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इंडिया जस्टिस रिपोर्ट

Lokesh Pal November 22, 2025 02:50 3 0

संदर्भ 

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के एक अध्ययन में यह पाया गया कि किशोर न्याय बोर्डों के समक्ष प्रस्तुत मामलों में से 55 प्रतिशत से अधिक मामले लंबित थे।

रिपोर्ट के बारे में

  • शीर्षक: किशोर न्याय और विधिक रूप से संघर्षरत बच्चे: अग्रिम मोर्चे पर क्षमता का एक अध्ययन (Juvenile Justice and Children in Conflict with the Law: A Study of Capacity at the Frontlines)
  • यह रिपोर्ट मूल्यांकन करती है कि भारत की किशोर न्याय प्रणाली जिला और राज्य स्तर पर “विधिक रूप से संघर्षरत बच्चों” से निपटने के लिए कितनी सक्षम है।
  • यह अध्ययन में 14 राज्यों और 2 केंद्रशासित प्रदेशों (दिल्ली और जम्मू-कश्मीर) को सम्मिलित किया गया तथा 362 किशोर न्याय बोर्डों द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों का विश्लेषण किया गया।

अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष

  • मामलों की उच्च लंबितता: 31 अक्टूबर, 2023 तक किशोर न्याय बोर्डों के समक्ष 1,00,904 मामलों में से 55 प्रतिशत मामले लंबित थे। राज्यों में लंबित मामलों की दर में बड़ा अंतर पाया गया (ओडिशा में 83 प्रतिशत, कर्नाटक में 35 प्रतिशत)।
  • किशोर न्याय बोर्डों में रिक्तियाँ: यद्यपि 92 प्रतिशत जिलों में बोर्ड गठित हैं, फिर भी 25 प्रतिशत बोर्ड पूर्ण पीठ के बिना कार्यरत हैं, जिससे लंबित मामलों का बोझ बढ़ रहा है। प्रत्येक बोर्ड औसतन 154 लंबित मामलों का वार्षिक निपटान कर रहा है।
  • अपर्याप्त विधिक सहायता: 30 प्रतिशत किशोर न्याय बोर्डों के पास विधिक सेवा क्लिनिक उपलब्ध नहीं है, जिससे बच्चों के लिए विधिक सहायता तक पहुँच बाधित होती है।
  • लैंगिक विशेष सुविधाओं की कमी: 292 जिलों के आँकड़ों के अनुसार, बालिकाओं के लिए केवल 40 विशिष्ट बाल देखभाल गृह उपलब्ध हैं, यह लैंगिक दृष्टि से गंभीर कमी को दर्शाता है।
  • पारदर्शिता से जुड़ी समस्याएँ: 21 राज्यों से जानकारी प्राप्त करने हेतु 250 से अधिक सूचना के अधिकार संबंधी आवेदन दाखिल किए गए, परंतु मात्र 36 प्रतिशत उत्तर उपयोगी सिद्ध  हुए, यह आँकड़ा पारदर्शिता की कमी दर्शाता है।
  • किशोर न्याय बोर्डों से संबंधित राष्ट्रीय स्तर के आँकड़ों का अभाव: रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया कि बोर्डों के लिए राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड जैसी कोई केंद्रीकृत प्रणाली उपलब्ध नहीं है।
  • प्रणालीगत कमियाँ व बाधाएँ
    • अपर्याप्त डेटा निगरानी तथा वित्तीय संसाधनों की कमी ने किशोर न्याय व्यवस्था के प्रभावी क्रियान्वयन को बाधित किया है।
    • विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय की कमी तथा डेटा-साझाकरण में अवरोध से सेवा प्रदायगी में कमियाँ उत्पन्न हुई हैं।

बाल अधिकारों का विधिक एवं संस्थागत ढाँचा 

किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015

  • यह अधिनियम विधिक रूप से संघर्षरत बच्चों तथा देखभाल एवं संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों के लिए वैधानिक ढाँचा प्रदान करता है।
  • वर्ष 2021 में इसमें संशोधन कर दत्तक ग्रहण प्रक्रिया व बाल कल्याण तंत्र को सुदृढ़ किया गया।
  • इस अधिनियम ने किशोर न्याय अधिनियम, 2000  तथा पूर्ववर्ती किशोर अपराध ढाँचे को प्रतिस्थापित किया।
  • इसमें 16 से 18 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों को जघन्य अपराध करने की स्थिति में वयस्क के रूप में परीक्षण का प्रावधान किया गया।
    • जघन्य अपराध वह है जिसकी न्यूनतम सजा 7 वर्ष का कारावास हो।
    • वर्ष 2015 से पूर्व 18 वर्ष से कम सभी व्यक्तियों को समान रूप से किशोर माना जाता था।
  • केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (CARA) को दत्तक ग्रहण संबंधी मामलों के लिए संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।

