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भारत की ‘ग्लोबल साउथ’ तक पहुँच

Lokesh Pal July 12, 2025 04:36 88 0

संदर्भ

2 से 9 जुलाई, 2025 तक भारतीय प्रधानमंत्री की यह विदेश यात्रा, जो अब तक की उनकी सबसे लंबी यात्रा थी, ब्राजील (ब्रिक्स शिखर सम्मेलन) और चार ‘ग्लोबल साउथ’ देशों (घाना, त्रिनिदाद एंड टोबैगो, अर्जेंटीना और नामीबिया) तक विस्तृत रही। यह दौरा वैश्विक अस्थिरता के दौर में विकासशील देशों के साथ भारत की साझेदारी, पहुँच और एकजुटता को रेखांकित करता है।

संबंधित तथ्य 

  • वर्ष 2025 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में आयोजित 17वाँ ब्रिक्स शिखर सम्मेलन, इस समूह के विकास में एक महत्त्वपूर्ण क्षण है क्योंकि इसमें सदस्यता और साझेदारी के संबंध में एक विस्तार देखा गया।
  • इस शिखर सम्मेलन का विषय था ‘अधिक समावेशी और सतत् शासन के लिए ‘ग्लोबल साउथ’ सहयोग को मजबूत करना‘, जिसमें ‘ग्लोबल साउथ’ की बढ़ती नेतृत्व भूमिका पर प्रकाश डाला गया।

‘ग्लोबल साउथ’ के बारे में

  • ‘ग्लोबल साउथ’ विश्व के विभिन्न देशों को संदर्भित करता है, जिन्हें कभी-कभी ‘विकासशील’, ‘कम विकसित’ या ‘अविकसित’ कहा जाता है।
  • उत्पत्ति: ‘ग्लोबल साउथ’ शब्द का प्रयोग पहली बार वर्ष 1969 में कार्ल ओग्लेस्बी ने किया था, लेकिन वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद इसे गति मिली।
  • भूगोल: ग्लोबल साउथ‘ शब्द भौगोलिक नहीं है। वास्तव में, ग्लोबल साउथ के दो सबसे बड़े देश (चीन और भारत) पूरी तरह से उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित हैं।
  • क्षेत्रीय विस्तार: ‘ग्लोबल साउथ’ के कई देश दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थित हैं, मुख्यतः अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में।
  • विशेषताएँ: इसका प्रयोग राष्ट्रों के बीच राजनीतिक, भू-राजनीतिक और आर्थिक समानताओं के मिश्रण को दर्शाता है।
    • कोई भौगोलिक आधार नहीं: इसमें भारत और चीन जैसे देश शामिल हैं, जो उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित हैं, जिससे पता चलता है कि ‘ग्लोबल साउथ’ शब्द भौगोलिक रूप से स्थिर नहीं है।
    • वैश्विक प्रतिनिधित्व की कमी: ‘ग्लोबल साउथ’ के देशों को संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी वैश्विक निर्णय लेने वाली संस्थाओं में सीमित प्रतिनिधित्व और प्रभाव का सामना करना पड़ता है।
    • विकासात्मक अनिवार्यताएँ: साझा लक्ष्यों में गरीबी उन्मूलन, खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा, जलवायु न्याय तथा निष्पक्ष व्यापार प्रथाओं का पालन शामिल है।
    • मानव विकास अंतराल: गहरी सामाजिक-आर्थिक असमानताओं से चिह्नित, जिसमें आय असमानता, निम्न जीवन प्रत्याशा और निम्न जीवन स्तर शामिल हैं।
    • गठबंधन भागीदारी: G-77 (134 राष्ट्र), गुटनिरपेक्ष आंदोलन (120 राष्ट्र) और भारत के नेतृत्व वाले ‘वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ’ शिखर सम्मेलन जैसे मंचों के माध्यम से एकजुटता और संयुक्त समर्थन को बढ़ावा देना।
  • ‘ग्लोबल साउथ’ देशों के भीतर विविधताएँ
    • जनसंख्या स्तर: विश्व के 5 सबसे अधिक आबादी वाले देशों में से 4 एशिया में (भारत, चीन, इंडोनेशिया, पाकिस्तान) हैं।
    • आर्थिक विकास: हाल के दशकों में, एशियाई अर्थव्यवस्थाएँ (विशेषकर पूर्वी एशिया में) सबसे तेजी से बढ़ी हैं और भविष्य में भी ऐसा ही होने की उम्मीद है।
      • IMF के विश्व आर्थिक परिदृश्य के आँकड़ों में प्रायः ‘उभरते और विकासशील एशिया’ को सबसे अधिक विकास दर वाले देशों के रूप में दर्शाया जाता है।
      • आय स्तर: वेनेजुएला को छोड़कर लैटिन अमेरिकी देश या तो उच्च-मध्यम या उच्च-आय वाले हैं (जैसे- उरुग्वे, चिली, ब्राजील) जिनकी प्रति व्यक्ति GDP $10,000 से अधिक है, जबकि ‘ग्लोबल साउथ’ क्षेत्र के कई अफ्रीकी सदस्य देशों की प्रति व्यक्ति GDP $1,000 से कम है [जैसे- बुरुंडी, मध्य अफ्रीकी गणराज्य (CAR), नाइजर], जो गहरी आर्थिक असमानताओं को दर्शाता है।
    • संघर्ष की स्थिति: तीन बड़े अफ्रीकी देश (इथियोपिया, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य और सूडान) दीर्घकालीन आतंरिक संघर्षों से प्रभावित हैं।

