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मानवीय गरिमा बनाम धार्मिक प्रथाएँ

Lokesh Pal June 28, 2024 01:35 167 0

संदर्भ

हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ ने नेरूर सत्गुरु सदाशिव ब्रह्मेन्द्राल (Nerur Sathguru Sadasiva Brahmendral) के जीव समाधि दिवस (Jeeva Samathi day) की पूर्व संध्या पर उनके अंतिम विश्राम स्थल पर “अन्नदानम्” (निःशुल्क भोजन प्रदान करना) और “अंगप्रदक्षिणम्” (परिक्रमा) को पुनः शुरू करने की अनुमति दी। 

  • यह प्रथा पहले बंद हो गई थी, लेकिन अब भारतीय संविधान के अनुच्छेद-25(1) के अंतर्गत  धार्मिक स्वतंत्रता का हवाला देकर इसे पुनः बहाल कर दिया गया है, जो धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने के अधिकार की गारंटी देता है। 

अंगप्रदक्षिणम् अभ्यास (Angapradakshinam Practice) की पृष्ठभूमि

‘अंगप्रदक्षिणम्’ शब्द दो संस्कृत शब्दों ‘अंग’ अर्थात् शरीर और ‘प्रदक्षिणम्’ अर्थात परिक्रमा से मिलकर बना है।

  • पारंपरिक मान्यता: भक्तों द्वारा भोजन करने के बाद छोड़े गए केले के पत्तों पर लोटकर ‘अंगप्रदक्षिणम’ करने की प्रथा, इस मान्यता के साथ कि इससे आध्यात्मिक लाभ मिलता है और यह 100 से अधिक वर्षों से चली आ रही है।
  • वर्ष 2015 में रोक: मानवीय गरिमा पर चिंताओं के कारण वर्ष 2015 में एक जनहित याचिका (PIL) में डिवीजन बेंच के आदेश द्वारा इस प्रथा को रोक दिया गया था।
  • पुनः बहाली: 9 वर्ष बाद, वर्ष 2024 में, मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै बेंच ने अनुच्छेद-25(1) को लागू करके इस प्रथा को पुनः बहाल कर दिया।

मदुरै बेंच के फैसले पर महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि

मदुरै पीठ ने कहा कि एक व्यक्ति को अंगप्रदक्षिणम् करने का पूरा अधिकार है, जो एक अनुष्ठान है जिसमें व्यक्ति भोजन करने के बाद अन्य भक्तों द्वारा छोड़े गए केले के पत्तों पर लोट लगाता है।

  • महाभारत से संदर्भ: न्यायाधीश ने अपने निर्णय के समर्थन में महाभारत का हवाला देते हुए तर्क दिया कि बचे हुए भोजन पर लोटने से आध्यात्मिक लाभ मिलता है।
  • उच्चतम न्यायालय के आदेश से तुलना: न्यायमूर्ति जी. आर. स्वामीनाथन ने कहा कि कर्नाटक मामले में, जिस पर उच्चतम न्यायालय ने रोक लगाई थी, केवल ब्राह्मणों के भोजन करने के बाद अन्य भक्तों द्वारा छोड़े गए केले के पत्तों पर लोट लगाना था, जबकि नेरूर में सभी भक्तों ने भाग लिया था।
    • कर्नाटक मामले में दक्षिण कन्नड़ जिले के कुक्के सुब्रमण्य मंदिर में भी ऐसी ही प्रथा अपनाई गई थी। उच्चतम न्यायालय ने दिसंबर 2014 में इस प्रथा पर रोक लगा दी थी और प्रतिवादियों को निर्देश दिया था कि वे किसी को भी बचे हुए केले के पत्तों पर लोटने की अनुमति न दें। 
  • प्राकृतिक न्याय के लिए: पहले के फैसले को इस आधार पर खारिज किया गया है कि जनहित याचिका में आवश्यक पक्षों को न तो पक्षकार के रूप में शामिल किया गया था और न ही उनकी बात सुनी गई थी और यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
  • मौलिक अधिकारों का संरक्षण: न्यायमूर्ति जी. आर. स्वामीनाथन ने ऐसे भक्तों की आस्था को, जो इस तरह के अभ्यास से आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने का दावा करते हैं, निजता के अधिकार से जोड़ा, जो संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार है।
    • संविधान के अनुच्छेद-14, 19(1)(a), 19(1)(d), 21 और 25(1) के तहत प्रथागत प्रथा को मौलिक अधिकार के रूप में संरक्षित किया गया है। 
  • आध्यात्मिक अभिविन्यास: न्यायाधीश ने तर्क दिया कि यदि गोपनीयता के अधिकार में ‘लिंग और यौन अभिविन्यास’ (Gender and Sexual Orientation) शामिल है, तो इसमें ‘आध्यात्मिक अभिविन्यास’ (Spiritual Orientation) भी शामिल है।
  • सांप्रदायिक सौहार्द और सामाजिक एकता: वर्तमान मामले में, सभी भक्तों ने अपने समुदाय की परवाह किए बिना भाग लिया और यह प्रथा सांप्रदायिक सौहार्द और सामाजिक एकीकरण की ओर इशारा करती है।

