालित शासन के युग में इसके मूल सिद्धांतों लोकतंत्र, विधि का शासन और अधिकारों की सुरक्षा को संरक्षित करना है।
    • डिजिटल संविधानवाद, नागरिकों के अधिकारों को भारत के डिजिटल भविष्य के केंद्र में रखते हुए, राज्य और शक्तिशाली निजी अभिकर्ताओं दोनों पर नियंत्रण रखने का प्रयास करता है।

भारत में डिजिटल संविधानवाद को संस्थागत बनाने की दिशा में आगे की राह

  • व्यापक निगरानी कानून: चेहरे की पहचान, मेटाडेटा और एकीकृत डेटाबेस सहित सभी राज्य निगरानी के लिए आवश्यकता, आनुपातिकता, न्यायिक निगरानी और स्वतंत्र ऑडिट को अनिवार्य बनाने वाला एक आधुनिक कानून लागू करना।
  • डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (DPDP) अधिनियम को सुदृढ़ करना: व्यापक सरकारी छूटों को हटाना, उद्देश्य सीमा, डेटा न्यूनीकरण और प्रमुख डेटा उल्लंघनों के लिए सख्त दायित्व लागू करना ताकि वे न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) मामले के गोपनीयता संबंधी अधिदेश के अनुरूप हों।
  • एल्गोरिथमिक जवाबदेही: पुलिसिंग, कल्याण, क्रेडिट स्कोरिंग और सार्वजनिक क्षेत्र के निर्णय लेने में सभी उच्च-जोखिम प्रणालियों के लिए एल्गोरिथमिक प्रभाव आकलन, स्वतंत्र पूर्वाग्रह ऑडिट और मानवीय निगरानी को अनिवार्य करना।
  • स्वतंत्र डिजिटल अधिकार आयोग: उल्लंघनों की जाँच करने, उच्च-जोखिम प्रणालियों का ऑडिट करने और संवैधानिक अनुपालन सत्यापित होने तक प्रायोगिक शक्तियों वाला एक वैधानिक आयोग स्थापित करना।
  • डिजिटल अधिकारों का न्यायिक विस्तार: भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के भाग के रूप में स्पष्टीकरण के अधिकार, मानवीय समीक्षा के अधिकार और समयबद्ध डेटा विलोपन के अधिकार को मान्यता देना, जिससे स्वचालित निर्णयों में निष्पक्षता और गरिमा सुनिश्चित हो सके।
  • संवैधानिक मूल्यों को समाहित करना: सुनिश्चित करना कि सभी डिजिटल शासन भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19(1)(a), अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 300A का सम्मान करते हैं, और वैध, आनुपातिक और पारदर्शी हस्तक्षेपों के लिए अंतरराष्ट्रीय नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर प्रसंविदा (International Covenant on Civil and Political Rights- ICCPR) के अनुच्छेद 17 और अनुच्छेद 19 के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का पालन करते हैं।
  • डिजिटल साक्षरता और नैतिक जागरूकता: डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र में स्वायत्तता, गोपनीयता और सूचित सहमति की सुरक्षा के लिए नागरिक जागरूकता को बढ़ावा देना।
  • तकनीकी मानक और प्रमाणन: प्रयोग से पहले विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए उच्च जोखिम युक्त कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और बायोमेट्रिक प्रणालियों के लिए राष्ट्रीय [(भारतीय मानक ब्यूरो (BIS)] या अंतरराष्ट्रीय [अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (ISO)] मानकों को अपनाना।
  • सीमा पार डेटा प्रवाह और डिजिटल संप्रभुता: अंतरराष्ट्रीय डेटा प्रवाह को विनियमित करना, संवेदनशील नागरिक डेटा को निगरानी और उपचार के लिए भारत के कानूनी अधिकार क्षेत्र में रखना।

निष्कर्ष

डिजिटल प्रौद्योगिकियाँ नागरिकता, सेवाओं, सहभागिता और पहचान को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जैसे-जैसे शासन डेटा-आधारित होता जा रहा है, स्वतंत्रता, समानता और गोपनीयता जैसे संवैधानिक मूल्यों को इसका मार्गदर्शन करना चाहिए। डिजिटल संवैधानिकता यह सुनिश्चित करती है कि प्रौद्योगिकी लोगों की सेवा करे, न कि सत्तावादी नियंत्रण की सहायता करे।

अभ्यास प्रश्न

डिजिटल संवैधानिकता से आप क्या समझते हैं? राज्य-नेतृत्व वाले साइबर सुरक्षा उपायों को नागरिक स्वायत्तता, सहमति और डेटा गोपनीयता से समझौता करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। संचार साथी विवाद के आलोक में इस कथन का परीक्षण कीजिए।

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