‘ग्लोबल नॉर्थ’ के बारे में

  • ‘ग्लोबल नॉर्थ’ में वे समृद्ध राष्ट्र शामिल हैं, जो मुख्यतः उत्तरी अमेरिका और यूरोप में स्थित हैं और कुछ देश ओशिनिया तथा अन्य स्थानों पर भी स्थित हैं।
  • ‘वैश्विक उत्तर’ का तात्पर्य मोटे तौर पर अमेरिका, कनाडा, यूरोप, रूस, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों से है।

ब्रंट लाइन के बारे में

  • 1980 के दशक में विली ब्रंट द्वारा प्रस्तावित की गई थी।
  • यह एक काल्पनिक रेखा है, जो विश्व को विकसित देशों (मुख्यतः उत्तरी गोलार्द्ध में) और गरीब देशों (अधिकांशतः दक्षिणी गोलार्द्ध में) में विभाजित करती है।
    • यह मूलतः उत्तरी देशों और दक्षिणी देशों के बीच सामाजिक-आर्थिक विभाजन को दर्शाता है।

भारतीय प्रधानमंत्री की वर्ष 2025 की विदेश यात्रा और भारत की ‘ग्लोबल साउथ’ कूटनीति

  • इस दौरे को तेजी से विकसित हो रही विश्व व्यवस्था, संघर्ष क्षेत्रों और बढ़ती बहुध्रुवीयता के बीच ‘ग्लोबल साउथ’ तक पहुँचने के एक सशक्त प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।

यात्रा का महत्त्व

  • ‘ग्लोबल साउथ’ के साथ रणनीतिक जुड़ाव: वैश्विक मंचों पर विकासशील देशों का प्रतिनिधित्त्व करने की भारत की आकांक्षा को बल देता है।
  • भौगोलिक विस्तार: जिन देशों का दौरा किया गया, वे लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और कैरेबियन तक विस्तृत हैं, जो ‘ग्लोबल साउथ’ के तीन प्रमुख स्तंभ हैं।
    • इस यात्रा में द्विपक्षीय समझौते, क्षमता निर्माण, डिजिटल अवसंरचना सहयोग और जलवायु परिवर्तन संबंधी संवाद शामिल थे।
  • रियो में ब्रिक्स 2025 शिखर सम्मेलन में भागीदारी: ‘ग्लोबल साउथ‘ के पक्ष में बहुपक्षीय आख्यान को आकार देने के लिए एक महत्त्वपूर्ण मंच है।

भारत के ‘ग्लोबल साउथ’ नेतृत्व के लिए मुख्य चिंता

  • नैतिक विश्वसनीयता की हानि: 7 अक्टूबर, 2023 के बाद भारत के इजरायल के प्रति झुकाव ने कई विकासशील देशों को अलग-थलग कर दिया।
    • परिणाम
      • द्वितीय ‘ग्लोबल साउथ’ शिखर सम्मेलन में कम भागीदारी।
      • यूनेस्को कार्यकारी बोर्ड के चुनावों (वर्ष 2023) में ‘ग्लोबल साउथ’ के मतों से समर्थित पाकिस्तान को हार का सामना करना पड़ा।
  • रणनीतिक संतुलन: इजरायल के साथ घनिष्ठ संबंध और फिलिस्तीन समर्थक ‘ग्लोबल साउथ’ देशों के साथ एकजुटता के बीच तनाव का प्रबंधन कूटनीतिक रूप से जटिल है।
  • चीन का बढ़ता प्रभाव: ब्रिक्स और दक्षिण-दक्षिण सहयोग में चीन की मुखर भूमिका भारत के नेतृत्व के दावों को चुनौती देती है।

