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नैतिक दृष्टिकोण : न्यायाधीशों का राजनीति में शामिल होना

Lokesh Pal March 15, 2024 06:42 206 0

संदर्भ

हाल ही में कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने अपने पद से इस्तीफा देकर एक राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर ली , जिसने संवैधानिक प्राधिकरणों की स्वतंत्रता के बारे में औचित्य, निष्पक्षता और तटस्थता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

राजनीति में न्यायाधीशों के प्रवेश से विभिन्न नैतिक चिंताएँ

  • संवैधानिक मूल्य के विरुद्ध: भारतीय संविधान की तीसरी अनुसूची (शपथ ग्रहण से संबंधित) में न्यायाधीश को यह शपथ लेने के लिए कहा जाता है कि वे बिना किसी भय, पक्षपात, स्नेह या द्वेष के अपना कर्तव्य निभाएँगे।
    • ऐसे में किसी भी न्यायाधीश का राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश निष्पक्षता और सुचरित्र पर भी सवाल उठाता है। 
  • सार्वजनिक विश्वास का क्षरण: राजनीति में न्यायाधीशों के प्रवेश से समग्र न्यायपालिका में विश्वास का ह्रास हो सकता है।
    • सी. रविचंद्रन अय्यर बनाम जस्टिस ए.एम. भट्टाचार्जी, 1995 वाद में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि न्याय की धारा को स्वच्छ और शुद्ध बनाए रखने के लिए न्यायाधीश को उत्कृष्ट चरित्र, त्रुटिहीन सत्यनिष्ठा और सदाचार से युक्त होना चाहिए।
    • अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ बनाम भारतीय संघ, 1991 वाद में: उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक अधिकारियों से समाज की अपेक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला। जब न्यायाधीश अपनी निष्पक्षता से समझौता करते हैं तो आदर्शों का उल्लंघन होता है।
    • न्यायिक निष्पक्षता का उल्लंघन: न्यायाधीशों का राजनीति में प्रवेश उनके कार्यकाल के दौरान न्यायाधीश द्वारा दिए गए आदेशों की निष्पक्षता के बारे में सवाल उठाता है।
    • न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वह तटस्थ रहें और केवल तथ्यों तथा कानून के आधार पर निर्णय लें।
  • नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत के विरुद्ध: संविधान विभिन्न अंगों के बीच नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत पर काम करता है।
    • कार्यपालिका विधायिका के प्रति जवाबदेह होती है और एक स्वतंत्र न्यायपालिका विधायिका एवं कार्यपालिका दोनों पर नियंत्रण रखती है।
  • न्यायपालिका पर प्रतिबंध: भारत में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद से सेवानिवृत्त होने के बाद किसी भी न्यायालय या प्राधिकरण के समक्ष वकील के रूप में उपस्थित नहीं हो सकते हैं।

    • इसी प्रकार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय या अन्य उच्च न्यायालयों को छोड़कर अन्य किसी न्यायालय के समक्ष अधिवक्ता के रूप में नहीं उपस्थित हो सकते हैं ।
  • न्यायिक स्वतंत्रता का क्षरण: राजनीति में न्यायाधीशों का प्रवेश न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायपालिका के कामकाज पर राजनीतिक विचारों के प्रभाव पर सवाल उठाता है।
    • हालाँकि, विधि का शासन बनाए रखने के लिए न्यायिक स्वतंत्रता महत्त्वपूर्ण है।
  • बैंगलोर न्यायिक आचरण सिद्धांत, 2002 का उल्लंघन: यह न्यायिक मूल्यों से संबंधित है और न्यायाधीशों से यह सुनिश्चित करने के लिए कहता है कि उन्हें  न्यायालय के अंदर और बाहर दोनों जगह ऐसे आचरण का पालन करना चाहिए जो जनता तथा कानूनी पेशे के भरोसे को बनाए रखे एवं न्यायाधीशों की निष्पक्षता में वृद्धि करे।
    • हितों का टकराव: राजनीति में न्यायाधीशों का प्रवेश, विशेष रूप से विवादास्पद बयान और निर्णय (सेवा के दौरान) देने के बाद, हितों के टकराव पर चिंता पैदा करता है।
    • हालाँकि, न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वह हितों के टकराव से बचें और अपनी निष्ठा बनाए रखें।

