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सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की अधिक संख्या

Lokesh Pal September 18, 2025 02:54 16 0

संदर्भ

संवैधानिक अधिकारों के सर्वोच्च संरक्षक, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में 88,417 मामले लंबित हैं, जो अब तक के इतिहास में सर्वाधिक है (राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड, 2025)

लंबित मामले

  • मामलों का विवरण: इनमें से 69,553 दीवानी मामले और 18,864 फौजदारी मामले हैं, जो न्यायालय के व्यापक अधिकार क्षेत्र को दर्शाता है।
  • वार्षिक प्रवृत्ति: वर्ष 2025 तक अब तक 52,630 मामले दर्ज किए गए, जबकि 46,309 (88%) मामले निपटाए गए।

लंबित मामलों के कारण

  • न्यायिक रिक्तियाँ और न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात में कमी: भारत में प्रति दस लाख लोगों पर केवल 21 न्यायाधीश हैं, जो संयुक्त राज्य अमेरिका (50 से अधिक) या चीन (100 से अधिक) से बहुत कम है।
    • उच्च न्यायालय और निचली अदालतें नियमित रूप से 30-35% रिक्तियों के साथ कार्य करती हैं, जिससे मामलों के निपटारे में देरी होती है।
  • बढ़ते मुकदमे और विस्तृत क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय एक “जनता के न्यायालय” के रूप में कार्य करता है, जो न केवल संवैधानिक मुद्दों पर बल्कि विशेष अनुमति याचिकाओं (अनुच्छेद-136), सेवा विवादों और संपत्ति संबंधी मामलों पर भी सुनवाई करता है।
    • अधिकारों और जनहित याचिकाओं (Public Interest Litigations- PIL) के बारे में बढ़ती जागरूकता ने मुकदमेबाजी की मात्रा में वृद्धि की है।
      • उदाहरण: अगस्त 2025 में, सर्वोच्च न्यायालय में 7,080 नए मामले आए, जो उसके द्वारा निपटाए गए 5,667 मामलों से कहीं अधिक थे।
  • सरकार सबसे बड़ी वादी: केंद्र और राज्य सरकारें सभी लंबित मामलों के लगभग 46% हेतु उत्तरदायी हैं (विधि आयोग, 2017)।

विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition- SLP)

  • परिभाषा: किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण के किसी निर्णय, डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील करने के लिए विशेष अनुमति प्राप्त करने हेतु भारत के सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई याचिका।
  • संवैधानिक आधार: अनुच्छेद-136 – असाधारण मामलों में अनुमति प्रदान करने की सर्वोच्च न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति।

    • बार-बार विभागीय अपीलें, यहाँ तक कि सुलझे हुए मामलों में भी, न्यायिक प्रक्रिया को अवरुद्ध कर देती हैं।
    • उदाहरण: भूमि अधिग्रहण, सेवा और कर संबंधी विवाद प्रायः विभागीय प्रतिरोध के कारण उच्च न्यायालयों तक पहुँच जाते हैं।
  • प्रक्रियागत विलंब और स्थगन: बार-बार स्थगन, लंबी मौखिक बहस और अत्यधिक दस्तावेजी कार्रवाई, मुकदमों को लंबित करती है।
    • वकील प्रायः अनेक सुनवाइयों की माँग करते हैं और अदालतें उदारतापूर्वक समय विस्तार प्रदान करती हैं।
    • उदाहरण: कई संपत्ति और सेवा विवाद 10-15 वर्षों तक अनसुलझे रहते हैं, जिससे जनता का विश्वास कम होता है।
  • बुनियादी ढाँचे की कमी: अधीनस्थ न्यायालयों में, जहाँ 90% लंबित मामले हैं, प्रायः आधुनिक सुविधाओं, केस प्रबंधन प्रणालियों या ई-फाइलिंग का अभाव होता है।
    • वर्ष 2022 की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल 54% न्यायालयों में ही वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा उपलब्ध है।
    • विद्युत की कमी, आशुलिपिकों की कमी और डिजिटलीकरण का अभाव त्वरित सुनवाई में बाधा डालते हैं।
  • कोविड-19 महामारी का लंबित मामला: वर्ष 2020-21 के बीच, मामलों के निपटारे में भारी गिरावट आई, जबकि दाखिले जारी रहे, इससे न्यायालयों में मामलों का निरंतर बढ़ता हुआ बोझ एक स्थायी समस्या बन गया।
    • आभासी सुनवाई की शुरुआत की गई, लेकिन आपराधिक मुकदमों या डिजिटल पहुँच की कमी वाले ग्रामीण वादियों के लिए यह प्रभावी नहीं रही।
    • इसका प्रभाव वर्ष 2025 में भी जारी रहेगा, सुधारों के बावजूद लंबित मामले नए शिखर पर पहुँचेंगे।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution- ADR) का कम उपयोग: मध्यस्थता और पंच-निर्णय जैसे तंत्रों का अभी भी कम उपयोग हो रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में बताया गया है कि 87% दीवानी मामलों का निपटारा ADR के माध्यम से किया जा सकता है, जबकि 2% से भी कम मामलों को रेफर किया जाता है।
    • उदाहरण: वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 मध्यस्थता को अनिवार्य बनाता है, लेकिन इसका अनुपालन कमजोर है।

