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अंतरराष्ट्रीय संबंधों में आत्मरक्षा संबंधी नैतिकता

Lokesh Pal June 24, 2025 01:36 58 0

संदर्भ

हाल ही में इजरायल के पूर्व-आक्रमणकारी हमले और ईरान की जवाबी मिसाइल हमले, दोनों ही पक्ष आत्मरक्षा का दावा करते हैं, जिससे अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत आत्मरक्षा की आनुपातिकता और वैधता को लेकर गंभीर नैतिक प्रश्न खड़े होते हैं।

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में आत्मरक्षा के बारे में

  • आत्मरक्षा अंतरराष्ट्रीय कानून और नैतिकता में एक मौलिक सिद्धांत है, जो संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और मानवाधिकारों की सुरक्षा में निहित है।
  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 51 द्वारा शासित, जो केवल ‘सशस्त्र हमले’ के जवाब में और आवश्यकता एवं आनुपातिकता के अधीन बल की अनुमति देता है।
  • हालाँकि, एक तेजी से परस्पर संबंधित विश्व में, जहाँ संघर्षों में प्रायः गैर-राज्य अभिकर्त्ता, साइबर हमले और अग्रिम हमले शामिल होते हैं, इस अधिकार का नैतिक और कानूनी दायरा गहन जाँच के अधीन है।

अंतरराष्ट्रीय कानून में आत्मरक्षा के प्रकार

  • प्रतिक्रियात्मक (वास्तविक) आत्मरक्षा: वास्तविक, संचालित सशस्त्र हमले की प्रतिक्रिया।
    • वैधता: संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 51 द्वारा स्पष्ट रूप से समर्थित।
    • नैतिक स्थिति: अस्तित्व एवं संप्रभुता के अधिकार पर आधारित।
    • उदाहरण: राष्ट्रीय क्षेत्र पर मिसाइल हमले के बाद सैन्य प्रतिक्रिया।
  • पूर्व-आक्रमणकारी आत्मरक्षा: संभावित खतरे के विरुद्ध कार्रवाई, जहाँ हमला तत्काल नहीं होता, परंतु निकट भविष्य में होने की संभावना होती है।
    • पूर्वानुमान संबंधी अंतराल: कम तात्कालिकता, अधिक रणनीतिक निर्णय शामिल।
    • वैधता: अत्यधिक विवादित; संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत औपचारिक रूप से वैध नहीं।
    • उदाहरण: आसन्न उपयोग के साक्ष्य के बिना किसी अन्य देश में संदिग्ध परमाणु स्थल को नष्ट करना।
  • निवारक आत्मरक्षा: किसी संभावित, भावी खतरे को रोकने के लिए की जाने वाली सैन्य कार्रवाई, जो घटित हो भी सकती है और नहीं भी।
    • वैधता: अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत इसे व्यापक रूप से अवैध माना जाता है। 
    • उदाहरण: किसी देश पर आक्रमण करना, इस डर से कि वह अगले 10 वर्षों में शत्रुतापूर्ण क्षमता विकसित कर सकता है।
  • सामूहिक आत्मरक्षा: किसी अन्य राज्य पर आक्रमण होने के बाद उसके अनुरोध पर उसकी रक्षा के लिए की जाने वाली प्रतिक्रिया।
    • वैधता: अनुच्छेद 51 के तहत अनुमति प्रदान की गई है परंतु इसके बारे में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को रिपोर्ट किया जाना चाहिए।
    • उदाहरण: 9/11 हमले के बाद नाटो की सामूहिक रक्षा कार्रवाई।

अंतरराष्ट्रीय कानून में आत्मरक्षा के लिए कानूनी ढाँचा

  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर (1945)
    • अनुच्छेद 2(4)- बल प्रयोग का निषेध: किसी भी राज्य की क्षेत्रीय अखंडता या राजनीतिक स्वतंत्रता के विरुद्ध बल प्रयोग या बल प्रयोग की धमकी पर सामान्य निषेध।
      • अध्याय VII, अनुच्छेद 51 के तहत सुरक्षा परिषद प्राधिकरण के प्रावधान के साथ-साथ आत्मरक्षा एकमात्र अपवाद है।
    • अनुच्छेद 51 – आत्मरक्षा का अधिकार: संयुक्त राष्ट्र का कोई सदस्य सशस्त्र हमले के बाद आत्मरक्षा में बल प्रयोग कर सकता है, लेकिन उसे इसकी सूचना सुरक्षा परिषद को देनी होगी, जिसके पास शांति के लिए कार्य करने का अंतिम अधिकार है।

