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हेट स्पीच

Lokesh Pal December 13, 2025 02:33 10 0

संदर्भ

कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स (प्रिवेंशन) बिल, 2025, भारत का पहला राज्य स्तरीय कानून है जो विशेष रूप से हेट स्पीच से संबंधित है।

कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स (प्रिवेंशन) बिल, 2025 के प्रमुख प्रावधान

  • विस्तृत परिभाषा: धर्म, जाति, समुदाय, लिंग, यौन अभिविन्यास, जन्म स्थान, निवास स्थान, भाषा, दिव्यांगता या जनजाति के आधार पर किया गया कोई भी कार्य या अभिव्यक्ति ‘हेट स्पीच’ और ‘हेट क्राइम’ की श्रेणी में आता है।
    • हेट स्पीच: किसी भी समूह के प्रति जानबूझकर आहत करने, शत्रुता, घृणा या दुर्भावना उत्पन्न करने के उद्देश्य से सार्वजनिक रूप से की गई कोई भी अभिव्यक्ति, चाहे वह मौखिक, लिखित, इलेक्ट्रॉनिक अथवा दृश्य रूप में हो।
      • आधार: धर्म, जाति, नस्ल या लिंग जैसे पहचान चिह्नों के आधार पर समूहों को लक्षित करना।
    • हेट क्राइम: हेट स्पीच का संचार, प्रकाशन या प्रसार, या ऐसे भाषण को बढ़ावा देने, प्रचारित करने, उकसाने या प्रयास करने का कोई भी कार्य।
      • उद्देश्य: किसी भी व्यक्ति (जीवित या मृत), समूह या संगठन के प्रति असामंजस्य, शत्रुता, घृणा या दुर्भावना उत्पन्न करना।
  • कठोर दंड: अपराधों को संज्ञेय (बिना वारंट के गिरफ्तारी की अनुमति) और गैर-जमानती घोषित किया गया है।
    • सजा न्यूनतम एक वर्ष से शुरू होती है और बार-बार अपराध करने वालों के लिए 1 लाख रुपये तक के जुर्माने के साथ 10 वर्ष तक की कैद तक बढ़ाई जा सकती है।
  • पीड़ित सहायता: ‘हेट क्राइम’ से हुए नुकसान की गंभीरता के आधार पर पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा प्रदान करने का प्रावधान शामिल किया गया है।
  • डिजिटल सामग्री हटाने की शक्ति: राज्य के अधिकारियों को सोशल मीडिया कंपनियों और सेवा प्रदाताओं को सीधे निर्देश देने का अधिकार दिया गया है कि वे अपने प्लेटफॉर्म के माध्यम से प्रसारित घृणास्पद सामग्री को ब्लॉक या हटा दें।
  • संगठनात्मक जवाबदेही: विधेयक सामूहिक जवाबदेही की अवधारणा को लागू करता है, जिसके तहत किसी संगठन में नियंत्रण या जिम्मेदारी के पदों पर आसीन व्यक्ति अपने समूह की गतिविधियों से जुड़े अपराधों के लिए उत्तरदायी होंगे।
  • छूट: विधेयक के प्रावधान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रकाशित किसी भी पाठ्यपुस्तक, पुस्तिका, लेख, रचना, रेखाचित्र, पेंटिंग, प्रस्तुतिकरण या आकृति पर लागू नहीं होते हैं, न ही ऐसे किसी प्रकाशन पर जिनका प्रकाशन जनहित में किया गया हो।
    • इसमें विज्ञान, साहित्य, कला, शिक्षा से संबंधित सामग्री या वे सामग्री शामिल हैं जिनका उपयोग वास्तविक विरासत या धार्मिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है।

PWOnlyIAS विशेष

इस विधेयक के गुण-दोष

  • प्रवर्तन संबंधी कमियों को दूर करना: यह कानून मौजूदा व्यापक भारतीय न्याय संहिता (BNS) धाराओं (जैसे 196 और 299) की सीमाओं से परे जाकर एक विशिष्ट कानून बनाकर मौजूदा विधायी कमी को दूर करने का प्रयास करता है, जिनके कारण ऐतिहासिक रूप से दोषसिद्धि दर कम रही है।
    • मौजूदा कानूनों [जैसे- पूर्व भारतीय दंड संहिता (IPC) 153A/295A, अब BNS] के तहत दोषसिद्धि दर उल्लेखनीय रूप से कम है, जो 21% से नीचे बनी हुई है।
  • पीड़ित-केंद्रित: यह कानून पीड़ित मुआवजे का प्रावधान करता है और पुनर्स्थापनात्मक न्याय पर केंद्रित प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाते हुए समर्पित जाँच तंत्र का प्रस्ताव करता है।
  • वास्तविक घटनाओं पर प्रतिक्रिया: यह कानून कर्नाटक में हिंसा और व्यापक ऑनलाइन घृणा अभियानों से हुए नुकसान सहित वास्तविक खतरों और सामाजिक असामंजस्य के लिए एक प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया है।

