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स्वस्थ शहरों के लिए स्वस्थ मृदा – विश्व मृदा दिवस 2025

Lokesh Pal December 09, 2025 03:05 22 0

संदर्भ

विश्व मृदा दिवस (WSD) प्रतिवर्ष 5 दिसंबर को मनाया जाता है ताकि कृषि विकास, पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों और खाद्य सुरक्षा में मृदा की भूमिका के बारे में वैश्विक जागरूकता बढ़ाई जा सके।

विश्व मृदा दिवस के बारे में

  • वैश्विक अधिदेश और संस्थागत उत्पत्ति
    • उत्पत्ति: इस अवधारणा का प्रस्ताव सबसे पहले अंतरराष्ट्रीय मृदा विज्ञान संघ (IUSS) ने वर्ष 2002 में रखा था।
    • आधिकारिक मान्यता: संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के अनुमोदन (वर्ष 2013) के बाद, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2014 में थाईलैंड के नेतृत्व में विश्व मृदा दिवस (WSD) की आधिकारिक शुरुआत की।
    • संस्थागत समर्थन: खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) वैश्विक मृदा साझेदारी (GSP) के ढाँचे के भीतर WSD के वैश्विक समर्थन को सुगम बनाता है।
  • वर्ष 2025 थीम: ‘स्वस्थ शहरों के लिए स्वस्थ मृदा’ 
    • शहरी अनिवार्यता: यह विषय इस बात पर जोर देता है कि शहरी और उप-शहरी मृदाएँ खाद्य उत्पादन, जल निस्पंदन, कार्बन भंडारण और शहरी ताप नियंत्रण के लिए कितनी महत्त्वपूर्ण हैं, और विशेष रूप से मृदा संघनन और अनियंत्रित शहरीकरण के प्रति जागरूक करता है।
    • एकल स्वास्थ्य दृष्टिकोण: यह औपचारिक रूप से एकल स्वास्थ्य दृष्टिकोण को अपनाता है, जो मृदा स्वास्थ्य, पर्यावरण और शहरी मानव आबादी के बीच अंतर्निहित संबंध को मान्यता देता है।
    • स्थायी विकास लक्ष्य अभिसरण: यह विषय मूल रूप से सतत् विकास लक्ष्य 11 (सतत् शहर) और सतत् विकास लक्ष्य 15 (स्थल पर जीवन) से संबंधित है।
  • महत्त्वपूर्ण शहरी बुनियादी ढाँचे के रूप में मृदा 
    • जलवायु एवं ताप शमन: वनस्पतियुक्त मृदा वाष्पोत्सर्जन के माध्यम से शहर को ठंडा रखती है, जिससे शहरी ऊष्मा द्वीप (UHI) प्रभाव का सीधा प्रतिकार होता है।
    • जल विज्ञान संबंधी अनुकूलन: पारगम्य मृदा एक प्राकृतिक स्पंज की तरह कार्य करती है, जो वर्षा को शीघ्रता से अवशोषित करके आकस्मिक बाढ़ को रोकती है और भूजल पुनर्भरण को कुशलतापूर्वक सुगम बनाती है।
    • स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ: यह स्थानीय खाद्य सुरक्षा के लिए शहरी कृषि को बढ़ावा देती है, जैव विविधता को बनाए रखती है, और सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हरित स्थानों तक पहुँच प्रदान करती है।
    • गंभीर खतरे: शहरी मृदा व्यापक रूप से मृदा के जमाव (फुटपाथ/निर्माण), रासायनिक संदूषण (भारी धातुएँ), और कार्बनिक पदार्थों के नुकसान से सक्रिय रूप से क्षीण होती है।
  • वर्ष 2024- वर्ष 2025 आपदा वास्तविकता जाँच
    • चेतावनी: वर्ष 2024 की विनाशकारी बाढ़ (दिल्ली, चेन्नई, हिमाचल प्रदेश) और वर्ष 2025 की वायनाड-कालकोड़ भूस्खलन त्रासदी ने एक कठोर वास्तविकता प्रदर्शित की है।
    • नीतिगत विफलता: इन घटनाओं ने यह प्रदर्शित किया है कि कैसे बड़े पैमाने पर मृदा संघनन और वनस्पति आवरण के नुकसान ने कभी प्रबंधनीय रही वर्षा की घटनाओं को व्यवस्थित रूप से शहरी और ग्रामीण आपदाओं में परिवर्तित कर दिया है, जिससे व्यापक मृदा पुनर्स्थापन और शहरी नियोजन सुधारों की तत्काल आवश्यकता रेखांकित होती है।

