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ग्लेशियर पिघलना और उनका परिरक्षण

Lokesh Pal June 03, 2025 03:01 70 0

संदर्भ

हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री (EFCC) ने ताजिकिस्तान गणराज्य के दुशांबे में 29 से 31 मई, 2025 तक आयोजित ग्लेशियरों के परिरक्षण पर उच्च स्तरीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के पूर्ण सत्र को संबोधित किया।

संबंधित तथ्य

  • ताजिकिस्तान सरकार ने यूनेस्को और विश्व मौसम संगठन के सहयोग से वैश्विक पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने और जल-संबंधी चुनौतियों से निपटने में ग्लेशियरों की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालने के लिए इस सम्मेलन का आयोजन किया।

ग्लेशियर के बारे में

  • ग्लेशियर सघन बर्फ का एक स्थायी द्रव्यमान है, जो सदियों से बर्फ के संचय, संघनन और पुनःक्रिस्टलीकरण के माध्यम से बनता है और अपने भार के कारण धीरे-धीरे आगे बढ़ता है।
  • मुख्य रूप से ध्रुवीय क्षेत्रों और हिमालय, आल्प्स एवं एंडीज जैसी पर्वत शृंखलाओं में पाए जाने वाले ग्लेशियर पृथ्वी की जलवायु और जल प्रणालियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • दुनिया में 2,75,000 से अधिक ग्लेशियर हैं, जो लगभग 7,00,000 वर्ग किमी. के क्षेत्र को शामिल करते हैं।

ग्लेशियर क्यों महत्त्वपूर्ण हैं?

  • वैश्विक जल संसाधन: ग्लेशियर मीठे जल का एक प्रमुख स्रोत हैं, जो पीने, कृषि और उद्योग के लिए जल उपलब्ध कराते हैं।
    • ग्लेशियर दुनिया के लगभग 69% मीठे जल को संगृहीत करते हैं और गंगा, सिंधु एवं ब्रह्मपुत्र जैसी विश्व की प्रमुख नदियों के लिए जल के प्राथमिक स्रोत के रूप में कार्य करते हैं।

  • कृषि और मानव बस्तियों के लिए जल सुरक्षा: ग्लेशियर पिघलने से भारत-गंगा के मैदानों में कृषि के लिए आवश्यक मौसमी जल प्रवाह प्राप्त होता है।
    • भागा बेसिन में बड़े पैमाने पर नुकसान (वर्ष 2008-2021 से 6-9 मीटर जल स्तर के बराबर) हिमालय पर निर्भर क्षेत्रों में सिंचाई और पेयजल के लिए दीर्घकालिक जल की कमी प्रदर्शित करता है।
  • आपदा विनियमन और जोखिम सृजन: हालाँकि ग्लेशियर जल प्रवाह को नियंत्रित करते हैं, तेजी से पिघलने से आपदा जोखिम बढ़ता है, विशेष रूप से ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOFs), हिमस्खलन और अचानक बाढ़ जैसी आपदाओं का खतरा बढ़ता है।
    • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) ने इन खतरों से निपटने के लिए GLOF जोखिम मानचित्रण और प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली शुरू की है।

  • पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को समर्थन: ग्लेशियर और आस-पास के परिदृश्य बड़े पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं और उनका संरक्षण जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के लचीलेपन को बनाए रखने में मदद करता है।
    • ग्लेशियर विविध पौधों के समुदायों और परागण नेटवर्क का समर्थन करते हैं, जो अल्पाइन पारिस्थितिकी तंत्र की समग्र स्थिरता में योगदान करते हैं। उदाहरण के लिए- नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान उत्तराखंड।
  • जलवायु विनियमन (Climate Regulation): ग्लेशियर जलवायु प्रणाली में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हैं और वैश्विक तापमान को नियंत्रित करते हैं।
    • जैसे-जैसे ग्लेशियर सिकुड़ते जाते हैं, परावर्तकता में कमी के कारण तापमान में वृद्धि होती है, यह एक फीडबैक लूप है, जो उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर की सतह के तापमान में 1°C (वर्ष 1951-2015) की वृद्धि के रूप में देखा गया है।
  • वैज्ञानिक अभिलेख: ग्लेशियरों में अतीत की जलवायु और पर्यावरण के बारे में बहुमूल्य जानकारी होती है, जो पृथ्वी के इतिहास का एक अनूठा संग्रह प्रस्तुत करती है।
    • ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के नव प्रकाशित शोध से यह जानकारी मिलती है कि पिछले 41,000 वर्षों में वायरस ने पृथ्वी की बदलती जलवायु के साथ किस प्रकार अनुकूलन किया है।

