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भारत में दहेज हत्या

Lokesh Pal July 21, 2025 02:47 21 0

संदर्भ

 पिछले तीन महीनों में पूरे भारत में दहेज से संबंधित मौतों के विभिन्न मामले सामने आए हैं।

  • उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, चंडीगढ़ और दिल्ली की हालिया घटनाएँ इस गंभीर वास्तविकता को उजागर करती हैं – दहेज की माँग के कारण युवा महिलाओं को उत्पीड़न, हमले और यहाँ तक कि मृत्यु का सामना करना पड़ रहा है।

दहेज और दहेज हत्या

  • दहेज: दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के अनुसार, ‘दहेज’ को किसी भी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दी जाती है या देने पर सहमति होती है:
    • विवाह के एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को।
    • किसी भी पक्ष के माता-पिता या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा, विवाह के समय, उससे पूर्व या बाद में, विवाह के संबंध में, किसी भी पक्ष या किसी अन्य व्यक्ति को।
  • दहेज हत्या: भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita- BNS) की धारा 80 (पूर्व में आईपीसी धारा 304 B) के अनुसार, शादी के सात वर्ष के भीतर जलने, शारीरिक चोट या अप्राकृतिक परिस्थितियों में हुई महिला की मृत्यु को दहेज हत्या के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
    • यह वर्गीकरण तब लागू होता है, जब यह स्थापित हो जाता है कि उसकी मृत्यु से कुछ समय पहले दहेज की माँग के संबंध में उसके साथ क्रूरता या उत्पीड़न किया गया था।
    • दंड: न्यूनतम 7 वर्ष का कठोर कारावास, जो आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।

भारत में दहेज प्रथा का विकास

  • प्राचीन प्रथाएँ: दहेज की शुरुआत वधू को स्वैच्छिक उपहार देने की प्रथा के रूप में हुई थी, जिसका उद्देश्य उसे वित्तीय सहायता प्रदान करना था।
    • कन्यादान: एक धार्मिक प्रथा, जिसमें वधू का पिता स्वेच्छा से उसे विवाह में उपहारों के साथ वर के परिवार को सौंप देता था। ये प्रतीकात्मक माँगें थीं, न कि जबरदस्ती की गई माँगें।
    • स्त्रीधन: वधू को दी जाने वाली संपत्ति, वस्त्र या आभूषण, जिन्हें विवाह के बाद उसकी एकमात्र वित्तीय सुरक्षा माना जाता था।
    • ऐतिहासिक विवरण, जैसे कि यात्री मेगस्थनीज (300 ईसा पूर्व में इंडिका) द्वारा लिखे गए, बताते हैं कि प्राचीन भारत में दहेज एक सामान्य या बलात् प्रथा नहीं थी; उपहार आमतौर पर स्नेह से दिए जाते थे, दबाव से नहीं।
  • मध्यकाल में परिवर्तन: दहेज प्रथा का प्रचलन बढ़ गया, विशेषतः शाही और उच्च जाति के परिवारों में। बाल विवाह जैसी प्रथाएँ भी बढ़ीं, जिससे व्यवस्था और भी कठोर हो गई।
  • ब्रिटिश शासन और जबरदस्ती का उदय: ब्रिटिश कानूनी सुधारों ने अनजाने में दहेज प्रथा को औपचारिक रूप दे दिया, विशेषतः उच्च वर्ग के विवाहों में।
    • संपत्ति के अधिकारों का ह्रास: एक महत्त्वपूर्ण कारक यह था कि महिलाओं को प्रायः जमीन का स्वामित्व या उत्तराधिकार नहीं दिया जाता था। दहेज तब एक प्रतिपूरक व्यवस्था बन गई, जो संपत्ति के अधिकारों के अभाव में बेटियों के लिए प्रावधान करती थी।
    • दान से माँग तक: जो कभी स्वैच्छिक दान था, वह धीरे-धीरे एक अनिवार्य माँग में बदल गया। वर के परिवार स्पष्ट रूप से धन, सामान या जमीन की माँग करने लगे, जिससे वधू के परिवारों पर भारी दबाव पड़ा। उच्च सामाजिक या जातिगत स्थिति (हाइपरगैमी) में विवाह करने की आकांक्षा ने इन माँगों को और बढ़ावा दिया।
  • स्वतंत्रता के बाद वृद्धि: भारत की स्वतंत्रता के बाद यह समस्या और भी विकट हो गई। वर्ष 1940 से पहले, अनुमानतः 35-40% विवाहों में दहेज शामिल था। वर्ष 1975 तक, यह आँकड़ा लगभग 90% तक पहुँच गया था, और दहेज की माँग लगातार बढ़ती जा रही थी।
    • बढ़ती हिंसा: इन बढ़ती माँगों को पूरा करने में असमर्थता के कारण प्रायः गंभीर दुर्व्यवहार, उत्पीड़न और यहाँ तक कि मौतें भी होती हैं, जिन्हें प्रायः दुर्घटनाओं या आत्महत्याओं के रूप में छिपाया जाता है।