पूर्व के मामले: 

  • ऐसा पहला उदाहरण वर्ष 1967 में आया था। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (CJI) कोका सुब्बाराव ने राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए सेवानिवृत्त होने से तीन माह पहले इस्तीफा दे दिया था।
  • दूसरा उदाहरण उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बहारुल इस्लाम का है। वर्ष 1983 में, उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए सेवानिवृत्ति से छह सप्ताह पहले इस्तीफा दे दिया।
  • हाल ही में, भारत के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई को उनकी सेवानिवृत्ति के चार माह के भीतर वर्ष 2020 में राज्यसभा के लिए नामांकित किया गया था।
  • वर्ष 2004 में, एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त सेवानिवृत्ति के तीन वर्ष बाद राज्यसभा सदस्य और मंत्री बन गए।
  • ऐसे अवसर भी आए हैं जब सेवानिवृत्त नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) और न्यायाधीशों को राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया गया है।

  • सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्तियों का मुद्दा: पिछले कुछ वर्षों में, कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद स्वीकार कर लिए हैं, जो न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने के संवैधानिक मूल्य के विरुद्ध हैं।
    • न्यायाधीशों के नैतिक आचरण के विरुद्ध: राजनीति में न्यायाधीशों का प्रवेश न्यायाधीशों के नैतिक आचरण के विरुद्ध है।
    • हालाँकि, न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी स्वतंत्रता, निष्पक्षता, सत्यनिष्ठा, शालीनता और परिश्रम का प्रदर्शन करके न्यायपालिका में जनता का विश्वास बढ़ाने के लिए न्यायालय कक्ष के अंदर और बाहर गरिमा बनाए रखें।

रीस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज ऑफ ज्युडिशियल लाइफ, 1997 के बारे में