ग्लेशियरों के पिघलने में योगदान देने वाले कारक

  • जलवायु परिवर्तन: बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे उनका द्रव्यमान और विस्तार कम हो रहा है।
    • संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि तापमान वृद्धि के कारण हिमालय के ग्लेशियर वर्ष 2100 तक अपने द्रव्यमान का 30-50% खो सकते हैं।
  • वायु प्रदूषण में वृद्धि: औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों और बायोमास दहन से उत्पन्न ‘ब्लैक कार्बन’ ग्लेशियरों पर जम जाता है, जिससे उनका एल्बिडो कम हो जाता है और ऊष्मा अवशोषण बढ़ जाता है, जिससे ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ जाती है।
    • UNEP की अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों पर वर्ष 2024 की रिपोर्ट में दक्षिण एशिया और हिमालय में ग्लेशियरों के पिघलने में ब्लैक कार्बन को प्रमुख योगदानकर्ता बताया गया है।
  • चरम मौसम पैटर्न: बार-बार होने वाली भारी वर्षा और गर्म हवाएँ ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने में योगदान करती हैं।
    • उदाहरण: वर्ष 2025 की स्विस बाढ़, कई दिनों तक गर्म, आर्द्र परिस्थितियों के बाद आई थी, जो कि हिमाच्छादित क्षेत्रों में तेजी से सामान्य हो रही है।
  • मानवीय गतिविधियाँ: वनों की कटाई, शहरीकरण और पर्यटन से हिमनद पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है और हिमनदों के पिघलने की क्रिया और तीव्र हो जाती है।
    • ऐसा माना जाता है कि उत्तराखंड में चार धाम परियोजना जैसी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं ने पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील हिमनद क्षेत्रों को नुकसान पहुँचाया है।
  • ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (Glacial Lake Outburst Floods-GLOFs): तेजी से पिघलने से अस्थिर ग्लेशियल झीलों का निर्माण होता हैं, जिससे विनाशकारी बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।
    • वर्ष 2013 केदारनाथ आपदा, वर्ष 2021 उत्तराखंड में चमोली बाढ़ और वर्ष 2023 सिक्किम बाढ़ ग्लेशियर पिघलने और GOLF से जुड़ी थीं।

ग्लेशियर पिघलने के प्रभाव

  • समुद्र स्तर में वृद्धि तटीय क्षेत्रों के लिए खतरा: पिघलते ग्लेशियर वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, जिससे निचले तटीय क्षेत्र खतरे में पड़ जाते हैं।
    • वर्ष 1961 से, ग्लेशियर पिघलने से समुद्र का स्तर लगभग 2.7 सेमी. बढ़ गया है, जिससे वार्षिक रूप से 335 बिलियन टन बर्फ का नुकसान हो रहा है।
  • बुनियादी ढाँचे और आवासों का विनाश: ग्लेशियर पिघलने से होने वाले भूस्खलन और बाढ़ मानव बस्तियों और पारिस्थितिकी तंत्र को तबाह कर सकते हैं। 
    • मई 2025 में, बर्फ ग्लेशियर के ढहने से बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुआ, जिससे स्विस गाँव ‘ब्लैटन’ का 90% हिस्सा नष्ट हो गया।
  • त्वरित जलवायु प्रतिक्रिया : ग्लेशियर कवरेज में कमी से पृथ्वी का एल्बेडो कम हो जाता है, जिससे अत्यधिक गर्मी उत्पन्न हो जाती है।
    • ग्लेशियर के पिघलने से सतहें काली हो जाती हैं, जिससे गर्मी का अवशोषण बढ़ जाता है और ग्लोबल वार्मिंग बढ़ जाती है।
  • पर्यटन और आजीविका पर आर्थिक प्रभाव: ग्लेशियर के नष्ट होने से पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है, जो ग्लेशियर परिदृश्यों पर निर्भर हैं।
    • आइसलैंड में, ग्लेशियरों के पीछे हटने से पर्यटन को खतरा है, जो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिम: स्थायी हिमपात और ग्लेशियर की बर्फ हजारों वर्षों तक वायरस, बैक्टीरिया और बीजाणुओं को प्रग्रहित कर सुरक्षित रख सकती है। जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघलते हैं, ये निष्क्रिय रोगजनक पर्यावरण में छोड़े जा सकते हैं।
    • उदाहरण: साइबेरिया (2016) में हीटवेव के कारण पर्माफ्रॉस्ट पिघला गया और एक हिरन के शव से एंथ्रेक्स जीवाणु उत्सर्जित हुए, जिससे मनुष्य और जानवर संक्रमित हो गए।