कड़वी सच्चाई: दहेज हत्याओं के आँकड़े

  • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau- NCRB) डेटा (वर्ष 2017-2022): भारत में प्रतिवर्ष औसतन 7,000 दहेज हत्याएँ होती हैं, हालाँकि व्यापक रूप से कम रिपोर्टिंग के कारण वास्तविक आँकड़े बहुत अधिक होने की संभावना है।
    • केवल वर्ष 2022 में, राष्ट्रीय स्तर पर 6,450 दहेज हत्याएँ दर्ज की गईं। चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से 80% उत्तर प्रदेश (सबसे अधिक), बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में हुईं।
    • शहरी हॉटस्पॉट: प्रमुख शहरों में दहेज से होने वाली सभी मौतों में से 30% दिल्ली में हुईं, इसके बाद कानपुर, बंगलूरू, लखनऊ और पटना का स्थान है।
    • हत्या का प्रमुख कारण दहेज: वर्ष 2017 और वर्ष 2022 के बीच 6,100 से अधिक हत्याओं का मुख्य कारण दहेज था, जिनमें से 60% पश्चिम बंगाल, ओडिशा और बिहार में केंद्रित थीं।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women- NCW) के आँकड़े (वर्ष 2024): राष्ट्रीय महिला आयोग में दहेज उत्पीड़न के 4,383 मामले दर्ज किए गए, जो प्राप्त कुल शिकायतों का 17% है। इसके अतिरिक्त, दहेज हत्या के 292 मामले दर्ज किए गए।
    • चिंताजनक बात यह है कि दहेज से संबंधित इन हत्याओं में से 60% से अधिक केवल तीन राज्यों: पश्चिम बंगाल, ओडिशा और बिहार में हुईं।

