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भारत में दहेज उन्मूलन

Lokesh Pal December 18, 2025 03:46 28 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि दहेज प्रथा का उन्मूलन संवैधानिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा कि मौजूदा कानून अप्रभावी होने और दुरुपयोग होने जैसी दोहरी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, साथ ही यह प्रथा अभी भी व्यापक रूप से प्रचलित है।

संबंधित तथ्य

  • शैक्षिक सुधार: सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को सभी स्तरों पर शैक्षिक पाठ्यक्रम को अद्यतन करने का निर्देश दिया, जिसमें विवाह में दोनों पक्षों की समानता और किसी के अधीन न होने के संवैधानिक सिद्धांत को बनाए रखा गया।
  • कानूनी कार्यान्वयन में चुनौतियाँ: मौजूदा कानून, जैसे- दहेज निषेध अधिनियम, 1961, और IPC की धारा 304-B (दहेज हत्या) और 498-A (पति/परिवार द्वारा क्रूरता), अक्सर अप्रभावी या दुरुपयोग किए जाते हैं।
  • दहेज मामलों के समाधानों में तेजी लाना: न्यायालय ने उच्च न्यायालयों को आईपीसी की धारा 304-B और 498-A के तहत लंबित दहेज हत्या और क्रूरता के मामलों के समाधानों में तेजी लाने का निर्देश दिया।

भारत में दहेज प्रथा के बारे में

  • सामाजिक प्रथा: दहेज एक ऐसी सामाजिक प्रथा है, जिसमें विवाहिता के परिवार से दूल्हे के परिवार को नकद और चल संपत्ति जैसी टिकाऊ वस्तुएँ हस्तांतरित की जाती हैं।
  • स्थिति: वर्ष 1961 का दहेज निषेध अधिनियम दहेज को स्पष्ट रूप से अपराध घोषित करता है।
    • हालाँकि, इसका व्यापक प्रचलन दर्शाता है कि गहरी जड़ें जमा चुकी सामाजिक प्रथाओं को खत्म करने के लिए केवल कानूनी उपाय ही पर्याप्त नहीं हैं।

भारत में दहेज का ऐतिहासिक विकास और सांस्कृतिक आधार

  • प्राचीन उत्पत्ति: भारत में दहेज की जड़ें धार्मिक और सामाजिक थीं और इसका उल्लेख मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में मिलता है, जो लगभग 1500 ईसा पूर्व के हैं। दहेज के प्रारंभिक रूपों में शामिल थे:-
    • कन्यादान – कुँवारी विवाहिता को उपहार में देना।
    • वरदक्षिणा – विवाहिता के पिता द्वारा दूल्हे को स्वेच्छा से दिए जाने वाले उपहार।
    • स्त्रीधन – रिश्तेदारों द्वारा विवाहिता को स्वेच्छा से दिए जाने वाले उपहार।
  • दहेज प्रथा के पीछे का उद्देश्य: इन प्रथाओं का उद्देश्य अक्सर विवाहिता को उसके नए वैवाहिक जीवन में आर्थिक स्वतंत्रता या सुरक्षा प्रदान करना था।
    • यह महिलाओं के लिए विरासत का एक रूप भी था, क्योंकि संपत्ति के अधिकार मुख्य रूप से पुरुषों तक ही सीमित थे।
  • औपनिवेशिक काल: औपनिवेशिक काल के दौरान, अंग्रेजों ने दहेज से संबंधित प्रथाओं को औपचारिक रूप दिया।
    • इस कानूनी मान्यता ने दहेज को एक व्यापक और दमनकारी संस्था के रूप में स्थापित करने में मदद की।
  • स्वतंत्रता के बाद विस्तार: वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, दहेज की माँग बढ़ी और विभिन्न जातियों और सामाजिक वर्गों में फैल गई।
    • यह विवाहिता के लिए आर्थिक सहायता के साधन के बजाय प्रतिष्ठा और सामाजिक स्थिति का प्रतीक बन गया।