ग्लेशियर संरक्षण के लिए भारत सरकार की पहल

  • हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय मिशन (National Mission for Sustaining the Himalayan Ecosystem-NMSHE): जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan on Climate Change-NAPCC) के तहत एक उप-मिशन है।
    • इसका उद्देश्य हिमालयी क्रायोस्फीयर पर जलवायु प्रभावों को समझना, संरक्षण को बढ़ावा देना और पर्वतीय समुदायों से संबंधित लचीलेपन का निर्माण करना है।
  • क्रायोस्फीयर और जलवायु परिवर्तन अध्ययन केंद्र: इसे भारतीय हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर की गतिशीलता, ग्लेशियल झीलों और पर्माफ्रॉस्ट पर उन्नत शोध को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किया गया है।
    • वास्तविक समय डेटा संग्रह, मॉडलिंग और जोखिम पूर्वानुमान का समर्थन करता है।
  • इसरो द्वारा रिमोट सेंसिंग और जीआईएस का उपयोग: इसरो ग्लेशियर क्षेत्र, द्रव्यमान और गति में परिवर्तनों की निगरानी करने के लिए उपग्रह-आधारित ग्लेशियर निगरानी का उपयोग करता है।
    • ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GOLF) की प्रारंभिक चेतावनी प्रदान करने को सक्षम बनाता है और दीर्घकालिक जलवायु मॉडलिंग का समर्थन करता है।
  • NDMA द्वारा ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GOLF) जोखिम मानचित्रण: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने GOLF-प्रवण क्षेत्रों की जोनिंग और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों के निर्माण की पहल की है।
    • इसका उद्देश्य उच्च संवेदनशील क्षेत्रों में आपदा जोखिम को कम करना है।
  • राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा अनुसंधान: कई संस्थान भारत के ग्लेशियोलॉजी प्रयासों का समर्थन करते हैं:

हिमनद निगरानी और संरक्षण में शामिल संगठन

  • विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization-WMO): ग्लेशियर पिघलने सहित वैश्विक जलवायु प्रवृत्तियों की निगरानी करता है और ग्लेशियर से संबंधित खतरों के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को बेहतर बनाने का कार्य करता है। WMO ग्लेशियरों और हिम शृंखलाओं की निगरानी के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का समर्थन करता है।
    • WMO थर्ड पोल रीजनल क्लाइमेट सेंटर नेटवर्क (TPRCC-नेटवर्क) हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर परिवर्तनों का नियमित आकलन तैयार करता है और प्रसारित करता है।
  • विश्व ग्लेशियर निगरानी सेवा (World Glacier Monitoring Service- WGMS): स्विट्जरलैंड में स्थित, यह दुनिया भर में ग्लेशियर द्रव्यमान संतुलन और बर्फ के नुकसान की निगरानी करता है, जलवायु अनुसंधान के लिए महत्त्वपूर्ण डेटा प्रदान करता है।

    • राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (National Centre for Polar and Ocean Research- NCPOR): ध्रुवीय एवं उच्च-तुंगता अनुसंधान केंद्र से संबंधित है।
    • NIH (रुड़की): जल विज्ञान और नदियों में ग्लेशियर पिघलने के योगदान पर अध्ययन करता है।
    • वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान और जी.बी. पंत संस्थान: क्रायोस्फीयर अध्ययन और पारिस्थितिकी निगरानी में सहयोग करता है।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग और जलवायु कूटनीति: भारत ने वर्ष 2025 के दुशांबे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में ग्लेशियर संरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की।
    • विकासशील देशों के लिए समानता, CBDR-RC, तथा उन्नत प्रौद्योगिकी एवं वित्त प्रवाह की आवश्यकता पर बल दिया गया।