भारत के लिए मृदा गुणवत्ता का महत्त्व

मृदा एक गैर-नवीकरणीय संसाधन है, जो भारत के राष्ट्रीय अनुकूलन और प्रमुख विकास लक्ष्यों के लिए इसकी गुणवत्ता को आधार प्रदान करती है

  • खाद्य सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता: मृदा 95% से अधिक खाद्य उत्पादन का आधार है। इसकी स्वास्थ्य स्थिति इष्टतम फसल उपज सुनिश्चित करती है, जिससे बड़ी कृषक आबादी की आजीविका को प्रत्यक्ष रूप से सहारा मिलता है और कृषि संबंधी सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट को रोका जा सकता है।
    • आर्थिक लागत: मृदा क्षरण से भारतीय अर्थव्यवस्था को अनुमानित रूप से प्रतिवर्ष ₹2.5-3 लाख करोड़ का नुकसान होता है।
    • सामाजिक लागत: मृदा में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी के कारण होने वाली प्रछन्न भुखमरी एक-तिहाई से अधिक आबादी को प्रभावित करती है, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकता में उल्लेखनीय कमी आती है।
  • जलवायु परिवर्तन शमन: मृदा सबसे बड़ा स्थलीय कार्बन सिंक है, जो वायुमंडल और सभी वनस्पतियों में मौजूद कार्बन के लगभग दोगुने कार्बन का भंडारण करती है।
    • मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) को बढ़ाना भारत के लिए अपने महत्त्वाकांक्षी नेट-जीरो लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु एक महत्त्वपूर्ण रणनीति है।
  • जल एवं शहरी अनुकूलन: पारगम्य मृदा एक प्राकृतिक स्पंज की तरह कार्य करती है, जो वर्षा आधारित कृषि के लिए जल धारण क्षमता में सुधार करती है और प्रदूषकों को हटाती है।
    • शहरों में, यह ‘शहरी ऊष्मा द्वीप प्रभाव’ को कम करने में मदद करती है और सतही अपवाह को काफी कम करती है, जिससे शहरी बाढ़ और भूस्खलन को नियंत्रित किया जा सकता है।
  • जैव विविधता और सामाजिक समता: मृदा में विशाल जैव विविधता समाहित होती है। इसका क्षरण लघु एवं सीमांत किसानों और महिला किसानों पर असमान रूप से प्रभाव डालता है। सार्वजनिक भूमि/घास के मैदानों का विनाश, जिन्हें प्रायः ‘बंजर भूमि’ कहा जाता है (जैसा कि बन्नी और सोलापुर क्षेत्रों में देखा गया है), ग्रामीण संकट को बढ़ाता है और शहरों की ओर पलायन को मजबूर करता है।
    • वैश्विक उत्तरदायित्व: विश्व की 17% आबादी का आवास होने के बावजूद, केवल 2.4% भूमि होने के कारण, भारत का नैतिक कर्तव्य है कि वह अपनी मृदा संपदा की रक्षा करे, और इस प्रयास को मानवजाति की नैतिकता और अंतर-पीढ़ीगत न्याय से जोड़े।
    • ग्रामीण-शहरी संबंध: स्वस्थ ग्रामीण पारिस्थितिकी तंत्र एक बफर के रूप में कार्य करते हैं, ग्रामीण संकट को कम करते हैं और शहरों की ओर पलायन को रोकते हैं, जिससे अनियंत्रित शहरीकरण और मृदा संघनन का दबाव कम होता है।

भारत के शहरी और ग्रामीण परिदृश्य में मृदा स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियाँ

भारत की धरती को त्रुटिपूर्ण नीतियों और असंवहनीय प्रथाओं से उत्पन्न बहुआयामी खतरों का सामना करना पड़ रहा है।