भारत में दहेज प्रथा के प्रेरक कारक

  • पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना: दहेज प्रथा गहरी जड़ें जमा चुकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर आधारित है, जहाँ महिलाओं को आर्थिक रूप से आश्रित माना जाता है और विवाह को उनकी प्राथमिक सामाजिक सुरक्षा समझा जाता है।
  • महिलाओं का वस्तुकरण: पुत्रों को प्राथमिकता देने की प्रबल प्रवृत्ति दहेज प्रथा को बल देती है, क्योंकि पुत्रियों को आर्थिक बोझ समझा जाता है।
    • यह व्यवस्था प्रभावी रूप से महिलाओं के शरीर का वस्तुकरण करती है, उन्हें एक ऐसे माध्यम के रूप में देखती है, जिसके द्वारा परिवार पूँजी संचय कर सकते हैं।
  • वित्तीय सुरक्षा/निवेश की धारणा: दहेज को अक्सर दूल्हे के परिवार के लिए आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करने के साधन के रूप में देखा जाता है, जिससे विवाह आपसी सम्मान और स्नेह पर आधारित बंधन के बजाय एक लेन-देन बन जाता है।
    • कुछ परिवारों के लिए, दहेज को पुत्र की शिक्षा में किए गए निवेश की प्रतिपूर्ति के रूप में भी उचित ठहराया जाता है।
  • सामाजिक प्रतिष्ठा और दिखावे की संस्कृति: धन का प्रदर्शन करने और सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने की आकांशा दहेज प्रथा को कायम रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिससे एक ऐसा प्रतिस्पर्द्धी चक्र निर्मित होता है, जिसमें परिवार अधिक दहेज की माँग करते हैं या पेशकश करते हैं।
  • सामाजिक परिस्थितियाँ और सामाजिक बहिष्कार का भय: दहेज रीति-रिवाजों और परंपराओं के माध्यम से सामाजिक रूप से सामान्य हो गया है, जिससे सामाजिक विरोध के बिना इसे अस्वीकार करना मुश्किल हो जाता है।
  • महिलाओं की सीमित सौदेबाजी शक्ति: महिला श्रम बल में कम भागीदारी और आर्थिक निर्भरता दहेज की माँगों का विरोध करने की उनकी क्षमता को कम कर देती है।
  • विवाह संकट सिद्धांत: विवाह संकट सिद्धांत किसी जनसंख्या में योग्य दूल्हा-दुल्हन की संख्या में जनसांख्यिकीय असंतुलन को संदर्भित करता है, जो विवाह के स्वरूप और गतिशीलता को प्रभावित करता है।
  • दहेज कानूनों का कमजोर प्रवर्तन: दहेज निषेध अधिनियम का खराब कार्यान्वयन और दोषसिद्धि की कम दरें, दहेज की माँग के विरुद्ध निवारक प्रभाव को कम करती हैं।
    • वर्ष 2022 में, 70% आरोप-पत्र 2 महीने बाद दायर किए गए, जो प्रक्रियात्मक अक्षमताओं को उजागर करते हैं।

भारत में दहेज हत्याओं से संबंधित आँकड़े

  • राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (NCRB): NCRB के अनुसार, भारत में वर्ष 2017 से 2022 के बीच दहेज की माँग को लेकर 35,493 विवाहिताओं की मृत्यु हुई, जो औसतन प्रतिदिन लगभग 20 मौतों के बराबर है।
  • नागरिक कल्याण आयोग (NCW) के दहेज उत्पीड़न संबंधी आँकड़े: वर्ष 2024 में, राष्ट्रीय महिला आयोग को दहेज उत्पीड़न की 4,383 शिकायतें प्राप्त हुईं, जो कुल शिकायतों का लगभग 17% थीं।
  • NCW को दर्ज दहेज से संबंधित मृत्यु के मामले: NCW ने अकेले वर्ष 2024 में दहेज से संबंधित मृत्यु के 292 मामले दर्ज किए।
  • भौगोलिक रूप से दहेज से संबंधित अपराध: वर्ष 2017 से वर्ष 2022 के बीच, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, झारखंड, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में दहेज से संबंधित सभी मृत्यु के मामलों का 80% हिस्सा दर्ज किया गया।
    • वर्ष 2022 में, दहेज से होने वाली मौतों की सबसे अधिक 2,218 घटनाएँ उत्तर प्रदेश में हुईं, उसके बाद बिहार (1,057) और मध्य प्रदेश (518) का स्थान रहा।