संयुक्त राष्ट्र चार्टर के बारे में

  • 26 जून, 1945 को सैन फ्रांसिस्को में हस्ताक्षरित और 24 अक्टूबर, 1945 को लागू हुआ।
  • संयुक्त राष्ट्र की आधारभूत संधि के रूप में कार्य करता है, जिसका उद्देश्य सामूहिक सुरक्षा, कूटनीति और सहयोग के माध्यम से भविष्य के युद्धों को रोकना है।

  • सुरक्षा परिषद अभ्यास और संकल्प
    • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् प्रस्ताव 1373 (2001): 9/11 के बाद पारित किया गया।
      • गैर-राज्य घटकों के विरुद्ध आत्मरक्षा को मान्यता दी गई, यहाँ तक ​​कि सीमाओं के पार भी।
      • अनुच्छेद 51 की पारंपरिक व्याख्याओं में बदलाव को चिह्नित किया।
    • UNSC संकल्प 2249 (2015): ISIS के विरुद्ध।
      • राष्ट्रों से अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार, ‘सभी आवश्यक उपाय’ करने का आह्वान किया गया, जिससे आतंकवादी समूहों के खिलाफ सामूहिक आत्मरक्षा को प्रभावी ढंग से समर्थन प्राप्त हो सकता है।
  • प्रथागत अंतरराष्ट्रीय कानून
    • कैरोलीन सिद्धांत (1837): प्रत्याशित आत्मरक्षा के लिए आधार।
      • तीन मानदंड निर्धारित करता है:-
        • आत्मरक्षा की आवश्यकता ‘तत्काल, प्रबल’ होनी चाहिए।
        • विचार-विमर्श के लिए साधन या क्षण का कोई विकल्प नहीं है।
        • प्रतिक्रिया की आनुपातिकता।
    • निकारागुआ केस (ICJ, 1986): सशस्त्र हमले (अनुच्छेद 51 को लागू करता है) और बल प्रयोग के अल्प रूपों (जैसे- धमकी या हस्तक्षेप) के बीच अंतर किया गया।
      • घोषित सामूहिक आत्मरक्षा के लिए हमला किए गए राष्ट्र से अनुरोध की आवश्यकता होती है।
    • ऑयल प्लेटफॉर्म केस (ICJ, 2003): इस बात पर बल दिया गया कि आत्मरक्षा को आवश्यकता एवं आनुपातिकता के अनुरूप होना चाहिए।
      • इसके अलावा सशस्त्र हमले के स्पष्ट सबूत भी आवश्यक होते हैं।
    • ‘असमर्थ या अनिच्छुक’ सिद्धांत: मेजबान राष्ट्र में गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं के खिलाफ आत्मरक्षा में बल के उपयोग की अनुमति देता है, जिसे खतरे को अप्रभावी करने में ‘असमर्थ या अनिच्छुक’ माना जाता है।
      • अमेरिका ने पाकिस्तान में वर्ष 2011 के बिन लादेन संबंधी ऑपरेशन और सीरिया में ISIS के खिलाफ वर्ष 2014 के हवाई हमलों के लिए इसका प्रयोग किया।

आत्मरक्षा को नियंत्रित करने वाले नैतिक सिद्धांत

  • आवश्यकता: सशस्त्र हमले को रोकने या उसे पीछे हटाने के लिए बल का प्रयोग ही एकमात्र व्यवहार्य विकल्प होना चाहिए।
    • सभी शांतिपूर्ण साधन-कूटनीति, बातचीत, मध्यस्थता-समाप्त हो चुके होने चाहिए।
  • आनुपातिकता: रक्षात्मक प्रतिक्रिया खतरे के पैमाने और प्रकृति के अनुरूप होनी चाहिए।
    • अत्यधिक नुकसान से बचा जाना चाहिए, विशेष रूप से नागरिकों या बुनियादी ढाँचे को क्षति नहीं होनी चाहिए।
  • तत्कालता/आसन्नता: बल का प्रयोग केवल किसी आसन्न खतरे के जवाब में किया जाना चाहिए।
  • सही उद्देश्य: आत्मरक्षा के पीछे का उद्देश्य शांति और सुरक्षा बहाल करना होना चाहिए, न कि दंडित करना या शक्ति का विस्तार करना।
  • भेदभाव/नागरिक प्रतिरक्षा: लड़ाकों को गैर-लड़ाकों से अलग किया जाना चाहिए; बल का लक्ष्य केवल वैध सैन्य उद्देश्य होना चाहिए।
  • नैतिक जिम्मेदारी और जवाबदेही: राज्यों को अपने रक्षात्मक कार्यों के परिणामों की नैतिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए, जिसमें अनपेक्षित नागरिक नुकसान भी शामिल है।
    • पारदर्शिता, आंतरिक समीक्षा और बाह्य निगरानी की आवश्यकता है।