विधेयक को लेकर उठ रही चिंताएँ

  • अतिव्यापक परिभाषा: इस विधेयक में ‘दुर्भावना’ और ‘मनोवैज्ञानिक क्षति’ जैसे अस्पष्ट शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिनका दुरुपयोग आलोचना या व्यंग्य को निशाना बनाने के लिए आसानी से किया जा सकता है।
    • इस प्रकार की अस्पष्टता अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 21 के लिए खतरा है, जो श्रेया सिंघल (2015) मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध है।
    • इसकी शिथिल व्याख्या और कठोर दंड राजद्रोह और गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम में देखी गई पद्धति को दोहराते हैं, जहाँ असहमति और राजनीतिक विरोध को दबाने के लिए व्यापक शक्तियों का दुरुपयोग किया गया था।
  • छूट के बावजूद भय का प्रभाव: यद्यपि विधेयक में छूट (कला, विज्ञान आदि के लिए) सूचीबद्ध हैं, आपराधिक न्याय प्रणाली की दंडात्मक प्रकृति (संज्ञेय, गैर-जमानती अपराध) का अर्थ है कि प्रक्रिया (गिरफ्तारी और हिरासत) ही दंड बन जाती है।
    • इसलिए ये अपवाद वैध अभिव्यक्ति पर भय के प्रभाव के विरुद्ध व्यावहारिक रूप से कोई विशेष राहत प्रदान नहीं करते हैं।
  • संघवाद और क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण: राज्य के कानून का आपराधिक कानून क्षेत्र (समवर्ती सूची का विषय) में अतिक्रमण, हाल ही में अधिनियमित भारतीय न्याय संहिता (BNS) और केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 के साथ केंद्र-राज्य संघर्ष का गंभीर जोखिम उत्पन्न करता है।
  • असंतुलित दंड: गैर-जमानती अपराधों और 10 वर्ष तक के कारावास के प्रावधानों के साथ, मात्र शब्दों के लिए सजा की गंभीरता असंगत है।
    • यह अनुच्छेद 21 के तहत सख्त आनुपातिकता परीक्षण में विफल रहता है, जैसा कि कौशल किशोर (2023) मामले में पुनः स्पष्ट किया गया है।
  • सेंसरशिप में कार्यपालिका की अति: पुलिस उपाधीक्षकों (DSP) और कार्यकारी मजिस्ट्रेटों को न्यायालय की मंजूरी के बिना सीधे सामग्री हटाने के आदेश जारी करने की अनुमति देना महत्त्वपूर्ण सुरक्षा उपायों को समाप्त करता है, जो अमीश देवगन मामले (2020) में उल्लिखित सिद्धांतों के विपरीत है।
    • यह शक्ति भारतीय न्याय संहिता (BNS) के साथ संघर्ष का जोखिम भी उत्पन्न करती है और सूचना प्रौद्योगिकी (IT) नियम, 2021 का उल्लंघन करती है, जिसमें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिए अनिवार्य उचित परिश्रम की आवश्यकताएँ शामिल हैं।
  • सामूहिक दायित्व: यह कानून नेताओं को उनके सदस्यों के भाषण के लिए जिम्मेदार ठहराता है, जो अनुच्छेद 19(1)(b) का गंभीर रूप से उल्लंघन करने का जोखिम पैदा करता है, जो राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक समूहों के लिए संघ की स्वतंत्रता है।
  • उत्प्रेरण संबंधी सीमा का अभाव: इस विधेयक में ‘तत्काल हिंसा’ से संबंध की संवैधानिक आवश्यकता का अभाव है, जो अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करने के लिए खतरनाक रूप से कम सीमा निर्धारित करता है, इस प्रकार प्रवासी कल्याण (2014) में निर्धारित सख्त दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करता है।

आगे की राह

कानून को प्रभावी और संवैधानिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिए, एक सुविचारित रणनीति आवश्यक है:-