‘ग्लोबल साउथ’ का उदय: विश्व शक्ति में परिवर्तन

  • आर्थिक पुनर्संतुलन और उभरते विकास ध्रुव: भारत, चीन, ब्राजील और इंडोनेशिया जैसे देश वैश्विक विकास के प्रमुख चालक बन रहे हैं।
    • वर्ष 2030 तक, कई शीर्ष अर्थव्यवस्थाएँ ‘ग्लोबल साउथ’ से संबद्ध होंगी, जो व्यापार, निवेश और वित्तीय संस्थानों को प्रभावित करेंगी।
    • ‘ग्लोबल साउथ’ में अपार संभावनाएँ हैं, दुनिया की 85% आबादी, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 40% से अधिक, और दक्षिण-दक्षिण व्यापार, विश्व व्यापार का 25% से अधिक है, जो सामूहिक रूप से आर्थिक विकास और राजनयिक प्रभाव को बढ़ावा देता है।
    • वैकल्पिक संस्थान: न्यू डेवलपमेंट बैंक (NBD) और एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) जैसी नई संस्थाएँ विकास वित्त विकल्प प्रदान करती हैं, जो IMF तथा विश्व बैंक के प्रभुत्व को चुनौती देती हैं।
  • वैश्विक शासन के लिए चुनौती:  ‘ग्लोबल साउथ’ के देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, IMF और विश्व बैंक जैसी पुरानी संस्थाओं के पुनर्गठन की वकालत करते हैं, उनका तर्क है कि वे अब समकालीन वैश्विक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित नहीं करती हैं।
    • समावेशी बहुपक्षवाद के लिए प्रयास: जलवायु न्याय, खाद्य सुरक्षा, महामारियों और गरीबी पर ध्यान केंद्रित करना, वैश्विक निर्णय लेने में अधिक प्रतिनिधित्व का आह्वान।
    • नए मंच: विस्तारित ब्रिक्स और भारत के ‘वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ समिट’ जैसे मंच सामूहिक प्रभाव स्थापित कर रहे हैं और पश्चिमी नेतृत्व वाले मंचों के विकल्प प्रस्तुत कर रहे हैं।
  • भू-राजनीतिक बदलाव और रणनीतिक स्वायत्तता: विश्व एकध्रुवीय/द्विध्रुवीय व्यवस्था से बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है, जिसमें उभरती अर्थव्यवस्थाएँ वैश्विक आख्यानों को आकार दे रही हैं।
    • ‘ग्लोबल साउथ’ के देश अंतरराष्ट्रीय बहसों में उत्तर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण और विविध विकास अनुभव लेकर आ रहे हैं।
    • एशियाई राष्ट्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने का अनुमान है और विशेषज्ञ इसे ‘एशियाई सदी’ के रूप में जानते हैं।
  • जनसांख्यिकी और सांस्कृतिक लाभ: वैश्विक आबादी के बहुमत का प्रतिनिधित्वकर्ता, ‘ग्लोबल साउथ’ के पास महत्त्वपूर्ण मानव पूँजी और उपभोक्ता शक्ति है।
    • सांस्कृतिक अभिकथन: वैश्विक मूल्यों, शासन मानदंडों और विकास मॉडलों में बढ़ता प्रभाव, पश्चिमी सार्वभौमिकता पर बहुलवाद को बढ़ावा देता है।