लंबित मामलों की अधिकता के निहितार्थ

  • विश्वसनीयता का संकट: न्याय में देरी से न्यायपालिका में नागरिकों का विश्वास लगातार कम होता जा रहा है, विशेषतः भ्रष्टाचार, संवैधानिक व्याख्या और अधिकारों की सुरक्षा से जुड़े मामलों में।
  • आर्थिक परिणाम: लंबे समय तक चलने वाले वाणिज्यिक विवाद पूँजी को अवरुद्ध करते हैं, घरेलू एवं विदेशी निवेश को हतोत्साहित करते हैं और आर्थिक विकास की गति को धीमा कर देते हैं।
  • गहराती सामाजिक असमानता: हाशिए पर स्थित समूह सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, चाहे वे जेलों में लंबे समय से बंद विचाराधीन कैदी हों या संपत्ति और सेवा विवादों के निपटारे के लिए दशकों से प्रतीक्षारत गरीब वादी।
  • जेलों में भीड़भाड़: भारतीय न्याय रिपोर्ट, 2025 में पाया गया कि 50% से अधिक जेलें क्षमता से अधिक भरी हुई हैं और 76% कैदी विचाराधीन हैं, जो लंबित मामलों और बिना दोषसिद्धि के कारावास के बीच सीधा संबंध दर्शाता है।
  • व्यापक प्रशासनिक प्रभाव: भूमि, सेवा, कराधान और प्रशासनिक कार्यों से संबंधित विवादों के अनसुलझे रहने के कारण लंबित मामलों की उच्च संख्या प्रभावी शासन को कमजोर करती है।
    • नागरिकों और व्यवसायों का नियम-आधारित प्रणालियों में विश्वास कम हो जाता है, जिससे अनुपालन और नागरिक सहभागिता प्रभावित होती है।
    • धीमी न्यायिक कार्यवाही कार्यकारी कार्यों पर नियंत्रण को कमजोर करती है, जिससे अप्रत्यक्ष रूप से जवाबदेही और पारदर्शिता प्रभावित होती है।

