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भारतीय हिमालयी क्षेत्र में आपदा प्रबंधन

Lokesh Pal September 20, 2025 03:09 25 0

संदर्भ

वर्ष 2025 मानसून ने बाढ़, क्लाउडबर्स्ट (बादल फटना) और भूस्खलन के माध्यम से हिमालयी राज्यों की संवेदनशीलता को उजागर किया।

  • आपदा प्रतिक्रिया के बावजूद, तत्काल प्रौद्योगिकी-संचालित तैयारी और सामुदायिक लचीलापन, जोखिमों को बढ़ाने के विरुद्ध महत्त्वपूर्ण है।

मानसून संबंधी आपदाएँ हिमालय क्षेत्र में आपदा संबंधी तैयारियों को चुनौती देती हैं:

  • देहरादून एवं उत्तराखंड: फ्लैश फ्लड के कारण उत्तराखंड का धराली गाँव पूरी तरह से नष्ट हो गया; भारतीय सेना ने 400 फुट लंबा केबलवे बनाया, भारतीय वायु सेना के चिनूक विमानों ने उपकरणों को हवाई मार्ग से पहुँचाया; ड्रोन और उपग्रह संचार लिंक ने त्वरित निकासी का मार्गदर्शन किया।
  • जम्मू और कश्मीर: चिनाब-तवी बेसिन में क्लाउडबर्स्ट से 140 से अधिक मौतें हुईं; आपातकालीन बेली ब्रिज की स्थापना और तीर्थयात्रियों के सुरक्षित निकासी के मामलों में भारतीय सेना एवं राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (NDRF) के समन्वय पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया।।
  • पंजाब: रावी, ब्यास और सतलुज नदियों में बाढ़ के कारण विनाशकारी खतरा उत्पन्न हो गया था; राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA)-केंद्रीय जल आयोग (CWC)-भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड (BBMB) के समन्वय और भारतीय सेना विमानों ने माधोपुर हेडवर्क्स के पास लोगों की जान बचाई।
  • हिमाचल प्रदेश: मूसलाधार वर्षा के कारण ढलानों में दरारें आईं; मणिमहेश यात्रा से 10,000 से अधिक तीर्थयात्रियों को निकाला गया; सीमा सड़क संगठन (BRO) ने दुर्गम इलाकों में सड़क संरचना को  पुनर्स्थापित किया।

भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) के बारे में

  • भौगोलिक प्रसार: भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) 13 भारतीय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में विस्तृत है।
    • जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल।
    • यह लंबाई में 2,500 किमी. से अधिक विस्तृत है और भारत के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 16% हिस्सा है।

  • जनसंख्या और विविधता: यहाँ लगभग 50 मिलियन लोग निवास करते हैं।
    • विविध नृजातीय समुदायों जैसे कि लद्दाख के लोग, सिक्किम के भूटिया, तिब्बती बौद्ध और हिमाचल प्रदेश के गद्दी, प्रत्येक अद्वितीय संस्कृतियों, भाषाओं और परंपराओं के साथ निवास करते हैं।
    • बहुलवादी जनसांख्यिकीय, आर्थिक, पर्यावरणीय, सामाजिक और राजनीतिक प्रणालियों के लिए जाना जाता है।

भारतीय हिमालयी क्षेत्र का महत्त्व

  • पारिस्थितिकी महत्त्व: यह एक वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट है, जो दुर्लभ वनस्पतियों और जीवों जैसे कि हिम तेंदुए, रेड पांडा, हिमालयन मोनल और यार्सगुम्बा जैसे औषधीय पौधों का क्षेत्र है।
    • यह भारतीय उपमहाद्वीप की जलवायु को नियंत्रित करता है, मध्य एशियाई पवनों के लिए एक अवरोध के रूप में कार्य करता है, और मानसून पैटर्न को प्रभावित करता है।
  • हाइड्रोलॉजिकल महत्त्व: भारत के ‘वाटर टॉवर’ के रूप में जाना जाता है, यह प्रमुख बारहमासी नदियों (सिंधु, गंगा, यमुना, और ब्रह्मपुत्र) का स्रोत है, लगभग 500 मिलियन लोगों के लिए पेयजल और कृषि, ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति की।
  • आर्थिक महत्त्व: यह क्षेत्र जल विद्युत क्षमता, बागवानी (सेब, केसर, मसाले), पर्यटन और तीर्थ-आधारित अर्थव्यवस्थाओं में समृद्ध है।
    • यह वानिकी, पारंपरिक शिल्प तथा ट्रेकिंग, स्कीइंग और पर्वतारोहण जैसे साहसिक खेलों के माध्यम से आजीविका प्रदान करता है।
  • सांस्कृतिक महत्त्व: भारतीय हिमालयी क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल विद्यमान (जैसे- अमरनाथ, वैष्णो देवी, केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, और मणिमहेश) हैं, जो गहरे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संबंधों को दर्शाते हैं।
    • यह भारत के बहुलवाद तथा विरासत को दर्शाते हुए, लद्दाखियों, भूटिया, तिब्बती बौद्धों और गद्दी जैसे विविध समुदायों का क्षेत्र है।
  • रणनीतिक महत्त्व: भारत की उत्तरी सीमा के रूप में, भारतीय हिमालयी क्षेत्र चीन, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान के साथ सीमा साझा करता है, जिससे यह राष्ट्रीय सुरक्षा तथा सीमा प्रबंधन के लिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
    • भारत के रक्षा और भू-राजनीतिक हितों के लिए लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश जैसे क्षेत्र महत्त्वपूर्ण हैं।