  • रासायनिक एवं पोषक तत्व क्षरण
    • पोषक तत्व असंतुलन: यूरिया पर भारी सब्सिडी के परिणामस्वरूप नाइट्रोजन-फॉस्फोरस-पोटेशियम का उपभोग अनुपात (आदर्श 4:2:1 से  विचलित) गंभीर रूप से असंतुलित हो गया है, जिसके कारण जिंक और सल्फर जैसे द्वितीयक एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की व्यापक कमी उभर रही है।
      • नवीनतम आकलन से पता चलता है कि 40% से अधिक भारतीय मृदा में जिंक की कमी है, जो एक महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म पोषक तत्व है।
    • लवणीकरण और संदूषण: अपर्याप्त सिंचाई के कारण घुलनशील लवणों का संचय (लवणीकरण) होता है। रासायनिक पदार्थों का अंधाधुंध उपयोग और नगरपालिका/औद्योगिक अपशिष्ट (भारी धातुओं) का संचय मृदा और भूजल को दूषित करता है।
  • भौतिक एवं जैविक क्षरण
    • मृदा संघनन और संपीडन: अनियोजित शहरी विस्तार मृदा के स्थान पर कंक्रीट (मृदा संघनन) का उपयोग कर रहा है, जिससे इसकी पारगम्यता और वर्षा जल अवशोषण क्षमता नष्ट हो रही है। शहरी भारत प्रत्येक वर्ष लगभग 50,000 हेक्टेयर मृदा को संपीडन करता है। खेतों में, भारी मशीनरी संघनन का कारण बनती है।
    • कार्बनिक कार्बन की हानि: गहन, रसायन-आधारित एकल-फसल और कुप्रबंधित फसल अवशेषों को जलाने से कार्बनिक पदार्थ नष्ट हो जाते हैं। भारत में पिछले 50 वर्षों में अपने मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) का लगभग 30% समाप्त हो गया है।
      • SOC मृदा में पाए जाने वाले कार्बनिक पदार्थ का कार्बन घटक है, जो विघटित पौधों, जड़ों और सूक्ष्मजीवों से प्राप्त होता है।
  • नीतिगत निरंकुशता
    • बंजर भूमि’ मिथक और घास के मैदान: जैव विविधता वाले अर्द्ध-शुष्क घास के मैदानों और सवाना को ‘बंजर भूमि’ के रूप में वर्गीकृत करने की दोषपूर्ण औपनिवेशिक विरासत उनके निरंकुश रूपांतरण को बढ़ावा देती है।
      • पारिस्थितिक भूमिका: ये महत्त्वपूर्ण मृदा कार्बन पारिस्थितिकी तंत्र हैं (उदाहरण के लिए, गुजरात में बन्नी घास का मैदान) जो गहरी, रेशेदार जड़ प्रणालियों के माध्यम से भारी मात्रा में स्थिर भूमिगत कार्बन का भंडारण करते हैं, जो जल अंतःस्यंदन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
      • नीतिगत परिणाम: गलत नीतिगत हस्तक्षेपों के परिणामस्वरूप प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा’ जैसी आक्रामक प्रजातियों का बड़े पैमाने पर रोपण हुआ, जिसने पशुपालकों की आजीविका पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव डाला।
    • कृषि भूमि का कैनोपी संकट: भारत के परिपक्व कृषि भूमि वृक्ष आवरण में भारी, अत्यंत गिरावट ग्रामीण लचीलेपन को कमजोर कर रही है।
      • लुप्त होते वन: मई 2024 के एक अध्ययन से पता चला है कि वर्ष 2018 तक भारत के लगभग 11% बड़े कृषि वृक्ष विलुप्त हो गए थे। यूरिया पर भारी सब्सिडी के कारण नाइट्रोजन: फॉस्फोरस: पोटेशियम की खपत का अनुपात आदर्श 4:2:1 से अत्यधिक विचलित हो गया है, जिससे द्वितीयक एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों (जैसे- जिंक, सल्फर) की व्यापक कमी उत्पन्न हो रही है।
      • किसान प्रोत्साहन: वित्तीय प्रोत्साहन (स्टीवर्डशिप भुगतान) की कमी और आर्थिक दबाव किसानों को परिपक्व वृक्षों को काटने के लिए मजबूर करते हैं, जिससे मृदा स्वास्थ्य और जलवायु अनुकूलन कमजोर होता है।
  • शासन संबंधी चुनौतियाँ 
    • सातवीं अनुसूची के अंतर्गत मृदा और भूमि को राज्य विषय के रूप में वर्गीकृत करने से प्रभावी और एकसमान नीति कार्यान्वयन के लिए महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं।
    • राष्ट्रीय योजनाओं का असमान कार्यान्वयन: राज्य की प्रशासनिक क्षमता और राजनीतिक इच्छाशक्ति में अंतर के कारण प्रमुख केंद्रीय योजनाओं की प्रभावशीलता में व्यापक अंतर होता है।
    • मानकीकृत आँकड़ों का अभाव: मृदा गुणवत्ता निगरानी के लिए कोई एकीकृत राष्ट्रीय मानक मौजूद नहीं है, जिससे मृदा स्वास्थ्य क्षरण की एक व्यापक, वास्तविक समय राष्ट्रीय परिदृश्य प्राप्त करना कठिन हो जाता है।
    • भूमि उपयोग नीतियों के बीच टकराव: मृदा का प्रबंधन कई अलग-अलग विभागों (कृषि, शहरी विकास) द्वारा किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप संघर्ष होता है जहाँ आर्थिक हित मृदा के पर्यावरणीय कार्य की तुलना में अनियंत्रित शहरीकरण (जिसके परिणामस्वरूप ‘मृदा सीलिंग’ होती है) को प्राथमिकता देते हैं।
    • नियामक सुधारों को लागू करने में कठिनाइयाँ: सख्त राष्ट्रीय नियमों (जैसे- पर्यावरण प्रभाव आकलन में मृदा स्वास्थ्य सूचकांक को अनिवार्य करना) के लिए प्रत्येक राज्य के सहयोग और विधायी समर्थन की आवश्यकता होती है, जिससे प्रवर्तन धीमा और चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