  • विधायी जाँच और समीक्षा: इस विधेयक को गहन जन परामर्श के लिए एक चयन समिति या संयुक्त समिति को भेजा जाना चाहिए, जिसमें इसके प्रावधानों को परिष्कृत करने के लिए कानूनी विशेषज्ञों और नागरिक समाज के सदस्यों को शामिल करना सुनिश्चित किया जाए।
  • सटीक, संवैधानिक परिभाषाएँ अपनाना: राज्य को हिंसा के लिए उकसाने पर केंद्रित परिभाषा तैयार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2021 के हेट स्पीच संबंधी दिशा-निर्देशों और विधि आयोग की 267वीं रिपोर्ट की अनुशंसाओं को अपनाना चाहिए, न कि अस्पष्ट व्यक्तिपरक नुकसानों पर।
  • न्यायिक निगरानी अनिवार्य करना: सामग्री हटाने के आदेशों से संबंधित सभी कार्यकारी कार्रवाइयों को न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व स्वीकृति (उदाहरण के लिए, 24 घंटे के भीतर) के अधीन किया जाना चाहिए।
    • यह उचित प्रक्रिया की रक्षा करता है और सत्ता के दुरुपयोग को रोकता है।
  • छोटे अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करना: कानून को पहली बार किए गए या छोटे अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करना चाहिए, और गंभीर उकसावे या संगठित अपराध से जुड़े मामलों के लिए ही उच्च कारावास की सजा का प्रावधान करना चाहिए।
    • छोटे अपराधों के लिए नागरिक दंड और अनिवार्य परामर्श का प्रावधान होना चाहिए।
  • प्रतिवाद को बढ़ावा देना: नागरिकों को आलोचनात्मक सोच कौशल से युक्त करने के लिए राज्य को मीडिया साक्षरता और शिक्षा में निवेश करना चाहिए।
    • लोकतांत्रिक समाधान सेंसरशिप पर निर्भर रहने के बजाय सक्रिय रूप से प्रतिवाद और सकारात्मक विचारों को बढ़ावा देना है।

क्या अन्य राज्यों को कर्नाटक की तर्ज पर ‘हेट स्पीच’ संबंधी विधेयक अपनाना चाहिए?

  • हेट स्पीच’ का मुद्दा पूरे भारत में एक गंभीर चुनौती है। हालाँकि अन्य राज्यों को कार्रवाई करनी चाहिए, उन्हें कर्नाटक के जोखिम भरे मॉडल को दोहराने से बचना चाहिए। इसका ध्यान मौजूदा कानूनों के बेहतर प्रवर्तन पर होना चाहिए, न कि ऐसे नए कानून बनाने पर जिनका आसानी से दुरुपयोग किया जा सके।
  • कर्नाटक मॉडल अन्य राज्यों के लिए जोखिम भरा क्यों है?
    • नीचे दी गई तालिका दर्शाती है कि विधेयक से न्यूनतम लाभ मिलता है, जबकि यह कई महत्त्वपूर्ण कानूनी खतरे उत्पन्न करता है जो इसे अपनाने वाले किसी भी राज्य के लिए समस्या का कारण बनेंगे:-

पहलू मौजूदा राष्ट्रीय कानून (भारतीय न्याय संहिता – और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम) कर्नाटक के विधेयक से क्या लाभ होगा? अन्य राज्यों के लिए जोखिम
परिभाषा इसकी कोई विशेष परिभाषा नहीं है; किंतु संभावित हिंसा के लिए उकसावे के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर इस पर प्रतिबंध लगाए गए हैं। ‘गलत उद्देश्य’ और ‘असहजता’ जैसे बड़े शब्द। इससे कानूनी अस्पष्टता और अनुचित राजनीतिक प्रयोग की संभावना बढ़ जाती है।
ऑनलाइन टेकडाउन केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम [(IT अधिनियम) की धारा 69A और वर्ष 2021 के नियमों के तहत प्रक्रियात्मक कदम (सरकारी पहुँच समिति (GAC) की निगरानी] अनिवार्य हैं। न्यायिक अनुमोदन के बिना स्थानीय पुलिस/मजिस्ट्रेट द्वारा सीधे तौर पर तोड़फोड़ के आदेश देना। यह केंद्रीय सुरक्षा उपायों को उपेक्षित करता है, कार्यपालिका की निरंकुशता को बढ़ावा देता है और अत्यधिक सेंसरशिप को प्रोत्साहित करता है।
दंड शत्रुता पूर्ण अपराधों के लिए 3–7 वर्ष तक की सजा। दस वर्ष तक की सजा, गैर-जमानती, और इसमें संगठनों के लिए सामूहिक दायित्व शामिल है। सजा की मात्रा बहुत अधिक है।
दोषसिद्धि दरें यह दर कम है, लगभग 20%, जिसका मुख्य कारण खराब जाँच और गलत FIR रिपोर्ट (FIR) है। वही पुलिस फोर्स, नया लेबल। नए कानून खराब तरीके से लागू करने या पुलिस ट्रेनिंग की कमी को ठीक नहीं करते हैं।
पक्षपातपूर्ण हिंसा भारतीय न्याय संहिता (BNS) धारा 103 (2) घृणा से प्रेरित हत्या के लिए दंड को बढ़ाती है। इसमें ‘हेट क्राइम’ का नया टैग जोड़ा गया है और पीड़ित मुआवजे का प्रावधान भी शामिल है। पीड़ितों को मुआवजा देना उपयोगी है, लेकिन इसे किसी नए, विवादास्पद कानून की आवश्यकता के बिना मौजूदा राज्य योजनाओं के माध्यम से लागू किया जा सकता है।