‘ग्लोबल साउथ’ के सामने चुनौतियाँ

  • वैश्विक प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति संवेदनशीलता: संरचनात्मक कमजोरियों और बाहरी तनावों के कारण ‘ग्लोबल साउथ’ को जटिल विकासात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है:-
    • जलवायु परिवर्तन: प्रति व्यक्ति न्यूनतम उत्सर्जन के बावजूद, विकासशील देश बाढ़, सूखे और बढ़ते समुद्र स्तर जैसे जलवायु तनावों का नुकसान उठा रहे हैं।
      • उदाहरण: अफ्रीकी राष्ट्र वैश्विक CO₂ उत्सर्जन में <4% का योगदान करते हैं, फिर भी वे असमान रूप से पीड़ित हैं।
    • जीवन यापन की लागत का संकट: वैश्विक मुद्रास्फीति और वस्तुओं की कीमतों में उतार-चढ़ाव ने वास्तविक आय को कम कर दिया है और गरीबी को बढ़ा दिया है।
    • सतत् विकास लक्ष्यों में प्रगति में रुकावट: वर्ष 2030 तक पाँच वर्ष से भी कम समय बचा है, और अधिकांश ‘ग्लोबल साउथ’ देश अपने मुख्य ‘सतत् विकास लक्ष्यों’ (SDGs) से भटक गए हैं।
    • उत्पादकता में गिरावट: कमजोर बुनियादी ढाँचा, अपर्याप्त मानव पूँजी और तकनीकी पहुँच की कमी उत्पादकता में ठहराव का कारण बन रही है।
    • तरलता की कमी: आपातकालीन तरलता सहायता तंत्रों का अभाव संकटकालीन प्रतिक्रिया और राजकोषीय स्थिरता को हानि पहुँचाता है।
    • ऋण ढाँचे में कमी: उचित, समय पर और समन्वित ऋण पुनर्गठन तंत्रों का अभाव दीर्घकालिक ऋण संकट का कारण बनता है।
      • उदाहरण: श्रीलंका और जांबिया का ऋण-संकट, इनकी प्रणालीगत संरचनात्मक कमजोरी को दर्शाता है।
  • ‘ग्लोबल साउथ’ में वित्तीय चुनौतियाँ: अधिकांश विकासशील देशों में गहन और परिपक्व पूँजी बाजारों का अभाव है।
    • वे अल्पावधि और निषेधात्मक ब्याज दरों पर पूँजी आकर्षित करते हैं, जिससे दीर्घकालिक सतत् विकास को वित्तपोषित करने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है।
      • अफ्रीकी देशों को चीन द्वारा दिए गए महत्त्वपूर्ण ऋण, विशेष रूप से केन्या के स्टैंडर्ड गेज रेलवे (प्रथम चरण के लिए $3.6 बिलियन), अंगोला के तेल-समर्थित पुनर्निर्माण (वर्ष 2000 से वर्ष 2023 के बीच $46.0 बिलियन) तथा जांबिया का चीन पर संचयी ऋण अनुमानतः लगभग $9.5 बिलियन है, ने पूरे महाद्वीप में ऋण स्थिरता एवं पारदर्शिता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न कर दी हैं।
    • मौजूदा वित्तीय प्रणाली ‘ग्लोबल साउथ’ में विकास वित्तपोषण के पैमाने और तात्कालिकता के लिए अनुपयुक्त है।
    • उच्च ऋण-GDP अनुपात, मुद्रा असंतुलन और बाह्य वाणिज्यिक उधार पर अत्यधिक निर्भरता ऋण परिजाल को बढ़ावा देते हैं।