आत्मरक्षा में नैतिक दुविधाएँ

  • सुरक्षा बनाम संप्रभुता: आत्मरक्षा की कार्रवाई दूसरे राज्य के संप्रभु अधिकारों के साथ टकराव कर सकती है।
    • आतंकवादी शिविरों पर सीमा पार हमले प्रायः मेजबान देश की संप्रभुता का उल्लंघन करते हैं।
  • प्रतिरोध बनाम निवारक कार्रवाई: हमले से पहले खुफिया जानकारी पर कार्रवाई करना नैतिक चिंताओं को जन्म देता है।
    • कथित खतरों के खिलाफ निवारक कार्रवाई गलत सूचनाओं पर आधारित होने का जोखिम रखती है।
  • आनुपातिकता बनाम निवारण: राज्य/राष्ट्र एक मजबूत निवारक संदेश भेजने के लिए आनुपातिक सीमाओं को पार कर सकते हैं।
    • मामूली घुसपैठ के जवाब में हवाई बमबारी नैतिक असंतुलन को दर्शाती है।
  • नागरिक सुरक्षा बनाम सैन्य उद्देश्य: नागरिकों के बीच छिपे वैध लक्ष्यों पर हमला करने से निर्दोष लोगों को नुकसान पहुँचने का जोखिम होता है।
    • आबादी वाले क्षेत्रों में ड्रोन अभियानों के परिणामस्वरूप प्रायः बड़ी संख्या में लोग की मौत होती है।
  • सही उद्देश्य बनाम रणनीतिक लाभ: अंतर्निहित राजनीतिक उद्देश्यों से आत्मरक्षा नैतिक रूप से समझौता कर सकती है।
    • सैन्य हस्तक्षेप को कभी-कभी शासन के लक्ष्यों को उचित ठहराने के लिए नैतिक भाषा का उपयोग किया जाता है।
  • सामूहिक रक्षा बनाम सहमति: स्पष्ट सहमति के बिना सहयोगी की सहायता करना उनकी स्वायत्तता को कमजोर कर सकता है।
    • शक्तिशाली राष्ट्र कभी-कभी एकतरफा सामूहिक रक्षा का आह्वान करते हैं।
  • अल्पकालिक लाभ बनाम दीर्घकालिक शांति: बल का तत्काल उपयोग स्थायी शांति की संभावनाओं को खतरे में डाल सकता है।
    • लंबे समय तक प्रतिशोध क्षेत्रीय अस्थिरता को बढ़ाता है।
  • न्याय बनाम बदला: आत्मरक्षा दंडात्मक या प्रतिशोधात्मक आचरण में बदल सकती है।
    • मूल खतरे के लंबे समय बाद भी लगातार हमले प्रतिशोध का कारण बन सकते हैं।