फैसले के विरुद्ध हो रही आलोचनाएँ

मदुरै पीठ के हालिया फैसले की विशेषज्ञों द्वारा निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है:

  • मानवीय गरिमा के साथ टकराव और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: निर्णय में कहा गया है कि सभी भक्त, चाहे वे किसी भी जाति के हों, बचे हुए केले के पत्तों पर लोटने की प्रथा में लिप्त हो सकते हैं।
    • इसने निष्कर्ष निकाला कि इस तरह की धार्मिक और पारंपरिक प्रथाएँ मानव गरिमा को प्रभावित करती हैं तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 और 21 के तहत समानता और जीवन के अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।
  • संवैधानिक भावना के विरुद्ध: हालिया निर्णय में भक्तों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर अनुष्ठान जारी रखने के अधिकार पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • यह संविधान के अनुच्छेद-51A में निहित वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद तथा जाँच और सुधार की भावना विकसित करने के प्रत्येक नागरिक के कर्तव्य की जाँच करने में विफल रहा।
  • जन आंदोलन की अनदेखी: न्यायाधीश ने जन आंदोलन की अनदेखी की, जिसके परिणामस्वरूप न्यायिक निर्णय में यौन अभिविन्यास को मान्यता दी गई, जिसे आध्यात्मिक अभिविन्यास के बराबर नहीं माना जा सकता, विशेषकर इसलिए क्योंकि भक्तों द्वारा छोड़े गए केले के पत्तों पर अंगप्रदक्षिणम् करना आध्यात्मिक के बजाय प्रथागत एवं धार्मिक है।
  • तथ्यों की गलत समझ: उच्चतम न्यायालय में कर्नाटक सरकार द्वारा की गई अपील के मद्देनजर रोक लगा दी गई थी क्योंकि ये अनुष्ठान सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के विरुद्ध था।
  • सांस्कृतिक सापेक्षवाद (Cultural Relativism) का पालन किया गया: यह निर्णय एक प्रकार का सापेक्षवादी तर्क है और अंतरराष्ट्रीय साधनों में मानदंडों से बिल्कुल अलग है।
    • यहाँ तक ​​कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर की प्रस्तावना और मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में भी मानव गरिमा का उल्लेख है।
  • अंधविश्वास में निहित प्रथा: न्यायाधीश यह पहचानने में विफल रहे कि पारंपरिक और धार्मिक प्रथाएँ अंधविश्वासों को बढ़ावा देती हैं और अज्ञानी एवं डरे हुए लोगों की शरणस्थली हैं, जो अपने विशेषाधिकारों पर चुनौती के विरुद्ध सुरक्षा करते हैं।

धर्म और मानव गरिमा की अन्य समकालीन घटनाएँ

भारत में मानवीय गरिमा बनाम धार्मिक आचरण का मुद्दा नया नहीं है। कुछ समय पहले के उदाहरण इस प्रकार हैं:

