मार्च 2024 में, भारत ने आर्कटिक में अपना पहला शीतकालीन अभियान सफलतापूर्वक पूरा किया।
आर्कटिक के लिए शीतकालीन मिशन शुरू करने वाला संगठन: भारत का राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (NCPOR)।
आर्कटिक में शीतकालीन अभियान
उद्देश्य
ध्रुवीय क्षेत्र में रात के समय औरोरा बोरेलिस जैसी वायुमंडलीय घटनाओं से संबंधित डेटा इकट्ठा करना।
इन प्रक्रियाओं को बेहतर ढंग से समझने के लिए विशिष्ट अध्ययन करना।
अवलोकन और निगरानी प्रक्रिया
ध्रुवीय क्षेत्र में रात के समय वैज्ञानिकों ने वायुमंडलीय अवलोकन किया।
उन्होंने समुद्री बर्फ में भिन्नता का विश्लेषण एवं जलवायु परिवर्तन पर वर्षा तथा एरोसोल के प्रभावों का अध्ययन किया।
अभियान के लाभ
यह शोध यह जानकारी प्रदान करने में बहुत मददगार है कि आर्कटिक जलवायु भारतीय मानसून प्रणाली के साथ कैसे अंतर्संबंधित है।
यह ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों की व्यापक समझ में योगदान देगा।
सर्दियों एवं गर्मियों में, तूफान तथा बिजली विभिन्न प्रकार के विद्युत क्षेत्र का निर्माण करते हैं।
इसलिए, तूफानों के विद्युतीय गुणों को समझने में यह अभियान बहुत उपयोगी है, विशेषकर ध्रुवीय सर्दियों में।
आर्कटिक में शीतकालीन मिशन शुरू करने का कारण
वैज्ञानिक निष्कर्ष: हाल के शोध से आर्कटिक वार्मिंग की अपेक्षा से अधिक तेज दर का पता चला है।
यह वार्मिंग भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाली चरम मौसम की घटनाओं से संबंधित है, जो नीति निर्माताओं को कार्रवाई करने एवं शीतकालीन मिशनों के माध्यम से अधिक डेटा इकट्ठा करने के लिए प्रेरित करती है।
आर्थिक क्षमता: आर्कटिक समुद्री मार्गों, विशेष रूप से उत्तरी समुद्री मार्ग के खुलने से भारतीय व्यापार के लिए शिपिंग लागत एवं पारगमन समय को कम करने के अपार अवसर मिल सकते हैं।
इससे शिपिंग कंपनियों के खर्चों में कटौती, समय, ईंधन की बचत एवं माल परिवहन के दौरान सुरक्षा में सुधार से भारत को लाभ हो सकता है।
भू-राजनीतिक परिदृश्य: चीन का बढ़ता आर्कटिक निवेश, विशेष रूप से रूस के माध्यम से उत्तरी समुद्री मार्ग तक इसकी विस्तारित पहुँच, चिंता का विषय है।
कोला प्रायद्वीप पर रूस के माध्यम से चीन की बढ़ती मौजूदगी इन चिंताओं को बढ़ाती है।
इस रणनीतिक चिंता ने भारत को शीतकालीन मिशनों सहित अपनी आर्कटिक उपस्थिति बढ़ाने के लिए प्रेरित किया।
उपरोक्त के अलावा, भारत आर्कटिक क्षेत्र में अपनी रुचि बढ़ा रहा है, जिसका मुख्य कारण रूस एवं यूक्रेन के बीच संघर्ष है।
आर्कटिक क्षेत्र के बारे में
यह पृथ्वी का सबसे उत्तरी क्षेत्र है।
यह क्षेत्र पूरी तरह से बर्फ एवं जल से ढका हुआ है।
यह एक ध्रुवीय क्षेत्र है।
इसमें कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, फिनलैंड, स्वीडन, नॉर्वे, आइसलैंड एवं ग्रीनलैंड के उत्तरी भाग शामिल हैं।
आर्कटिक क्षेत्र में जलवायु परिस्थितियाँ: यहाँ वर्ष भर ठंडी होती है।
इसकी अधिकांश वर्षा बर्फ के रूप में होती है।
वनस्पति एवं जीव: आर्कटिक वनस्पति में छोटी झाड़ियाँ, घास, जड़ी-बूटियाँ, लाइकेन एवं काई शामिल हैं।
आर्कटिक क्षेत्र का महत्त्व
आर्कटिक परिषद में पर्यवेक्षक का दर्जा: भारत आर्कटिक परिषद में पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त 13 देशों में से एक है, जो आर्कटिक मामलों में इसके महत्त्व को दर्शाता है।
संसाधनों की प्रचुरता: आर्कटिक क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है एवं इसमें खनिज और वन्यजीव दोनों संसाधन हैं।
खनिजों में लौह अयस्क, ताँबा, निकेल, जस्ता फॉस्फेट एवं हीरे और तेल शामिल हैं।
प्रचुर मात्रा में मत्स्यपालन आर्कटिक के जैविक संसाधन हैं।
शिपिंग मार्गों का महत्त्व: कई शिपिंग मार्ग आर्कटिक से होकर गुजरते हैं, जो वैश्विक व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल प्रभाव: जलवायु परिवर्तन न केवल आर्कटिक में खनिजों एवं तेल की उपलब्धता को प्रभावित कर रहा है, बल्कि यह दुनिया भर में जहाजों द्वारा लिए जाने वाले मार्गों को भी बदल रहा है।