बेहतर विकल्प- मौजूदा प्रणाली को मजबूत करना

दुरुपयोग की संभावना वाले नए उपकरण बनाने के बजाय, राज्यों को मौजूदा केंद्रीय कानूनों के कार्यान्वयन को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए:-

  • पुलिस सुधार और प्रशिक्षण
    • अनिवार्य स्वतः संज्ञान FIR: सर्वोच्च न्यायालय (SC) के उस निर्देश का सख्ती से पालन करना, जिसमें पुलिस को औपचारिक शिकायतों की प्रतीक्षा किए बिना, हेट स्पीच पाए जाने पर स्वतः संज्ञान के माध्यम से मामले दर्ज करने का निर्देश दिया गया है।
    • विशेष शाखाएँ: प्रशिक्षित जाँच के लिए पुलिस बलों के भीतर सांप्रदायिक अपराध संबंधी विशेष शाखाएँ स्थापित करना।
  • न्यायिक दक्षता
    • फास्ट-ट्रैक कोर्ट: BNS शत्रुता धाराओं के तहत दायर मामलों की शीघ्र सुनवाई के लिए समर्पित विशेष न्यायालयों की स्थापना की जाए (जैसे- कुछ अपराधों के लिए केरल मॉडल)।
  • पीड़ित सहायता
    • मुआवजा बढ़ाना: वैमनस्यतापूर्ण हिंसा से होने वाले नुकसान को दूर करने के लिए, मौजूदा राज्य पीड़ित मुआवजा योजनाओं में तुरंत सुधार करना और उन्हें बढ़ाना।
  • सामाजिक और डिजिटल रोकथाम
    • मीडिया लिटरेसी बढ़ाना: नागरिकों को फेक न्यूज और वैमनस्यता से बचाने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान शुरू करना और शिक्षा में डिजिटल साक्षरता को एकीकृत करना।
    • काउंटर-स्पीच को बढ़ावा देना: तर्कसंगत संवाद और रचनात्मक प्रतिवाद को बढ़ावा देने के लिए नागरिक समाज के प्रयासों को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित और समर्थन करना।

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हेट स्पीच के बारे में

  • परिभाषा: संयुक्त राष्ट्र की हेट स्पीच संबंधी रणनीति और कार्य योजना हेट स्पीच को इस प्रकार परिभाषित करती है:- ‘भाषण, लेखन या व्यवहार के माध्यम से किसी भी प्रकार का संचार, जो किसी व्यक्ति या समूह पर उनके धर्म, जातीयता, राष्ट्रीयता, नस्ल, रंग, वंश, लिंग या अन्य पहचान कारकों के आधार पर हमला करता है या उनके संदर्भ में अपमानजनक या भेदभावपूर्ण भाषा का प्रयोग करता है।’
    • हालाँकि, अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत आज तक हेट स्पीच की कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं है। यह अवधारणा अभी भी चर्चा का विषय है, विशेष रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, गैर-भेदभाव और समानता के संदर्भ में।
  • कानूनी एवं संवैधानिक प्रावधान: भारत में किसी भी कानून में हेट स्पीच को परिभाषित नहीं किया गया है।
    • हेट स्पीच पर अंकुश लगाने के प्रयास भारत के संवैधानिक प्रावधानों और आपराधिक कानूनों पर आधारित हैं।
    • इन धाराओं का मुख्य उद्देश्य ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ बनाए रखना है, न कि हेट स्पीच को एक अलग श्रेणी के रूप में दंडित करना।
      • संवैधानिक आधार 
        • अनुच्छेद 19(1)(a): वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्त्वपूर्ण अधिकार की गारंटी देता है।
        • अनुच्छेद 19(2): सरकार को सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने और अपराध के लिए उकसाने से रोकने के हित में इस अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है।
        • यह अनुच्छेद हेट स्पीच पर सभी प्रतिबंधों का आधार है।
      • भारतीय आपराधिक कानून (BNS/IPC): BNS की धारा 196 (पुरानी IPC धारा 153A) पहचान के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता या वैमनस्यता को बढ़ावा देने को दंडनीय बनाती है।
        • पिछली रिपोर्टों में उद्धृत राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2020 में धारा 153A के तहत दोषसिद्धि दर मात्र 20.2% थी।
        • BNS की धारा 299 (IPC की धारा 295A): यह किसी भी समूह की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से किए गए जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कृत्यों को लक्षित करती है।
        • BNS की धारा 505 (पुराना IPC 505): यह उन बयानों या अफवाहों को संबोधित करती है जो सार्वजनिक उपद्रव का कारण बनती हैं या विभिन्न वर्गों के बीच दुर्भावना/घृणा उत्पन्न करती हैं।
      • अन्य कानून: जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951 में चुनाव प्रचार में घृणा या शत्रुता के उपयोग को दंडित करने के प्रावधान शामिल हैं।

