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भारत की आक्रामक विदेशी प्रजातियों की समस्या

Lokesh Pal October 10, 2025 03:26 34 0

संदर्भ 

भारत में संरक्षणकारी वैज्ञानिकों ने आक्रामक विदेशी प्रजातियों (Invasive Alien Species– IAS) के विस्तार को लेकर चिंता व्यक्त की है, जो देश की स्थानीय जैव विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र और आजीविका के लिए गंभीर खतरा बन रही हैं।

  •  शोधकर्ताओं के मध्य इस पर मतभेद है कि पहले आक्रामक विदेशी प्रजातियों की पूर्ण सीमा का दस्तावेजीकरण किया जाए या संरक्षण और प्रबंधन के कार्य समानांतर रूप से किए जाएँ।

आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ

  • परिभाषा (IUCN):  आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ वे पशु, पौधे या अन्य जीव हैं, जिन्हें मनुष्यों द्वारा जानबूझकर या अज्ञानतावश उनके प्राकृतिक क्षेत्र के बाहर लाया जाता है।
  • समस्या
    • IUCN रेड लिस्ट में लगभग प्रत्येक 10 में से 1 प्रजाति आक्रामक विदेशी प्रजाति के कारण खतरे में है।
    • विश्व स्तर पर लगभग 37,000 विदेशी प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से 3,500 (10%) हानिकारक हैं।
    • प्रत्येक वर्ष लगभग 200 नई विदेशी प्रजातियाँ दर्ज की जाती हैं।
  • प्रभाव: ये स्थानीय वनस्पति और जीवों को विस्थापित करती हैं, आवासों को बाधित करती हैं और पर्यावरणीय व आर्थिक नुकसान पहुँचाती हैं।
  • प्रवेश संबंधी मार्ग: इन्हें सजावटी पौधों के रूप में, मत्स्यपालन, मच्छर नियंत्रण या पुनर्वनीकरण परियोजनाओं में शामिल किया जाता है।
  • भारत की स्थिति: भारत में लगभग 139 आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ हैं। अधिकांश फसली कीट और आक्रामक पौधे हैं, जो स्थानीय जैव विविधता और कृषि को प्रभावित करते हैं।

भारत में प्रमुख आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ 

  •  लैंटाना कैमारा (Lantana Camara)
    • ब्रिटिश काल में इसे ‘सजावटी झाड़ी’ के रूप में लाया गया था।
    • यह हाथी और अन्य शाकाहारी जीवों के आवासों को अवरुद्ध करती है, जिससे वन्यजीव फसली क्षेत्रों की ओर प्रवास करते हैं और मनुष्य–पशु संघर्ष बढ़ता है।
    • विभिन्न प्रकार की मृदा में पनपने में सक्षम और शाकाहारी जीवों के लिए अखाद्य है।
  • प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा (Prosopis Juliflora)
    • 19वीं सदी में गुजरात के बन्नी घासभूमि में मृदा लवणीयता रोकने हेतु लगाया गया।
    • अब यह घासभूमि के 50–60% हिस्से पर विस्तृत हो चुका है, जिससे भूजल दोहन, स्थानीय प्रजातियों का प्रतिस्थापन और पशुपालक समुदायों का विस्थापन हुआ है।
    • यह विभिन्न प्रकार की मृदा में पनपता है तथा शाकाहारियों के लिए अरुचिकर होता है।
  • जलीय खरपतवार
    • जलकुंभी, एलिगेटर वीड, डकवीड और वॉटर लेट्यूस जैसी प्रजातियाँ झीलों और आर्द्रभूमियों पर प्रभावी हैं।
    • जलकुंभी को धान के खेतों, पक्षियों के आवास और काजीरंगा जैसे राष्ट्रीय उद्यानों में सबसे खराब 10 आक्रामक अवरोधों में सूचीबद्ध किया गया है।
    • विदेशी मछलियाँ, जो मत्स्यपालन और जलीय कृषि के लिए भारत लाई गईं थी, जो भारत की 1,070 स्वदेशी मीठे जल की मछलियों को खतरे में डाल रही हैं।

पारिस्थितिक एवं सामाजिक–आर्थिक प्रभाव

  • मृदा और जल परिवर्तन: आक्रामक पौधे मृदा की संरचना, छिद्रता, पोषक तत्त्वों की मात्रा और जल धारण क्षमता को बदल देते हैं।
  • जैव विविधता की हानि:  आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ पोषक तत्त्वों, प्रकाश और आवास के लिए प्रतिस्पर्द्धा कर स्थानीय प्रजातियों की संख्या, प्रजनन क्षमता और अस्तित्व को घटा देती हैं।
    • उदाहरण: मीठे जल के पारिस्थितिकी तंत्र में टिलापिया (Tilapia) और कॉमन कार्प (Common Carp) जैसी विदेशी मछलियाँ ‘टॉर पुटिटोरा’ (महसीर) जैसी स्थानीय मछलियों को विस्थापित कर रही हैं।
  •  पारिस्थितिक तंत्र का रूपांतरण:  आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ खाद्य जाल, ऊर्जा प्रवाह और पोषक चक्र को परिवर्तित कर देती हैं, जिससे विविध पारिस्थितिकी तंत्र एकरूपी में परिवर्तित हो जाते हैं।
    • उदाहरण: विदेशी केंचुए और घोंघे पोषक तत्त्व चक्रण की गति बढ़ा देते हैं, जिससे मृदा सूक्ष्मजीव संतुलन और कार्बन भंडारण प्रभावित होता है।
  • मानव–वन्यजीव संघर्ष: जब आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ आवास या भोजन के स्रोतों को नष्ट करती हैं, तो वन्यजीव मानव बस्तियों की ओर प्रवास करते हैं।
    • उदाहरण:  लैंटाना कैमारा के प्रसार से वनों में प्राकृतिक चारण की कमी हो जाती है, जिसके कारण हाथी और हिरण जैसी प्रजातियाँ फसलों पर निर्भर होने लगती हैं, परिणामस्वरूप फसल नुकसान तथा संपत्ति क्षति की घटनाएँ बढ़ जाती हैं।

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