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भारत में अंतरराज्यीय जल बँटवारा संबंधी विवाद

Lokesh Pal May 27, 2025 02:58 17 0

संदर्भ

हाल ही में पंजाब में सभी दलों ने एक साथ आकर भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड (Bhakra Beas Management Boards- BBMB) के हरियाणा को अतिरिक्त 4,500 क्यूसेक जल छोड़ने के फैसले को खारिज कर दिया, जिससे जल बँटवारे को लेकर हरियाणा के साथ तनाव बढ़ गया।

विवाद की पृष्ठभूमि

  • ऐतिहासिक संदर्भ: इस विवाद की शुरुआत वर्ष 1966 में पंजाब के पुनर्गठन से हुई, जिसके बाद हरियाणा का गठन हुआ।
    • इससे नदियों के जल, विशेष तौर पर रावी, ब्यास और सतलुज नदियों के जल के समान बँटवारे का मुद्दा उठा।

  • सतलुज-यमुना लिंक (SYL) नहर
    • रावी और ब्यास से जल को हरियाणा की ओर मोड़ने के लिए संकल्पित है।
    • 214 किलोमीटर में से 92 किलोमीटर हरियाणा में है (पूरा हो चुका है); 122 किलोमीटर पंजाब में है (राजनीतिक विरोध और उग्रवादियों की धमकियों के कारण अधूरा है)।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब को बार-बार नहर परियोजना को पूरा करने का निर्देश दिया है, लेकिन प्रगति रुकी हुई है।
  • कानूनी और संस्थागत ढाँचा
    • सिंधु जल संधि (1960): भारत रावी, ब्यास और सतलुज के जल का उपयोग कर सकता है।
    • वर्ष 1966 का पुनर्गठन अधिनियम: नए राज्य हरियाणा का गठन किया और साझा परियोजनाओं के प्रबंधन के लिए भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड (BBMB) बनाया।
    • वर्ष 1981 और वर्ष 1985 के समझौते: पंजाब, हरियाणा, राजस्थान के बीच जल हिस्सेदारी  को समायोजित किया गया; पंजाब समझौते द्वारा इसकी पुष्टि की गई।
    • एराडी अधिकरण (1987): वर्ष 1987 के एराडी अधिकरण की सिफारिश में कहा गया था कि पंजाब को 5 मिलियन एकड़ फीट (MAF) पानी मिलेगा जबकि हरियाणा को 3.83 MAF मिलेगा। यह आवंटन इस समझ के साथ किया गया था कि सतलुज-यमुना लिंक (SYL) नहर हरियाणा के हिस्से की आपूर्ति के लिए आवश्यक थी।
    • पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट एक्ट (2004): पिछले समझौतों को एकतरफा रद्द कर दिया गया; सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया गया।
  • वर्तमान परिदृश्य
    • विवादास्पद आदेश: हाल ही में, भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड (BBMB) ने हरियाणा को 8,500 क्यूसेक पानी छोड़ने का आदेश दिया। 
      • वर्तमान में, उसे प्रतिदिन 4,000 क्यूसेक पानी मिलता है।
    • हरियाणा की माँग: यह विवाद तब शुरू हुआ, जब हरियाणा ने भाखड़ा बाँध से 8,500 क्यूसेक पानी माँगा।
    • विवाद: पंजाब के मुख्यमंत्री ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि पंजाब के पास अतिरिक्त पानी नहीं है।

पंजाब और हरियाणा में जल संकट के कारण

  • बर्फबारी और नदियों में जल का बहाव कम होना: भाखड़ा, पोंग और रंजीत सागर जैसे बाँधों में पिछले वर्ष की तुलना में वर्ष 2025 में 12-32 फीट कम जल स्तर दर्ज किया गया है।
  • अनियमित मानसून और वर्षा की कमी: अनियमित मानसून ने नदियों और भूजल जलभृतों की वार्षिक पुनःपूर्ति को कम कर दिया है।
  • जल की अधिक खपत वाली फसलें: पंजाब और हरियाणा में धान और गेहूँ की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है, दोनों ही फसलें जल की अत्यधिक खपत करती हैं।
  • भूजल का अत्यधिक दोहन: पंजाब अपनी जल की माँग का 47% भूजल से पूरा करता है; इसके 79% से अधिक भूमि क्षेत्र को अत्यधिक जल दोहन वाले क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
    • हरियाणा में, हिसार, सिरसा और फतेहाबाद जैसे दक्षिणी जिलों में भूजल में 1700 फीट तक की कमी है।
  • अधूरी सतलुज-यमुना लिंक (SYL) नहर: SYL के पूरा न होने के कारण हरियाणा में रावी-ब्यास जल तक सीधी पहुँच नहीं है।
  • नदी एवं बाढ़ के जल का खराब प्रबंधन: पंजाब मानसून के अतिरिक्त जल को इकट्ठा करने और उसका उपयोग करने में विफल रहता है, जिसका अधिकांश भाग पाकिस्तान में बह जाता है।
  • बढ़ती जनसंख्या एवं बढती माँग: दोनों राज्यों में बढ़ती जनसंख्या के कारण पीने, घरेलू और औद्योगिक जल की माँग बढ़ जाती है, जिससे आपूर्ति पर और दबाव पड़ता है।
  • वास्तविक समय की निगरानी और बेसिन स्तरीय योजना का अभाव: वास्तविक समय के डेटा साझाकरण और पूर्वानुमान की अनुपस्थिति समन्वय में बाधा डालती है।