दहेज हत्या के मूल कारण

  • सांस्कृतिक और सामाजिक कारक
    • सांस्कृतिक अधिकार और परंपराएँ: वर्ष 1961 से अवैध होने के बावजूद, दहेज आज भी जारी है, जिसे प्रायः “उपहार” या स्त्रीधन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। एक लड़की की कीमत उसके द्वारा लाए गए दहेज से गलत तरीके से आँकी जाती है, जिससे यह हानिकारक प्रथा कायम रहती है।
    • पितृसत्ता और लैंगिक असमानता: महिलाओं को प्रायः आर्थिक बोझ समझा जाता है। पितृसत्तात्मक मानसिकता दहेज की माँग पूरी न होने पर जबरदस्ती, नियंत्रण और हिंसा को जन्म देती है।
    • पितृसत्ता: विवाह के बाद, महिलाएँ पति के परिवार में चली जाती हैं, जिससे प्रायः उनके मायके से सहारा प्राप्त होना कम हो सकता है, जिससे वे दुर्व्यवहार के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं।
    • अधिक विवाह और जातिगत दबाव: उच्च-स्थिति वाले परिवारों में विवाह करने की इच्छा, विशेष रूप से मौजूदा जाति और रिश्तेदारी व्यवस्था के तहत, दहेज की अपेक्षाओं को बढ़ा देती है।
    • सामाजिक स्वीकृति और शर्म का डर: दहेज को प्रायः सामाजिक रूप से स्वीकार कर लिया जाता है। परिवारों को डर होता है कि अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो सामाजिक रूप से उपेक्षित हो सकते हैं, जिसके कारण वे दबाव में आ जाते हैं।
  • आर्थिक कारक
    • लालच और आर्थिक लाभ: शादियों को प्रायः आर्थिक लाभ के अवसर के रूप में देखा जाता है, जहाँ वर की ओर से नकदी, वाहन या संपत्ति की माँग की जाती है।
    • उपभोक्तावाद और भव्य शादियाँ: बढ़ती उपभोक्ता संस्कृति और सोशल मीडिया पर भव्य शादियों के दबाव के कारण दहेज की अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं।
    • बेरोजगारी और आय की असुरक्षा: जब वर बेरोजगार होते हैं या आर्थिक असुरक्षा का सामना करते हैं, तो उनके परिवार दहेज को आर्थिक स्थिरता प्राप्त करने के एक साधन के रूप में देखते हैं, जिससे माँगें बढ़ जाती हैं।
    • महिलाओं की आर्थिक निर्भरता: संपत्ति पर कानूनी अधिकार होने के बावजूद, महिलाओं का प्रायः पैसे पर वास्तविक नियंत्रण नहीं होता, जिससे उनके लिए दुर्व्यवहार का विरोध करना या उससे बचना मुश्किल हो जाता है।
      • वर्ष 2022 में 70% आरोप-पत्र दो महीने बाद दायर किए गए, जो प्रक्रियागत अक्षमताओं को उजागर करता है।
    • कानूनी जागरूकता का अभाव: कई महिलाएँ, विशेषतः ग्रामीण इलाकों में, अपने कानूनी अधिकारों से अनजान हैं या प्रतिशोध का डर रखती हैं।
      • निरक्षरता उनकी कमजोरी को और बढ़ा देती है।
    • पीड़ितों के लिए अपर्याप्त सहायता: आश्रय स्थल या कानूनी सहायता केंद्र अपर्याप्त हैं, जिससे पीड़ितों के पास दुर्व्यवहार से बचने के लिए सुरक्षित स्थान कम ही बचते हैं।
  • हिंसा का सामान्यीकरण: मौखिक, भावनात्मक और शारीरिक क्रूरता सहित घरेलू दुर्व्यवहार को प्रायः वैवाहिक जीवन का एक हिस्सा मान लिया जाता है, जिससे महिलाएँ चुप रहती हैं।

दहेज प्रथा के परिणाम

  • वधू के परिवार पर भारी आर्थिक बोझ: दहेज की माँग प्रायः परिवारों को भारी कर्ज, संपत्ति की बिक्री या दीर्घकालिक आर्थिक तंगी में धकेल देती है, विशेषतः आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के मामले में।
  • लिंग आधारित दुर्व्यवहार और हिंसा: दहेज की अपेक्षाएँ पूरी न होने पर महिलाओं को बढ़ते शारीरिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। इसमें घरेलू हिंसा, धमकी और ससुराल वालों द्वारा लगातार उत्पीड़न शामिल है।
  • पितृसत्तात्मक मानदंडों का सुदृढ़ीकरण: दहेज पितृसत्तात्मक ढाँचे को मजबूत करता है, महिलाओं को हीन और आर्थिक रूप से आश्रित समझता है, जिससे विवाह की शुरुआत से ही लैंगिक असमानता बनी रहती है।
  • विवाह विच्छेद: दहेज से संबंधित विवाद प्रायः कलह, अलगाव या तलाक का कारण बनते हैं, विशेषतः जब विवाद हिंसक हो जाते हैं या माँगें पूरी नहीं होती हैं।
  • दहेज हत्या और आत्महत्याएँ: चरम मामलों में, लंबे समय तक यातना और मानसिक आघात के परिणामस्वरूप दहेज हत्या, वधू को जला दिया जाना या आत्महत्या की घटना सामने आती है, जो प्रायः विवाह के प्रारंभिक वर्षों के भीतर ही दुखद रूप से घटित हो जाती है।
  • महिलाओं की आर्थिक निर्भरता: दहेज प्रथा महिलाओं के संपत्ति पर नियंत्रण को कमजोर करती है और पति व ससुराल वालों पर आर्थिक निर्भरता को बढ़ावा देती है, जिससे उनकी स्वायत्तता और निर्णय लेने की शक्ति गंभीर रूप से सीमित हो जाती है।
  • लड़कियों की शिक्षा में बाधा: परिवार लड़कियों की शिक्षा में निवेश करने की बजाय दहेज के लिए बचत को प्राथमिकता दे सकते हैं, जिससे उनके व्यक्तिगत विकास, कॅरियर के अवसर और जीवन के विकल्प सीमित हो जाते हैं।
  • हानिकारक रूढ़िवादिता का प्रसार: यह प्रथा इस अपमानजनक धारणा को पुष्ट करती है कि महिलाएँ बोझ या वस्तु हैं, जिससे सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में उनकी गरिमा और व्यक्तित्व का ह्रास होता है।