हिमालयन आपदा जोखिम: कारण और प्रोफ़ाइल

प्राकृतिक कारण मानव-प्रेरित कारण संस्थागत और सामाजिक अंतराल
भू-वैज्ञानिक संवेदनशीलता: नवीन वलित पर्वत, अस्थिर ढलान, सक्रिय भ्रंश रेखाएँ (जैसे- धौलागिरी, सिंधु-गंगा)।

  • भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI, 2023): भारत में 70% भूस्खलन हिमालय में होते हैं।
अनियोजित विकास: सड़क चौड़ीकरण, जल विद्युत सुरंग निर्माण, अनियंत्रित पर्यटन, संवेदनशील क्षेत्रों में शहरीकरण का विस्तार हो रहा है। प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली का कमजोर होना: वास्तविक समय आधारित निगरानी में अनियमितता, अलर्ट में देरी (उदाहरण के लिए, उत्तराखंड में  वर्ष 2025 में अचानक बाढ़ का आना)।
भूकंपीय गतिविधियाँ: भूकंपीय क्षेत्र IV और भूकंपीय क्षेत्र V भूकंप के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं, जिससे भूस्खलन और हिमस्खलन की संभावना बनी रहती है। वनों की कटाई और खनन: ढलान की स्थिरता में कमी, मृदा अपरदन, तथा जल निकासी चैनल अवरुद्ध होना। शासन संबंधी  जटिलताएँ: बहु-एजेंसी (जिला, राज्य और केंद्रीय स्तर) समन्वय और प्रतिक्रिया को धीमा कर देता है।
जल-मौसम संबंधी खतरे (Hydro-Meteorological Hazards): क्लाउडबर्स्ट, अचानक बाढ़ और ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (Glacial Lake Outburst Floods- GLOF)।

राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र (NRSC, 2022): 329 संभावित खतरनाक हिमनद झीलों का मानचित्रण किया गया।

नदी तल और बाढ़ के मैदानों में अतिक्रमण: इससे जोखिम बढ़ता है (उदाहरण के लिए, वर्ष 2025 में धराली में बाढ़ का आना)। स्वास्थ्य सेवा और संसाधन अंतराल: दूरस्थ, हाशिए पर स्थित समुदायों में चिकित्सा अवसंरचना और लचीलापन क्षमता का अभाव है।
जलवायु परिवर्तन गुणक: वैश्विक औसत से दोगुनी तापमान वृद्धि, हिमनदों का संकुचन, अस्थिर झीलें और अनियमित मानसूनी वर्षा।

  • भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD, 2023): उत्तराखंड में वर्ष 2010 से क्लाउडबर्स्ट की घटनाओं में 200% की वृद्धि (उदाहरण के लिए, देहरादून में वर्ष 2025 में रिकॉर्ड वर्षा दर्ज की गई)।
तीर्थयात्रा का दबाव: संवेदनशील मार्गों (चार धाम, गंगोत्री) पर अत्यधिक भीड़ का बढ़ना। जन जागरूकता में कमी: नागरिक प्रायः चेतावनियों को नजरअंदाज कर देते हैं; मॉक ड्रिल का प्रयोग नहीं होता है