मृदा स्वास्थ्य के लिए वैश्विक पहल

अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने जलवायु परिवर्तन, खाद्य सुरक्षा और सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में मृदा की महत्त्वपूर्ण भूमिका को मान्यता दी है, जिसके परिणामस्वरूप कई प्रमुख रूपरेखाओं की स्थापना हुई है।

  • नीतिगत एवं शासन ढाँचे
    • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNCCD): एक कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय समझौता जो सतत् भूमि प्रबंधन पर केंद्रित है। इसका लक्ष्य वर्ष 2030 तक भूमि क्षरण तटस्थता (LND) (SDG 15.3) प्राप्त करना है, और भूमि की हानि को पुनर्स्थापन प्रयासों के साथ संतुलित करना है।
    • वैश्विक मृदा भागीदारी (GSP) (FAO): FAO द्वारा आयोजित, GSP सतत् मृदा प्रबंधन (SSM) को बढ़ावा देता है और मृदा प्रशासन को सुदृढ़ करता है।
      • इसके प्रमुख परिणामों में विश्व मृदा दिवस की स्थापना तथा संशोधित विश्व मृदा चार्टर शामिल हैं।
    • UNFCCC और NDC का संबंध: पेरिस समझौते के अंतर्गत मृदा स्वास्थ्य को राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाओं (NAP) के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) में एकीकृत किया गया है, जिसमें जलवायु अनुकूलन और शमन में मृदा की भूमिका पर जोर दिया गया है।
      • ‘4 प्रति 1000′ पहल (2015) का संस्थापक हस्ताक्षरकर्ता होने और UNCCD के अंतर्गत LDN-2030 के लिए प्रतिबद्ध होने के बावजूद, भारत ने अभी तक अपने NDC में SOC संवर्द्धन को एक अलग, मात्रात्मक लक्ष्य नहीं बनाया है।
  • जलवायु शमन एवं कार्बन पृथक्करण
    • ‘4 प्रति 1000′ पहल (4‰): COP 21 में शुरू की गई इस स्वैच्छिक पहल का उद्देश्य मृदा की ऊपरी 30-40 सेमी परत में मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) के भंडार को वार्षिक रूप से 0.4% की दर से बढ़ाना है, जिससे मानवजनित CO₂ उत्सर्जन को कम करने में मदद मिलेगी। यह कृषि पारिस्थितिकी, संरक्षित कृषि और कृषि वानिकी को बढ़ावा देती है।
  • कार्रवाई, वित्त और निगरानी
    • मृदा स्वास्थ्य कार्रवाई गठबंधन (CA4SH): एक बहु-हितधारक मंच, जो मृदा-अनुकूल प्रथाओं को अपनाने में आने वाली बाधाओं का समाधान करता है। इसके कार्यक्षेत्र में मृदा स्वास्थ्य प्रथाओं का विस्तार, निगरानी और साक्ष्य में वृद्धि, और मृदा स्वास्थ्य को नीति में एकीकृत करने के लिए निवेश जुटाना शामिल है।
    • वैज्ञानिक और निगरानी प्रयास: मृदा पर अंतर-सरकारी तकनीकी पैनल (ITPS) मृदा संबंधी मुद्दों पर आधिकारिक वैज्ञानिक सलाह प्रदान करता है।
    • यूनेस्को की पहल: मृदा गुणवत्ता मापन को वैश्विक स्तर पर मानकीकृत करने हेतु विश्व मृदा स्वास्थ्य सूचकांक की दिशा में कार्य करना।