  • उच्चतम न्यायालय ने 7 मई, 1997 को “न्यायिक जीवन मूल्यों का पुनर्विवरण” नामक एक चार्टर को अपनाया। यह न्यायिक नैतिकता का एक कोड है और एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है, जो न्याय के निष्पक्ष प्रशासन का मार्ग प्रशस्त करता है।
  • इसमें 16 बिंदु शामिल हैं, जिन्हें निम्नलिखित उप-शीर्षकों में वर्गीकृत किया गया है:
    • निष्पक्षता: न्याय न केवल किया जाना चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। न्यायाधीशों के व्यवहार से न्यायपालिका की निष्पक्षता में जनता के विश्वास की पुष्टि होनी चाहिए।
    • संघर्षों से बचना: न्यायाधीशों को बार के व्यक्तिगत सदस्यों के साथ घनिष्ठ संबंधों से बचना चाहिए और उन मामलों की सुनवाई से बचना चाहिए जिनमें परिवार सदस्य वादी या वकील के रूप में शामिल हों।
    • कोई अन्य पद नहीं: एक न्यायाधीश को किसी क्लब, सोसायटी या अन्य एसोसिएशन के किसी भी कार्यालय से चुनाव नहीं लड़ना चाहिए; इसके अलावा वह कानून से जुड़ी किसी सोसायटी या एसोसिएशन को छोड़कर ऐसा कोई निर्वाचित पद धारण नहीं करेगा।
    • कोई पक्षपात/झुकाव नहीं: न्यायाधीश के परिवार का कोई भी सदस्य जो बार का सदस्य है, उसे न्यायाधीश के निवास स्थान या अन्य सुविधाओं का उपयोग पेशेवर काम के लिए करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
      • एक न्यायाधीश किसी ऐसे मामले की सुनवाई और फैसला नहीं करेगा जिसमें उसका कोई पारिवारिक सदस्य, कोई करीबी संबंधी या मित्र शामिल हो।
    • अलगाव: एक न्यायाधीश को अपने कार्यालय की गरिमा के अनुरूप कुछ हद तक अलगाव का व्यवहार करना चाहिए।
      • एक न्यायाधीश सार्वजनिक बहस में शामिल नहीं होना चाहिए और न ही राजनीतिक मामलों या ऐसे मामलों पर अपने विचार व्यक्त करने चाहिए जो लंबित हैं या न्यायिक निर्धारण के लिए आने की संभावना है।
      • एक न्यायाधीश से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने निर्णयों को स्वयं बोलने दे और मीडिया को साक्षात्कार न दे।
    • निष्ठा: एक न्यायाधीश अपने परिवार, करीबी रिश्तेदारों और दोस्तों के अलावा किसी से उपहार या आतिथ्य स्वीकार नहीं करेगा।
      • एक न्यायाधीश शेयरों, स्टॉक या इस तरह के अन्य निवेशों में भाग नहीं लेगा।
      • किसी न्यायाधीश को स्वयं या किसी अन्य व्यक्ति के सहयोग से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यापार या व्यवसाय में संलग्न नहीं होना चाहिए।
      • एक न्यायाधीश को किसी भी उद्देश्य के लिए धन जुटाने के लिए नहीं कहना चाहिए, स्वीकार नहीं करना चाहिए या अन्यथा सक्रिय रूप से स्वयं को संबद्ध नहीं करना चाहिए।
    • सार्वजनिक नजर: न्यायाधीशों को हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे जनता की निगरानी में हैं और उनके कार्यों से उनके उच्च पद को लाभ होना चाहिए।

