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दक्षिण एशिया में भारत की चुनौतियाँ

Lokesh Pal August 17, 2024 02:54 141 0

संदर्भ

वर्ष 2021 के बाद से भारत के पड़ोसी देशों में महत्त्वपूर्ण भू-राजनीतिक चुनौतियों के अनुभव के साथ, अपनी राजनयिक रणनीतियों और पड़ोसी देशों के साथ क्षेत्रीय जुड़ाव का पुनर्मूल्यांकन करने का समय आ गया है।

  • भारत को अपने पड़ोसी देशों में हो रहे अधिकांश राजनीतिक परिवर्तनों से सबक सीखना चाहिए।

दक्षिण एशिया के बारे में

दक्षिण एशिया में विश्व की सबसे पुरानी ज्ञात सभ्यताएँ जैसे-  सिंधु सभ्यता विकसित हुई और आज यह क्षेत्र पृथ्वी पर सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है। दक्षिण एशिया के लोग इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण संपत्ति हैं, लेकिन उनका बहुत कम उपयोग किया जाता है।

  • दक्षिण एशिया में शामिल देश: दक्षिण एशिया में बांग्लादेश, भूटान, भारत, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका देश शामिल हैं। अफगानिस्तान और मालदीव को भी अक्सर दक्षिण एशिया का हिस्सा माना जाता है।
    • इस शब्द का प्रयोग प्रायः ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ के समानार्थक रूप में किया जाता है, हालाँकि बाद वाले शब्द का प्रयोग कभी-कभी बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान को संदर्भित करने के लिए अधिक प्रतिबंधात्मक रूप से किया जाता है।
  • दक्षिण एशिया का महत्त्व  
    • सामरिक अवस्थिति: दक्षिण-पूर्व एशिया अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के बीच स्थित होने और प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के कारण रणनीतिक स्थान पर अवस्थित है। चीन जैसी कई प्रमुख शक्तियों ने इस क्षेत्र को प्रभावित करने की कोशिश की है। 
      • इस क्षेत्र में भारत और पाकिस्तान जैसे परमाणु संपन्न देश भी हैं।
    • आर्थिक महत्त्व: यहाँ की आधी जनसंख्या 24 वर्ष से कम आयु की है और वर्ष 2030 तक प्रत्येक माह दस लाख से अधिक युवा श्रम बल में प्रवेश करेंगे।
      • यदि दक्षिण एशिया की मानव पूँजी की मात्रा और गुणवत्ता में सुधार होता है, तो प्रति श्रमिक क्षेत्रीय सकल घरेलू उत्पाद दोगुना हो सकता है।

भारत के पड़ोसी देशों में हालिया घटनाओं के बारे में

  • म्याँमार: वर्ष 2021 में तख्तापलट।
  • अफगानिस्तान: वर्ष 2022 में तालिबान का सत्ता में आना।
  • पाकिस्तान: प्रधानमंत्री इमरान खान को पद से हटाया जाना।
  • श्रीलंका: दंगे जिसके कारण गोटबाया राजपक्षे को देश से बाहर होना पड़ा।
  • मालदीव: चुनावी बदलाव के कारण भारत के प्रति ज्यादा अनुकूल सोलिह सरकार को सत्ता से बाहर होना पड़ा।
  • नेपाल: गठबंधन टूटने के मद्देनजर चुनावी बदलाव के कारण भारत के प्रति कम अनुकूल ओली सरकार सत्ता में आई।
  • बांग्लादेश: प्रधानमंत्री शेख हसीना का सत्ता से बाहर होना और भारत को बांग्लादेश के नए नेतृत्व से नए तरीके से संबंध विकसित करने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही है।

इन घटनाओं से भारत के लिए सबक

भारत को वर्तमान परिदृश्य से निम्नलिखित सबक सीखने की जरूरत है और तदनुसार कार्य करने की आवश्यक है।

