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अंतरराज्यीय विवाद

Lokesh Pal June 11, 2024 03:23 111 0

संदर्भ

आंध्र-तेलंगाना विभाजन के एक दशक बाद भी, आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2014 (Andhra Pradesh Reorganisation Act- APRA) से संबंधित कई मुद्दे अभी भी लंबित हैं।

संबंधित तथ्य 

  • भारत में गठबंधन सरकार की वापसी के साथ ही पुरानी माँगें फिर से उठने लगी हैं। बिहार और आंध्र प्रदेश दोनों ही विशेष राज्य का दर्जा चाहते हैं।

विशेष श्रेणी का दर्जा, केंद्र सरकार द्वारा क्षेत्रों या राज्यों का वर्गीकरण है, जो क्षेत्र के विकास के लिए कर लाभ और वित्तीय सहायता के रूप में विशेष सहायता प्रदान करता है।

आंध्र-तेलंगाना विभाजन के बारे में

  • पृष्ठभूमि
    • आंध्र प्रदेश का गठन (1956): आंध्र प्रदेश का गठन वर्ष 1956 में भाषायी आधार पर आंध्र राज्य को तत्कालीन हैदराबाद राज्य के तेलंगाना क्षेत्र के साथ विलय करके किया गया था। दोनों क्षेत्र मुख्य रूप से तेलुगु भाषी थे।
    • वर्ष 1956 का जेंटलमैन एग्रीमेंट (Gentlemen’s Agreement): तेलंगाना क्षेत्र की चिंताओं को दूर करने के लिए इस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसमें रोजगार, शिक्षा और विकास जैसे क्षेत्रों में सुरक्षा का वादा किया गया।
  • विभाजन: आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम फरवरी 2014 में पारित किया गया, जिसमें परिसंपत्तियों, देनदारियों और प्रशासनिक विवरणों के विभाजन को रेखांकित किया गया।
    • हैदराबाद को दस वर्ष की अवधि के लिए दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी घोषित किया गया।
    • जून 2014 में, राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 के तहत आंध्र प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी भाग को अलग करके तेलंगाना राज्य का गठन किया गया।
    • इसने हैदराबाद राज्य के तेलुगु भाषी क्षेत्रों को आंध्र में मिलाकर विस्तारित आंध्र प्रदेश का निर्माण किया।
      • वर्ष 1953 में भारत सरकार को मद्रास राज्य से तेलुगु भाषी क्षेत्रों को अलग करके आंध्र प्रदेश नामक पहला भाषायी राज्य बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

  • माँग: क्षेत्रीय विकास असमानताओं के कारण अलग तेलंगाना की माँग उठी। 
  • मुद्दे: आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2014 में उल्लिखित आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के बीच संपत्तियों और देनदारियों का विभाजन अभी भी अनसुलझा है।
    • आर्थिक और विकासात्मक मुद्दे: आंध्र प्रदेश को एक नई राजधानी अमरावती स्थापित करनी थी और उसे महत्त्वपूर्ण वित्तीय चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जबकि तेलंगाना ने क्षेत्रीय असमानताओं और विकास के मुद्दों को हल करने पर ध्यान केंद्रित किया।
      • तेलंगाना, जिसमें हैदराबाद एक प्रमुख IT केंद्र है, का आर्थिक आधार कई अन्य क्षेत्रों की तुलना में अपेक्षाकृत मजबूत है।

