भारत ने सिंधु जल संधि में बदलाव का अनुरोध करने को लेकर पाकिस्तान को एक औपचारिक नोटिस भेजा है।
संबंधित तथ्य
इस नोटिस में उल्लेख किया गया है कि विभिन्न परिस्थितियों में मौलिक परिवर्तन हुए हैं, जिसके कारण सिंधु जल संधि की समीक्षा की आवश्यकता है।
जनवरी 2023 में भारत ने भी पाकिस्तान को इसी प्रकार का नोटिस भेजकर संधि में संशोधन को आग्रह किया था।
सिंधु जल संधि के बारे में
सिंधु जल संधि भारत और पाकिस्तान के बीच हिमालयी नदियों के जल-बँटवारे को लेकर किया गया एक समझौता है।
दोनों देशों के बीच हुई इस संधि में विश्व बैंक ने प्रमुख भूमिका निभाई थी।
इस समझौते पर वर्ष 1960 में कराची में तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी समकक्ष अयूब खान के द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे।
यह संधि दोनों देशों के बीच सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के जल के उपयोग को नियंत्रित करती है।
संधि के प्रमुख प्रावधान
यह संधि दोनों देशों द्वारा जल के उचित उपयोग को सुनिश्चित करती है तथा नदियों पर परियोजनाओं के निर्माण के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करती है।
इष्टतम जल उपयोग के लिए राष्ट्रों के बीच सहयोग और सद्भावना पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
इससे संबंधी आपसी विवादों को सुलझाने के लिए इस संधि के तहत स्थायी सिंधु आयोग (Permanent Indus Commission) का गठन किया गया है।
यह संधि भारत-पाकिस्तान के मध्य हुए कई संघर्षों के बाद भी कायम रही है और संघर्ष समाधान के लिए एक वैकल्पिक तंत्र प्रदान करती है।
स्थायी सिंधु आयोग (Permanent Indus Commission)
इसमें सहयोग और विवाद समाधान की निगरानी के लिए दोनों देशों के आयुक्त शामिल होते हैं।
यह आयोग भारत-पाकिस्तान के मध्य हुए तीन युद्धों के दौरान भी सुचारू रूप से कार्य करता रहा है और यह वार्षिक निरीक्षण, डेटा का आदान-प्रदान और संबंधित बैठकें सुनिश्चित करता है।
दोनों आयुक्त वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं।
हालाँकि ये रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाती है।
इतिहास और पृष्ठभूमि
इस संधि ने वर्ष 1947-1948 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद उत्पन्न जल विवादों को सुलझाया।
वर्ष 1960 में संधि पर हस्ताक्षर होने के बाद से दोनों देशों के बीच नदियों के जल को लेकर कोई युद्ध नहीं हुआ है।
असहमति का समाधान अधिकांशतः संधि में परिभाषित कानूनी प्रक्रियाओं के माध्यम से किया जाता है।
नदियाँ और जल का वितरण
पूर्वी नदियाँ (ब्यास, रावी, सतलुज): भारत इन नदियों पर प्रतिवर्ष 41 बिलियन क्यूबिक मीटर के कुल प्रवाह को नियंत्रित करता है।
भारत को अधिकांश जल (80%) पूर्वी नदियों से प्राप्त होता है।
पश्चिमी नदियाँ (सिंधु, चिनाब, झेलम): पाकिस्तान इन नदियों पर नियंत्रण रखता है, जिनका वार्षिक प्रवाह 99 बिलियन क्यूबिक मीटर है।
पाकिस्तान को अधिकांश जल (80%) पश्चिमी नदियों से प्राप्त होता है।
भारत पश्चिमी नदियों का उपयोग सीमित सिंचाई तथा गैर-उपभोग्य उद्देश्यों जैसे विद्युत उत्पादन और नौवहन के लिए कर सकता है।
किशनगंगा परियोजना (Kishanganga Project)
यह जम्मू और कश्मीर में एक अपवाह नदी परियोजना है।
इस परियोजना की स्थापित क्षमता 330 मेगावाट है।
यह परियोजना किशनगंगा नदी से जल को झेलम नदी बेसिन में मोड़ती है।
यह परियोजना वर्ष 2007 में शुरू की गई थी।
यह परियोजना पाकिस्तान के साथ विवाद के कारण वर्ष 2011 में रोक दी गई थी।
पाकिस्तान का रुख: पाकिस्तान ने पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के निचले इलाकों में जल प्रवाह के लिए परियोजना के प्रयासों पर चिंता जताई थी।
हेग का स्थायी मध्यस्थता न्यायालय: वर्ष2013 में, न्यायालय ने भारत को कुछ शर्तों के साथ जल को अन्य स्रोतों की तरफ मोड़ने की अनुमति दी।
मुद्दे और चिंताएँ
रतले प्लांट विवाद: पाकिस्तान ने भारत के 850 मेगावाट रतले जलविद्युत संयंत्र पर आपत्ति जताई तथा मुद्दे को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की माँग की।
बगलिहार पॉवर प्लांट (Baglihar Power Plant) और किशनगंगा प्लांट (Kishanganga Plant) जैसे विवादों का समाधान स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (PCA) या तटस्थ विशेषज्ञों के माध्यम से किया गया।
भूजल उपयोग: पाकिस्तान पूर्वी नदियों (रावी एवं सतलुज) के भूजल का उपयोग करता है, लेकिन भारत इस पर कोई औपचारिक आपत्ति नहीं उठाता है।
हालाँकि, यह पाकिस्तान द्वारा संधि का संभावित उल्लंघन है।
भारत द्वारा जल का उपयोग करने या बाँध बनाने के प्रयासों को अक्सर पाकिस्तान की ओर से आपत्तियों का सामना करना पड़ता है।
तुलबुल नेविगेशन परियोजना ऐसे विवाद का एक उदाहरण है।
कच्छ में बाढ़: पाकिस्तान द्वारा नदी पर निर्माण कार्यों के कारण भारत के कच्छ के रण में बाढ़ आ गई, जो संधि का उल्लंघन है।
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