‘हेट क्राइम’ के बारे में

  • ‘हेट क्राइम’ एक आपराधिक कृत्य (जैसे- हमला, हत्या या तोड़फोड़) है, जो विशेष रूप से अपराधी के पूर्वाग्रह या पीड़ित के किसी विशिष्ट सामाजिक समूह में वास्तविक या कथित सदस्यता के प्रति पक्षपात से प्रेरित होता है।
  • मुख्य तत्व: ‘हेट क्राइम’ के लिए दो घटक आवश्यक हैं:-
    • मूल अपराध: यह कृत्य सामान्य आपराधिक संहिता के अंतर्गत पूर्व-स्थापित अपराध होना चाहिए।
    • पूर्वाग्रही प्रेरणा: प्रेरणा पीड़ित की पहचान (जैसे- धर्म, जाति, नस्ल, यौन अभिविन्यास) पर आधारित होती है। यह पूर्वाग्रह एक गंभीर कारक के रूप में कार्य करता है, जिसके कारण बिना किसी पूर्वाग्रह के किए गए समान अपराध की तुलना में अधिक कठोर दंड दिया जा सकता है।
  • भारत में कानूनी स्थिति: भारत में ‘हेट क्राइम’ को स्पष्ट रूप से परिभाषित और वर्गीकृत करने वाला कोई समर्पित, व्यापक कानून नहीं है।
    • भारतीय न्याय संहिता (BNS, 2023): BNS एक महत्त्वपूर्ण कदम है, क्योंकि यह हत्या जैसे गंभीर अपराधों के लिए पूर्वाग्रह से प्रेरित उद्देश्य को एक गंभीर कारक के रूप में स्पष्ट रूप से मान्यता देता है [उदाहरण के लिए, धारा 103(2)], जिससे सजा को बढ़ाया जा सकता है।
    • ऐतिहासिक दृष्टिकोण: पहले, घृणा से प्रेरित अपराधों पर आमतौर पर सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने के उद्देश्य से बनाई गई धाराओं (उदाहरण के लिए, IPC की धारा 153A/295A) के तहत मुकदमा चलाया जाता था।
    • चुनौती: मुख्य कानूनी बाधा FIR स्तर पर पुलिस द्वारा पूर्वाग्रह से प्रेरित उद्देश्य की आधिकारिक रूप से पहचान और पंजीकरण कराने में आने वाली कठिनाई है।
  • ‘हेट क्राइम’ बनाम ‘हेट स्पीच’: दोनों के बीच अंतर करना आवश्यक है:-
    • हेट क्राइम हिंसा या संपत्ति को नुकसान पहुँचाने का ऐसा कृत्य है जो शारीरिक अपराध की सजा को बढ़ा देता है।
    • हेट स्पीच अभिव्यक्ति का एक ऐसा रूप (शब्द, चित्र) है जो घृणा को भड़काने की प्रवृत्ति रखने पर स्वयं अभिव्यक्ति को ही अपराध बना देता है।

भारत में हेट स्पीच से संबंधित प्रमुख निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने प्रमुख मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए प्रतिबंधों पर कानूनी स्पष्टता प्रदान की है:-

  • रामजी लाल मोदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1957): इस मामले में यह पुष्टि की गई कि जानबूझकर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले भाषणों पर प्रतिबंध वैध हैं, क्योंकि ऐसे कृत्यों का सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने से सीधा और घनिष्ठ संबंध है।
  • प्रवासी कल्याण संगठन बनाम भारत संघ (2014): न्यायालय ने एक केंद्रित कानून की आवश्यकता पर बल दिया और विधि आयोग को हेट स्पीच की स्पष्ट कानूनी परिभाषा सहित उपाय सुझाने का निर्देश दिया।
  • श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015): इस ऐतिहासिक फैसले ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66A को उसकी अस्पष्टता और संरक्षित भाषण के दुरुपयोग की संभावना के कारण निरस्त कर दिया। इसने यह स्थापित किया कि अनुच्छेद 19(2) के तहत केवल प्रत्यक्ष उकसावे वाले भाषणों पर ही प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
  • शाहीन अब्दुल्ला बनाम भारत संघ (2022): हेट स्पीच में तीव्र वृद्धि को स्वीकार करते हुए, न्यायालय ने आदेश दिया कि पुलिस और अधिकारियों को औपचारिक शिकायतों की प्रतीक्षा किए बिना अपराधियों के खिलाफ तत्काल, स्वतः कार्रवाई (स्वयं प्रेरित) करनी चाहिए।
  • कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023): इस मामले में राज्य के संवैधानिक दायित्व की पुष्टि की गई कि वह नागरिकों के अधिकारों को सभी स्रोतों से होने वाले नुकसान से बचाए, यहाँ तक ​​कि गैर-राज्य अभिकर्ताओं से होने वाले नुकसान से भी, साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आनुपातिक प्रतिबंधों की आवश्यकता पर भी बल दिया गया।