हिमालयी आपदा रोधी तैयारी और पुनर्प्राप्ति में प्रणालीगत कमियाँ

  • पूर्वानुमानित निगरानी अंतराल: राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र (National Remote Sensing Centre- NRSC) या भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण (Geological Survey of India- GSI) द्वारा हिमनद झीलों, ढलान अस्थिरता और मलबे के प्रवाह की निरंतर निगरानी नहीं की जाती है।
    • नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG, 2023) ने उपग्रह-आधारित जोखिम मानचित्रण के कम उपयोग को चिह्नित किया है।
  • नागरिकों की सीमित तैयारी: वर्ष 2025 के मानसून के दौरान 1 करोड़ से अधिक लघु संदेश सेवा (Short Message Service- SMS) अलर्ट के बावजूद, निकासी मार्गों, राहत आश्रयों और मानक संचालन प्रक्रियाओं (Standard Operating Procedures- SOPs) के बारे में जागरूकता कम है, खासकर गंगोत्री जैसे तीर्थ गलियारों में।
  • अनियंत्रित विकास: नदी तलों में निर्माण, सड़क परियोजनाओं से ढलानों का अस्थिर होना और भूकंपीय नियमों की अवहेलना आपदा जोखिमों को बढ़ा देती है।
    • हाल ही में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में आई बाढ़ ने संवेदनशील ढलानों पर बनी कई संरचनाओं के ढहने का खुलासा किया है।
  • आपदा के बाद पुनर्वास की चुनौतियाँ: सड़कों और पुलों के पुनर्निर्माण में प्रायः ढलान स्थिरीकरण की अनदेखी की जाती है, जबकि मुआवजे में देरी से प्रभावित समुदायों का समय पर पुनर्वास बाधित होता है।

भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) में आपदा जोखिमों को कम करने के लिए प्रमुख सरकारी पहल

  • राष्ट्रीय स्तर की रूपरेखाएँ
    • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (National Disaster Management Plan- NDMP, 2019) पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियों पर विशेष ध्यान देते हुए, आपदा की तैयारी, शमन, प्रतिक्रिया और पुनर्प्राप्ति के लिए एक व्यापक ढाँचा प्रदान करती है।
    • राष्ट्रीय भूस्खलन जोखिम शमन परियोजना (NLRMP) जोखिम क्षेत्र मानचित्रण, ढलान स्थिरीकरण और संवेदनशील हिमालयी ढलानों में पूर्व चेतावनी तंत्रों की स्थापना के लिए समर्पित है।
    • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) ने ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOFs) के लिए दिशा-निर्देश और एक मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) जारी की है, जिसमें आपदा-पूर्व तैयारी, वास्तविक समय प्रतिक्रिया और आपदा-पश्चात पुनर्प्राप्ति उपायों को शामिल किया गया है।
  • सामुदायिक-केंद्रित पहल
    • आपदा मित्र योजना (Aapda Mitra Scheme) आपदा-प्रवण जिलों में नागरिकों को प्रथम प्रतिक्रियाकर्ता के रूप में कार्य करने हेतु प्रशिक्षित करके स्थानीय स्वयंसेवी क्षमता का निर्माण करती है।
    • केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change- MoEFCC) के अंतर्गत राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन (2015) सतत् संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण-उद्यमिता और समुदाय-नेतृत्व वाली सुदृढ़ता निर्माण का समर्थन करता है।
    • विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science and Technology- DST) द्वारा वित्तपोषित हिमालयी पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संगठन जैसे नागरिक समाज संगठन जागरूकता अभियान, आजीविका विविधीकरण और पारिस्थितिकी तंत्र बहाली के प्रयासों को बढ़ावा देते हैं।
  • वैज्ञानिक अनुसंधान और ग्लेशियर निगरानी
    • हिमालयी हिमनदों के अध्ययन के लिए पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES), विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST), केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, खान मंत्रालय (MoM) और जल शक्ति मंत्रालय (MoJS) द्वारा कई शोध कार्यक्रमों का समर्थन किया जाता है।
      • हिमनदों के आकार में कमी आने संबंधी आँकड़े
        • हिंदू कुश हिमालय: हिमनद के संकुचन की औसत दर 14.9 ± 15.1 मीटर/वर्ष।
        • सिंधु बेसिन: हिमनद के संकुचन की औसत दर  12.7 मीटर/वर्ष।
        • गंगा बेसिन: हिमनद के संकुचन की औसत दर  15.5 मीटर/वर्ष।
        • ब्रह्मपुत्र बेसिन: हिमनद के संकुचन की औसत दर  20.2 मीटर/वर्ष।
      • संचयी द्रव्यमान हानि: वर्ष 1975 से वर्ष 2023 के बीच, भारतीय हिमालय के ग्लेशियरों में द्रव्यमान के बराबर (सकल) -26 मीटर के स्तर तक जल की हानि हुई।
      • काराकोरम विसंगति (Karakoram Anomaly): अन्य क्षेत्रों के विपरीत, काराकोरम ग्लेशियरों में -1.37 ± 22.8 मीटर/वर्ष की दर से नगण्य गिरावट देखी गई है।
  • क्षेत्र-आधारित निगरानी और बुनियादी ढाँचा
    • राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं महासागर अनुसंधान केंद्र ( NCPOR) वर्ष 2013 से चंद्रा बेसिन (पश्चिमी हिमालय) में छह ग्लेशियरों की निगरानी कर रहा है।
    • चंद्रा बेसिन में वर्ष 2016 से कार्यरत उन्नत अनुसंधान केंद्र ‘हिमांश‘ दीर्घकालिक क्षेत्रीय प्रयोगों और अभियानों को सुगम बनाता है।
  • समन्वय के लिए संस्थागत तंत्र
    • केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय (MoJS) द्वारा वर्ष 2023 में विभिन्न मंत्रालयों और अनुसंधान संगठनों में ग्लेशियर अध्ययनों के समन्वय हेतु ग्लेशियरों की निगरानी हेतु एक संचालन समिति की स्थापना की गई थी।
    • भारतीय हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन और जल संसाधनों पर एकीकृत अनुसंधान करने के लिए राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (NIH), रुड़की (2023) में क्रायोस्फीयर और जलवायु परिवर्तन अध्ययन केंद्र (Cryosphere and Climate Change Studies- C4S) की स्थापना की गई थी।