भारत में दहेज के खिलाफ कानूनी ढाँचा

  • दहेज निषेध अधिनियम, 1961 (DPA): इसे दहेज प्रथा को जड़ से खत्म करने के उद्देश्य से लागू किया गया था।
    • यह अधिनियम विवाह के संबंध में दहेज देने और लेने दोनों को अपराध घोषित करता है।
    • DPA के अंतर्गत अपराध संज्ञेय, जमानती और गैर-समझौता योग्य हैं।
  • भारतीय न्याय संहिता, 2023: भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 80, दहेज मृत्यु को विवाह के सात वर्षों के भीतर किसी महिला की मृत्यु के रूप में परिभाषित करती है, जहाँ यह सिद्ध हो जाता है कि उसकी मृत्यु से कुछ समय पूर्व दहेज की माँग के संबंध में उसके पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा उसके साथ क्रूरता या उत्पीड़न किया गया था।
    • हालाँकि, सात वर्ष बाद उत्पीड़न होने पर क्या होगा, इस बारे में कानून में कोई स्पष्टीकरण नहीं है।
    • धारा 86, भारतीय न्याय संहिता (BNS) (पूर्व में IPC 498A): यह धारा पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा की गई क्रूरता को दंडित करती है।
      • इसमें महिला या उसके परिवार को धन या संपत्ति की गैर-कानूनी माँगों को पूरा करने के लिए विवश करने के उद्देश्य से किए गए उत्पीड़न को भी शामिल किया गया है।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113B: यह धारा दहेज हत्या का कानूनी अनुमान स्थापित करती है, यदि किसी महिला की विवाह के सात वर्षों के भीतर संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो जाती है और दहेज से संबंधित उत्पीड़न के साक्ष्य मौजूद हों।
  • घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2005 (PWDVA): यह अधिनियम दहेज उत्पीड़न सहित घरेलू हिंसा का शिकार महिलाओं को सुरक्षा आदेश, निवास अधिकार और आर्थिक सहायता प्रदान करता है।

दहेज कानूनों पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • प्रीति गुप्ता और अन्य बनाम झारखंड राज्य (2010): न्यायालय ने गलत आरोपों की घटनाओं को रोकने के लिए विस्तृत जाँच की सिफारिश की। सर्वोच्च न्यायालय ने दहेज विरोधी कानूनों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए उनके दुरुपयोग की संभावना को भी माना।
  • अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014): न्यायालय ने पाया कि धारा 498A एक ‘शक्तिशाली हथियार’ बन गई है और गिरफ्तारी प्रक्रियाओं की समीक्षा के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
    • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस अधिकारियों द्वारा अनावश्यक गिरफ्तारियों और मजिस्ट्रेटों द्वारा अधिकृत अनुचित हिरासत को रोकने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए।
    • कुछ दिशा-निर्देश इस प्रकार हैं:
      • पुलिस को धारा 498-A IPC के तहत किसी को भी तब तक गिरफ्तार नहीं करना चाहिए, जब तक कि धारा 41 सीआरपीसी में उल्लिखित शर्तें पूरी न हो जाएँ।
      • आरोपी को दो सप्ताह के भीतर पेशी का नोटिस (धारा 41-A CrPC) प्राप्त करना होगा, जब तक कि उचित कारणों से समय सीमा न बढ़ाई जाए।
      • पुलिस और मजिस्ट्रेट को गिरफ्तारी या हिरासत के कारणों को दर्ज करना होगा; ऐसा न करने पर न्यायालय की अवमानना ​​या विभागीय कार्रवाई हो सकती है।
  • संजय कुमार जैन बनाम दिल्ली राज्य, 2010: न्यायालय ने दहेज प्रथा की निंदा की, इसके कठोर क्रियान्वयन की माँग की और दुरुपयोग के विरुद्ध सावधानी बरतने के साथ-साथ सुलह पर भी जोर दिया।