    • ऋण समाधान के लिए G-20 साझा ढाँचा धीमा एवं अप्रभावी बना हुआ है।
  • तकनीकी असमानताएँ: कई ‘ग्लोबल साउथ’ देशों में अंतिम बिंदु तक शासन और सेवा वितरण के लिए आवश्यक डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI) का अभाव है।
    • महामारी के दौरान, मजबूत DPI वाले देश आपातकालीन सहायता प्रदान कर सके, जबकि अन्य देश पीछे रह गए।
    • डिजिटल असमानता अब AI अपनाने, फिनटेक तक पहुँच और ई-गवर्नेंस के बीच के अंतर को बढ़ा रही है।
  • संसाधन शस्त्रीकरण: हरित प्रौद्योगिकियों की प्रतिस्पर्द्धा में लीथियम, कोबाल्ट और दुर्लभ मृदा तत्त्व जैसे रणनीतिक खनिजों का तेजी से सामरिकरण किया जा रहा है।
    • आपूर्ति शृंखलाओं पर एकाधिकार विकासशील देशों की पहुँच को सीमित करता है।
      • उदाहरण: चीन वैश्विक स्तर पर लगभग 70% दुर्लभ मृदा प्रसंस्करण को नियंत्रित करता है, जिससे स्वच्छ प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने की अन्य देशों की क्षमता प्रभावित होती है।
  • भू-राजनीतिक हाशिए पर: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं में ‘ग्लोबल साउथ’ का प्रतिनिधित्व सीमित है।
    • संस्थागत ढाँचे प्रायः ‘ग्लोबल नार्थ’ के हितों को प्रतिबिंबित करते हैं, जिससे प्रणालीगत असमानताएँ बनी रहती हैं।
  • आंतरिक विरोधाभास: ‘ग्लोबल साउथ‘ एक समरूप ब्लॉक नहीं है:-
    • शासन, आर्थिक संरचनाओं और विकास प्राथमिकताओं में भिन्नताएँ। यह वैश्विक मंचों पर एकीकृत समर्थन में बाधा डालती हैं।
    • भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता (जैसे- अमेरिका-चीन): छोटे राष्ट्रों को प्रायः रणनीतिक दुविधाओं का सामना करना पड़ता है और उन्हें अपनी संप्रभुता या विकास हितों को खतरे में डाले बिना प्रतिस्पर्द्धी शक्ति केंद्रों के बीच संतुलन बनाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
  • अन्य प्रणालीगत बाधाएँ: पूँजी, स्वास्थ्य सेवा, स्वच्छ ऊर्जा और नवाचार तक पहुँच में उत्तर-दक्षिण विभाजन लगातार बना हुआ है, जो विकास के प्रमुख चालक हैं।
    • बाहरी हस्तक्षेप: बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के माध्यम से, चीन बुनियादी ढाँचे के वित्तपोषण के जरिए रणनीतिक लाभ अर्जित कर रहा है। हालाँकि, ऋण निर्भरता और असमान लाभों को लेकर चिंताएँ बनी हुई हैं।
    • कथित बहुध्रुवीय विश्व में अमेरिकी आधिपत्य: बहुध्रुवीयता के बावजूद, अमेरिका वैश्विक वित्त और व्यापार पर अपना प्रभाव बनाए हुए है, मुख्यतः डॉलर, स्विफ्ट और बहुपक्षीय बैंकों पर नियंत्रण के जरिए।