ग्लेशियर संरक्षण के लिए वैश्विक पहल

  • ग्लेशियरों के संरक्षण का अंतरराष्ट्रीय वर्ष (2025): इसे वैश्विक जागरूकता बढ़ाने और ग्लेशियर से संबंधित अनुसंधान तथा अनुकूलन को प्राथमिकता देने के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित किया गया है।
    • दुशांबे में ग्लेशियर संरक्षण पर उच्च स्तरीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में समर्थन प्राप्त हुआ, जिसमें भारत ने सक्रिय रूप से भाग लिया।
  • क्रायोस्फेरिक विज्ञान के लिए कार्रवाई का दशक (2025-2034): संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा ग्लेशियोलॉजी, जलवायु अनुसंधान और जोखिम न्यूनीकरण को बढ़ावा देने के लिए एक प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक सहयोग दशक।
  • ग्लेशियरों के लिए विश्व दिवस: ग्लेशियरों के लिए पहला विश्व दिवस 21 मार्च, 2025 को मनाया जाएगा।
    • उद्देश्य: ग्लेशियरों की सुरक्षा और पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए वैश्विक जागरूकता बढ़ाना और कार्रवाई को प्रोत्साहित करना।
    • यह दिन ग्लेशियरों के संरक्षण के अंतरराष्ट्रीय वर्ष 2025 का हिस्सा है।
  • पेरिस समझौता और राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान (NDC): क्रायोस्फीरिक क्षरण को कम करने के लिए वैश्विक तापमान को 2°C से कम रखने के लिए प्रतिबद्ध देश।
  • क्रायोस्फीयर मॉनिटरिंग प्रोग्राम: वर्ल्ड ग्लेशियर मॉनिटरिंग सर्विस (World Glacier Monitoring Service-WGMS), NASA के ऑपरेशन आइसब्रिज और ESA के क्रायोसैट मिशन जैसे संगठनों द्वारा संचालित।
    • ग्लेशियर की मात्रा, वेग और द्रव्यमान संतुलन पर महत्त्वपूर्ण डेटा प्रदान करना, वैश्विक जलवायु मॉडल और नीति निर्माण का समर्थन करना।
  • अंतरराष्ट्रीय एकीकृत पर्वतीय विकास केंद्र (International Centre for Integrated Mountain Development-ICIMOD): आठ हिंदू कुश हिमालय (HKH) राष्ट्रों की सेवा करने वाला एक क्षेत्रीय अंतर-सरकारी निकाय: अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, चीन और म्याँमार।
    • यह हिमालय में सीमा पार ग्लेशियर अनुसंधान, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और जलवायु लचीलापन को बढ़ावा देता है।
  • आर्कटिक परिषद: आर्कटिक ग्लेशियर और समुद्री बर्फ संरक्षण को संबोधित करने वाला अंतर-सरकारी मंच, जिसमें भारत एक पर्यवेक्षक है।

ग्लेशियर संरक्षण में चुनौतियाँ

  • जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते रुझान: वैश्विक तापमान में वृद्धि ग्लेशियरों के तेजी से पीछे हटने का मूल कारण है और उत्सर्जन के लिए मौजूदा प्रतिबद्धता अपर्याप्त हैं।
    • वर्ष 2023 में, वैश्विक स्तर पर ग्लेशियरों की रिकॉर्ड 604 बिलियन टन बर्फ पिघली।
  • वास्तविक समय और स्थानीयकृत डेटा की कमी: अधिकांश ग्लेशियर दूरदराज के क्षेत्रों में हैं, जहाँ न्यूनतम दीर्घकालिक क्षेत्र अध्ययन या स्वचालित द्रव्यमान संतुलन निगरानी की कमी है।
  • विकासशील देशों में कम वित्तीय और तकनीकी क्षमता: पहाड़ी देशों में अत्याधुनिक क्रायोस्फीयर अनुसंधान उपकरण, पूर्वानुमान मॉडल और शमन वित्त तक पहुँच की कमी है।
    • भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देशों ने दुशांबे, 2025 शिखर सम्मेलन में वैश्विक वित्तपोषण में वृद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
  • ग्लेशियर प्रणालियों की सीमा पार प्रकृति: ग्लेशियर राजनीतिक सीमाओं (जैसे- हिमालय) में विस्तृत हैं, जो संयुक्त अनुसंधान, डेटा साझाकरण और आपदा प्रतिक्रिया को जटिल बनाते हैं।
    • हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में 8 राष्ट्र शामिल हैं, जिन्हें निरंतर राजनयिक सहयोग की आवश्यकता है। (ICIMOD)
  • उच्च-तुंगता युक्त बुनियादी ढाँचे और पर्यटन का खराब विनियमन: ग्लेशियर क्षेत्रों के पास निर्माण, अनियमित तीर्थयात्राएँ और पर्यटन ऊष्मा अवशोषण को बढ़ाते हैं और ग्लेशियल प्रणालियों को अस्थिर करते हैं।
    • उत्तराखंड (2021) और हिमाचल (2023) में अचानक आई बाढ़ ‘ग्लेशियल’ जलग्रहण क्षेत्रों के पास अत्यधिक विकास से जुड़ी थी।
  • सामुदायिक ज्ञान और स्थानीय क्षमता का कम उपयोग: नीतियाँ प्रायः ग्लेशियल जोखिमों और मौसमी परिवर्तनों के बारे में स्वदेशी और स्थानीय अंतर्दृष्टि को अनदेखा करती हैं।
    • स्थानीय शेरपा और हिमालयी समुदायों के पास प्रायः ‘ग्लेशियल’ आपदा के शुरुआती संकेतक होते हैं, लेकिन उन्हें प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों में एकीकृत नहीं किया जाता है।