  • ट्रिपल तलाक मामला: इसने भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत समानता के मौलिक अधिकार और जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया।
    • शायरा बानो केस, वर्ष 2017 में उच्चतम न्यायालय ने ट्रिपल तलाक या तलाक-ए-बिद्दत को असंवैधानिक घोषित किया।
  • सबरीमाला मामला: इसने भारतीय संविधान के अनुच्छेद-25 के तहत लैंगिक समानता और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया।
    • वर्ष 2018 में, उच्चतम न्यायालय ने सभी उम्र की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी।
  • महिला जननांग विकृति (Female Genital Mutilation): उच्चतम न्यायालय ने बोहरा मुस्लिम समुदाय में प्रचलित महिला जननांग विकृति के बारे में चिंता व्यक्त की।
    • यह धार्मिक विश्वासों के नाम पर एक महिला की शारीरिक अखंडता और गोपनीयता का उल्लंघन करता है।
  • बहुविवाह और निकाह हलाला (Polygamy and Nikah Halala): यह समानता के अधिकार का भी उल्लंघन करता है।
    • समीना बेगम बनाम भारत संघ का मामला मुख्य रूप से निकाह हलाला और बहुविवाह की प्रथाओं की संवैधानिकता पर सवाल उठाता है, जो मुस्लिम पर्सनल लॉ के घटक हैं।
  • समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code): भारतीय संविधान के भाग 4 (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) के तहत अनुच्छेद 44 के अनुसार भारत के समस्त नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता होगी। इसका व्यावहारिक अर्थ है कि, भारत के सभी धर्मों के नागरिकों के लिये एक समान धर्मनिरपेक्ष कानून होना चाहिये।
    • सरला मुद्गल बनाम भारत संघ, 1995 ने विभिन्न धार्मिक समुदायों में विवाह और तलाक जैसे मामलों में महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली असमानता तथा भेदभाव को दूर करने के लिए भारत में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
    • इसका उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद-44 (राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों का एक हिस्सा) में किया गया है।
      • समर्थित: राष्ट्रीय एकीकरण और लैंगिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए जमीनी स्तर पर।
      • विरोध: धार्मिक स्वतंत्रता और विविधता के लिए खतरा।

ऐसे धार्मिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं से जुड़े नैतिक मुद्दे

मानव गरिमा और धार्मिक प्रथाओं का मुद्दा विभिन्न नैतिक दुविधाओं को जन्म देता है, जिनमें से कुछ का उल्लेख नीचे किया गया है:

  • सांस्कृतिक सापेक्षवाद और सार्वभौमिकता (Cultural Relativism and Universalism): ऐसी प्रथाएँ सांस्कृतिक प्रथाओं का सम्मान करने और सार्वभौमिक मानवाधिकार मानकों को बनाए रखने के बीच संघर्ष का उदाहरण हैं।
    • सार्वभौमिकतावादी मानवाधिकार मानकों को अपनाने के पक्ष में तर्क देते हैं, जबकि सांस्कृतिक सापेक्षवादी प्रथागत कानूनों और प्रथाओं तथा धार्मिक विश्वासों पर भरोसा करते हैं।
  • स्वास्थ्य और स्वच्छता संबंधी चिंताएँ (Health and Hygiene Concerns): बचे हुए भोजन पर लोटने जैसी ये प्रथाएँ स्वच्छता और स्वास्थ्य के लिए महत्त्वपूर्ण जोखिम पैदा कर सकती हैं।
  • सहमति और स्वैच्छिकता (Consent and Voluntariness): स्वैच्छिक होने पर भी, ऐसे सामाजिक दबाव हो सकते हैं जो वास्तविक सहमति को कमजोर कर देते हैं।
  • सार्वजनिक नैतिकता (Public Morality): ऐसी धार्मिक और प्रथागत प्रथाएँ सार्वजनिक नैतिकता को कमजोर कर सकती हैं। 
    • धार्मिक संदर्भों में नैतिक मूल्य अक्सर उच्च शक्ति की शिक्षाओं और आदेशों से प्राप्त होते हैं। आस्तिक इन नैतिक दिशा-निर्देशों का पालन करते हैं।
    • हालाँकि, नैतिक प्रणालियों में, विशेष रूप से धर्मनिरपेक्ष नैतिकता में, मानवीय तर्क, सहानुभूति, सामाजिक मूल्य और भलाई एवं निष्पक्षता के विचारों सहित विभिन्न स्रोतों से प्रेरणा ली जा सकती है।
  • संवैधानिक मूल्यों और भावना के विरुद्ध
    • गरिमा और समानता के विरुद्ध (Against Dignity and Equality): ऐसी धार्मिक और प्रथागत प्रथाएँ मानवीय गरिमा को कम कर सकती हैं और समानता के अधिकारों का उल्लंघन कर सकती हैं।
    • विकास की भावना के विरुद्ध (Against the Spirit of Growth): ऐसी अंधविश्वासी प्रथाओं को बढ़ावा देना लोगों में वैज्ञानिक सोच, मानवतावाद और जिज्ञासा की भावना के विकास के विरुद्ध है।