भारत द्वारा की गई पहल

भारत सरकार ने कई नीतिगत और विज्ञान-समर्थित हस्तक्षेप शुरू किए हैं:-

  • संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन के लिए नीति उपकरण
    • मृदा स्वास्थ्य कार्ड (SHC) योजना: किसानों को मृदा-विशिष्ट निदान और पोषक तत्वों की सिफारिशें प्रदान करती है, जिससे उर्वरकों का अधिक सटीक उपयोग संभव होता है और मृदा पर उर्वरक-संबंधी दबाव कम होता है।
    • नीम-लेपित यूरिया (NCU): नाइट्रोजन उत्सर्जन को धीमा करके नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (NUE) को बढ़ाता है, जिससे नाइट्रोजन की हानि, अपवाह और उर्वरक के दुरुपयोग में कमी आती है।
    • परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY): जैविक खेती समूहों को बढ़ावा देती है जो मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) को समृद्ध करते हैं, सूक्ष्मजीवी गतिविधि को मजबूत करते हैं और रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम करते हैं।
    • कृषक सशक्तीकरण: जैव-उर्वरक उत्पादन में सहयोगात्मक निवेश और संरक्षण कृषि को बड़े पैमाने पर अपनाने के लिए मृदा स्वास्थ्य FPO के गठन को बढ़ावा देना।
  • सतत् भूमि प्रबंधन प्रथाएँ
    • एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन (INM): रासायनिक उर्वरकों, जैविक खादों और जैव-उर्वरकों के संतुलित मिश्रण को प्रोत्साहित करता है, जिससे आदर्श नाइट्रोजन: फास्फोरस: पोटेशियम अनुपात पुनर्स्थापित होता है और मृदा उर्वरता में दीर्घकालिक सुधार होता है।
    • संरक्षण कृषि (CA): शून्य जुताई, अवशेष प्रतिधारण और फसल चक्र के माध्यम से, मृदा अपरदन को कम करने, नमी बनाए रखने और कार्बनिक पदार्थों को बढ़ाने में मदद करता है।
    • कृषि वानिकी: वृक्षों को फसल भूमि के साथ एकीकृत करता है, मृदा स्थिरता में सुधार करता है, वायु/जल अपरदन को कम करता है, और कृषि जैव विविधता एवं सूक्ष्म जलवायु विनियमन को बढ़ाता है।
  • शहरी मृदा गुणवत्ता पर ध्यान देना
    • स्मार्ट सिटी मिशन: शहरी/अर्द्ध-शहरी कृषि, हरित अवसंरचना, पारगम्य फुटपाथ और वर्षा उद्यानों को प्रोत्साहित करता है ताकि मृदा संघनन से निपटा जा सके, स्टॉर्म वाटर का प्रबंधन किया जा सके और नगरीय ऊष्मा द्वीप प्रभाव को कम किया जा सके।
      • सिंगापुर की सिटी-इन-नेचर’ पहल तथा यूरोपीय संघ की मृदा-रणनीति 2030, जो वर्ष 2050 तक नेट जीरो भूमि अधिग्रहण और कानूनी रूप से बाध्यकारी मृदा विवरण का लक्ष्य निर्धारित करती है तथा ऐसे प्रभावी उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, जिनका भारत स्मार्ट सिटी मिशन और अमृत 2.0 के अंतर्गत अनुकरण कर सकता है।
  • पुनर्स्थापन एवं तकनीकी लाभ
    • CAMPA निधि के माध्यम से पुनर्स्थापन: सोलापुर चरागाह पुनर्स्थापन जैसी सफल पहलों ने दो वर्षों में SOC में 21% की वृद्धि हासिल की, जिससे देशज प्रजातियों के पुनर्जनन और लक्षित वनीकरण की क्षमता पर प्रकाश डाला गया।
    • उभरते तकनीकी समाधान: भारत डेटा-आधारित मृदा पुनर्स्थापन और संसाधन अनुकूलन को सक्षम करने के लिए AI-आधारित पोषक तत्व मानचित्रण, मृदा सेंसर, परिशुद्ध कृषि उपकरण और इसरो के ‘रिमोट-सेंसिंग प्लेटफॉर्म’ (जैसे- मृदा नमी मानचित्रण) का विस्तार कर रहा है।
      • परिशुद्ध पोषक तत्व निगरानी और परिवर्तनीय दर उर्वरक अनुप्रयोग के लिए ड्रोन प्रौद्योगिकी और हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग का लाभ उठाना।