‘हेट स्पीच’ को रोकने के लिए भारत के ऐतिहासिक कानूनी प्रयास

  • विश्वनाथन समिति (2015): धारा 66A को निरस्त किए जाने के बाद उत्पन्न कानूनी रिक्तता को भरने के लिए गठित इस विशेषज्ञ पैनल ने IPC में विशिष्ट धाराएँ जोड़ने का प्रस्ताव रखा।
    • इस समिति ने विभिन्न विशेषताओं (जैसे- धर्म, लिंग पहचान, भाषा, दिव्यांगता) के आधार पर समूहों को लक्षित करके अपराध करने के लिए उकसाने पर दो वर्ष तक के कारावास का प्रावधान करते हुए नई धाराएँ 153C(b) और 505A जोड़ने का सुझाव दिया।
  • बेजबरुआ समिति (2014): पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों पर हुए हमलों के बाद गठित इस समिति ने नस्लीय भेदभाव विरोधी प्रावधानों को और अधिक सशक्त बनाने की सिफारिश की।
    • इस समिति ने IPC में संशोधन करके मानव गरिमा को ठेस पहुँचाने वाले कृत्यों को बढ़ावा देने (पाँच वर्ष तक के कारावास के साथ) और किसी विशेष नृजातीय समूह का अपमान करने (तीन वर्ष तक के कारावास के साथ) जैसे अपराधों को शामिल करने का प्रस्ताव रखा।
  • भारत का विधि आयोग: 267वीं रिपोर्ट (2017) ने भारतीय दंड संहिता (IPC) में धारा 153C और 505A जोड़ने की सिफारिश की।
    • 267वीं विधि आयोग की रिपोर्ट (2017) के अनुसार, हेट स्पीच एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो मुख्य रूप से किसी समूह के व्यक्तियों के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए उकसाती है, जिन्हें उनकी पहचान, जैसे कि धर्म, लिंग या यौन अभिविन्यास के आधार पर परिभाषित किया जाता है।
      • इसका उद्देश्य घृणा उत्पन्न करने और हिंसा भड़काने को विशेष रूप से अपराध घोषित करना था, जिससे सार्वजनिक व्यवस्था से संबंधित सामान्य प्रावधानों से अलग विशिष्ट कानूनी उपाय उपलब्ध हो सकें।
      • इसका कार्य समूह के सदस्यों को अमान्य और हाशिए पर धकेलना है, जिससे भय, भेदभाव और हिंसा उत्पन्न हो सकती है।
      • भाषण अवैध अपराध है या नहीं, यह निर्धारित करना संदर्भ और गैरकानूनी कार्रवाई को उकसाने के उद्देश्य पर अत्यधिक सीमा तक निर्भर करता है।
  • निजी सदस्य विधेयक (2022): हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स (प्रिवेंशन) बिल, 2022, राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया था। इसका उद्देश्य हेट स्पीच को किसी भी ऐसी अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित करना था जो भेदभाव, घृणा या हिंसा को भड़काती, बढ़ावा देती या प्रसारित करती हो।
    • हालाँकि, यह संसदीय पहल कानून का रूप नहीं ले पाई।

हेट स्पीच पर अंकुश लगाने की आवश्यकता

  • मानवीय गरिमा की रक्षा: हेट स्पीच मूल रूप से लक्षित समूहों की गरिमा और समानता पर हमला करता है (अनुच्छेद 14 और 21), जिससे उनका आत्मसम्मान और सामाजिक स्वीकृति छिन जाती है।
  • सामाजिक ढाँचे का संरक्षण: यह सांप्रदायिक हिंसा, भेदभाव और गहरे सामाजिक विखंडन का एक खतरनाक उत्प्रेरक है, जो धर्मनिरपेक्षता और बहुलवाद के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को खतरे में डालता है।
  • सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखना: अनियंत्रित भड़काऊ भाषण प्रायः वास्तविक दुनिया में संघर्षों और कानून-व्यवस्था के विखंडन का कारण बनता है, जो संवैधानिक आदेशों के अनुसार राज्य के हस्तक्षेप को उचित ठहराता है।