आत्मरक्षा के संबंध में नैतिक चुनौतियाँ

  • ‘आसन्न खतरे’ के औचित्य की अस्पष्टता: ‘आसन्नता’ का अपरिभाषित दायरा राष्ट्रों को गैरकानूनी पूर्वव्यापी कार्रवाई को उचित ठहराने की अनुमति देता है।
    • कैरोलीन मानक को प्रायः प्रत्याशित हमलों को तर्कसंगत बनाने के लिए बढ़ाया जाता है।
  • नागरिक मौतें एवं आनुपातिकता उल्लंघन: यहाँ तक ​​कि लक्षित आत्मरक्षा उपाय प्रायः सामान्य नागरिकों को नुकसान पहुँचाते हैं।
    • आबादी वाले क्षेत्रों में आतंकवादी नेतृत्त्वकर्त्ताओं पर ड्रोन हमले नैतिक संयम का उल्लंघन करते हैं।
  • संयुक्त राष्ट्र की निगरानी से बचना: कई राज्य अनुच्छेद 51 की रिपोर्टिंग बाध्यता को अनदेखा करते हैं, जिससे वैश्विक जवाबदेही कमजोर होती है।
    • हमले के बाद की सूचनाओं में प्रायः देरी होती है या उनमें विकृति उत्पन्न की जाती है।
  • गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं से निपटने में अस्पष्टता: गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं से निपटने की प्रक्रिया में प्रायः कानूनी और नैतिक अस्पष्टताएँ उत्पन्न होती हैं। जब तीसरे देशों में सक्रिय विद्रोही गुटों के विरुद्ध जवाबी कार्रवाई की जाती है, तो यह अंतरराष्ट्रीय नियमों की स्पष्ट सीमाओं को धुंधला कर देती है।
    • विशेष रूप से, जब कमजोर राज्यों से ‘प्रॉक्सी वार’ संचालित होते हैं, तब नैतिक रूप से उत्तरदायित्व निर्धारित करना और आरोप तय करना और भी अधिक जटिल हो जाता है।
  • नैतिक आवश्यकता के रूप में तैयार किए गए रणनीतिक हित: आत्मरक्षा का उपयोग कभी-कभी भू-राजनीतिक या आर्थिक एजेंडा को छिपाने के लिए किया जाता है।
    • शासन परिवर्तन या क्षेत्रीय प्रभुत्व को रक्षात्मक कार्रवाई के रूप में छिपाया जा सकता है।
  • वैश्विक शांति मानदंडों का क्षरण: आत्मरक्षा का बार-बार आह्वान सामूहिक सुरक्षा सिद्धांतों को कमजोर करता है।
    • नियमित एकतरफावाद संयुक्त राष्ट्र के अधिकार और युद्ध-संयम तंत्र को कमजोर करता है।
  • प्रौद्योगिकी-संचालित नैतिक विघटन: दूरस्थ युद्ध उपकरण हिंसा से मानवीय जुड़ाव को कम करते हैं और नैतिक जाँच को कमजोर करते हैं।
    • स्वायत्त ड्रोन और साइबर हमले प्रत्यक्ष नैतिक जवाबदेही को अस्पष्ट करते हैं

भारतीय विदेश नीति में आत्मरक्षा

  • संवैधानिक एवं कानूनी पृष्ठभूमि
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51 अंतरराष्ट्रीय शांति और मध्यस्थता को बढ़ावा देता है, जो भारत को संयुक्त राष्ट्र चार्टर के साथ जोड़ता है।
    • भारत संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 51 के तहत संप्रभु समानता, गैर-हस्तक्षेप और आत्मरक्षा के अंतर्निहित अधिकार का समर्थन करता है।

आत्मरक्षा के प्रति भारत का दृष्टिकोण: सिद्धांत

सिद्धांत

भारतीय दृष्टिकोण

रणनीतिक संयम अत्यधिक प्रतिशोध से बचाना; संतुलित प्रतिक्रिया को प्राथमिकता देना।
समानता सैन्य कार्रवाइयों में नैतिक और कानूनी सीमाएँ बनाए रखता है।
संप्रभुता का सम्मान जब तक स्पष्ट रूप से आक्रामकता न हो, हस्तक्षेप न करने का समर्थन किया जाता है।
विश्वसनीय निवारण दृढ़ किन्तु संयमित संदेश का प्रयोग करता है (जैसे- सर्जिकल स्ट्राइक)।
उत्तरदायित्व सिद्धांत सीमा पार आतंकवादी गतिविधियों के लिए राज्यों को जवाबदेह ठहराया जाता है।

  • प्रमुख सैद्धांतिक और परिचालनात्मक उपलब्धियाँ
    • ऑपरेशन मेघदूत (1984): पाकिस्तानी सेना की आवाजाही की आशंका में भारत ने सियाचिन पर अधिकार कर लिया।
    • क्षेत्रीय आत्मरक्षा में निहित रणनीतिक पूर्व-आक्रमण का मामला।
    • कारगिल संघर्ष (1999): भारत ने भारतीय भूमि पर पाकिस्तानी घुसपैठ के खिलाफ वास्तविक आत्मरक्षा का उदाहरण प्रस्तुत किया।
      • उकसावे के बावजूद नियंत्रण रेखा पार न करके संयम का प्रदर्शन किया।
    • सर्जिकल स्ट्राइक (2016): गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं द्वारा उरी आतंकी हमले के बाद नियंत्रण रेखा के पार की गई।
      • विदेशी क्षेत्र में गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं के खिलाफ आत्मरक्षा का आह्वान किया।
    • बालाकोट एयर स्ट्राइक (2019): भारतीय अर्द्धसैनिक बलों पर पुलवामा आत्मघाती बम विस्फोट का बदला।
      • आतंकवादी शिविरों को निशाना बनाकर एक गैर-सैन्य पूर्व-आक्रमण कार्रवाई के रूप में उचित ठहराया गया।
    • ऑपरेशन सिंदूर (2025): भारत ने पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तान स्थित आतंकवादी शिविरों के खिलाफ अग्रिम आत्मरक्षा की, जिसमें गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं को सटीक हमलों के साथ निशाना बनाया गया।
      • पाकिस्तान की जवाबी कार्रवाई के बावजूद, शुरू में नागरिक/सैन्य बुनियादी ढाँचे पर हमले से परहेज करके तथा वैश्विक स्तर पर कार्रवाई को उचित ठहराने के लिए कूटनीतिक प्रयास करके संयम का प्रदर्शन किया।
  • भारतीय चिंतन में नैतिक स्थिति
    • गांधीवादी विरासत: अहिंसा और कूटनीति भारत की वैश्विक स्थिति का नैतिक आधार है।
    • कौटिल्य यथार्थवाद: शासन कला में आत्मरक्षा के धार्मिक औचित्य को मान्यता देता है।
    • भारतीय विदेश नीति राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे में पड़ने पर नैतिक संयम और निर्णायक कार्रवाई के बीच संतुलन स्थापित करती है।

