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ग्लोबल स्ट्रेटेजी फॉर रेजिलिएंट ड्राईलैंड (GSRD)

Lokesh Pal December 10, 2024 04:52 28 0

संदर्भ

‘कंसोर्टियम ऑफ इंटरनेशनल एग्रीकल्चरल रिसर्च सेंटर्स’ (Consortium of International Agricultural Research Centres) ने COP16 UNCCCD रियाद, सऊदी अरब में  ‘ग्लोबल स्ट्रेटेजी फॉर रेजिलिएंट ड्राईलैंड’ (GSRD), 2030 का शुभारंभ किया है।

शामिल संगठन

  • अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान सलाहकार समूह (Consultative Group of International Agricultural Research- CGIAR): CGIAR दुनिया का सबसे बड़ा सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित कृषि खाद्य प्रणाली अनुसंधान केंद्रों का समूह है, जो जलवायु संकट के जवाब में भोजन, भूमि एवं जल प्रणालियों को बदलने पर ध्यान केंद्रित करता है।
  • शुष्क क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र (International Center for Agricultural Research in Dry Areas- ICARDA): यह उत्तरी अफ्रीका, मध्य एवं पश्चिम एशिया तथा मध्य पूर्व के जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में विकास के लिए कृषि अनुसंधान पर केंद्रित है।
  • अर्द्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के लिए अंतरराष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान (International Crops Research Institute for the Semi-Arid Tropics- ICRISAT): यह एक प्रमुख शुष्क भूमि कृषि अनुसंधान संस्थान है, जो छोटे किसानों के कल्याण एवं अर्द्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए समर्पित है।
    • इसकी स्थापना 28 मार्च, 1972 को भारत सरकार एवं CGIAR के बीच एक समझौता ज्ञापन के अंतर्गत की गई थी।

शुष्क भूमि के बारे में

  • परिभाषा: संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UN Environment Programme- UNEP) के अनुसार, ”शुष्क भूमि वे भूमि हैं, जिनका शुष्कता सूचकांक 0.65 से कम है।’’ (शुष्कता सूचकांक औसत वार्षिक वर्षा और संभावित वर्षा के बीच का अनुपात है।)
  • इन क्षेत्रों में रेगिस्तान, अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र आदि शामिल हैं एवं वे आम तौर पर अत्यधिक तापमान तथा सीमित वनस्पति के साथ कठोर जलवायु का अनुभव करते हैं। 
    • शुष्क भूमि विश्व के प्रत्येक तीन लोगों में से एक लोग, लगभग आधे पशुधन एवं 44 प्रतिशत खाद्य प्रणालियों का क्षेत्र है। 
  • शुष्क भूमियों का क्षरण: जब शुष्क भूमियों में भूमि का क्षरण होता है, तो इसे मरुस्थलीकरण कहा जाता है।
    • अत्यधिक खेती, अत्यधिक चराई, वनों की कटाई, खराब सिंचाई एवं बढ़ते तापमान के कारण सभी महाद्वीपों में शुष्क भूमि का क्षरण हो रहा है।
    • लगभग 20-35 प्रतिशत शुष्क भूमियाँ निम्नीकृत हैं।
  • महत्त्व: पारंपरिक रूप से संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखे जाने वाले इन क्षेत्रों में जलवायु-स्मार्ट कृषि नवाचार के लिए अपार संभावनाएँ हैं, जिन्हें विश्व स्तर पर बढ़ाया जा सकता है।

‘ग्लोबल स्ट्रेटेजी फॉर रेजिलिएंट ड्राईलैंड’ (GSRD), 2030 

  • ‘ग्लोबल स्ट्रेटेजी फॉर रेजिलिएंट ड्राईलैंड’ (GSRD), 2030 शुष्कभूमि पारिस्थितिकी तंत्र पर 50 वर्षों के अनुसंधान का लाभ उठाते हुए, शुष्कभूमि के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिए CGIAR की एक परिवर्तनकारी पहल है।
    • इस विजन का लक्ष्य खाद्य सुरक्षा बढ़ाने, जैव विविधता का संरक्षण करने एवं विशेष रूप से एशिया तथा अफ्रीका में शुष्क क्षेत्रों में रहने वाले 2.7 बिलियन लोगों के लिए लचीली आजीविका का निर्माण करने के लिए एक रोडमैप प्रदान करना है।
    • रणनीति में शुष्क भूमि को कमी वाले क्षेत्रों के रूप में नहीं, बल्कि लचीलेपन की अप्रयुक्त क्षमता के केंद्र के रूप में दर्शाया गया है।
  • विकसितकर्ता: GSRD को ICARDA (शुष्क क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र) एवं ICRISAT (अर्द्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के लिए अंतरराष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान) के नेतृत्व में CGIAR संस्थानों द्वारा सहयोगात्मक रूप से विकसित किया गया है।
  • लॉन्च किया गया: इसे रियाद, सऊदी अरब में UNCCD के 16वें पक्षकारों के सम्मेलन में लॉन्च किया गया।
  • GSRD के मुख्य फोकस क्षेत्र: रणनीति पाँच महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर जोर देती है:
    • जलवायु परिवर्तन के अनुरूप कृषि खाद्य प्रणालियों को अपनाना।
    • जैव विविधता का संरक्षण।
    • मृदा एवं जल संसाधनों का सतत् प्रबंधन।
    • स्वस्थ आहार को बढ़ावा देना।
    • समावेशी विकास को बढ़ावा देना।