दहेज हत्या से निपटने में प्रमुख चुनौतियाँ

  • कानूनी और संस्थागत अंतराल
    • कमजोर कानून प्रवर्तन: दहेज निषेध अधिनियम और BNS की धारा 80 और 86 जैसे कानून मौजूद हैं, लेकिन प्रायः उनका पालन ठीक से नहीं होता।
    • कम दोषसिद्धि दर: हजारों मामले दर्ज होने के बावजूद, बहुत कम अपराधियों को सजा मिल पाती है।
      • प्रतिवर्ष सुनवाई के लिए भेजे जाने वाले 6,500 मामलों में से केवल लगभग 100 में ही दोषसिद्धि हो पाती है, शेष मामले लंबित रह जाते हैं या खारिज कर दिए जाते हैं।
    • विलंबित न्याय: धीमी जाँच और लंबी सुनवाई परिवारों को न्याय पाने से हतोत्साहित करती है। वार्षिक रूप से 7,000 मामलों में से केवल 4,500 में ही आरोप-पत्र दाखिल किए जाते हैं, जिनमें से कई को ‘झूठा’ बताकर खारिज कर दिया जाता है या जाँच में छह महीने से अधिक की देरी होती है।
  • कम रिपोर्टिंग: सामाजिक उपेक्षा का डर, परिवार का भारी दबाव और पुलिस की कथित उदासीनता के कारण प्रायः मामले दर्ज ही नहीं होते, विशेषतः ग्रामीण और रूढ़िवादी इलाकों में।
  • पीड़ितों को दोष देना और सामाजिक दबाव: पीड़ितों पर प्रायः विश्वास नहीं किया जाता, उनकी स्थिति के लिए उन्हें दोषी ठहराया जाता है या सुलह करने का दबाव डाला जाता है, जिससे शिकायतें दब जाती हैं और न्याय व्यवस्था कमजोर हो जाती है।
  • पुलिस-न्यायपालिका का संबंध-विच्छेद: समन्वय की कमी, आरोप-पत्र दाखिल करने में देरी (प्रायः दो महीने से अधिक समय लगना), और कानूनी कार्रवाई में मध्यस्थता अपराध की गंभीरता को कमजोर कर देती है।
  • अपर्याप्त जाँच: कई मामलों को सुबूतों के अभाव में ठीक से नहीं निपटाया जाता या खारिज कर दिया जाता है, प्रायः संवेदनशील जाँच में पुलिस प्रशिक्षण की कमी या प्रणालीगत पूर्वाग्रहों के कारण, जिससे न्याय प्रणाली में विश्वास और कम होता जाता है।