अंतरराज्यीय जल विवादों के बारे में

  • अंतरराज्यीय नदी जल विवाद भारत में दो या दो से अधिक राज्यों के बीच राज्य की सीमाओं के पार बहने वाली नदी या नदी घाटी के जल के उपयोग, वितरण अथवा नियंत्रण को लेकर संघर्ष या असहमति को संदर्भित करता है।

अंतरराज्यीय जल विवादों के कारण

  • असमान नदी भूगोल और प्रवाह: नदियों का अक्सर एक राज्य में उद्गम होता है और दूसरे राज्यों से होकर बहती हैं, जिससे ‘जल स्रोत’ बनाम ‘नीचे की ओर अपवाह पहुँच’ (जैसे- रावी-ब्यास पर पंजाब बनाम हरियाणा) पर संघर्ष होता है।
    • ऊपरी राज्य प्रवाह को नियंत्रित करते हैं, जबकि नीचे की ओर के राज्य ऐतिहासिक अधिकारों का दावा करते हैं।
  • अस्पष्ट और पुराने समझौते: कई जल-साझाकरण समझौते (जैसे- वर्ष 1955 या वर्ष 1981 रावी-ब्यास आवंटन) वैज्ञानिक डेटा या दीर्घकालिक योजना के बिना किए गए थे।
    • जब जल की माँग या उपलब्धता में बदलाव होता है तो ये विवादित हो जाते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकी तनाव: बर्फबारी में कमी, अनियमित वर्षा और बाँधों में जल का प्रवाह उपलब्ध जल को कम करता है (जैसे- वर्ष 2025 में भाखड़ा और पोंग बाँध का स्तर तेजी से गिर गया)।
    • जलभृतों में कमी और नदियों के सूखने से दुर्लभ संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्द्धा बढ़ जाती है।
    • नदी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए पर्यावरणीय प्रवाह की आवश्यकताएँ आवंटन को और जटिल बनाती हैं।
  • कृषि पर निर्भरता और अति प्रयोग: पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य धान और गन्ना जैसी जल-गहन फसलें उगाते हैं।
    • भूजल का अत्यधिक दोहन और अकुशल सिंचाई कमी को बढ़ाती है।
  • अधूरा बुनियादी ढाँचा: सतलज-यमुना लिंक (SYL) नहर जैसी परियोजनाएँ राजनीतिक अंतरविरोध एवं कानूनी बाधाओं के कारण अधूरी रह जाती हैं।
    • यह न्यायाधिकरण के निर्णयों के बावजूद न्यायसंगत वितरण में बाधा डालता है।
  • राजनीतिक ध्रुवीकरण और संघीय तनाव: जल चुनावी लामबंदी का एक साधन बन जाता है, जिससे विवादों को सुलझाना मुश्किल हो जाता है।
    • राज्य अक्सर न्यायाधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों (जैसे- पंजाब का वर्ष 2004 का समाप्ति अधिनियम) की अवहेलना करते हैं।
  • संस्थागत घाटा और डेटा अंतराल: वास्तविक समय के जल डेटा की कमी, कमजोर बेसिन प्राधिकरण और BBMB जैसे निकायों में रिक्त पदों के कारण अविश्वास और प्रशासनिक शिथिलता उत्पन्न होती है।
    • न्यायाधिकरण धीमे हैं और उनमें बहु-विषयक विशेषज्ञता का अभाव है।