  • एकतरफा संपर्क से बचने की आवश्यकता: भारत अक्सर एक ही पक्ष में रहता है, अर्थात् विशिष्ट सरकारों के साथ गठबंधन करता है, तथा विपक्ष के साथ निकट संपर्क बनाए रखने की उपेक्षा करता है।
    • उदाहरण: बांग्लादेश में भारत ने शेख हसीना की पार्टी (अवामी लीग) के साथ सकारात्मक संबंध विकसित किए तथा विपक्ष (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) को नजरअंदाज कर दिया।
  • सहयोगियों के साथ संबंधों एवं प्रतिष्ठा को मजबूत करना: भारत को अपने मित्रों को कभी नहीं भूलना चाहिए तथा उन्हें लगातार सहायता प्रदान करनी चाहिए। दक्षिण एशियाई देशों में, राजनीतिक परिवर्तन अक्सर चक्रीय तरीके से होते हैं अर्थात् जो राजनीतिक नेता अक्सर सत्ता खो देते हैं, उनकी कुछ समय बाद राजनीतिक वापसी हो जाती है।
    • तालिबान के कब्जे के बाद अफगान अधिकारियों की मदद करने से भारत के इनकार ने एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में उसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाया। हालाँकि, भारत ने शेख हसीना को सुरक्षित ठिकाना मिलने तक भारत में रहने की अनुमति देकर अच्छा कार्य किया है, जो एक उल्लेखनीय कदम है।
  • सांप्रदायिक दृष्टिकोण से बचाना: दक्षिण एशिया धार्मिक बहुसंख्यकों का क्षेत्र है, यह धारणा कि अच्छे संबंध किसी-न-किसी तरह से धर्म से जुड़े होते हैं, गलत है।
    • हिंदू बहुसंख्यक वाला नेपाल, भारत के सबसे जटिल संबंधों में से एक रहा है, जबकि बौद्ध-बहुल भूटान और मुस्लिम-बहुल मालदीव अक्सर इसके सबसे अच्छे सहयोगी रहे हैं।
    • नागरिकता (संशोधन) अधिनियम पर सरकार का कदम, मुस्लिम बहुल देशों (अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश) से केवल गैर-मुसलमानों के लिए नागरिकता को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए पड़ोसियों के साथ संबंधों को नुकसान पहुँचा सकता है, न केवल उन देशों में, बल्कि उन अन्य देशों में भी जो इसे भारत की अतिक्रमण के रूप में देखते हैं।
    • शेख हसीना को हटाए जाने के बाद बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के प्रति भारत की चिंता उचित है, लेकिन इसे अधिक विवेकपूर्ण तरीके से व्यक्त किया जाना चाहिए।
  • दक्षिण एशियाई तंत्रों का पुनरुद्धार: इस क्षेत्र को अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता के खेल का मैदान नहीं बनने देना चाहिए, जहाँ कोई भी भारत के हितों के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाता है।
    • भारत को दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (South Asian Association for Regional Cooperation- SAARC) और बहुक्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल या बिम्सटेक जैसे अखिल दक्षिण एशियाई तंत्रों को पुनर्जीवित करना होगा तथा बाहरी हस्तक्षेप के बिना पड़ोसी देशों के साथ नए तरीके से संबंध विकसित करने के तरीके ढूँढने होंगे।
  • समावेशी वृद्धि तथा विकास: न केवल भारत बल्कि सभी दक्षिण एशियाई देशों को बेरोजगारी तथा असमान आर्थिक वृद्धि के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

दक्षिण एशिया में क्षेत्रवाद

उपनिवेशवाद से मुक्ति की प्रक्रिया के बाद दक्षिण एशिया में राष्ट्रों के गठन की प्रकृति और संदर्भ और क्षेत्र पर शीतयुद्ध के प्रभाव ने क्षेत्रवाद के विचार को बढ़ने नहीं देने में प्रमुख भूमिका निभाई।