दहेज हत्याओं से निपटने के प्रयास

  • भारत में कानूनी प्रावधान
    • दहेज निषेध अधिनियम, 1961: यह आधारभूत कानून दहेज लेने और देने दोनों को अपराध घोषित करता है। इसके प्रमुख प्रावधान:
      • धारा 2 – दहेज की परिभाषा: ‘दहेज’ में विवाह के समय, उससे पहले या बाद में, विवाह के संबंध में दी गई कोई भी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति शामिल है।
        • इसमें शामिल नहीं है: मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत ‘महर’।
      • धारा 3 – दहेज देने या लेने पर दंड: दहेज देने, लेने या दहेज के लिए उकसाने पर न्यूनतम 5 वर्ष का कारावास और ₹15,000 का जुर्माना (या दहेज की राशि, जो भी अधिक हो)।
      • धारा 4 – दहेज की माँग करने पर दंड: प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दहेज माँगने पर 6 महीने से 2 वर्ष तक का कारावास और ₹10,000 तक का जुर्माना हो सकता है।
      • धारा 6 – पत्नी के लाभ के लिए दहेज: दूसरों द्वारा प्राप्त दहेज समय रहते पत्नी को हस्तांतरित किया जाना चाहिए। यदि उसकी मृत्यु हो जाती है, तो यह उसके उत्तराधिकारियों को जाता है।
      • धारा 7 – अपराधों का संज्ञान: केवल महानगरीय या प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट ही दहेज अपराधों की सुनवाई कर सकते हैं।
      • धारा 8A – सुबूत का भार: दहेज के मामलों में, अभियोजन पक्ष द्वारा मूल तथ्य स्थापित करने के बाद, अभियुक्त को अपनी बेगुनाही सिद्ध करनी होगी।
    • भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita- BNS) की धारा 80 (पूर्व में IPC 304B): दहेज हत्या को परिभाषित और दंडित करती है।
    • भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita- BNS) की धारा 86 (पूर्व में IPC 498A): पति या ससुराल वालों द्वारा की गई क्रूरता के लिए दंड का प्रावधान करती है।
      • क्रूरता: BNS की धारा 86 (पूर्व में IPC धारा 498A) के अनुसार, क्रूरता से तात्पर्य किसी भी जानबूझकर किए गए आचरण से है, जो किसी महिला को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित कर सकता है या उसके शारीरिक अथवा मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुँचा सकता है।
        • इसमें उसे या उसके परिवार को धन अथवा संपत्ति की अवैध माँग को पूरा करने के लिए मजबूर करने के उद्देश्य से किया गया उत्पीड़न, या ऐसी माँगें पूरी न होने पर किया गया उत्पीड़न भी शामिल है।
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113B: कुछ परिस्थितियों में दहेज हत्या की कानूनी धारणा प्रस्तुत करती है, जिससे अभियोजन पक्ष के लिए साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार कम हो जाता है।
    • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005- PWDVA): घरेलू हिंसा, जिसमें दहेज की माँग से जुड़ी हिंसा भी शामिल है, का सामना करने वाली महिलाओं को नागरिक उपचार प्रदान करता है, जिससे वे सुरक्षा आदेश, आर्थिक राहत और अन्य प्रकार की सहायता प्राप्त कर सकती हैं।
  • सरकारी योजनाएँ और पहल
    • बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ (Beti Bachao Beti Padhao- BBBP): इसका उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से लड़कियों को सशक्त बनाना और बाल विवाह को रोकना है। अप्रत्यक्ष रूप से, यह लैंगिक भेदभाव का मुकाबला करता है, जो प्रायः दहेज प्रथा को बढ़ावा देता है।
    • सुकन्या समृद्धि योजना: परिवारों को अपनी बेटियों के भविष्य के लिए बचत करने के लिए प्रोत्साहित करती है, जिससे विवाह के समय वित्तीय बोझ और दहेज संबंधी दबाव कम हो सकते हैं।
    • प्रधानमंत्री महिला शक्ति केंद्र (Pradhan Mantri Mahila Shakti Kendra- PMMSK): दहेज उत्पीड़न सहित लैंगिक हिंसा की पीड़ितों को सहायता प्रदान करते हुए, ब्लॉक स्तर पर कानूनी सहायता, कौशल प्रशिक्षण और परामर्श प्रदान करता है।
    • वन स्टॉप सेंटर (One Stop Centres- OSC) – “सखी”: हिंसा से प्रभावित महिलाओं को एकीकृत सहायता प्रदान करने के लिए प्रत्येक जिले में स्थापित, एक ही स्थान पर चिकित्सा, कानूनी, पुलिस, मनोवैज्ञानिक और आश्रय सेवाएँ प्रदान करता है।
    • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority- NALSA): दहेज उत्पीड़न या हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं को सहायता प्रदान करते हुए, महिलाओं के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करता है और जागरूकता अभियान संचालित करता है।
    • महिला हेल्पलाइन (181) और आपातकालीन प्रतिक्रिया सहायता प्रणाली (ERSS – 112): हिंसा का सामना कर रही महिलाओं के लिए 24/7 सेवाएँ, तत्काल सहायता और रेफरल प्रदान करती हैं।
    • फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालय (Fast Track Special Courts- FTSC): दहेज हत्या सहित महिलाओं के विरुद्ध अपराधों से संबंधित मामलों की सुनवाई में तेजी लाने के लिए स्थापित।