अंतरराज्यीय जल विवादों के प्रभाव

  • कृषि संकट: सिंचाई में देरी से फसल चक्र, उत्पादकता और किसानों की आय प्रभावित होती है।
    • अधूरी SYL नहर के कारण हरियाणा की रावी-ब्यास जल तक पहुँच नहीं होने के कारण सूखाग्रस्त जिलों में 3 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि बंजर पड़ी है।
  • संघीय संबंधों में तनाव: विवाद सहकारी संघवाद को नष्ट करते हैं और राज्यों और केंद्र के बीच टकराव को जन्म देते हैं।
    • उदाहरण: SYL पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को लागू करने से पंजाब का इनकार और जल साझाकरण समझौतों को रद्द करने वाला वर्ष 2004 का कानून, संवैधानिक अवज्ञा को दर्शाता है।
  • कानूनी और संस्थागत गतिरोध: न्यायाधिकरणों को निर्णय देने में वर्षों या दशकों का समय लग जाता है।
    • निर्णयों के बाद भी, कार्यान्वयन कमजोर होता है, क्योंकि राज्य अक्सर अनुपालन से इनकार कर देते हैं (उदाहरण के लिए- कावेरी मामले में कर्नाटक; SYL में पंजाब)।
  • शहरी और पेयजल संकट: लंबे समय तक चलने वाले विवाद शहरी जल नियोजन को बाधित करते हैं, विशेषकर तेजी से बढ़ते शहरों में।
    • उदाहरण: हरियाणा के हिसार, सिरसा और फतेहाबाद जैसे शहर BBMB के आवंटन के कारण पेयजल की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं।
  • आर्थिक पिछड़ापन: सुनिश्चित सिंचाई जल और औद्योगिक आपूर्ति की कमी निवेश को बाधित करती है और कृषि निर्यात क्षेत्रों को प्रभावित करती है।
    • उदाहरण: नहर के जल की पहुँच की कमी के कारण दक्षिणी जिलों में हरियाणा की कृषि अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।
  • पारिस्थितिकी क्षति: राज्य भूजल का अत्यधिक दोहन करते हैं और विवादों के दौरान पर्यावरणीय स्थिरता की अनदेखी करते हैं।
    • पंजाब अपने जल का 47% जल जलभृतों से उपयोग करता है, जिसके कारण राज्य का 79% हिस्सा जल-संकटग्रस्त है।
  • सामाजिक और राजनीतिक अशांति: जल एक भावनात्मक मुद्दा बन जाता है, जिससे बड़े पैमाने पर विरोध, क्षेत्रवाद और राजनीतिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिलता है।
    • पंजाब में, 1990 के दशक में SYL नहर के विरोध के कारण इंजीनियरों पर उग्रवादी हमले हुए और आज भी यह राजनीतिक रूप से संवेदनशील बना हुआ है।
  • अंतरराष्ट्रीय निहितार्थ: खराब समन्वय के कारण पाकिस्तान में अप्रयुक्त जल प्रवाहित होता है, विशेष रूप से मानसून के दौरान पंजाब से रावी और ब्यास के माध्यम से।
    • कमजोर घरेलू जल प्रशासन सिंधु जल संधि जैसी संधियों के तहत सीमा पार कूटनीति को जटिल बनाता है।

संवैधानिक और कानूनी ढाँचा

  • संवैधानिक प्रावधान
    • अनुच्छेद-262: संसद को निम्नलिखित अधिकार देता है:
      • अंतरराज्यीय नदियों से संबंधित विवादों के न्यायनिर्णयन का प्रावधान।
      • यदि संसद ऐसा प्रावधान करती है तो ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर रोक लगा दी जाएगी।
  • सातवीं अनुसूची
    • प्रविष्टि 17, राज्य सूची: राज्य जल, सिंचाई आदि पर कानून बना सकते हैं।
    • प्रविष्टि 56, संघ सूची: यदि संसद जनहित में ऐसा घोषित करती है तो केंद्र अंतरराज्यीय नदियों को विनियमित कर सकता है।

प्रमुख कानून

  • अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956: विशिष्ट विवादों के लिए तदर्थ न्यायाधिकरणों के गठन को सक्षम बनाता है।
    • न्यायाधिकरण के निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होते हैं।
    • एक बार जब कोई मामला न्यायाधिकरण को भेज दिया जाता है, तो न्यायालयों (सर्वोच्च न्यायालय सहित) का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं रह जाता।
  • नदी बोर्ड अधिनियम, 1956: बेसिन स्तरीय प्रबंधन के लिए अंतर-सरकारी नदी बोर्ड का प्रावधान करता है।
    • कभी प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया: इस अधिनियम के तहत कोई नदी बोर्ड नहीं बनाया गया है।
  • अंतरराज्यीय नदी जल विवाद (संशोधन) विधेयक, 2019: कई पीठों वाले एक स्थायी न्यायाधिकरण का प्रस्ताव किया गया।
    • समयसीमा तय की गई: निर्णय के लिए 2 वर्ष + 1 वर्ष का विस्तार।
    • प्रत्येक बेसिन के लिए डेटा बैंक और सूचना प्रणाली शामिल है।