    • राजनीतिक मुद्दा: विभाजन ने दोनों राज्यों में राजनीतिक गतिशीलता को नया रूप दिया। तेलंगाना के अलग होने के बाद से आंध्र प्रदेश शासन और विकास संबंधी नई चुनौतियों का सामना कर रहा है।
      • तेलंगाना राष्ट्र समिति ने शुरुआत में स्थिर शासन प्रदान किया, लेकिन राजनीतिक चुनौतियाँ बनी हुई हैं, विशेषकर आंध्र प्रदेश के साथ संसाधन साझा करने के संबंध में।
      • आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, दोनों राज्यों के बीच अधिनियम की अनुसूची 9 और अनुसूची 10 में सूचीबद्ध विभिन्न संस्थानों एवं निगमों का विभाजन पूरा नहीं हुआ है क्योंकि कई मुद्दों पर सहमति नहीं बन पाई है।
        • यद्यपि सेवानिवृत्त नौकरशाह शीला भिड़े की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति ने अनुसूची IX और अनुसूची X की संस्थाओं के विभाजन पर सिफारिशें दी थीं, फिर भी मामला अनसुलझा रहा।
    • अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दे: राज्य कुछ अन्य विवादों में भी उलझे हुए हैं, जिनमें लंबित विद्युत उत्पादन बकाया पर प्रतिस्पर्द्धी दावे, आंध्र प्रदेश राज्य वित्तीय निगम की परिसंपत्तियों का विभाजन और कृष्णा एवं गोदावरी जल के बँटवारे का मुद्दा शामिल है।
  • अनसुलझे प्रश्न
    • यह अव्यवस्थित विभाजन प्रक्रिया, अधूरे वादों और संपत्ति वितरण के कुप्रबंधन के बारे में सवाल उठाती है। चूँकि अधिकांश राज्यों का गठन भाषायी आधार पर हुआ है, इसलिए यह प्रश्न उठता है कि क्या इस सिद्धांत को बदलना चाहिए जैसे कि क्षेत्र या जनसंख्या।
      • तेलुगु भाषी लोगों की एकता के बारे में, जो कन्नड़ और मराठी भाषी जैसे अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम एकीकृत प्रतीत होते हैं।
    • अनुमान लगाया जा रहा है कि क्या भविष्य में अन्य भाषायी समूहों को समान क्षेत्रीय असमानताओं के कारण इसी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
    • संघीय ढाँचे पर प्रभाव: भारत में, अधिकांश राज्यों का भाषा के आधार पर गठन किया गया है। राज्यों के विभिन्न आकार संसद में सीटों की संख्या को प्रभावित करते हैं और इसलिए असमान प्रतिनिधित्व संघीय ढाँचे पर दबाव डाल सकता है।
  • उठाए जाने योग्य कदम
    • संचार को सुगम बनाने तथा विवादों को सुलझाने के लिए एक स्थायी अंतर-राज्य परिषद की स्थापना की जानी चाहिए।
    • दोनों राज्यों को विशेष दर्जा तथा आर्थिक पैकेज प्रदान करने के लिए विशेष वित्तीय सहायता की व्यवस्था की जानी चाहिए।
      • दोनों राज्यों के पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए आवंटन अनुदान उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
    • विवादों को यथाशीघ्र हल करने के लिए परिसंपत्ति प्रभाग के लिए एक न्यायिक तंत्र की स्थापना की जानी चाहिए।
    • दोनों क्षेत्रों में स्थिरता लाने के लिए राज्यपालों के लिए शर्तें तय करना, बेहतर प्रतिनिधित्व और निरंतर वार्ता जैसे शासन सुधारों की आवश्यकता है।
    • नागरिकों को आर्थिक स्थिरता और सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए कनेक्टिविटी, विद्युत और शिक्षा जैसी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं को प्राथमिकता देना चाहिए।

भारत में अन्य अंतरराज्यीय विवाद

  • असम-मेघालय, असम-नागालैंड, असम-मिजोरम, असम-अरुणाचल प्रदेश और महाराष्ट्र-कर्नाटक के बीच क्षेत्रों पर दावों और प्रतिदावों से उत्पन्न सीमा विवाद हैं।

अंतरराज्यीय सीमा विवादों को हल करने के तंत्र

  • सहयोग द्वारा: अंतरराज्यीय विवादों को दोनों पक्षों के सहयोग से सुलझाया जा सकता है, जिसमें केंद्र मध्यस्थ या तटस्थ मध्यस्थ के रूप में कार्य कर सकता है।
    • यदि मुद्दों का सौहार्दपूर्ण ढंग से समाधान हो जाता है, तो संसद राज्य की सीमाओं में परिवर्तन करने के लिए कानून ला सकती है, जैसे बिहार-उत्तर प्रदेश (सीमा परिवर्तन) अधिनियम, 1968 और हरियाणा-उत्तर प्रदेश (सीमा परिवर्तन) अधिनियम, 1979।
  • न्यायिक निवारण: सर्वोच्च न्यायालय अपने मूल अधिकार क्षेत्र में राज्यों के बीच विवादों का निर्णय करता है।
    • संविधान का अनुच्छेद-131: भारतीय संविधान का अनुच्छेद-131 सर्वोच्च न्यायालय को भारत के संघीय ढाँचे की विभिन्न इकाइयों के बीच किसी विवाद पर आरंभिक अधिकारिता की शक्ति प्रदान करता है। ये विवाद निम्नलिखित हैं-
      • केंद्र तथा एक या अधिक राज्यों के बीच।
      • केंद्र और कोई राज्य या राज्यों का एक ओर होना एवं एक या अधिक राज्यों का दूसरी ओर होना।
      • दो या अधिक राज्यों के बीच।
    • उपर्युक्त मामलों में सर्वोच्च न्यायालय को आरंभिक अधिकारिता की शक्ति प्राप्त है, जिसका अर्थ है कि देश में कोई अन्य न्यायालय इस प्रकार के विवादों का फैसला नहीं कर सकता है।
    • इस प्रकार अनुच्छेद-131 के तहत विवाद के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिए किसी विवाद का संघीय ढाँचे की विभिन्न इकाइयों के बीच होना अनिवार्य है।
  • अंतरराज्यीय परिषद: संविधान का अनुच्छेद-263 राष्ट्रपति को राज्यों के बीच विवादों के समाधान के लिए अंतरराज्यीय परिषद गठित करने की शक्ति देता है। परिषद की परिकल्पना राज्यों एवं केंद्र के बीच चर्चा के लिए एक मंच के रूप में की गई है।
    • वर्ष 1988 में सरकारिया आयोग ने सुझाव दिया था कि परिषद को एक स्थायी निकाय के रूप में अस्तित्व में रहना चाहिए और वर्ष 1990 में यह राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से अस्तित्व में आया।
    • वर्ष 2021 में परिषद का पुनर्गठन किया गया।
  • क्षेत्रीय परिषदें: राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के तहत पाँच क्षेत्रीय परिषदों का गठन किया गया है। इसके अलावा, पूर्वोत्तर परिषद अधिनियम, 1971 के तहत पूर्वोत्तर परिषद का गठन किया गया है।
    • क्षेत्रीय परिषदों के गठन का विचार भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने वर्ष 1956 में रखा था।