ग्लेशियर संरक्षण के लिए आगे की राह

  • वैश्विक जलवायु कार्रवाई में तेजी लाना: ग्लेशियरों के पिघलने की गति को धीमा करने के लिए पेरिस समझौते के तहत उत्सर्जन में कटौती को तेजी से आगे बढ़ाना आवश्यक है।
    • अध्ययनों से पता चलता है कि तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने से वर्ष 2100 तक ग्लेशियरों के मौजूदा द्रव्यमान का ~50% हिस्सा संरक्षित किया जा सकता है।
  • ग्लेशियर निगरानी के बुनियादी ढाँचे को मजबूत बनाना: स्वचालित मौसम केंद्रों, उपग्रह डेटा और फील्ड रिसर्च का उपयोग करके वास्तविक समय निगरानी का विस्तार करना।
  • GLOF प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को बढ़ाना: पूर्वानुमान मॉडलिंग, सायरन नेटवर्क और समुदाय के नेतृत्व वाली आपदा प्रतिक्रिया अभ्यास में निवेश करना।
    • NDMA के प्रयासों को सभी उच्च जोखिम युक्त हिमालयी ग्लेशियल झीलों तक बढ़ाया जाना चाहिए, न कि केवल चुनिंदा क्षेत्रों तक।
  • सीमा पार सहयोग को संस्थागत बनाना: डेटा साझा करने, संयुक्त जोखिम मानचित्रण और पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन के लिए हिमालयी जलवायु कूटनीति को बढ़ावा देना।
    • समन्वित क्षेत्रीय हिमनद प्रबंधन (ICIMOD) जैसे प्लेटफॉर्म को सशक्त बनाया जाना चाहिए।
  • पर्यावरण के प्रति संवेदनशील विकास और पर्यटन को बढ़ावा देना: बुनियादी ढाँचे के लिए पर्यावरणीय मंजूरी लागू करना और कमजोर हिमनद क्षेत्रों में पर्यटन को विनियमित करना।
    • पीछे हटते ग्लेशियरों और संवेदनशील घाटियों के पास निर्माण कार्य से बचना, जैसा कि केदारनाथ और जोशीमठ के मामले में हुआ है।
  • पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय क्षमता का लाभ उठाना: जमीनी स्तर पर लचीलेपन के लिए स्वदेशी अवलोकनों को वैज्ञानिक प्रणालियों के साथ एकीकृत करना।
    • हिमालयी समुदाय मौसमी परिवर्तनों, हिमस्खलन के जोखिम और हिमनद जल पैटर्न के बारे में शुरुआती जानकारी देते हैं।
  • जलवायु वित्त और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण सुनिश्चित करना: वैश्विक दक्षिण में ग्लेशियर अनुकूलन क्षमता बनाने के लिए समान वित्तपोषण और प्रौद्योगिकी साझाकरण पर जोर देना।
    • दुशांबे में वर्ष 2025 में भारत के आह्वान ने ग्लेशियर संरक्षण के लिए साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों (CBDR-RC) पर जोर दिया।

निष्कर्ष 

वर्ष 2025 के दुशांबे सम्मेलन में ग्लेशियर संरक्षण के लिए भारत की प्रतिबद्धता की पुष्टि जलवायु-संचालित प्रभावों से निपटने में उसके नेतृत्व को रेखांकित करती है। NMSHE जैसी राष्ट्रीय पहलों को ग्लेशियरों के संरक्षण के अंतरराष्ट्रीय वर्ष जैसे वैश्विक प्रयासों के साथ एकीकृत करके, भारत का लक्ष्य हिमालयी ग्लेशियरों की सुरक्षा करना है, जिससे लाखों लोगों के लिए जल सुरक्षा और पारिस्थितिकी स्थिरता सुनिश्चित हो सके।

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