संबद्ध वैश्विक पहल

  • आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु सेंडाई फ्रेमवर्क (Sendai Framework for Disaster Risk Reduction) (2015-2030): जोखिम मूल्यांकन, अनुकूलन निर्माण और पूर्व चेतावनी का आह्वान करता है।
  • पेरिस समझौता (2015): जलवायु-जनित आपदाओं के विरुद्ध अनुकूलन और लचीलापन को प्रोत्साहित करता है।
  • आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना गठबंधन (Coalition for Disaster Resilient Infrastructure- CDRI) (2019): जलवायु और आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना के लिए भारत के नेतृत्व वाली वैश्विक साझेदारी सुनिश्चित करता है।
  • आपदा प्रबंधन और आपातकालीन प्रतिक्रिया हेतु अंतरिक्ष-आधारित सूचना हेतु संयुक्त राष्ट्र मंच (United Nations Platform for Space-based Information for Disaster Management and Emergency Response/ UN-SPIDER): आपदा प्रबंधन और आपातकालीन प्रतिक्रिया के लिए अंतरिक्ष-आधारित सूचना प्रदान करता है।

हिमालयी अनुकूलन का समर्थन करने वाले अन्य कार्यक्रम

  • हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय मिशन (National Mission for Sustaining the Himalayan Ecosystem- NMSHE): जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) के अंतर्गत शुरू किया गया यह मिशन ग्लेशियरों, जैव विविधता और पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों की सुरक्षा पर केंद्रित है।
    • यह हिमालयी राज्यों के लिए विशिष्ट पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं, जलवायु संवेदनशीलता और अनुकूलन प्रथाओं पर अनुसंधान को वित्तपोषित करता है।
  • भारतीय हिमालय जलवायु अनुकूलन कार्यक्रम (Indian Himalayas Climate Adaptation Programme- IHCAP): भारत और स्विट्जरलैंड के मध्य एक सहयोगात्मक पहल, IHCAP हिमालयी राज्यों में क्षमता निर्माण, जलवायु संवेदनशीलता आकलन और विज्ञान-आधारित नीति एकीकरण का समर्थन करता है।
    • यह ग्लेशियर निगरानी और आपदा तैयारी पर समुदाय-केंद्रित अनुकूलन और ज्ञान के आदान-प्रदान पर जोर देता है।
  • SECURE हिमालय परियोजना (SECURE Himalaya Project): केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) और वैश्विक पर्यावरण सुविधा (GEF) के सहयोग से कार्यान्वित, यह परियोजना अल्पाइन चरागाहों के सतत् प्रबंधन, जैव विविधता संरक्षण और आजीविका विविधीकरण को बढ़ावा देती है।
    • यह हिमालयी समुदायों के लिए पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण को अनुकूलन से जोड़ता है।
  • एकीकृत हिमालयी विकास कार्यक्रम (Integrated Himalayan Development Program- IHDP): यह पहल भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) में समग्र विकास पर जोर देती है, जिसमें बुनियादी ढाँचे का निर्माण, पारिस्थितिकी संतुलन और आजीविका सुरक्षा को एकीकृत किया जाता है।
    • यह आपदा जोखिम न्यूनीकरण को दीर्घकालिक सतत् विकास लक्ष्यों के साथ संरेखित करता है।
  • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan on Climate Change- NAPCC): व्यापक NAPCC रणनीतिक ढाँचा प्रदान करता है, जिसके अंतर्गत NMSHE और राज्य-स्तरीय कार्य योजनाएँ जैसे मिशन कार्य करते हैं।
    • इसका उद्देश्य जलवायु अनुकूलन और आपदा जोखिम न्यूनीकरण को शासन की मुख्यधारा में लाना है, और हिमालय को पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील और प्राथमिकता वाले क्षेत्र के रूप में मान्यता दी गई है।