  • पृष्ठभूमि: ब्रिटिश भारत का भारत और पाकिस्तान में विभाजन, बांग्लादेश का पाकिस्तान से अलग होना और इस प्रक्रिया में शामिल युद्ध मुख्य बाधाएँ बन गए, जिन्होंने दक्षिण एशिया में क्षेत्रवाद के विचार के प्रसार को रोक दिया।
    • इसके अलावा, भारत और पाकिस्तान के मूलभूत सिद्धांतों के बीच विरोधाभास इन देशों के बीच किसी भी प्रकार के सार्थक सहयोग की अनुमति नहीं देता है।
    • जहाँ तक ​​शीतयुद्ध के प्रभाव का सवाल है, इसने क्षेत्रवाद और क्षेत्रीय सहयोग के एक सफल उदाहरण के रूप में यूरोपीय संघ के गठन और सुदृढ़ीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालाँकि, इसने दक्षिण एशिया में किसी भी तरह के सहकारी उपक्रमों को रोका है।
  • दक्षिण एशिया में क्षेत्रवाद के अवसर
    • स्थिरता: क्षेत्रीय सहयोग देशों के बीच संवाद और समझ को बढ़ावा देकर अधिक स्थिरता और सुरक्षा की ओर ले जा सकता है।
    • विकास: क्षेत्रीय सहयोग से बुनियादी ढाँचे में अधिक निवेश हो सकता है, जैसे परिवहन और ऊर्जा परियोजनाएँ जो कनेक्टिविटी और आर्थिक विकास में सुधार कर सकती हैं।
      • इसके अलावा, क्षेत्रीय सहयोग देशों की अर्थव्यवस्थाओं को एकीकृत करने और उन्हें वैश्विक बाजार में अधिक प्रतिस्पर्द्धी बनाने में मदद कर सकता है।

    • साझा दृष्टिकोण: क्षेत्रवाद सहयोगी देशों को अपने भविष्य के लिए साझा दृष्टिकोण विकसित करने तथा साझा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मिलकर कार्य करने में मदद कर सकता है।
  • दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग की चुनौतियाँ
    • कम व्यापार: दक्षिण एशिया का अंतर-क्षेत्रीय व्यापार विश्व स्तर पर सबसे कम है, जो क्षेत्र के कुल व्यापार का केवल 5% है। दक्षिण एशियाई देशों के बीच व्यापार वर्तमान में केवल $23 बिलियन है, जो कम-से-कम $67 बिलियन के अनुमानित मूल्य से बहुत कम है।
      • क्षेत्र के दक्षिण एशियाई देशों के बीच महत्त्वपूर्ण आर्थिक असमानताएँ व्यापार और निवेश के लिए समान अवसर स्थापित करना कठिन बना देती हैं।
    • बाहरी प्रभाव: दक्षिण एशिया में द्विपक्षीय संबंधों को बाहरी ताकतें प्रभावित करती हैं। यह बाहरी शक्तियों से प्रभावित है, चीन और अमेरिका दक्षिण एशियाई राजनीति में प्रमुख हितधारक बने हुए हैं।
      • दक्षिण एशिया तथा हिंद महासागर के द्वीपीय देशों सहित इसके समुद्री पड़ोसियों के साथ हाल की चीनी कार्रवाइयों और नीतियों ने भारत के लिए अपने पड़ोसियों को बहुत गंभीरता से लेना आवश्यक बना दिया है।
    • क्षेत्रीय मुद्दे: दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय विवाद क्षेत्र की शांति, सुरक्षा और विकास के लिए खतरा बने हुए हैं, क्योंकि अधिकांश राष्ट्र-राज्यों की सीमाएँ ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान खींची गई थीं, दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय विवाद आज भी संवेदनशील बने हुए हैं।
    • वैश्विक आपूर्ति शृंखला का अकुशल प्रबंधन: दक्षिण एशिया का अंतरराष्ट्रीय व्यापार एकीकरण वैश्विक औसत से कम है।
      • इसके अलावा, चरम मौसम की घटनाएँ, साइबर हमले, प्रतिबंध और शुल्क, तथा आपूर्तिकर्ताओं एवं परिवहन मार्गों पर वित्तीय प्रदर्शन जैसे विविध जोखिम, आपूर्ति शृंखला की विश्वसनीयता पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकते हैं।
    • राजनीतिक तनाव: विभिन्न ऐतिहासिक संघर्ष, सीमा विवाद तथा चल रहे राजनीतिक तनावों के कारण सहयोग एवं क्षेत्रीय एकीकरण को बढ़ावा देना मुश्किल हो जाता है।
    • विश्वास के मुद्दे: दक्षिण एशिया के देशों के बीच विश्वास की कमी क्षेत्रीय सहयोग और एकीकरण के लिए एक बड़ी बाधा है।