हेट स्पीच संबंधी चुनौतियाँ

  • कानूनी और संवैधानिक बाधाएँ
    • अस्पष्ट कानूनी परिभाषा: भारत में हेट स्पीच की कोई स्पष्ट, वैधानिक परिभाषा नहीं है। कानून का प्रवर्तन व्यापक औपनिवेशिक काल के कानूनों (BNS/IPC) पर निर्भर करता है, जो ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ के लिए बनाए गए थे, जिससे मनमानी व्याख्या और दुरुपयोग को बढ़ावा मिलता  है।
    • रोकथाम में विफलता: मौजूदा BNS प्रावधान (धारा 196, 299) अप्रभावी हैं। बार-बार गिरफ्तारियों के बावजूद, दोषसिद्धि दर अत्यंत कम (लगभग 20%) है, जो अपराधियों को रोकने में प्रणालीगत विफलता को दर्शाता है।
    • डर का माहौल: अस्पष्ट कानूनों (जैसे- UAPA/राजद्रोह) के तहत अभियोजन का खतरा प्रायः राजनीतिक असहमति और आलोचना को दबाने के लिए प्रयोग किया जाता है, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 19(1)(a)) के संबंध में भय का वातावरण निर्मित होता है।
  • डिजिटल और प्रवर्तन संबंधी कमियाँ
    • सोशल मीडिया का प्रसार: डिजिटल प्लेटफॉर्म, प्रसारक के रूप में कार्य करते हैं, जिससे घृणास्पद सामग्री तेजी से और तुरंत प्रसारित हो जाती है। यह तीव्र और व्यापक प्रसार प्रायः ऑफलाइन सांप्रदायिक हिंसा और भीड़ द्वारा की जाने वाली कार्रवाई से सीधे तौर पर जुड़ा होता है।
    • कार्रवाई में पूर्वाग्रह: हेट स्पीच के विरुद्ध स्वतः कार्रवाई करने के लिए राजनीतिक और संस्थागत इच्छाशक्ति का लगातार अभाव है, विशेषकर जब ये भाषण हाई-प्रोफाइल व्यक्तियों द्वारा दिए जाते हैं।
    • अनामता और क्षेत्राधिकार: अपराधियों द्वारा गोपनीय रूप से और भारत के बाहर के सर्वरों से पोस्ट करने की क्षमता स्थानीय पुलिस के लिए पता लगाने, जाँच करने और क्षेत्राधिकार से संबंधित गंभीर समस्याएँ उत्पन्न करती है।
  • सामाजिक और राजनीतिक जोखिम
    • राजनीतिक सामान्यीकरण: राजनीतिक हस्तियाँ चुनावी ध्रुवीकरण के लिए विभाजनकारी बयानबाजी का प्रयोग तेजी से कर रही हैं, जिससे सार्वजनिक चर्चा में वैमनस्य सामान्य हो जाता है।
    • लक्षित प्रभाव: घृणा हाशिए पर स्थित समुदायों (धार्मिक अल्पसंख्यक, दलित, LGBTQ+) को असमान रूप से निशाना बनाती हैं, जिससे उनका अमानवीकरण, भय और हिंसा के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है।

हेट स्पीच को रोकने के लिए वैश्विक पहल और सर्वोत्तम अभ्यास

  • अंतरराष्ट्रीय रूपरेखाएँ (संयुक्त राष्ट्र मार्गदर्शन)
    • संयुक्त राष्ट्र रणनीति एवं कार्य योजना (2019): संयुक्त राष्ट्र द्वारा व्यापक स्तर पर की गई प्रतिबद्धता, जिसमें मूल कारणों (शिक्षा) पर ध्यान केंद्रित करते हुए हेट स्पीच से निपटने का प्रयास किया गया है, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित नहीं किया गया है।
    • रबात कार्य योजना (2012): यह योजना संरक्षित भाषण को निषिद्ध उकसावे से अलग करने के लिए छह-भाग परीक्षण (संदर्भ, आशय, संभावना, विषयवस्तु और स्वरूप, प्रसार की सीमा और हानि की संभावना) को परिभाषित करके प्रमुख नैतिक मानदंड प्रदान करती है।
  • विधायी जवाबदेही (EU मॉडल)
    • यूरोपीय संघ का डिजिटल सेवा अधिनियम (DSA): यह अधिनियम बड़े ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों (VLOP) के लिए वार्षिक जोखिम मूल्यांकन करना और अवैध सामग्री और प्रणालीगत नुकसान के विरुद्ध जोखिम कम करने के उपाय लागू करना अनिवार्य बनाता है।
      • यह उच्च पारदर्शिता अनिवार्य करता है और उपयोगकर्ताओं को मॉडरेशन संबंधी निर्णयों को चुनौती देने का अधिकार (उचित प्रक्रिया) प्रदान करता है।
      • अनुपालन न करने पर भारी जुर्माना (वैश्विक कारोबार का 6% तक) लगाया जा सकता है।
  • जर्मनी का NetzDG (नेटवर्क प्रवर्तन अधिनियम): इस अधिनियम ने प्लेटफॉर्म की जवाबदेही की शुरुआत की, जिसके तहत ‘स्पष्ट रूप से अवैध’ सामग्री को 24 घंटे के भीतर हटाना अनिवार्य है, अन्यथा भारी जुर्माना लगाया जाएगा।