आगे की राह

  • कानूनी नियम और कार्यवाही: भारतीय न्यायपालिका और विधायी निकायों के लिए न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद की गतिविधियों को नियंत्रित करने वाले नियमों और इस मुद्दे पर न्यायाधीशों द्वारा बनाए गए कानून (चूँकि संसद के पास इसे ठीक करने का कोई प्रोत्साहन नहीं है) पर पुनर्विचार करें और संभावित रूप से सुधार करें।
  • कूलिंग-ऑफ अवधि: जबकि अटॉर्नी जनरल की राय ठोस कानूनी सिद्धांतों पर आधारित है, राजनीतिक दलों में शामिल होने या सरकार द्वारा राजनीतिक पदों पर नामांकित होने के लिए कम-से-कम दो वर्ष की कूलिंग-ऑफ अवधि निर्धारित करना वांछनीय है ताकि आम जनता में विश्वास पैदा किया जा सके और किसी भी प्रकार के बदले के आरोप को नकारा जा सके।
    • पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर. एम. लोढ़ा ने हितों के संभावित टकराव को कम करने और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति और सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी कार्यभार के लिए उनकी पात्रता के बीच कम-से-कम दो वर्ष की कूलिंग-ऑफ अवधि की सिफारिश की थी ।
  • विधि आयोग की सिफारिशें: 14वें विधि आयोग की रिपोर्ट, 1958 में एक ऐसी प्रणाली की वकालत की गई, जो न्यायाधीशों की स्वतंत्रता से समझौता किए बिना उनकी वित्तीय सुरक्षा को मजबूत करती है।
  • पारदर्शिता में वृद्धि: सेवानिवृत्ति, न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद के पदों पर नियुक्त करते समय अधिक पारदर्शिता होनी चाहिए, जैसे चयन मानदंड का खुलासा करना, खुली प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित करना और प्रत्येक नियुक्ति के पीछे के कारणों को सार्वजनिक करना न्यायिक शिक्षा और प्रशिक्षण को नैतिक मुद्दों, मानवाधिकारों और अंतरराष्ट्रीय कानूनी मानकों पर बढ़ाएँ। न्यायिक आचरण और दक्षता के उच्च मानकों को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक हैं।
  • सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाना और उनका पालन:
    • संयुक्त राज्य अमेरिका: अमेरिका में, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश सेवानिवृत्त नहीं होते हैं, ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि हितों का टकराव (conflicts of interest) न हो
    • यूनाइटेड किंगडम: ब्रिटेन में, हालाँकि न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियाँ लेने से रोकने वाला कोई कानून नहीं है, लेकिन किसी भी न्यायाधीश ने ऐसा नहीं किया है, जो सेवानिवृत्ति के बाद की भूमिकाओं के मुद्दे पर एक अलग दृष्टिकोण को दर्शाता है।
    • यूरोपीय न्यायाधीश परिषद (CCJE) का अनुच्छेद-17: यह निष्पक्ष प्रक्रिया के लिए न्यायाधीशों के अधिकारों को मान्यता देता है और राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय, न्यायिक नैतिकता तथा निष्पक्षता की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए न्यायिक कार्यों की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
    • भारतीय न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए आदर्श न्यायिक आचरण संहिता: यह न्यायालयी कार्यवाही में निष्पक्षता और उचित प्रक्रिया, न्यायपालिका की अखंडता और स्वतंत्रता, आदि को प्रोत्साहित करती है।
      • यह न्यायिक जिम्मेदारियों के साथ टकराव को कम करने और अनुचित राजनीतिक गतिविधियों से बचने के लिए न्यायाधीशों को न्यायेतर गतिविधियों को विनियमित करने की सलाह भी देता है।
    • न्यायिक आचरण संहिता: जैसा कि प्रथम एम.सी. सीतलवाड़ मेमोरियल व्याख्यान में चर्चा के अनुसार, यह न्यायिक नैतिकता की एक विस्तृत परिभाषा प्रदान करता है, जिसमें न्यायाधीशों के लिए सत्यनिष्ठा और ईमानदार व्यवहार प्रदर्शित करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।

चुनाव आयोग की सिफारिशें

  • वर्ष 2012 में: चुनाव आयोग ने सिफारिश की कि केंद्र सरकार शीर्ष नौकरशाहों को उनकी सेवानिवृत्ति के बाद राजनीतिक दलों में शामिल होने और चुनाव लड़ने से पहले कूलिंग-ऑफ अवधि प्रदान करे।
    • हालाँकि, सरकार ने अटॉर्नी जनरल की राय के आधार पर इस सिफारिश को खारिज कर दिया कि यह संवैधानिक प्रावधानों और लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं हो सकता है।
  • अटॉर्नी जनरल के विचार: लोकतंत्र की आवश्यक विशेषताओं में से एक प्रत्येक नागरिक को चुनाव लड़ने का अधिकार है। किसी व्यक्ति के सेवा में रहने की अवधि के दौरान स्वतंत्रता और तटस्थता बनाए रखना प्रासंगिक होगा।
    • चुनाव लड़ने वाले अधिकारियों के विरुद्ध इस तरह का प्रतिबंध लगाना एक वैध वर्गीकरण नहीं हो सकता है और संविधान में लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होगा।

निष्कर्ष

पूर्व न्यायाधीशों का राजनीति में प्रवेश नैतिक चिंताओं को उजागर करता है और जिन्हें जल्द-से-जल्द संबोधित करने की आवश्यकता है। अनिवार्य कूलिंग-ऑफ अवधि, मौजूदा न्यायिक आचरण संहिता को बढ़ाना, चयन प्रक्रिया को मजबूत करना, जवाबदेही सुनिश्चित करना, शक्ति का विकेंद्रीकरण करना, नागरिक समाज को मजबूत करना आदि जैसे सुधारों को लागू करने की आवश्यकता है।

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