दक्षिण एशिया में भारत की चुनौतियाँ

भारत के सामने निम्नलिखित विभिन्न चुनौतियाँ हैं, जिन पर विचार करने और उनसे निपटने की आवश्यकता है।

  • कश्मीर एक अधूरा एजेंडा: पाकिस्तान कश्मीर प्रश्न को विभाजन के अधूरे एजेंडे के रूप में देखता है और वह भारत के साथ सीमित लेकिन सकारात्मक संबंध विकसित करने तथा सार्क संगठन के तत्त्वावधान में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय एकीकरण को सुविधाजनक बनाने के लिए इसे अस्थायी रूप से भी अलग रखने को तैयार नहीं है।
  • आर्थिक विभाजन और राजनीतिक बाधाएँ: भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक विभाजन के समानांतर आर्थिक विभाजन भी हुआ, क्योंकि भारत और उसके पड़ोसी देशों ने स्वायत्तता को अपना लिया तथा राजनीतिक तथा वाणिज्यिक दोनों प्रकार की बाधाओं के रूप में सीमाओं को मजबूत कर दिया।
  • अखंड भारत विजन: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के ‘अखंड भारत’ या ‘वृहत्तर भारत’ के संस्करण या एकीकृत उपमहाद्वीप के उदारवादी संस्करण, दोनों को गहरे संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
    • पड़ोसी देशों का अभिजात वर्ग भारत के नेतृत्व वाली क्षेत्रीय व्यवस्था और उनकी राष्ट्रीय संप्रभुता के बीच एक बुनियादी विरोधाभास देखता है।
  • राजनीतिक उलटफेर: एक ही पार्टी और एक ही नेता भारत के प्रति अलग-अलग समय पर दोनों रुख अपना सकते हैं।
    • इमरान खान ने नवाज शरीफ पर भारतीय प्रधानमंत्री के प्रति उनकी कथित गर्मजोशी के लिए आलोचना की। हालाँकि, वर्ष 2019 के भारतीय आम चुनाव से पहले उन्होंने कहा था कि कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री ही पाकिस्तान के लिए सबसे बेहतर विकल्प हैं।
  • राजनीतिक रूप से भारत विरोधी शासन का उदय: मालदीव जैसे कई पड़ोसी देशों में राजनीतिक रूप से भारत विरोधी शासन का उदय हो रहा है, जो एक तरह से भारत विरोधी है, नव निर्वाचित सरकार प्रभावी रूप से भारतीयों को मालद्वीव से चले जाने के लिए कह रही है। इसके अलावा, बांग्लादेश में, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (खालिदा जिया के नेतृत्व वाली पार्टी) वैचारिक रूप से भारत विरोधी है।
  • दक्षिण एशिया में चीन के फुटप्रिंट
    • चीन की बेल्ट एंड रोड पहल (Belt and Road Initiative- BRI): कई दक्षिण एशियाई देश तेजी से चीनी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के ऋण जाल में फँस रहे हैं।
    • सीमा समझौते: भूटान के मामले में देखा गया है कि चीन अपने पड़ोसियों (भारत को छोड़कर) के साथ सीमा विवादों को निपटाने की इच्छा रखता है, जो उसके क्षेत्रीय संबंधों को और मजबूत करता है।
  • अन्य देशों का प्रभाव: मध्य पूर्व के देशों (कतर, सऊदी अरब, तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात) का प्रभाव दक्षिण एशिया में उनकी बढ़ती आर्थिक और सैन्य क्षमताओं के बीच बढ़ रहा है।