भारत में राज्यों का गठन

  • संवैधानिक प्रावधान 
    • अनुच्छेद-3: यह अनुच्छेद भारत में नए राज्यों के गठन से संबंधित है। संसद साधारण बहुमत से नए राज्यों के निर्माण के लिए कानून बना सकती है।
  • शक्ति एवं अनुशंसा
    • संसद: कानून बनाकर नए राज्य के गठन की शक्ति रखती है।
    • राष्ट्रपति की संस्तुति: ऐसा विधेयक प्रस्तुत करने के लिए राष्ट्रपति की संस्तुति आवश्यक है।
  • माँग के कारण
    • भाषायी: राज्य पुनर्गठन आयोग ने भाषा, संस्कृति, वित्तीय व्यवहार्यता और राष्ट्रीय कल्याण जैसे कारकों के आधार पर 14 राज्यों और 6 केंद्रशासित प्रदेशों के गठन की सिफारिश की।
      • इन सिफारिशों को वर्ष 1956 के सातवें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से लागू किया गया।
    • विकास: उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्यों का गठन वर्ष 2000 में तथा तेलंगाना का गठन वर्ष 2014 में विकासात्मक अवधारणा के आधार पर किया गया था।
      • 11वीं पंचवर्षीय योजना के कुछ आँकड़ों के अनुसार, यह पता चलता है कि छोटे नवगठित राज्यों का विकास दर उनके मूल राज्यों की तुलना में अधिक तेज थी।
      • नए राज्यों के अस्तित्व का अर्थ होगा नए राजधानी शहरों और संबंधित बुनियादी ढाँचे का निर्माण तथा निजी निवेशकों को आकर्षित करना, जिसके परिणामस्वरूप रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे और अंततः नागरिकों के लिए जीवन स्तर बेहतर होगा।
    • अन्य कारक
      • भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में राज्यों का पुनर्गठन नस्ल, संस्कृति और रीति-रिवाजों जैसे कारकों से प्रभावित था, जो देश के विविध सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को दर्शाता है।
      • स्थानीय संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्द्धा।
      • कुछ क्षेत्रों के प्रति सरकार की लापरवाही
      • संसाधनों का अनुचित आवंटन
      • रोजगार के पर्याप्त अवसर उत्पन्न करने में अर्थव्यवस्था की विफलता
      • गठबंधन और लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया भी प्रमुख कारणों में से एक है।