आगे की राह 

  • अंतरराष्ट्रीय कानून में ‘आसन्न खतरे’ को संहिताबद्ध करना: वैध प्रत्याशित बचाव को पूर्व-आक्रमण से अलग करने के लिए ‘आसन्न खतरे’ को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना।
    • वर्तमान अस्पष्टता राज्यों को बल के अनुचित उपयोग के लिए ‘ग्रे जोन’ का लाभ उठाने की अनुमति देती है।
  • संयुक्त राष्ट्र की निगरानी प्रणाली को मजबूत करना: सुरक्षा परिषद द्वारा स्वतंत्र समीक्षा के साथ अनुच्छेद 51 की रिपोर्टिंग अनिवार्य बनाना।
    • समय पर जवाबदेही आत्मरक्षा दावों के दुरुपयोग को रोक सकती है।
  • गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं के खिलाफ बल के उपयोग को विनियमित करना: आतंकवादी समूहों के खिलाफ सीमा पार कार्रवाई के लिए एक बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय ढाँचा विकसित करना।
    • विकसित हो रहे खतरे संप्रभुता एवं सुरक्षा दुविधाओं पर स्पष्टता की माँग करते हैं।
  • आनुपातिकता और नागरिक सुरक्षा सुनिश्चित करना: आत्मरक्षा अभियानों में नागरिक प्रभाव की अंतरराष्ट्रीय निगरानी को अनिवार्य करना।
    • नैतिक विश्वसनीयता नागरिकों की सुरक्षा पर निर्भर करती है।
  • स्पष्ट प्रोटोकॉल के साथ क्षेत्रीय सुरक्षा संधियों को बढ़ावा देना: स्पष्ट प्रोटोकॉल और पूर्व-निर्धारित सीमाओं के साथ क्षेत्रीय सुरक्षा संधियों को बढ़ावा देना आवश्यक है। ऐसे स्थानीय रक्षा समझौते, जैसे कि आसियान और शंघाई सहयोग संगठन (SCO), सदस्य देशों के बीच साझा सुरक्षा रूपरेखाएँ स्थापित कर सकते हैं।
    • ये एकतरफावाद और संघर्ष की वृद्धि की संभावनाओं को प्रभावी रूप से कम कर सकते हैं।
  • सैन्य सिद्धांतों में नैतिकता शिक्षा को शामिल करना: राष्ट्रीय स्तर पर बल प्रयोग के निर्णय लेने में नैतिक प्रशिक्षण को शामिल करना।
    • नैतिक रूप से जागरूक नेतृत्व अतिरेक को कम करता है और कानूनी उल्लंघनों से बचाता है।
  • नैतिक संयम के साथ रणनीतिक निवारण को संतुलित करना: ऐसे सिद्धांतों को अपनाना, जो पूर्व-आक्रमणकारी हिंसा का महिमामंडन किए बिना रक्षात्मक तत्परता पर जोर देते हैं।
    • यथार्थवाद को नैतिकता के साथ जोड़ना सुरक्षा एवं वैधता दोनों को बनाए रखता है।

निष्कर्ष 

आत्मरक्षा संबंधी नैतिकता, जैसा कि इजरायल-ईरान संघर्ष और भारत की विदेश नीति में देखा गया है, आवश्यकता, आनुपातिकता और संप्रभुता के सम्मान के बीच एक संवेदनशील संतुलन की माँग करती है। ऑपरेशन सिंदूर द्वारा उदाहरणित भारत का संयमित दृष्टिकोण नैतिक आत्मरक्षा के लिए एक मॉडल प्रस्तुत करता है, जो वैश्विक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय कानून और कूटनीति का पालन करने का आग्रह करता है ताकि तनाव को बढ़ने से रोका जा सके और शांति कायम रहे।

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