    • मिशन शक्ति: सुरक्षा, संरक्षा और सशक्तीकरण पर केंद्रित एक एकीकृत महिला सशक्तीकरण कार्यक्रम, जिसमें ओएससी जैसी योजनाएँ शामिल हैं।
  • न्यायिक निर्णय
    • एस. गोपाल रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1996): इस बात पर जोर दिया गया कि दहेज माँगना और लेना दोनों ही दंडनीय हैं; इस प्रथा के पीछे लैंगिक पूर्वाग्रह को उजागर किया गया।
    • विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997): हालाँकि यह मुख्य रूप से कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न संबंधी दिशा-निर्देशों के लिए जाना जाता है, फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में भारतीय विधि आयोग से दहेज विरोधी कानून को “और अधिक सशक्त” बनाने के लिए “नए सिरे से विचार” करने का बार-बार अनुरोध किया है।
    • सतवीर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1998): दहेज को एक “सामाजिक कलंक” बताया और मजबूत कानूनी प्रवर्तन के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता पर बल दिया।
    • के. प्रेमा एस. राव बनाम यदला श्रीनिवास राव (2003): कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन के महत्त्व पर बल दिया और अदालतों एवं पुलिस से निर्णायक कार्रवाई करने का आग्रह किया।
    • संजय कुमार जैन बनाम दिल्ली राज्य (2011): सर्वोच्च न्यायालय ने दहेज हत्याओं की निंदा करते हुए इसे ‘समाज पर अभिशाप’ बताया और इस बुराई पर अंकुश लगाने के लिए सख्त कार्रवाई का आग्रह किया।
    • राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2017): धारा 498A के संभावित दुरुपयोग के विरुद्ध सुरक्षा उपाय प्रस्तुत किए गए, गिरफ्तारी-पूर्व जाँच के लिए परिवार कल्याण समितियों का प्रस्ताव रखा गया, हालाँकि बाद में इसमें कानूनी स्पष्टीकरण भी दिए गए।
    • हरियाणा राज्य बनाम सतबीर सिंह (2021): धारा 498A (अब धारा 86 BNS) के तहत ‘क्रूरता’ की व्याख्या का विस्तार करते हुए इसमें अप्रत्यक्ष और परिस्थितिजन्य साक्ष्य को भी शामिल किया गया, जिससे पीड़ित की सुरक्षा मजबूत हुई।
  • दहेज हत्याओं के विरुद्ध एनजीओ की कार्रवाई
    • ब्रेकथ्रू इंडिया: लैंगिक मानदंडों को चुनौती देने, कानूनी जागरूकता को बढ़ावा देने और दहेज हिंसा को रोकने के लिए सामुदायिक कार्यक्रम और अभियान (जैसे, #दखलदो) संचालित करता है और समुदायों को सीधे तौर पर शामिल करता है।
    • अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ (All India Democratic Women’s Association- AIDWA): जमीनी स्तर पर लामबंदी, कानूनी सहायता प्रदान करने और नीतिगत परिवर्तनों के समर्थन पर केंद्रित है। यह सरकारों पर दहेज विरोधी कानूनों को और सख्त बनाने के लिए दबाव डालता है।
    • शक्ति वाहिनी: दहेज संबंधी हिंसा, मानव तस्करी और लिंग आधारित शोषण को रोकने के लिए काम करने वाला एक सक्रिय गैर-सरकारी संगठन है। यह बचाव कार्यों, कानूनी समर्थन और व्यापक जागरूकता अभियानों में संलग्न है, विशेषतः उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में।
    • मैत्री: महिलाओं को सशक्त बनाने और दहेज उत्पीड़न सहित घरेलू हिंसा को रोकने के लिए काम करता है। यह महिलाओं के लिए सुरक्षित वातावरण को बढ़ावा देने के लिए परामर्श, कानूनी सहायता और सामुदायिक सहभागिता कार्यक्रम प्रदान करता है।
    • महिला कानूनी पहल (Women’s Legal Initiative – WLI): कानूनी सशक्तीकरण पर केंद्रित, WLI दहेज संबंधी दुर्व्यवहार और अन्य प्रकार की लैंगिक हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं के लिए न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करता है। यह कानूनी सहायता, अधिकार शिक्षा और प्रणालीगत सुधारों के लिए वकालत प्रदान करता है।
    • जागोरी: घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं को परामर्श, कानूनी सहायता और सुरक्षित स्थान प्रदान करता है। यह नारीवादी शिक्षा और अधिकारों के प्रति जागरूकता पर जोर देता है और मानसिकता बदलने का प्रयास करता है।
    • सुरक्षा: आत्मरक्षा, कानूनी अधिकारों और रिपोर्टिंग तंत्र को बढ़ावा देने के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करता है और युवा महिलाओं को दहेज प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित करता है।
    • प्रत्यक्ष पीड़ित सहायता: कई गैर-सरकारी संगठन पीड़ितों के लिए आश्रय गृह, संकट केंद्र, चिकित्सा सहायता और व्यापक पुनर्वास कार्यक्रम जैसी आवश्यक सेवाएँ प्रदान करते हैं।
    • आर्थिक सशक्तीकरण: वे कौशल विकास कार्यक्रम संचालित करते हैं, सूक्ष्म वित्त की सुविधा प्रदान करते हैं और महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त करने में मदद करने के लिए आजीविका सहायता प्रदान करते हैं, जिससे दहेज की माँगों के प्रति उनकी संवेदनशीलता कम होती है।