दहेज प्रथा का महिलाओं के अधिकारों और पारिवारिक संबंधों पर प्रभाव

  • हिंसा और उत्पीड़न: दहेज की माँग अक्सर भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक शोषण का कारण बनती है, जिसमें ब्लैकमेल, मारपीट, विवाहिता को जलाना, एसिड अटैक और जबरन आत्महत्या शामिल हैं।
    • कई पीड़ित महिलाएँ भविष्य में हिंसा के डर से शोषण की सच्चाई छिपाने के लिए मजबूर हो जाती हैं।
  • महिलाओं की स्वायत्तता: दहेज प्रथा महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता को सीमित करती है, जिसके चलते लड़कियों को अक्सर शिक्षा से वंचित कर दिया जाता है और कम आयु में ही उनकी शादी कर दी जाती है।
  • जनसांख्यिकीय रुझानों पर प्रभाव: दहेज विवाहिता के परिवार पर भारी आर्थिक बोझ डालता है, जिससे अक्सर कर्ज, जमीन की बिक्री या ऋण लेने की स्थिति आती है।
    • यह कन्या भ्रूण हत्या और लिंग-चयनात्मक गर्भपात को भी बढ़ावा देता है, जो पितृसत्तात्मक नियंत्रण को मजबूत करता है।
  • वैवाहिक विघटन: दहेज से संबंधित विवाद अक्सर कलह, अलगाव या तलाक का कारण बनते हैं, खासकर जब विवाद बढ़ जाते हैं या माँगें पूरी नहीं होती हैं।

दहेज विरोधी कानूनों के प्रवर्तन में चुनौतियाँ

  • कमजोर कार्यान्वयन और न्यायिक विलंब: गहरी जड़ें जमा चुकी सामाजिक मान्यताओं और दहेज की व्यापक स्वीकृति के कारण दहेज विरोधी कानूनों का प्रवर्तन बाधित होता है।
    • जाँच में अक्सर देरी होती है और न्यायिक लंबित मामलों के कारण न्याय मिलने में भी देरी होती है।
    • उदाहरण के लिए, प्रति वर्ष दर्ज लगभग 7,000 दहेज हत्याओं में से केवल 4,500 मामलों में ही आरोप-पत्र दाखिल किया जाता है, जबकि कई मामले लंबी जाँच या अपर्याप्त साक्ष्यों के कारण अटके रहते हैं।
    • वर्ष 2022 में, दहेज हत्याओं की 67% से अधिक जाँचें, छह महीने से अधिक समय से लंबित थीं।
  • कम दोषसिद्धि दर: भारत में दहेज से संबंधित अपराधों में दोषसिद्धि दर बहुत कम है, लगभग 11-17%, जिसका अर्थ है कि वर्ष 2023 में 6,100 से अधिक दहेज हत्याओं के बावजूद, लगभग हर छह मामलों में से केवल एक में ही दोषसिद्धि होती है।
    • कम दोषसिद्धि दर के कारणों में मुकर जाने वाले गवाह, पारिवारिक समझौते और पुलिस एवं न्यायपालिका के बीच समन्वय की कमी शामिल हैं।
  • मामलों की कम रिपोर्टिंग: सामाजिक कलंक के डर, कानूनी जागरूकता की कमी और सामाजिक या पारिवारिक दबाव के कारण दहेज से संबंधित कई अपराध दर्ज नहीं किए जाते हैं।
  • दहेज विरोधी कानूनों का दुरुपयोग: महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाई गई IPC की धारा 498A और दहेज निषेध अधिनियम के प्रावधानों का दुरुपयोग झूठी शिकायतों, बढ़ा-चढ़ाकर दहेज की माँग और निर्दोष पारिवारिक सदस्यों की खराब गिरफ्तारी के माध्यम से हुआ है।