उपाय 

  • उत्तरवर्ती सुधार
    • संचालन विभाग का पुनर्गठन: अतिरिक्त कर्मचारियों और विस्तारित घंटों के साथ रजिस्ट्री को सुदृढ़ किया गया, जिससे मामलों का औसत दैनिक सत्यापन 184 से बढ़कर 228 हो गया।
    • विशेषज्ञ परामर्श: IIM बंगलूरू ने रजिस्ट्री प्रक्रियाओं का अध्ययन किया और डेटा-आधारित सुधारों का सुझाव दिया।
    • स्वचालित आवंटन: एकीकृत केस प्रबंधन सूचना प्रणाली (Integrated Case Management Information System [ICMIS]) ने बेंच आवंटन को स्वचालित किया, जिससे विवेकाधिकार कम हुआ और पारदर्शिता सुनिश्चित हुई।
  • प्रक्रियात्मक सुधार 
    • द्वितीय रजिस्ट्रार न्यायालय: सूचीकरण में देरी को रोकने के लिए दोषपूर्ण फाइलिंग को मंजूरी दी गई।
    • अनिवार्य पुनः सूचीकरण: 2–3 सप्ताह के भीतर सुनवाई न होने वाले मामलों को अनिवार्य रूप से पुनः सूचीबद्ध किया गया, जिससे “डिसमिस्ड” मामलों से बचा जा सका।
    • ईमेल उल्लेख: वरिष्ठ अधिवक्ताओं द्वारा मौखिक उल्लेखों के स्थान पर ईमेल प्रणाली शुरू की गई, जिससे न्यायालय का समय बचा और समान पहुँच सुनिश्चित हुई।
    • वर्गीकरण ढाँचा: मामलों के कुशल समूहीकरण के लिए 48 मुख्य श्रेणियाँ और 182 उप-श्रेणियाँ शुरू की गईं; जिससे समान मामलों का तेजी से निपटान संभव हुआ।
  • पुराने मामलों का केंद्रित निपटान
    • समर्पित दिन: इन पुराने मामलों के निपटारे के लिए मंगलवार और बुधवार निर्धारित किए गए।
    • अनुसंधान शाखा का सहयोग: सर्वोच्च न्यायालय की अनुसंधान शाखा ने 10,000 से अधिक मामलों का विश्लेषण किया और न्यायाधीशों के लिए 1-2 पृष्ठों का संक्षिप्त विवरण तैयार किया। इससे पीठों को 30-45 मिनट में 10 पुराने मामलों का निपटारा करने में मदद मिली, जिससे 1,025 मुख्य और 427 संबंधित मामलों का शीघ्र निपटारा हुआ।
  • विभेदित मामला प्रबंधन (Differentiated Case Management [DCM]): DCM ने दशकों पुराने मामलों की जाँच की। इससे सर्वोच्च न्यायालय की निपटान दर 104% से ऊपर पहुँच गई, जिससे यह सिद्ध हुआ कि प्रणालीगत सुधार क्रमिक परिवर्तनों से बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं।
  • समितियाँ: सर्वोच्च न्यायालय ने लंबित मामलों में कमी लाने की रणनीति बनाने के लिए विशेष समितियों का गठन किया, जो मलिमथ समिति की रिपोर्ट के मार्गदर्शन में थीं, जिसमें सख्त प्रक्रियात्मक समय-सीमा और स्थगन में अनुशासन की वकालत की गई थी।
  • न्यायिक क्षमता का विस्तार: विधि आयोग की रिपोर्टों में बार-बार निम्नलिखित सिफारिशें की गई हैं:
    • न्यायिक अवकाश में 10-21 दिन की कटौती;
    • रिक्तियों को बिना किसी देरी के भरना;
    • बकाया राशि के निपटान के लिए कार्य दिवसों की संख्या बढ़ाना।
  • विधायी सुधार
    • मध्यस्थता और सुलह (2015, 2019): समयबद्ध विवाद समाधान की शुरुआत की गई।
    • वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम (2018): संस्था-पूर्व मध्यस्थता को अनिवार्य बनाया गया।
    • परक्राम्य लिखत अधिनियम (2018): चेक बाउंस मामलों के लिए संक्षिप्त सुनवाई की सुविधा प्रदान की गई।
  • डिजिटल उपकरण और ई-न्यायालय: ई-फाइलिंग, वर्चुअल सुनवाई और इलेक्ट्रॉनिक केस मैनेजमेंट टूल्स (Electronic Case Management Tools [ECMT]) का विस्तार किया जा रहा है। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (National Judicial Data Grid [NJDG]) पारदर्शिता बढ़ाता है, लेकिन इसके लिए ‘रियल-टाइम केस ट्रैकिंग’ के साथ अधिक सघन एकीकरण की आवश्यकता है।
  • त्वरित सरकारी कार्रवाई: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए कॉलेजियम की सिफारिशें अब प्रायः 48 घंटों के भीतर मंजूर कर दी जाती हैं।
  • ग्रीष्मकालीन सुधार: वर्ष 2025 में, मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने ग्रीष्मकालीन अवकाश को “आंशिक कार्य दिवसों” में बदल दिया, जिसमें 21 पीठें कार्यरत होंगी, जिससे अवकाश के दौरान मामलों के निपटारे में वृद्धि होगी।
  • सर्वोच्च न्यायालय का विभाजन: विधि आयोगों (10वें और 11वें) ने इसे निम्नलिखित में विभाजित करने का सुझाव दिया:
    • अधिकारों और संघीय विवादों के लिए एक संवैधानिक प्रभाग;
    • नियमित अपीलों के लिए एक कानूनी प्रभाग।

आगे की राह

  • राष्ट्रीय न्यायिक परिषद: लंबित सुधारों की देख-रेख के लिए GST परिषद के समान एक केंद्रीय समन्वय निकाय।
  • विशेष पीठ: कर, सेवा और वाणिज्यिक मामलों के लिए स्थायी पीठें, ताकि सर्वोच्च न्यायालय का नियमित भार कम हो सके।
  • निचली न्यायपालिका को मजबूत करना: उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों को न्यायाधीशों के प्रवाह को अवशोषित करने के लिए सशक्त बनाना।
  • शक्ति का विस्तार: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 34 से अधिक करने पर विचार।
  • प्रौद्योगिकी और कृत्रिम बुद्धिमत्ता: SUPACE, पूर्वानुमान विश्लेषण और कृत्रिम बुद्धिमत्ता-संचालित केस ट्राइएज का व्यापक उपयोग।
  • प्रक्रिया अभिविन्यास: केवल संख्याओं पर ही नहीं, बल्कि केस प्रबंधन में प्रणालीगत सुधारों पर भी ध्यान केंद्रित करना।

निष्कर्ष

लंबित मामलों का संकट एक संरचनात्मक चुनौती है, जो अनुच्छेद-21 के तहत त्वरित न्याय के भारत के संवैधानिक वादे के लिए खतरा प्रस्तुत करता है। फिर भी, हालिया सुधार यह दर्शाते हैं कि प्रगति संभव है। जैसा कि न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर ने कहा था, “न्याय में देरी न्याय का खंडन है।” न्याय, समानता और दक्षता के संवैधानिक मूल्यों को सुधारों में सम्मिलित करने से यह सुनिश्चित होगा कि सर्वोच्च न्यायालय, जनता का न्यायालय और अधिकारों का अंतिम संरक्षक बना रहे।

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