किशोर न्याय बोर्ड

  • सांविधिक आधार: किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा 4 में किशोर न्याय बोर्ड की स्थापना का प्रावधान है।
  • न्यायिक शक्तियाँ: बोर्ड को दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार आपराधिक न्यायालय की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
  • संरचना: एक न्यायिक दंडाधिकारी तथा दो सामाजिक कार्यकर्ता, जिनमें एक महिला का होना अनिवार्य है।
  • विशेषज्ञों की भूमिका: मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री, गंभीर आरोपों का सामना कर रहे 16–18 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों के परीक्षण की उपयुक्तता का आकलन करते हैं।
  • कार्यकाल: सदस्य तीन वर्ष के कार्यकाल के लिए नियुक्त होते हैं तथा अधिकतम दो लगातार कार्यकाल के लिए पुनर्नियुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।

बाल कल्याण समितियाँ

  • सांविधिक स्थिति: बाल कल्याण समिति किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के तहत स्थापित एक वैधानिक निकाय है।
  • कार्यक्षेत्र: यह जिला स्तर पर संचालित होती है और भारत की बाल संरक्षण प्रणाली का प्रमुख स्तंभ है।
  • मुख्य भूमिका: देखभाल एवं संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों के मामलों की सर्वोच्च प्राधिकारी।
  • शक्तियों का स्वरूप: यह अर्द्ध-न्यायिक संस्था है, जिसे बच्चों की सुरक्षा एवं कल्याण से संबंधित आदेश पारित करने की अधिकारिता प्राप्त है।
  • मुख्य कार्य: बच्चों की देखभाल, सुरक्षा, पुनर्वास और सामाजिक पुनर्संयोजन सुनिश्चित करना।

संवैधानिक एवं अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताएँ

  • अनुच्छेद-15(3): बच्चों के लिए विशेष संरक्षण का प्रावधान।
  • अनुच्छेद-39(e) & (f): बच्चों को शोषण व दुरुपयोग से सुरक्षा का दायित्व।
  • अनुच्छेद 21: गरिमा सहित जीवन के अधिकार में बाल संरक्षण शामिल।
  • भारत बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय का पक्षकार है, जो बाल-केंद्रित एवं पुनर्वास-उन्मुख न्याय को अनिवार्य बनाता है।

ये निष्कर्ष क्यों महत्त्वपूर्ण हैं

  • उच्च लंबितता त्वरित न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करती है।
  • विलंब बच्चों के पुनर्वास एवं पुनर्संयोजन को बाधित करता है।
  • दीर्घ संस्थागतकरण बच्चों पर मानसिक प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
  • कमजोर प्रणाली न्याय वितरण तंत्र में जनता के विश्वास को कम करती है।
  • अपर्याप्त डेटा साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण को प्रभावित करता है।

तंत्र सुधार हेतु सुझाव

  • राष्ट्रीय डेटा ग्रिड की स्थापना: बाल-केंद्रित राष्ट्रीय डेटा ग्रिड स्थापित कर किशोर न्याय तंत्र से संबंधित सभी आँकड़ों का एकीकरण व मानकीकरण सुनिश्चित किया जाए तथा संबंधित प्राधिकरणों द्वारा नियमित प्रकाशन अनिवार्य किया जाए।
  • क्षमता निर्माण एवं रिक्तियों की पूर्ति: विशेषतः किशोर न्याय बोर्डों तथा बाल देखभाल संस्थानों में रिक्तियों को भरने एवं संस्थागत क्षमता बढ़ाने पर बल दिया जाए।
  • विधिक सहायता का सुदृढ़ीकरण: प्रत्येक बोर्ड में विधिक सेवा क्लिनिक स्थापित कर बच्चों को उचित विधिक प्रतिनिधित्व उपलब्ध कराया जाए।
  • निगरानी तंत्र को मजबूत करना: बाल देखभाल संस्थानों में निरीक्षण, कर्मियों की उपलब्धता और संसाधनों में वृद्धि की जाए तथा बोर्डों में विधिक सेवा क्लिनिक को अनिवार्य बनाया जाए, ताकि जवाबदेही एवं पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके।

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