  • GSRD के तहत प्रमुख नवाचार
    • जलवायु-स्मार्ट कृषि (CSA)
      • जौ, मसूर, चना एवं कैक्टस जैसी सूखा प्रतिरोधी फसलों का परिचय।
      • पेड़ों को कृषि के साथ एकीकृत करने के लिए उन्नत कृषि वानिकी तकनीकें।
    • सतत् संसाधन प्रबंधन
      • ऊर्जा-कुशल खेती के लिए सौर ऊर्जा चालित कृषि वोल्टेइक्स।
      • उत्पादकता बढ़ाने के लिए पशुधन आहार प्रथाओं में सुधार।
    • प्रौद्योगिकी एकीकरण: जल की कमी, भूमि क्षरण एवं मरुस्थलीकरण को संबोधित करने के लिए अग्रणी समाधान।

‘ग्लोबल स्ट्रेटेजी फॉर रेजिलिएंट ड्राईलैंड’ (GSRD) का महत्त्व

  • शुष्क भूमियों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: शुष्क भूमियाँ अन्य क्षेत्रों की तुलना में 20-40% अधिक दर से गर्म हो रही हैं, जिससे वे जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो गए हैं।
  • वैश्विक खाद्य असुरक्षा को संबोधित करना: दुनिया के 70% भुखमरी से प्रभावित लोग पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील एवं संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में रहते हैं, जो वैश्विक खाद्य असुरक्षा से निपटने के लिए शुष्क भूमि कृषि को बदलने की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
  • परिवर्तन के लिए सहयोगात्मक प्रयास: राष्ट्रीय अनुसंधान संगठनों, सरकारों एवं निजी क्षेत्र के बीच सहयोग के माध्यम से विकसित, GSRD शुष्क भूमि चुनौतियों के लिए एक सामूहिक प्रतिक्रिया है।
  • वैश्विक प्रासंगिकता: जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के कारण शुष्क भूमि का विस्तार हो रहा है, GSRD के समाधान सतत् कृषि पद्धतियों के लिए आशा प्रदान करते हैं, जिससे शुष्क भूमि क्षेत्रों एवं पर्यावरणीय परिवर्तनों का सामना करने वाले वैश्विक समुदाय दोनों को लाभ होता है।

भारत में शुष्क भूमि

  • भारत में, शुष्क भूमि ज्यादातर 500-1,100 मिमी. के बीच वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अवस्थित हैं, जहाँ नहर एवं भूजल जैसी नियमित सिंचाई सुविधाएँ नहीं हैं, हालाँकि इन भूमियों को बाँध, तालाबों जैसी जल संचयन संरचनाओं से एक या दो पूरक सिंचाई मिल सकती है।

भारत में शुष्क भूमि के प्रकार

  • शुष्क क्षेत्र: इनमें राजस्थान, गुजरात जैसे रेगिस्तानी क्षेत्र एवं हरियाणा एवं पंजाब के कुछ हिस्से शामिल हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 250 मिमी. से कम है। 
    • इन क्षेत्रों में आमतौर पर अत्यधिक तापमान एवं बहुत कम वानस्पतिक आवरण होता है।
  • अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र: ये वे क्षेत्र हैं जहां सालाना 250 मिमी से 500 मिमी. के बीच वर्षा होती है। 
    • इनमें महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना के कुछ हिस्से शामिल हैं। अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र कृषि के लिए अधिक उपयुक्त हैं, लेकिन मिट्टी के कटाव तथा घटते जल स्तर जैसी चुनौतियों का सामना करते हैं।
  • शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्र: इन क्षेत्रों में सालाना 500 मिमी. एवं 750 मिमी. के बीच वर्षा होती है तथा इसमें तमिलनाडु, उत्तराखंड एवं मध्य प्रदेश के कुछ हिस्से शामिल हैं। 
    • उनके पास अधिक विविध पारिस्थितिकी तंत्र है, लेकिन अनियमित वर्षा पैटर्न के कारण कृषि उत्पादकता कमजोर बनी हुई है।