आगे की राह 

प्रथागत और धार्मिक प्रथाओं में मानव गरिमा को ठेस पहुँचाने के मुद्दे का सामना करने के लिए निम्नलिखित कार्यवाहियाँ सुझाई गई हैं:

  • परिवर्तन करना राज्य का कर्तव्य है: धार्मिक और पारंपरिक प्रथाओं में परिवर्तन करना राज्य का कर्तव्य है, जैसे कि बचे हुए खाने पर लोटना, जो अस्वस्थ, हानिकारक हैं और मानवीय गरिमा पर आघात करते हैं।
  • आस्थावानों के बीच शिक्षा और जागरूकता फैलाएँ: हालाँकि ऐसी प्रथाओं को पूरी तरह से अस्वीकार करने से ‘पैनडोरा बॉक्स’ खुल सकता है, राज्य तर्क और तर्कसंगत चर्चाओं के माध्यम से आस्थावानों को शिक्षित कर सकता है और एक ऐसे समुदाय का निर्माण कर सकता है, जो मानवीय हो और जिज्ञासा की भावना से ग्रस्त हो।
  • न्यायिक सामंजस्य बनाए रखना (Maintain a Judicial Harmony): भारत में व्यक्तिगत कानूनों पर मौलिक अधिकारों की प्रयोज्यता के बारे में न्यायिक राय में महत्त्वपूर्ण मतभेद हैं, जिनके लिए न्यायिक स्थिरता के माध्यम से सामंजस्य बनाए रखने की आवश्यकता है।
    • जबकि कुछ निर्णय इस बात पर जोर देते हैं कि व्यक्तिगत कानून अनुच्छेद-13 के दायरे से बाहर हैं और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर चुनौतियों से मुक्त हैं, अन्य ऐसे व्यक्तिगत कानूनों को मौलिक अधिकारों के खिलाफ मूल्यांकन की सिफारिश करते हैं।
  • संवैधानिक नैतिकता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए (Preference must be on Constitutional Morality): संवैधानिक नैतिकता शासन के सिद्धांतों को समझने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करती है। यह ऐसे मानदंड निर्धारित करती है, जिनका पालन संस्थाओं को अपने उचित कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए करना चाहिए।
    • संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत का प्रयोग उच्चतम न्यायालय द्वारा समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करने जैसे सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करने के लिए कई बार किया गया है।
  • भेदभावपूर्ण और हानिकारक प्रक्रियाओं का उन्मूलन: वर्तमान में, विभिन्न समुदायों के व्यक्तिगत कानून उनके धार्मिक ग्रंथों द्वारा शासित होते हैं।
    • विधि आयोग को उन सभी प्रथाओं को समाप्त करने का लक्ष्य रखना चाहिए, जो संवैधानिक मानकों को पूरा नहीं करती हैं और मानवीय मूल्यों के लिए अपमानजनक हैं।
    • सांस्कृतिक प्रथाओं को वास्तविक समानता और लैंगिक न्याय लक्ष्यों के साथ संरेखित किया जाना चाहिए।