आगे की राह 

दक्षिण एशिया के देशों के बीच सहयोग बनाए रखने तथा आगे एकीकरण के लिए निम्नलिखित उपाय सुझाए गए हैं।

  • यथार्थवादी और व्यावहारिक रूपरेखा: इससे भारत को इस वास्तविकता से निपटने में मदद मिलेगी कि दक्षिण एशिया और उसका शक्ति संतुलन मौलिक रूप से बदल गया है। चीन क्षेत्रीय प्रधानता के लिए एक गंभीर दावेदार के रूप में उभरा है।
  • रचनात्मक जुड़ाव: भारत को क्षेत्र में मित्रवत बाहरी हितधारकों की भागीदारी को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। इससे भारत को इस क्षेत्र के चीन-केंद्रित होने की संभावना से निपटने में मदद मिलेगी।
  • लचीली कूटनीति: भारत को पड़ोसियों का विश्वास पुनः प्राप्त करने और भारत विरोधी रवैये को कम करने के लिए कई पक्षों को शामिल करने हेतु लचीली कूटनीति अपनाने की आवश्यकता है।
  • राजनयिक प्रयासों में वृद्धि: भारत को विदेश नीति को लागू करने के लिए पर्याप्त राजनयिकों की कमी पर कार्य करने की आवश्यकता है।
  • मौजूदा संगठनों को मजबूत करना: सार्क (SAARC) तथा बिम्सटेक (BIMSTEC) जैसे मौजूदा संगठनों को मजबूत करने की आवश्यकता है।
    • वर्तमान में घरेलू भावनाओं को आर्थिक पहलू से अलग किया जाए, चिंताओं से निपटने के लिए कूटनीति अपनाई जाए और जलवायु परिवर्तन, साइबर हमले, आतंकवाद का मुकाबला करने जैसे समकालीन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
    • साथ ही, इस क्षेत्र के देशों को गरीबी और असमानता को दूर करने और सभी के लिए, विशेष रूप से हाशिए पर पड़े समूहों के लिए आर्थिक विकास और अवसरों को बढ़ावा देने हेतु मिलकर कार्य करने की आवश्यकता है।
  • आत्मनिर्भरता की ओर कदम: मुक्त पारगमन व्यापार की पेशकश, आपूर्ति और रसद शृंखलाओं का विकास, डिजिटल डेटा इंटरचेंज, एकल खिड़की और डिजिटलीकृत निकासी प्रणाली, जोखिम मूल्यांकन और न्यूनतम उपाय, व्यापार ऋण लाइनों का व्यापक उपयोग, सघन संपर्क, सुगम सीमा पार निरीक्षण आदि।
  • नागरिकों का जुड़ाव: निरंतर सौहार्द तथा स्थिरता के लिए लोगों-से-लोगों के बीच संबंधों और गहरी सांस्कृतिक समानताओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

निष्कर्ष

दक्षिण एशिया क्षेत्र में भारत की दुविधाओं के लिए रणनीतिक बदलाव की आवश्यकता है, जिसमें यथार्थवादी दृष्टिकोण, पड़ोसी देशों के साथ सहयोग, अनुकूलनीय कूटनीति, बढ़े हुए कूटनीतिक प्रयास और चीन के बढ़ते प्रभाव से उत्पन्न जटिलताओं से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए नवीन समाधान शामिल हों।

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