महिलाओं की सुरक्षा और सहायता के लिए सरकारी योजनाएँ

  • वन स्टॉप सेंटर (OSCs): निर्भया फंड के तहत स्थापित, OSCs हिंसा से प्रभावित महिलाओं को एकीकृत सहायता प्रदान करते हैं।
    • निर्भया फंड भारत सरकार द्वारा वर्ष 2013 में स्थापित एक विशेष कोष है, जिसका उद्देश्य महिलाओं की सुरक्षा बढ़ाने की पहलों को वित्तपोषित करना है।
  • प्रोजेक्ट स्त्री मनोरक्षा: यह परियोजना NIMHANS द्वारा शुरू की गई है और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा समर्थित है, जिसका उद्देश्य वन स्टॉप सेंटर (OSCs) में आघात-आधारित मानसिक स्वास्थ्य देखभाल को मजबूत करना है।
  • टोल-फ्री हेल्पलाइन और डिजिटल सहायता: 181 और 112 जैसी हेल्पलाइन, साथ ही NCW व्हाट्सऐप (72177-35372), महिलाओं को हिंसा की रिपोर्ट करने और पुलिस, अस्पतालों और कानूनी सहायता के लिए रेफरल प्राप्त करने में सक्षम बनाती हैं।

आगे की राह

  • अर्नेश कुमार दिशा-निर्देशों का राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन: अनुपालन की निगरानी करने और अनुचित गिरफ्तारियों तथा प्रक्रियात्मक चूक को रोकने के लिए सभी राज्यों में अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य मामले की चेकलिस्ट का एकसमान अनुप्रयोग सुनिश्चित करना आवश्यक है।
  • दहेज निषेध अधिकारी: दहेज निषेध अधिनियम, 1961, दहेज से संबंधित प्रथाओं को रोकने और उनके विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए दहेज निषेध अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
    • व्यापक प्रशिक्षण और निवारक कार्रवाई करने के लिए वैधानिक शक्तियों के माध्यम से उनकी क्षमता को बढ़ाया जाना चाहिए।
  • शीघ्र सुनवाई और त्वरित न्यायालय: दहेज मामलों की शीघ्र जाँच और सुनवाई सुनिश्चित करने, देरी को रोकने और गवाहों के मुकर जाने की संभावना को कम करने के लिए विशेष त्वरित न्यायालयों की स्थापना की आवश्यकता है।
  • संतुलित कानूनी सुरक्षा उपाय: कानूनी तंत्र इस प्रकार तैयार किए जाने चाहिए कि वास्तविक पीड़ित बिना किसी भय के दुर्व्यवहार की रिपोर्ट कर सकें, जबकि सावधानीपूर्वक न्यायिक जाँच के माध्यम से तुच्छ या दुर्भावनापूर्ण शिकायतों को छाँटा जा सके।
  • जागरूकता अभियान और सामुदायिक शिक्षा: स्कूलों, कॉलेजों और स्थानीय संस्थानों में शिक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि समाज की सोच में परिवर्तन लाया जा सके और इस बात पर जोर दिया जा सके कि दहेज एक अपराध है, न कि कोई परंपरा या प्रतिष्ठा का प्रतीक।
  • सामुदायिक रिपोर्टिंग चैनल: लोगों को दहेज की माँग या उत्पीड़न की शिकायत करने के लिए सुलभ और गोपनीय व्यवस्थाएँ स्थापित की जानी चाहिए, ताकि उन्हें प्रतिशोध के डर के बिना शिकायत करने की अनुमति मिल सके।
  • महिलाओं का आर्थिक सशक्तीकरण: संपत्ति अधिकारों को मजबूत करना, कौशल विकास और आर्थिक स्वतंत्रता से विवाह के भीतर महिलाओं की असुरक्षा कम होगी।
  • सामाजिक और सोच में परिवर्तन: परिवारों और समुदायों को दहेज को विवाह की शर्त के रूप में अस्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, यह मानते हुए कि केवल कानूनी सुधार ही इस प्रथा को समाप्त नहीं कर सकते।

निष्कर्ष

दहेज प्रथा से मुक्त भविष्य के लिए प्रभावी कानून, सामाजिक सुधार और सबसे महत्वपूर्ण, एक ऐसी सांस्कृतिक जागृति की संयुक्त शक्ति आवश्यक होगी, जो महिलाओं को आर्थिक बोझ या प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में न देखकर समाज में समान भागीदार के रूप में महत्व दे।

अभ्यास प्रश्न ‘मौजूदा दहेज-विरोधी कानून खराब प्रवर्तन और दुरुपयोग दोनों से ग्रस्त हैं, जिससे लैंगिक समानता और गरिमा के उनके संवैधानिक उद्देश्य को नुकसान पहुँचता है।’ टिप्पणी कीजिए।

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