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पर्ल स्पॉट उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए जीनोम एडिटिंग मिशन शुरू किया गया

Lokesh Pal July 09, 2024 03:12 115 0

संदर्भ

केरल मत्स्य एवं महासागर अध्ययन विश्वविद्यालय (Kerala University of Fisheries and Ocean Studies- Kufos) जलीय कृषि क्षेत्र में क्रांति लाने और पर्ल स्पॉट उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए जीनोम एडिटिंग मिशन शुरू करने जा रहा है। 

  • उद्देश्य: मछली की आनुवंशिक संरचना को लक्षित करना, जिससे वृद्धि दर में तेजी आए। इससे पर्ल स्पॉट के प्रजनन और बीज उत्पादन को बढ़ाने में भी मदद मिलेगी। 
  • उम्मीद है कि पर्लस्पॉट के धब्बों का DNA अनुक्रमण (DNA Sequencing) जल्द ही सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध हो जाएगा। 

पर्ल स्पॉट फिश के बारे में

  • वैज्ञानिक नाम: एट्रोप्लस सुरटेन्सिस और आमतौर पर केरल में ‘करीमीन’ (Karimeen) के रूप में जाना जाता है। 
  • देशज प्रजाति: पर्ल स्पॉट्स एक उच्च मूल्य वाली मछली है, जो प्रायद्वीपीय भारत और श्रीलंका में पाई जाती है। 

  • मान्यता: इस प्रजाति को वर्ष 2010 में ‘केरल की राज्य मछली’ घोषित किया गया था। 
  • जलकृषि की संभावनाएँ 
    • पर्ल स्पॉट की बाजार में उच्च माँग है, इसकी प्रकृति कठोर है, तथा सीमित जल में प्राकृतिक रूप से प्रजनन करने की क्षमता रखती है, जिसके कारण यह जलीय कृषि के लिए उपयुक्त है। 

विशेषताएँ

  • आवास: पर्ल स्पॉट एक यूरीहैलाइन मछली (Euryhaline Fish) है, जो खारे जल में अच्छी तरह पनपती है तथा ताजे एवं खारे जल दोनों में रहने की क्षमता रखती है। 
  • खाद्य आदतें: यह एक सर्वाहारी डिट्रिटस (Omnivorous Detritus) भक्षी है, जो मुख्य रूप से प्लवक, छोटे कीड़े, झींगा और शैवाल को खाता है, जिसमें पेरिफाइटन (Periphyton) प्रमुख है और स्पाइरोगाइरा (Spirogyra) इसका पसंदीदा भोजन है। 
  • प्रजनन की आदतें: इसमें एक अतुल्यकालिक (Asynchronous) प्रकार का अंडाशय होता है, जो इसकी निरंतर प्रजनन की आदत को दर्शाता है। यह पूरे वर्ष प्रजनन करता है, जिसमें मानसून के दौरान दो चरम चरण होते हैं। 
  • भौतिक विशेषताएँ: पर्ल स्पॉट के धब्बों में एक ऊँचा पार्श्व संपीडित शरीर और एक छोटा-सा मुँह होता है। 
    • रंग: प्राकृतिक आवास में, यह मछली हल्के हरे रंग की होती है तथा इसमें आठ ऊर्ध्वाधर पट्टियाँ होती हैं। 
    • शल्क (Scales): पार्श्व रेखा के ऊपर अधिकांश शल्कों पर पर्ल स्पॉट जैसे सफेद धब्बे होते हैं तथा उदरीय शल्कों पर कुछ अनियमित काले धब्बे दिखाई देते हैं। 
  • रोगों से ग्रस्त: सबसे आम रोग उत्पन्न करने वाले एजेंट बैक्टीरिया हैं, जिनमें स्यूडोमोनास (Pseudomona), अल्केलिजेनस (Alcaligenes), फ्लेवोबैक्टीरिया (Flavobacteria), मोराक्सेला (Moraxella), विब्रियो (Vibrio) और ग्राम पॉजिटिव माइक्रोकोकी (Gram-Positive Micrococci), एथ्रोबैक्टर (Arthrobacter) और बैसिलस SPP (Bacillus spp) शामिल हैं। 

पर्लस्पॉट स्पॉट का पालन

  • पालन: पर्ल स्पॉट केरल के पारंपरिक तालाबों में सीमित, ताजे और खारे जल में छोटे पैमाने पर पालन के लिए उपयुक्त है, जिसे 9-12 महीनों में प्राप्त किया जा सकता है। (शरीर का वजन 300 से 400 ग्राम तक)। 
  • इसकी खेती पारंपरिक तरीके से ‘पोक्काली’ (Pokkali) क्षेत्रों में की जाती है। 
    • वार्षिक उत्पादन (Annual Production): वर्ष 2020 के अनुमान के अनुसार, केरल में प्रतिवर्ष लगभग 2,000 टन पर्लस्पॉट उत्पादन होता है, जबकि बाजार में इसकी माँग लगभग 10,000 टन है। 
  • बीज उत्पादन (Seed Production): पर्ल स्पॉट का बीज भारत के पूर्वी और दक्षिण-पश्चिमी तटों पर पूरे वर्ष उपलब्ध रहता है तथा इसका चरम मौसम मई-जुलाई और नवंबर-फरवरी के महीनों के दौरान होता है। 
    • बीज संग्रहण की विधि: इस विधि में टहनियों या शाखाओं को संग्रहण के दिन से एक सप्ताह पहले जल में डूबा कर रखा जाता है, ताकि मछलियों की इस प्रवृत्ति का लाभ उठाया जा सके कि वे बड़ी संख्या में एपिफाइटिक वृद्धि पर खाद्य के लिए एकत्र होती हैं।
  • स्पॉनिंग सतहें (Spawning Surfaces) 
    • प्रकृतिक वातावरण: मछली अपने अंडों को जलमग्न सतह जैसे पत्थर, जलीय पौधे आदि से चिपका देती है।
    • सुसंस्कृत वातावरण: तैयार तालाब में खंभों पर गुच्छों में बाँधे गए ताड़ के पत्ते, नारियल के पत्ते के डंठल, नारियल के छिलके, ईंटें, एस्बेस्टस शीट के टुकड़े आदि सामग्री उपलब्ध कराई जाती है।

जीनोम एडिटिंग 

  • जीनोम एडिटिंग तकनीक वैज्ञानिकों को किसी जीव के DNA में परिवर्तन करने में सक्षम बनाती है, जिससे उसके शारीरिक लक्षणों, जैसे- आँखों के रंग और रोग के जोखिम में परिवर्तन हो सकता है।
  • परिवर्तन (Alteration): ये प्रौद्योगिकियाँ जीनोम में विशेष स्थानों पर आनुवंशिक सामग्री को जोड़ने, हटाने या बदलने की अनुमति देती हैं।
  • तकनीकी (Technology): वैज्ञानिक इसके लिए अलग-अलग तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, जो कैंची की तरह कार्य करती है और DNA को एक खास जगह से काटती है। हाल ही में, वर्ष 2009 में CRISPR नामक एक नया जीनोम एडिटिंग टूल का आविष्कार किया गया। 
    • इसके बाद वैज्ञानिक जहाँ से DNA काटा गया था, वहाँ से उसे हटा सकते हैं, जोड़ सकते हैं या बदल सकते हैं।
  • पहली जीनोम एडिटिंग तकनीक 1900 के दशक के अंत में विकसित की गई थी, जिससे DNA की एडिटिंग करना पहले से कहीं अधिक आसान हो गया है।

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