आगे की राह 

  • विधायी सटीकता और स्पष्टता
    • एक अनुकूलित परिभाषा लागू करना: राज्य या केंद्र स्तर पर किसी भी नए कानून में हिंसा या शत्रुता भड़काने पर केंद्रित और संकीर्ण परिभाषा अपनाई जानी चाहिए।
      • इससे वैध समर्थन के अभियोजन को रोका जा सकेगा और यह सुनिश्चित होगा कि कानून अनुच्छेद 19(2) के मानकों के अनुरूप है।
    • दंडों में आनुपातिकता लागू करना: अपराध की गंभीरता और प्रभाव के आधार पर सजा की मात्रा निर्धारित की जानी चाहिए।
      • अत्यंत कठोर दंड गंभीर, हिंसक उकसावे के लिए आरक्षित होने चाहिए, जबकि कम गंभीर अपराधों के लिए आनुपातिक दंड लागू किए जाने चाहिए।
  • संस्थागत सुदृढ़ीकरण और न्यायिक जाँच
    • न्यायिक निगरानी सुनिश्चित करना: यह सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य प्रावधान जोड़े जाने चाहिए कि पुलिस द्वारा कार्रवाई आदेश जारी करने, गिरफ्तारी करने या निवारक कार्रवाई करने की शक्ति न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व स्वीकृति के अधीन हो।
      • कार्यपालिका के अतिचार पर यह एक आवश्यक नियंत्रण है।
    • प्रवर्तन क्षमताओं को बढ़ाना: सरकार को हेट क्राइम विरोधी समर्पित इकाइयाँ बनानी चाहिए और इन मामलों की कुशलतापूर्वक जाँच और अभियोजन के लिए त्वरित कानूनी प्रक्रियाएँ स्थापित करनी चाहिए, जिससे वर्तमान में कम दोषसिद्धि दर में वृद्धि हो सके।
  • सामाजिक और शैक्षिक प्रति-उपाय
    • मीडिया साक्षरता को बढ़ावा देना: सरकार को डिजिटल और मीडिया साक्षरता बढ़ाने के लिए व्यापक जन अभियानों और स्कूली पाठ्यक्रमों में निवेश करना चाहिए।
      • इससे नागरिकों को फेक न्यूज और नफरत फैलाने वाले दुष्प्रचार का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने और उन्हें अस्वीकार करने की शक्ति मिलती है।
    • प्रतिवाद को बढ़ावा देना: केवल सेंसरशिप पर निर्भर रहने के बजाय, सरकार और नागरिक समाज को रचनात्मक प्रतिवाद को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित और बढ़ावा देना चाहिए।
      • दुर्भावनापूर्ण भाषण का सबसे प्रभावी लोकतांत्रिक उत्तर, प्रायः सार्वजनिक क्षेत्र में अधिक तर्कसंगत और सकारात्मक भाषण का उपयोग करना होता है।

निष्कर्ष

कर्नाटक विधेयक का उद्देश्य सराहनीय है, किंतु इसकी अस्पष्ट परिभाषाएँ और कठोर दंड आनुपातिकता के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं तथा असहमति को दबाने का जोखिम उत्पन्न करते हैं। वास्तविक सामाजिक सद्भाव के लिए न्यायिक निगरानी और ऐसे सटीक कानूनों की आवश्यकता है, जो केवल अभिव्यक्ति को दंडित करने के बजाय हिंसा के प्रत्यक्ष उकसावे पर केंद्रित हों। स्थायी समाधान सटीक विधायी प्रावधानों, न्यायिक नियंत्रण और सीमित प्रतिबंधों से ही संभव है, जो संवैधानिक स्वतंत्रताओं का उल्लंघन किए बिना मानवीय गरिमा की रक्षा करें।

अभ्यास प्रश्न

भारत में हेट स्पीच कई कारकों का परिणाम है, हाल ही में चर्चा में रहे कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स (प्रिवेंशन) बिल, 2025 पर चर्चा करते हुए इस संदर्भ में, हेट स्पीच के प्रभाव पर चर्चा कीजिए और इससे प्रभावी ढंग से निपटने के लिए सुझाव दीजिए।

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