भारत में राज्यों के गठन से जुड़ी चुनौतियाँ

  • अधिक विघटन की माँग: एक नए राज्य के निर्माण से अन्य नए राज्यों के निर्माण की माँग बढ़ेगी।
    • पहले के अनुभव के आधार पर, भाषायी एकरूपता राज्यों को एकीकृत रखने में प्रभावी सिद्ध नहीं हुई है, जैसा कि बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के मामलों में हुआ।
    • ये विवाद राज्यों के पुनर्गठन में निहित हैं। शुरू में राज्यों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर किया गया और बाद में अन्य मुद्दों पर। इससे सीमाओं और नदी जल बँटवारे से जुड़े कई मामले अनसुलझे रह गए।
  • आर्थिक चिंताएँ
    • राजस्व सृजन: नए राज्य अक्सर पर्याप्त राजस्व उत्पन्न करने में संघर्ष करते हैं और उनमें स्थापित उद्योगों, बुनियादी ढाँचे और संसाधनों की कमी हो सकती है, जो आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
    • परिसंपत्तियों और देनदारियों का आवंटन: मूल राज्य और नए राज्य के बीच परिसंपत्तियों (जैसे बुनियादी ढाँचे) और देनदारियों (ऋण) को विभाजित करना विवादास्पद और जटिल हो सकता है।
    • नई व्यवस्था की स्थापना: सरकारी कार्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों, स्वास्थ्य सुविधाओं और सार्वजनिक सेवाओं सहित नई प्रशासनिक संरचनाओं की स्थापना के लिए महत्त्वपूर्ण निवेश और योजना की आवश्यकता होती है।
  • राजनीतिक एवं प्रशासनिक मुद्दे
    • स्थिरता: नए राज्यों को स्थिर राजनीतिक वातावरण स्थापित करने की आवश्यकता है। सत्ता संघर्ष और गुटबाजी, शासन को प्रभावित कर सकती है।
    • एकीकरण: नए राज्य के भीतर विविध जातीय, भाषायी और सांस्कृतिक समूहों को एकीकृत करना और एक सुसंगत पहचान को बढ़ावा देना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
    • नौकरशाही का संक्रमण: नौकरशाहों, पुलिस और अन्य अधिकारियों को नए प्रशासनिक ढाँचे में स्थानांतरित करने और प्रशिक्षित करने में समय एवं संसाधन लगते हैं।
  • अंतरराज्यीय संबंध
    • संसाधन साझाकरण: नदियों के जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों को साझा करने से संबंधित मुद्दे नए राज्य और उसके मूल राज्य के बीच संघर्ष का कारण बन सकते हैं। 
    • सीमा विवाद: स्पष्ट और स्वीकृत सीमाओं का निर्धारण विवादास्पद हो सकता है, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ ऐतिहासिक विवाद अभी भी बने हुए हैं।
  • सांस्कृतिक मुद्दे
    • अल्पसंख्यक अधिकार: नए राज्य के भीतर अल्पसंख्यक समूहों के अधिकारों और हितों की रक्षा करना सामाजिक सद्भाव के लिए महत्त्वपूर्ण है और नवगठित राज्य के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
    • भाषा और शिक्षा: जनसंख्या की विविधता का सम्मान करने वाली भाषा संबंधी नीतियाँ बनाना और शैक्षिक प्रणालियाँ स्थापित करना एक जटिल कार्य हो सकता है।
  • अप्रभावी क्षेत्रीय परिषदें: क्षेत्रीय परिषदें, हालाँकि नियमित रूप से बैठक करती हैं, लेकिन प्रभावी समाधान प्रदान करने में कमी रखती हैं। उदाहरण: महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों के संदर्भ में।
  • अप्रभावी अंतरराज्यीय परिषदें: अंतर-राज्य परिषद जैसे राष्ट्रीय स्तर के तंत्र अप्रभावी हैं। पिछले 16 वर्षो में सिर्फ दो बैठकें हुई हैं। 
    • साथ ही, यह एक सलाहकार निकाय बनकर रह गया है, इसलिए अक्सर इसकी सिफारिशों को केंद्र और राज्य सरकार द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता है।

आगे की राह 

  • सावधानीपूर्वक विचार: भारत में नए राज्यों का गठन एक बहुआयामी प्रक्रिया है, जिसके लिए आर्थिक, प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक कारकों पर सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता होती है।
  • प्रभावी नियोजन और शासन: चुनौतियों का समाधान करने और नए राज्यों के सफल एकीकरण और विकास को सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी नियोजन, समावेशी नीतियों और मजबूत शासन को शामिल करना वांछनीय है।
  • अंतरराज्यीय परिषदों की नियमित बैठकें: राज्यों के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिए अंतरराज्यीय परिषदों की नियमित बैठकें आयोजित की जानी चाहिए।
  • अधिक प्रभावी क्षेत्रीय परिषदें: प्रत्येक क्षेत्र में राज्यों के लिए सामान्य चिंता के मामलों जैसे सामाजिक और आर्थिक नियोजन, सीमा विवाद आदि से संबंधित मामलों पर चर्चा करने के लिए क्षेत्रीय परिषदों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।
  • पर्यावरणीय कारक
    • सतत् विकास: यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि नए राज्य में विकास परियोजनाएँ पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ हों।
    • संसाधन प्रबंधन: प्राकृतिक संसाधनों का प्रभावी प्रबंधन करना आवश्यक है ताकि कमी और क्षरण से बचा जा सके।

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