प्रमुख अंतर-राज्यीय नदी विवाद

नदी

शामिल राज्य

वर्तमान स्थिति

कावेरी कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण (Cauvery Water Management Authority- CWMA) और कावेरी जल विनियमन समिति (Cauvery Water Regulation Committee- CWRC) सर्वोच्च न्यायालय के अधीन कार्यरत।
कृष्णा महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश कृष्णा जल विवाद न्यायाधिकरण-II; मामला न्यायालय में विचाराधीन।
रावी-ब्यास (एसवाईएल नहर) पंजाब, हरियाणा एसवाईएल अधूरा, मामला सर्वोच्च न्यायालय में
महानदी छत्तीसगढ़, ओडिशा वर्ष 2018 में ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई
गोदावरी महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र वर्ष 1980 में हल किया गया
महादायी गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र न्यायाधिकरण ने फैसला सुनाया; विवाद जारी।

अंतरराज्यीय नदी जल विवादों के लिए आगे की राह

  • स्थायी जल विवाद न्यायाधिकरण की स्थापना करना: अंतरराज्यीय नदी जल विवाद (संशोधन) विधेयक, 2019 के पारित होने और क्रियान्वयन में तेजी लाना।
    • कई विशेषज्ञ पीठों वाला एक स्थायी न्यायाधिकरण समयबद्ध समाधान (2-3 वर्षों के भीतर) सुनिश्चित करेगा।
  • नदी बेसिन प्राधिकरणों को मजबूत करना: सभी तटीय राज्यों के प्रतिनिधित्व के साथ नदी बेसिन प्रबंधन प्राधिकरण बनाना।
    • वैज्ञानिक जल-साझाकरण योजनाओं को सुगम बनाना, डेटा पारदर्शिता को बढ़ावा देना और सहयोगात्मक निर्णय लेने में सक्षम बनाना।
  • महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं को पूरा करना: SYL नहर, जो दशकों से लंबित है, को सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी और केंद्रीय मध्यस्थता के तहत पूरा किया जाना चाहिए।
    • पारिस्थितिकी सुरक्षा उपायों के साथ रुकी हुई सिंचाई और नहर पुनरुद्धार परियोजनाओं को पुनर्जीवित करना।
  • सिंचाई का आधुनिकीकरण करना और जल-उपयोग दक्षता को बढ़ावा देना: विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा जैसे जल-तनावग्रस्त राज्यों में ड्रिप तथा स्प्रिंकलर सिस्टम को प्रोत्साहित करना।
    • जल-प्रधान जैसी फसलों से ध्यान हटाकर MSP और खरीद सुधार के माध्यम से फसल विविधीकरण पर ध्यान केंद्रित करना।
  • वास्तविक समय निगरानी प्रणाली लागू करना: पानी की उपलब्धता, उपयोग और प्रवाह पर नजर रखने के लिए उपग्रह इमेजरी, IoT सेंसर और GIS टूल का उपयोग करना।
    • समान और पारदर्शी जल बंटवारा सुनिश्चित करने के लिए एक केंद्रीय डेटा प्लेटफॉर्म बनाना।
  • कानूनी और संस्थागत प्रवर्तन बढ़ाना: अधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करना।
    • अनुपालन न करने पर दंड व्यवस्था लागू करना और एक सशक्त अंतरराज्यीय जल विनियामक प्राधिकरण बनाना।
  • अंतरराज्यीय परिषद का लाभ उठाना: विवादों में मध्यस्थता करने और संवाद को बढ़ावा देने, राजनीतिक तनाव को कम करने के लिए अंतरराज्यीय परिषद (अनुच्छेद-263) का उपयोग करना।
  • राजनीतिक सहमति और सहकारी संघवाद बनाना: विश्वास को बढ़ावा देने के लिए केंद्र की मध्यस्थता में अंतरराज्यीय राजनीतिक शिखर सम्मेलन आयोजित करना।
    • संवेदनशील विवादों को राजनीतिक रूप से अलग करने के लिए नागरिक समाज, किसान समूहों और जल विशेषज्ञों को शामिल करना।

निष्कर्ष 

जलवायु परिवर्तन और राजनीतिक गतिरोध के कारण पंजाब-हरियाणा जल विवाद और भी गंभीर हो गया है। इसके लिए बुनियादी ढाँचे के निर्माण, सतत् जल प्रबंधन और सहकारी संघवाद के माध्यम से तत्काल समाधान की आवश्यकता है। कानूनी प्रवर्तन, बेसिन प्राधिकरण और जन जागरूकता को मजबूत करके न्यायसंगत तथा पारिस्थितिकी रूप से प्रभावी जल बँटवारे को सुनिश्चित किया जा सकता है।

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