‘ग्लोबल साउथ’ में भारत का नेतृत्व: एक बहुआयामी भूमिका

  • ऐतिहासिक विरासत और नैतिक प्राधिकार-गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM): स्वतंत्रता के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भारत की संस्थापक भूमिका ने उपनिवेश-मुक्त राष्ट्रों के लिए एक नैतिक प्रतिनिधि के रूप में इसकी छवि स्थापित की।
    • उपनिवेश-विरोधी एकजुटता: भारत के अपने स्वतंत्रता संग्राम और अफ्रीका तथा एशिया में उपनिवेश-मुक्ति के मुखर समर्थन ने इसे ‘ग्लोबल साउथ’ में स्थायी सद्भावना और नैतिक वैधता अर्जित की है।
  • आर्थिक मजबूती और विकास मॉडल-उभरती आर्थिक शक्ति: चौथी सबसे बड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था के रूप में, भारत दक्षिण-दक्षिण व्यापार, निवेश और क्षमता निर्माण में तेजी से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
    • डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना निर्यात: भारत UPI, आधार, टेलीमेडिसिन और कोविन जैसे मापनीय डिजिटल गवर्नेंस टूल्स का निर्यात ग्लोबल साउथ पार्टनर्स को कर रहा है।
      • उदाहरण: नामीबिया में UPI की शुरुआत फिनटेक समावेशन नेतृत्व को दर्शाती है।
  • राजनीतिक प्रभाव और कूटनीतिक दृढ़ता-बहुपक्षीय मंचों पर अभिव्यक्ति: भारत लगातार G-20, ब्रिक्स, G-77 और संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर ‘ग्लोबल साउथ’ की चिंताओं को उठाता है तथा संस्थागत सुधार, समावेशी बहुपक्षवाद और अधिक दक्षिणी प्रतिनिधित्व का समर्थन करता है।
    • G-20 अध्यक्षता (2023): भारत ने अपनी अध्यक्षता का उपयोग दक्षिणी प्राथमिकताओं को बढ़ावा देने, G-20 में अफ्रीका की स्थायी सदस्यता का समर्थन करने और समावेशी कूटनीति को बढ़ावा देने के लिए किया।
    • ‘वाइस ऑफ ग्लोबल साउथ’ शिखर सम्मेलन (वर्ष 2023 एवं वर्ष 2024): भारत ने 120 से अधिक विकासशील देशों के साथ दो प्रमुख शिखर सम्मेलनों की मेजबानी की, जिससे दक्षिणी एकजुटता के लिए एक राजनयिक संयोजक और गठबंधन निर्माता के रूप में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी।
    • संतुलित विदेश नीति: भारत ने ब्रिक्स जैसे मंचों के दौरान गाजा और ईरान जैसे विवादास्पद मुद्दों पर रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखी तथा किसी भी वैश्विक समूह का समर्थन किए बिना विश्वास हासिल किया।
  • रणनीतिक साझेदारियाँ और क्षेत्रीय सहयोग: भारत क्षेत्रीय साझेदारियों को गहरा कर रहा है, जो साझा विकास प्राथमिकताओं और पारस्परिक लाभ को प्रतिबिंबित करती हैं:-
    • घाना: दुर्लभ मृदा खनिज खनन और समुद्री सुरक्षा पर सहयोग, संसाधन सुरक्षा और ब्लू इकोनॉमी सहयोग सुनिश्चित करना।
    • अर्जेंटीना: कैटामार्का में KABIL के माध्यम से लीथियम अन्वेषण समझौता स्वच्छ ऊर्जा आपूर्ति शृंखलाओं और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
    • नामीबिया: जैव ईंधन, महत्त्वपूर्ण खनिजों और UPI फिनटेक रोलआउट पर समझौते हरित ऊर्जा और डिजिटल समावेशन में भारत के नेतृत्व को उजागर करते हैं।
    • ब्राजील: भारत की आकाश मिसाइल प्रणाली में ब्राजील की रुचि सहित रक्षा सहयोग, बढ़ते दक्षिण-दक्षिण रक्षा सहयोग को दर्शाता है।
  • जनसांख्यिकीय और सांस्कृतिक सॉफ्ट पॉवर ​​जनसंख्या और बाजार का आकार: भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश और बड़ा उपभोक्ता आधार इसे कई विकासशील देशों के लिए एक प्रमुख आर्थिक और राजनीतिक साझेदार बनाता है।
    • सांस्कृतिक कूटनीति: योग, बॉलीवुड और सॉफ्ट पॉवर के वैश्विक प्रचार ने भारत के सांस्कृतिक आकर्षण को बढ़ाया है।
      • उदाहरण: विदेशी संसदों में प्रधानमंत्री मोदी के संबोधनों से विश्वास और लोगों के बीच संबंधों को बढ़ावा मिलता है।
    • प्रवासी जुड़ाव: विश्व स्तर पर विस्तृत भारतीय प्रवासी समुदाय ‘ग्लोबल साउथ’ के देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों, आर्थिक संबंधों और सांस्कृतिक आत्मीयता को मजबूत करता है।