आगे की राह

  • बड़े पैमाने पर प्रौद्योगिकी का विस्तार
    • भौगोलिक सूचना प्रणाली (Geographic Information System- GIS)-आधारित जोखिम मानचित्रण: जिला-स्तरीय योजना में भूस्खलन, बाढ़ और हिमनद जोखिम का अनिवार्य एकीकरण करना।
    • कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI)-संचालित पूर्वानुमान: अचानक बाढ़ (फ्लैश फ्लड) और क्लाउडबर्स्ट के पूर्वानुमान के लिए स्थानीय जल-मौसम संबंधी आँकड़ों पर प्रशिक्षित AI मॉडल का उपयोग।
    • 24×7 दूरस्थ निगरानी: NRSC हिमनद झीलों, हिम-पिघलने और मलबे के प्रवाह की निरंतर निगरानी रखेगा; वास्तविक समय में ढलान निगरानी के लिए ड्रोन की तैनाती की गई है।
    • प्रभावी डॉपलर रडार नेटवर्क (Dense Doppler Radar Network): चेतावनी के लिए समय में सुधार हेतु हिमालयी घाटियों में विस्तार किया जाना चाहिए।
    • भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण को मृदा अवशोषण और ढाल के आधार पर भूस्खलन मानचित्रण का विस्तार करना चाहिए।
  • संस्थागत और शासन सुदृढ़ीकरण
    • व्यावसायिक आपदा संवर्ग: राज्य और जिला स्तर पर विशिष्ट आपदा प्रबंधन के लिए तकनीकी रूप से प्रशिक्षित कार्यबल की स्थापना।
    • नागरिक समाज का एकीकरण: आपदा प्रबंधन योजनाओं में गैर-सरकारी संगठनों (NGO), पंचायतों और निवासी कल्याण संघों (RWA) को शामिल करना।
    • निर्माण निषेध क्षेत्रों का प्रवर्तन: भूकंपीय संहिताओं का कड़ाई से पालन, ढलान-संवेदनशील इंजीनियरिंग और नदी तल में निर्माण पर प्रतिबंध।
  • सामुदायिक-केंद्रित तैयारी
    • आपदा मित्र का विस्तार: स्कूलों, कॉलेजों और स्थानीय निकायों में स्वयंसेवी प्रशिक्षण कार्यक्रमों की व्यापक पहुँच।
    • अनिवार्य मॉक ड्रिल: तैयारी संस्कृति को मजबूत करने के लिए तीर्थ नगरों और उच्च जोखिम वाली घाटियों में नियमित अभ्यास करना।
    • नागरिक साक्षरता: आपदा रोधी अभियानों को मतदान या कर भुगतान के समान नागरिक जिम्मेदारी माना जाएगा।
  • अनुकूलन और पुनर्निर्माण
    • बेहतर पुनर्निर्माण: ढलान स्थिरीकरण के साथ सड़कों का पुनर्निर्माण, नदी तटबंधों को सुदृढ़ बनाना और अवैध खनन पर अंकुश लगाना।
    • स्थायी अवसंरचना: विकास के लिए हरित प्रौद्योगिकियों और ढलान-संवेदनशील निर्माण पद्धतियों के उपयोग को प्रोत्साहित किया गया।
    • तीर्थयात्रा गलियारा सुरक्षा: तीर्थयात्रियों की आवाजाही का मौसमी नियमन और सुरक्षा के लिए ड्रोन, सेंसर तथा उपग्रह निगरानी का उपयोग।

निष्कर्ष

हिमालयी क्षेत्र के सतत् विकास की आधारशिला लचीलापन होना चाहिए। सेंडाई फ्रेमवर्क के अनुसार, ‘आपदाएँ प्राकृतिक नहीं होतीं, बल्कि समाज में अंतर्निहित जोखिम का परिणाम होती हैं।’ इसलिए, तकनीक-संचालित एवं सामुदायिक सहभागितापूर्ण ढाँचे का निर्माण SDG-11 (सतत् शहर और समुदाय) एवं SDG-13 (जलवायु कार्रवाई) के अनुरूप आवश्यक है।

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