शुष्क भूमियों के सामने आने वाली चुनौतियाँ

  • जल की कमी: शुष्क क्षेत्रों में जल एक दुर्लभ संसाधन है, जिससे कृषि एवं पशुधन उत्पादकता सीमित हो जाती है। 
    • सिंचाई के लिए भूजल का अत्यधिक दोहन, कम वर्षा एवं उच्च तापमान के कारण वाष्पीकरण दर में वृद्धि जल प्रबंधन को एक प्रमुख मुद्दे के रूप में संबोधित करती है।
  • भूमि क्षरण: अत्यधिक खेती, वनों की कटाई एवं खराब मिट्टी प्रबंधन प्रथाओं के कारण कई शुष्क क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर भूमि क्षरण हुआ है। 
    • कभी उपजाऊ क्षेत्रों का मरुस्थलीकरण एक गंभीर पर्यावरणीय चिंता बन गया है, जिससे खाद्य सुरक्षा एवं जैव विविधता को खतरा है।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: शुष्क भूमि अन्य क्षेत्रों की तुलना में तेजी से गर्म हो रही है, जिससे वे सूखे एवं चरम मौसमी घटनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हो गए हैं। 
    • वर्षा के पैटर्न में परिवर्तनशीलता एवं बढ़ते तापमान से फसल खराब होने तथा आजीविका प्रभावित होने का खतरा बढ़ जाता है।
  • मृदा अपरदन: वनस्पति आवरण की कमी एवं लगातार सूखे के कारण, भारत में शुष्क भूमियों में मृदा अपरदन का खतरा रहता है। 
  • जैव विविधता का ह्रास: शुष्क भूमि पारिस्थितिकी तंत्र जैव विविधता से समृद्ध हैं, लेकिन वे अत्यधिक चराई, आवास विनाश एवं जलवायु परिवर्तन से खतरे में हैं। 
    • इससे देशज वनस्पतियों एवं वन्यजीवों में गिरावट आती है, जिससे पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ जाता है।

शुष्क भूमि विकास के लिए सरकारी पहल

  • भारत संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UNCCD) का एक हस्ताक्षरकर्ता बन गया: भारत वर्ष 1994 में संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UNCCD) का एक हस्ताक्षरकर्ता बन गया एवं वर्ष 1996 में इसकी पुष्टि की।
  • भूमि क्षरण तटस्थता (Land Degradation Neutrality- LDN): भारत सतत् विकास लक्ष्य (SDG) 15.3 के अनुरूप, वैश्विक प्रतिबद्धताओं के हिस्से के रूप में, भूमि क्षरण तटस्थता (LDN) प्राप्त करने के लिए वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर खराब भूमि को पुनर्स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है।
  • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए ‘नेशनल एक्शन प्रोग्राम’ (National Action Programme for Combating Desertification- NAPCD): इसे पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया, इस कार्यक्रम का उद्देश्य विशेष रूप से भारत के शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में मरुस्थलीकरण एवं भूमि क्षरण से निपटना है।
  • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY): PMKSY जल की कमी वाले क्षेत्रों, विशेषकर शुष्क भूमि वाले क्षेत्रों में सिंचाई समाधान प्रदान करने पर केंद्रित है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य जल-उपयोग दक्षता में सुधार करना एवं यह सुनिश्चित करना है कि पानी हर खेत तक पहुँचे, जिससे कृषि उत्पादकता बढ़े।
  • एकीकृत वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम (Integrated Watershed Management Programme- IWMP): यह कार्यक्रम कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए वर्षा जल संचयन, बाँध बनाने एवं मिट्टी की नमी का संरक्षण सहित शुष्क भूमि में सतत् जल प्रबंधन पर केंद्रित है।

भूमि क्षरण तटस्थता (LDN)

  • ऐसी स्थिति जिसमें खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने के लिए पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों और सेवाओं को समर्थन देने के लिए आवश्यक भूमि संसाधनों की मात्रा और गुणवत्ता, निर्दिष्ट स्थानिक पैमानों एवं पारिस्थितिकी तंत्रों के भीतर स्थिर बनी रहे, या बढ़े।

आगे की राह

  • कृषि खाद्य प्रणालियों का अनुकूलन: जलवायु स्मार्ट फसलें विकसित करना एवं फसलों, पशुधन तथा जलीय प्रणालियों में जलवायु लचीलेपन के लिए नवीन प्रजनन तकनीक का उपयोग करना।
  • जैव विविधता का संरक्षण एवं उपयोग: मिश्रित फसल, कृषि प्रणाली विविधीकरण को बढ़ावा देना एवं पारिस्थितिकी तंत्र के लचीलेपन को बढ़ाने के लिए स्वदेशी तथा महिलाओं के ज्ञान का लाभ उठाना।
  • मिट्टी, भूमि एवं जल का प्रबंधन: पुनर्योजी कृषि को अपनाना, रेंजलैंड को पुनर्स्थापित करना, एवं कुशल जल उपयोग के लिए सौर ऊर्जा संचालित कृषि-वोल्टाइक तथा ड्रिप सिंचाई को लागू करना।
  • सामुदायिक भागीदारी: स्थायी कृषि प्रथाओं को सुनिश्चित करने के लिए निर्णय लेने में प्रशिक्षण एवं भागीदारी के माध्यम से स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना।

निष्कर्ष 

लचीली शुष्क भूमि के लिए वैश्विक रणनीति का प्रभावी कार्यान्वयन सतत् प्रथाओं एवं नवीन समाधानों के माध्यम से शुष्क भूमि को कृषि तथा जैव विविधता के लिए लचीले केंद्रों में बदल सकता है।

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