आगे की राह

  • तकनीकी संप्रभुता और डिजिटल सहयोग को बढ़ावा देना: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और डिजिटल तकनीकों में तेजी से हो रही प्रगति शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, आपातकालीन सेवाओं और वाणिज्य के क्षेत्र में परिवर्तनकारी अवसर प्रस्तुत करती है। भारत को ‘ग्लोबल साउथ’ के लिए समावेशी डिजिटल परिवर्तन को बढ़ावा देना चाहिए।
    • डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (Digital Public Infrastructure- DPI): UPI, आधार और CoWIN के क्षेत्र में भारत की सफलता, मापनीय, कम लागत वाले शासन उपकरणों के लिए एक खाका प्रदान करती है।
    • सर्वोत्तम प्रथाओं का वैश्विक भंडार: भारत के नेतृत्व में एक बहुपक्षीय गठबंधन को DPI की सर्वोत्तम प्रथाओं का भंडार बनाना चाहिए और सदस्य देशों को क्षमता निर्माण में सहायता प्रदान करनी चाहिए।
  • IMF सुधार और तरलता प्रावधान: एक सुधारित IMF को भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों के लिए सुलभ डॉलर तरलता विकल्प प्रदान करनी चाहिए, जिससे स्व-बीमित भंडार पर निर्भरता कम हो। इससे विकास के लिए धन उपलब्ध होगा और व्यापक आर्थिक भेद्यता कम होगी।
    • संवर्द्धित जलवायु वित्त: भारत को ऐसे जलवायु वित्त तंत्रों को बढ़ावा देना चाहिए, जो सार्वजनिक और बहुपक्षीय सहायता से आगे बढ़कर निम्नलिखित कार्य करे:
      • पूँजी बाजारों को शामिल करना।
      • उत्सर्जन पर अनिवार्य वैश्विक प्रकटीकरण को बढ़ावा देना।
      • मशीन-पठनीय स्थिरता डेटाबेस बनाना।
      • नई ESG-केंद्रित रेटिंग एजेंसियों का समर्थन करना।
    • कॉरपोरेट उत्सर्जन से निपटना: यह देखते हुए कि 1% सूचीबद्ध कंपनियाँ 40% ग्रीनहाउस गैसों का उत्पादन करती हैं, नियामक को उत्तर और दक्षिण दोनों में कॉरपोरेट जिम्मेदारी की ओर स्थानांतरित किया जाना चाहिए।
  • बहुपक्षीय सुधार और वैश्विक शासन समानता का समर्थन: भारत को 21वीं सदी की वास्तविकताओं और ‘ग्लोबल साउथ’ आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने के लिए वैश्विक संस्थानों के लोकतंत्रीकरण के समर्थन का नेतृत्व करना चाहिए।
    • G-20 में अफ्रीका की स्थायी सदस्यता (जिसे भारत पहले ही समर्थन दे चुका है) को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में प्रतिनिधित्व और विश्व व्यापार संगठन में निर्णय लेने की समानता तक विस्तारित किया जाना चाहिए।
    • ‘ग्लोबल साउथ’ के प्रतिनिधित्व को संस्थागत बनाना: वैश्विक मंचों पर ‘ग्लोबल साउथ’ की सामूहिक शक्ति को संगठित रूप देने और भारत की अग्रणी भूमिका को सुदृढ़ करने हेतु, “ग्लोबल साउथ की आवाज” पहल को एक संस्थागत और दीर्घकालिक मंच में रूपांतरित किया जाना चाहिए।
  • रणनीतिक संसाधनों और आपूर्ति शृंखला लचीलेपन को सुरक्षित करना: भारत को खनिज आपूर्ति शृंखलाओं, विशेष रूप से लीथियम, दुर्लभ मृदा और कोबाल्ट, जो हरित परिवर्तन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, के जोखिम-मुक्त और विविधीकरण के प्रयासों का नेतृत्व करना चाहिए।
    • अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में रणनीतिक निवेश राष्ट्रीय हितों और दक्षिणी एकजुटता, दोनों को सुरक्षित करेगा।
  • दक्षिण-दक्षिण वित्तपोषण और विकास सहयोग का विस्तार: भारत को साझेदार देशों में स्वच्छ ऊर्जा, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और स्वास्थ्य अवसंरचना के वित्तपोषण के लिएन्यू डवलपमेंट बैंक (ब्रिक्स बैंक) और अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance- ISA) का लाभ उठाना चाहिए।
  • क्षेत्रीय संबंधों और रणनीतिक समूहों को प्रगाढ़ बनाना: भारत को इनके साथ साझेदारी मजबूत करनी चाहिए:
    • कैरिकॉम (कैरेबियन), अफ्रीकी संघ (AU), इकोवास (पश्चिम अफ्रीका) और मर्कोसुर (दक्षिण अमेरिका)।
      • ये गठबंधन स्थितियों के समन्वय, संसाधनों के एकत्रीकरण को सुनिश्चित करने और एक साझा विकास एजेंडा बनाने में मदद करते हैं।

निष्कर्ष

भारतीय प्रधानमंत्री की हालिया यात्रा ‘ग्लोबल साउथ’ में भारत के नए नेतृत्व का संकेत देती है, जो मूल्यों, हितों और वैश्विक महत्त्वाकांक्षाओं के बीच संतुलन स्थापित करती है। जैसे-जैसे दक्षिण का उत्थान हो रहा है, भारत एक ऐसी सुधारित विश्व व्यवस्था का समर्थक बन रहा है, जो विकासशील देशों को सशक्त बनाती है।

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