मृदा संरक्षण में भारतीय राज्यों की सफलता की कहानियाँ

राज्य प्राथमिक रणनीति प्रमुख हस्तक्षेप परिणाम/प्रभाव
महाराष्ट्र व्यापक जलग्रहण प्रबंधन (समुदाय-नेतृत्व)। समोच्च गर्त, बाँध, चेक डैम, सख्त जल-उपयोग नियम (रालेगण सिद्धि, हिवरे बाजार)। भूजल स्तर में नाटकीय वृद्धि, बहु-मौसमी फसल की ओर रुझान, निरंतर उच्च आय।
राजस्थान पारंपरिक जल संचयन एवं टिब्बा स्थिरीकरण। जोहड़ों (मृदा के चेकडैम) का पुनरुद्धार, शेल्टरबेल्ट और चेकरबोर्ड रोपण (थार रेगिस्तान)। नदी पुनरुद्धार (अरावली), महत्त्वपूर्ण भूजल पुनर्भरण, वायु अपरदन पर नियंत्रण।
गुजरात  खड्ड पुनर्ग्रहण एवं खेत की मेड़बंदी। माही बीहड़ों में जैव-इंजीनियरिंग (छत/बगीचे), खोदे गए तालाब (वेजलपुरा)। खड़ी ढलानों का स्थिरीकरण, मृदा क्षति में कमी, वर्षा आधारित उपज में 42% तक की वृद्धि।
हरियाणा  एकीकृत पहाड़ी क्षेत्र जलग्रहण क्षेत्र मृदा निर्मित बाँध, बाड़ लगाना/चारणपर रोक (सुखोमाजरी)। अपवाह और गाद में कमी, फसल की पैदावार में स्थिरता, वनस्पति आवरण में पुनर्जीवन।
ओड़िसा  एकीकृत आजीविका एवं संरक्षण। बागवानी के साथ संयुक्त सीढ़ीनुमा निर्माण, मेड़बंदी और कृषि तालाब (नुआपाड़ा जिला)। मृदा की उर्वरता में सुधार हुआ, भूजल स्तर 7 मीटर तक बढ़ा, संकटग्रस्त प्रवास में कमी आई।
तेलंगाना  शुष्कभूमि अनुकूलन और सूक्ष्म हस्तक्षेप। समोच्च मेढ़, अंतर-फसल, उर्वरक की सूक्ष्म मात्र का प्रयोग (कोथापल्ली)। भूजल स्तर में 45% की वृद्धि हुई, मक्का की पैदावार में चार गुना वृद्धि हुई।

आगे की राह 

वास्तविक मृदा अनुकूलन प्राप्त करने के लिए, भारत को सहकारी संघवाद का लाभ उठाते हुए मृदा-केंद्रित शासन मॉडल की ओर बढ़ना होगा:-