दहेज-संबंधी हिंसा के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय ढाँचा

  • मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (Universal Declaration of Human Rights- UDHR), 1948: जीवन, समानता और सम्मान के अधिकार (अनुच्छेद-2, 3, 7) स्थापित करता है, जिनका दहेज हत्याओं में उल्लंघन होता है।
  • नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय वाचा (International Covenant on Civil and Political Rights- ICCPR), 1966: जीवन के अधिकार (अनुच्छेद-6) और क्रूर व्यवहार से मुक्ति (अनुच्छेद-7) की गारंटी देता है, जो दहेज हिंसा पर लागू होता है।
  • महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर अभिसमय (Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination Against Women- CEDAW), 1979: महिलाओं के लिए एक अंतरराष्ट्रीय अधिकार विधेयक के रूप में कार्य करता है। दहेज को लिंग आधारित भेदभाव का एक रूप माना जाता है (अनुच्छेद-2) और यह वैवाहिक अधिकारों (अनुच्छेद 16) को प्रभावित करता है। राज्यों को ऐसी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए कानून बनाने चाहिए।
  • महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के उन्मूलन पर घोषणा (Declaration on the Elimination of Violence Against Women- DEVAW), 1993: दहेज-संबंधी दुर्व्यवहार सहित महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है, और निवारक, दंडात्मक एवं सुरक्षात्मक राज्य कार्रवाई का आग्रह करता है।
  • यूएन वूमेन : लैंगिक समानता, कानूनी सुधार और दहेज विरोधी अभियानों पर वैश्विक प्रयासों का नेतृत्व करती है और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा से निपटने वाले गैर-सरकारी संगठनों का समर्थन करती है।
  • बीजिंग प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन, 1995: राज्यों से कानूनों, सेवाओं और शिक्षा के माध्यम से दहेज संबंधी हिंसा को रोकने और उसका जवाब देने का आह्वान करती है।