अतिरिक्त बिंदु जिन्हें जानना आवश्यक है:

  • मानव गरिमा के बारे में
    • मानवीय गरिमा की अवधारणा यह विश्वास है कि सभी लोगों के पास एक विशेष मूल्य होता है, जो पूरी तरह से उनकी मानवता से जुड़ा होता है।
    • इसका उनके वर्ग, जाति, लिंग, धर्म, योग्यता या किसी अन्य कारक से कोई लेना-देना नहीं है, सिवाय उनके मानव होने के।
    • मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (Universal Declaration of Human Rights) के अनुच्छेद-1 के अनुसार, “सभी मनुष्य स्वतंत्र और समान गरिमा और अधिकारों के साथ उत्पन्न होते हैं।
    • नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय वाचा (International Covenant on Civil and Political Rights), यह मानती है कि मानव परिवार के सभी सदस्यों की अंतर्निहित गरिमा और समान तथा अविभाज्य अधिकार दुनिया में स्वतंत्रता, न्याय और शांति की नींव हैं।
  • अनिवार्यता के सिद्धांत (Doctrine of Essentiality) के बारे में
    • उत्पत्ति: वर्ष 1954 में शिरूर मठ मामले (Shirur Mutt Case) में। 
    • धर्म की परिभाषा: उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘धर्म’ में धर्म से जुड़े सभी अनुष्ठान और प्रथाएँ शामिल हैं।
    • न्यायिक जिम्मेदारी (Judicial Responsibility): उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित करने की जिम्मेदारी ली कि कौन-सी प्रथाएँ किसी धर्म के लिए जरूरी और गैर-जरूरी हैं।
    • उद्देश्य: आवश्यक धार्मिक प्रथा परीक्षण का उद्देश्य केवल उन धार्मिक प्रथाओं की रक्षा करना है, जिन्हें धर्म के लिए जरूरी एवं अभिन्न माना जाता है।
    • विवादास्पद प्रकृति: यह सिद्धांत विवादास्पद बना हुआ है क्योंकि यह निर्धारित करने की व्यक्तिपरक प्रकृति है कि कौन-सी प्रथाएँ जरूरी हैं।
  • प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (Principles of Natural Justice) के बारे में
    • इसका उद्देश्य समाज के अपराधियों और राजशाही प्रतिनिधियों के अन्याय, अत्याचार और कुशासन से व्यक्तियों और समाज की रक्षा करना है।
    • राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों कानूनों की उत्पत्ति प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों में निहित है। यह इसकी सार्वभौमिक प्रकृति के कारण है।
  • मानव सम्मान और धार्मिक प्रथाओं से संबंधित संवैधानिक अनुच्छेद
    • अनुच्छेद-14: इसमें कहा गया है कि राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
    • अनुच्छेद-19(1)(a): यह प्रत्येक नागरिक को मौखिक रूप से, लिखित रूप में, मुद्रण द्वारा, चित्र द्वारा या किसी अन्य तरीके से अपने विचार, राय, विश्वास और धारणाओं को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करने का अधिकार देता है।
    • अनुच्छेद-21: यह जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण (Protection of Life and Personal Liberty) से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा। 
    • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Articles 25–28): यह मौलिक अधिकार भारतीय शासन की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को रेखांकित करता है तथा सभी धर्मों के प्रति समान सम्मानीय दृष्टिकोण को दर्शाता है।
      • अनुच्छेद-25: यह अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
        • अनुच्छेद-25(1): इसमें कहा गया है कि लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता एवं धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने का समान अधिकार है।
      • अनुच्छेद-26: यह धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
      • अनुच्छेद-27: यह किसी विशेष धर्म के प्रचार के लिए करों के भुगतान की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
      • अनुच्छेद-28: यह कुछ शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा या पूजा में उपस्थिति के संबंध में स्वतंत्रता प्रदान करता है।

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