  • नीति सुधार और मिशन: मापनीय लक्ष्यों के साथ मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) पर एक राष्ट्रीय मिशन शुरू करना।
    • शहरी विकास परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) में मृदा स्वास्थ्य सूचकांक को अनिवार्य करना।
  • उपनिवेशवाद-विरोध और प्रोत्साहन: जैव विविधता आधारित घास के मैदानों से बंजर भूमि’ का टैग हटाकर उन्हें महत्त्वपूर्ण मृदा कार्बन पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में नामित करना।
    • प्रबंधन भुगतान के साथ एक राष्ट्रीय कृषि भूमि वृक्ष नीति लागू करना और उपग्रह मानचित्रण का उपयोग करके कृषि भूमि वृक्ष रजिस्ट्री बनाना।
  • शहरी मृदा स्वास्थ्य अधिदेश: मृदा संघनन की समस्या से निपटने के लिए नए शहरी परिदृश्य में 40% पारगम्य सतही अनुपात सुनिश्चित करना।
    • छत और अर्द्ध-नगरीय कृषि को बढ़ावा देने के लिए शहरी कृषि नीति 2.0 लागू करना।
  • संवैधानिक और संसाधन सुधार: अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 48-A के तहत स्वस्थ मृदा और पर्यावरण के अधिकार को सुनिश्चित करना।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 में स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को बार-बार शामिल किया है (सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य, 1991; वेल्लोर नागरिक, 1996 – निवारक सिद्धांत)।
    • बायोचार ट्रेंच और कृषि तालाबों जैसे मृदा संरक्षण कार्यों के लिए मनरेगा का उपयोग करना।
    • जलवायु कार्रवाई के लिए भारत के NCD में मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) वृद्धि को एक लक्ष्य के रूप में शामिल करना।
  • कानूनी और वित्तीय प्रोत्साहन: फॉस्फोरस, पोटेशियम और सूक्ष्म पोषक तत्वों के उपयोग को संतुलित करने के लिए पोषक तत्व-आधारित सब्सिडी (NBS) व्यवस्था अपनाना।
    • किसान क्रेडिट कार्ड और फसल बीमा को मृदा स्वास्थ्य कार्ड (SHC) के प्रदर्शन से जोड़ना, जिससे मृदा संरक्षण को प्रोत्साहन मिले।
    • वृक्ष संरक्षण के लिए किसानों को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) के लिए पायलट कार्यक्रम शुरू करना और उच्च पारदर्शिता वितरण के लिए ई-रुपे जैसे प्लेटफार्मों का संभावित रूप से लाभ उठाना।
  • शैक्षिक और प्रशासनिक सुधार: स्कूलों में 5 दिसंबर को मृदा संरक्षण दिवस घोषित करना और दीर्घकालिक शैक्षिक प्रभाव के लिए NCERT की पाठ्यपुस्तकों में मृदा पारिस्थितिकी के अध्यायों को शामिल करना।
    • ग्राम पंचायतों के माध्यम से मृदा संरक्षण प्रयासों का विकेंद्रीकरण करना, जिससे मनरेगा समर्थित मृदा पुनर्स्थापन परियोजनाओं में जमीनी स्तर पर जवाबदेही सुनिश्चित हो।
  • वैश्विक प्रतिबद्धता और संरेखण: UNCCD के तहत वैश्विक मृदा भागीदारी (GSP) और भूमि क्षरण तटस्थता (LDN) लक्ष्यों के साथ भारत के प्रयासों को संरेखित करना, जिससे वैश्विक मृदा संरक्षण में भारत की भूमिका सुदृढ़ होगी।

निष्कर्ष 

स्वस्थ मृदाएँ एक सुदृढ़, विकसित भारत की आधारशिला हैं। विश्व मृदा दिवस 2025 भारत से आग्रह करता है कि वह शोषण से प्रबंधन की ओर बढ़े, और खाद्य प्रणालियों, जलवायु स्थिरता एवं दीर्घकालिक पारिस्थितिक कल्याण को सुरक्षित करने के लिए प्रत्येक शहरी और कृषि योजना में मृदा स्वास्थ्य को शामिल करे।

अभ्यास प्रश्न  शहरी मृदा, सतत शहरी नियोजन के एक महत्त्वपूर्ण किंतु उपेक्षित घटक के रूप में उभर रही है। विश्व मृदा दिवस 2025 के संदर्भ में, खाद्य असुरक्षा, प्रदूषण, बाढ़ और शहरी ताप तनाव जैसी चुनौतियों से निपटने में स्वस्थ शहरों के लिए स्वस्थ मृदा’ की भूमिका पर चर्चा कीजिए। 

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