आगे की राह

  • जाँच और त्वरित न्याय को मजबूत बनाना: समय पर आरोप-पत्र दाखिल करने को प्राथमिकता देना, फोरेंसिक क्षमता बढ़ाना और न्यायिक देरी को कम करने तथा दोषसिद्धि दर बढ़ाने के लिए अधिक त्वरित न्यायालय स्थापित करना।
  • महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना: बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, मुद्रा योजना और सुकन्या समृद्धि जैसी योजनाओं के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, व्यावसायिक कौशल और वित्तीय समावेशन तक उनकी पहुँच बढ़ाना।
    • बाल विवाह निषेध अधिनियम (Prohibition of Child Marriage Act- PCMA) और बाल विवाह निवारण अधिनियम (RCMA) जैसे कानूनों को बाल विवाह में देरी और महिलाओं की स्वायत्तता को बढ़ावा देने के लिए सख्ती से लागू करना।
  • सुरक्षित और तकनीक-आधारित रिपोर्टिंग: डिजिटल पोर्टल और व्हाट्सऐप हेल्पलाइन शुरू करना तथा उनका व्यापक प्रचार करना। सबसे महत्त्वपूर्ण बात, शिकायतकर्ताओं और मुखबिरों के लिए सशक्त कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित करना ताकि वे प्रतिशोध के डर के बिना रिपोर्टिंग को प्रोत्साहित कर सकता है।
  • पुलिस संवेदनशीलता और कानूनी प्रवर्तन: दहेज से संबंधित मामलों को संवेदनशीलता और गंभीर आपराधिक अपराधों के रूप में देखने के लिए पुलिस को विशेष प्रशिक्षण प्रदान करना।
    • आपराधिक मामलों में मध्यस्थता से दूर रहकर, अपराधियों के विरुद्ध तुरंत एफआईआर, गहन जाँच और सख्त कार्रवाई सुनिश्चित करना।
  • आश्रय स्थल और निकास सहायता: महिलाओं को दुर्व्यवहारपूर्ण विवाहों से सुरक्षित रूप से बाहर निकलने के लिए सुरक्षित आश्रय और व्यापक सहायता प्रदान करने हेतु जिला-स्तरीय आश्रय स्थलों, परामर्श सेवाओं, कानूनी सहायता केंद्रों और आजीविका सहायता कार्यक्रमों का नेटवर्क बढ़ाना।
  • सामुदायिक सतर्कता और कानूनी साक्षरता: जमीनी स्तर पर जागरूकता अभियानों को बढ़ावा देना, सक्रिय सामुदायिक सतर्कता समितियों का गठन करना और पीड़ितों के लिए शीघ्र हस्तक्षेप तथा सहायता सुनिश्चित करने हेतु कानूनी साक्षरता कार्यक्रमों का व्यापक प्रसार करना।
  • लक्षित सामाजिक सुधार: दहेज प्रथा को सामान्य बनाने, पितृसत्तात्मक मानदंडों को सीधे चुनौती देने और भौतिक माँगों के बजाय समानता एवं गरिमा-आधारित विवाहों को बढ़ावा देने के लिए निरंतर जन जागरूकता अभियान संचालित करना।
    • इस आंदोलन में पुरुषों और लड़कों को सहयोगी के रूप में शामिल करना, दहेज से इनकार करने और लैंगिक समानता का समर्थन करने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका पर जोर देना।
  • शिक्षा और मीडिया का लाभ उठाना: लैंगिक समानता और दहेज-विरोधी शिक्षा को कम आयु से ही स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना।
    • मीडिया को दहेज मुक्त विवाहों को सकारात्मक रूप से चित्रित करने तथा प्रतिगामी सामाजिक मानदंडों को सक्रिय रूप से चुनौती देने के लिए प्रोत्साहित करना, न कि अनजाने में उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना, जो दहेज को बढ़ावा देता है।

निष्कर्ष

दहेज हत्या संवैधानिक समानता (अनुच्छेद-14), जीवन और सम्मान (अनुच्छेद-21) के अधिकारों का उल्लंघन करती है और सतत् विकास लक्ष्य 5 (लैंगिक समानता) तथा सतत् विकास लक्ष्य 16 (न्याय) की प्राप्ति में बाधा डालती है। इन्हें समाप्त करने के लिए कानूनी प्रवर्तन, लैंगिक संवेदनशीलता और समानता एवं सम्मान पर आधारित सामाजिक सुधार की आवश्यकता है।

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