स्वालबार्ड संधि (Svalbard Treaty)
स्वालबार्ड संधि का मूल नाम स्पिट्सबर्गेन संधि (Spitsbergen Treaty) था। संधि की शर्तों के तहत, स्वालबार्ड एक वीजा-मुक्त क्षेत्र है।
यह स्वालबार्ड के आर्कटिक द्वीपसमूह पर नॉर्वे की संप्रभुता को स्वीकार करता है।
स्वालबार्ड पर नॉर्वे की संप्रभुता कुछ शर्तों के अधीन है, जिसके कारण नॉर्वे के सभी कानून लागू नहीं होते हैं।
यह संधि द्वीपसमूह के सैन्य उपयोग पर रोक लगाती है, हालाँकि यह विसैन्यीकृत नहीं है।
यह द्वीपों पर व्यावसायिक गतिविधियों विशेषकर कोयला खनन की अनुमति देता है।
अब तक वर्ष 2024 तक नॉर्वे एवं रूस दोनों ही इस अधिकार का इस्तेमाल करते हैं।
आर्कटिक में भारत का विज्ञान संबंधी इतिहास
भारत वर्ष 1920 से पेरिस में स्वालबार्ड संधि पर हस्ताक्षर करने के साथ आर्कटिक मामलों में शामिल रहा है।
अनुसंधान पहल
वर्ष 2007 से, भारत ने माइक्रोबायोलॉजी, वायुमंडलीय विज्ञान एवं भू-विज्ञान पर ध्यान केंद्रित करते हुए आर्कटिक में विभिन्न अनुसंधान मिशन आयोजित किए हैं।
वर्ष 2013 में, भारत को आर्कटिक परिषद में पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त हुआ।
इसके बाद, भारत ने स्वालबार्ड में एक मल्टी-सेंसर मूर्ड वेधशाला (Multi-Sensor Moored Observatory) एवं एक वायुमंडलीय प्रयोगशाला सहित अनुसंधान बुनियादी ढाँचे की स्थापना की।
आर्कटिक में भारत-नॉर्वे सहयोग
1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से, भारत एवं नॉर्वे ने दक्षिण एशिया पर उनके प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करते हुए आर्कटिक तथा अंटार्कटिक अनुसंधान पर सहयोग किया है।
नॉर्वे के साथ साझेदारी मुख्य रूप से वैज्ञानिक अनुसंधान एवं जलवायु परिवर्तन से पर्यावरण की रक्षा पर केंद्रित होगी।
ये क्षेत्र भारत की आर्कटिक नीति में शामिल हैं-
आर्थिक एवं मानव विकास
परिवहन एवं कनेक्टिविटी
शासन एवं अंतरराष्ट्रीय सहयोग
राष्ट्रीय क्षमता निर्माण
भारत की आर्कटिक नीति के प्रमुख प्रावधान
यह नीति 6 केंद्रीय स्तंभ के गठन का प्रावधान करती है।
भारत के वैज्ञानिक अनुसंधान एवं सहयोग को मजबूत करना
जलवायु एवं पर्यावरण संरक्षण (Climate and Environmental Protection)
आर्थिक एवं मानव विकास (Economic And Human Development)
परिवहन एवं कनेक्टिविटी (Transportation And Connectivity)
शासन एवं अंतरराष्ट्रीय सहयोग (Governance And International Cooperation)
आर्कटिक क्षेत्र में राष्ट्रीय क्षमता निर्माण (National Capacity Building in the Arctic Region)
उद्देश्य: इसका उद्देश्य विज्ञान एवं अन्वेषण में राष्ट्रीय क्षमताओं तथा दक्षताओं को प्रभावी बनाना है।
भारत की जलवायु पर आर्कटिक में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की समझ को बढ़ाना है।
आर्कटिक में बर्फ पिघलने के प्रभावों पर बेहतर विश्लेषण, भविष्यवाणी एवं समन्वित नीति निर्माण में योगदान देना भी है।
ध्रुवीय क्षेत्रों एवं हिमालय के बीच संबंधों का अध्ययन करना।
भारत एवं आर्कटिक क्षेत्र के देशों के बीच सहयोग को गहन करना।
आर्कटिक परिषद में भारत की भागीदारी बढ़ाना।
नॉर्वे एक स्थायी नीति विकसित करने में भारत की सहायता कर सकता है, जो वैज्ञानिक समुदाय एवं उद्योग के हितों को संतुलित करती है।
नॉर्वे के साथ साझेदारी से भारत को आर्कटिक परिषद के कार्य समूहों में अपनी भागीदारी बढ़ाने, नीली अर्थव्यवस्था, कनेक्टिविटी, समुद्री परिवहन, निवेश, बुनियादी ढाँचे एवं उत्तरदायी संसाधन विकास जैसे मुद्दों को संबोधित करने में अधिक लाभ हो सकता है।
भारत की वर्तमान नीति
आर्कटिक देशों के साथ सहयोग: भारत की वर्तमान नीति का उद्देश्य एक जिम्मेदार हितधारक के रूप में अपनी प्रभाव क्षमता बढ़ाने के लिए हरित ऊर्जा एवं टिकाऊ उद्योगों को बढ़ावा देने में आर्कटिक देशों के साथ सहयोग करना है।
डेनमार्क और फिनलैंड के साथ सहयोग अपशिष्ट प्रबंधन, प्रदूषण नियंत्रण, नवीकरणीय ऊर्जा एवं हरित प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों पर केंद्रित है।
Latest Comments