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क्या झूठ डिटेक्टर परीक्षण कानूनी रूप से वैध है?

Lokesh Pal September 03, 2024 01:31 70 0

संदर्भ

केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) ने कोलकाता के आर. जी. कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में एक रेजिडेंट डॉक्टर के बलात्कार एवं हत्या के मामले में सात लोगों पर पॉलीग्राफ परीक्षण (Polygraph Test) का दूसरा चरण आयोजित किया। 

धोखे का पता लगाने वाले परीक्षण क्या हैं? 

  • धोखे का पता लगाने वाले परीक्षण (Deception Detection Tests-DDT) वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ हैं, जिनका इस्तेमाल पूछताछ के दौरान संभावित धोखे का पता लगाने के लिए किया जाता है। इन परीक्षणों में शामिल हैं:-  
    • पॉलीग्राफ परीक्षण (Polygraph Test): पॉलीग्राफ परीक्षण इस धारणा पर आधारित होता है कि जब कोई व्यक्ति झूठ बोलता है तो विशिष्ट शारीरिक प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न होती हैं। 
      • कार्यप्रणाली: आमतौर पर, इस परीक्षण में संदिग्ध व्यक्ति के शरीर में कार्डियो-कफ (Cardio-cuffs) या संवेदनशील इलेक्ट्रोड जैसे उपकरण लगाकर रक्तचाप, गैल्वेनिक स्किन रिस्पॉन्स (पसीने का एक प्रतिनिधि), श्वास एवं पल्स रेट (Pulse Rate) जैसे चरों को मापा जाता है। 
        • जैसे-जैसे प्रश्न पूछे जाते हैं, प्रत्येक शारीरिक प्रतिक्रिया को एक संख्यात्मक मान दिया जाता है, जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि व्यक्ति सच बोल रहा है या धोखा दे रहा है। 

सोडियम थायोपेंटल (Sodium Thiopental)

  • यह एक बार्बिट्यूरेट (Barbiturate) है, जो रोगी की रेटिकुलर एक्टिवेटिंग प्रणाली (Reticular Activating System) को दबा देता है। 
  • यह एजेंट मस्तिष्क में तेजी से प्रवेश करता है, तथा आमतौर पर 30 सेकंड के भीतर तीव्र प्रभाव उत्पन्न करता है। 

    • नार्को-विश्लेषण (Narco-Analysis): इसके विपरीत, नार्को-विश्लेषण में आरोपी को सोडियम पेंटोथल नामक दवा का इंजेक्शन दिया जाता है, जिससे वह सम्मोहित या बेहोश हो जाता है। 
      • धारणा यह है कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति कम संकोची होता है तथा जानकारी प्रकट करने की अधिक संभावना होती है। 
      • क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह दवा व्यक्ति के झूठ बोलने के संकल्प को कमजोर कर देती है, इसलिए इसे अक्सर ‘ट्रुथ सीरम’ (Truth Serum) के रूप में संदर्भित किया जाता है। 
    • ब्रेन मैपिंग (Brain Mapping): इसमें चेहरे और गर्दन पर लगे इलेक्ट्रोड का उपयोग करके व्यक्ति की तंत्रिका गतिविधियों (विशेष रूप से मस्तिष्क तरंगों) को मापा जाता है। 
      • यह इस सिद्धांत पर कार्य करता है कि मस्तिष्क किसी परिचित उत्तेजना, जैसे कि किसी छवि या ध्वनि, के संपर्क में आने पर विशिष्ट मस्तिष्क तरंगें उत्पन्न करता है। 

DDT के कानूनी और नैतिक आयाम

  • मौलिक अधिकार और सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: वर्ष 2010 में, सेल्वी एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि पॉलीग्राफ परीक्षण, नार्को-विश्लेषण और ब्रेन-मैपिंग परीक्षणों के परिणामों को परीक्षण से गुजरने वाले व्यक्ति की सहमति के बिना न्यायालय में साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। 
    • अनुच्छेद-20(3): न्यायालय ने निर्णय दिया कि ये परीक्षण भारतीय संविधान के अनुच्छेद-20(3) का उल्लंघन करते हैं, जो आत्म-दोषी ठहराए जाने से सुरक्षा प्रदान करता है। 
    • अनुच्छेद-21: किसी व्यक्ति का बयान देने या चुप रहने का अधिकार उसकी निजता के अधिकार का अभिन्न अंग है। 
      • इस प्रकार, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि किसी व्यक्ति को बयान देने के लिए बाध्य करना भी संविधान के अनुच्छेद-21 का उल्लंघन होगा 
    • बहुत कम अनुभवजन्य साक्ष्य मौजूद हैं: तदनुसार उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इन परीक्षणों के परिणामों को ‘स्वीकारोक्ति’ नहीं माना जा सकता। 
      • साक्ष्य को न्यायालय में स्वीकार किया जा सकता है: यदि कोई जानकारी या सामग्री बाद में ‘स्वैच्छिक रूप से प्रशासित परीक्षण परिणामों की सहायता से’ खोजी जाती है, तो ऐसे साक्ष्य को न्यायालय में स्वीकार किया जा सकता है। 
        • उदाहरण के लिए: यदि कोई अभियुक्त परीक्षण के दौरान हत्या के हथियार का स्थान बताता है और जाँच एजेंसी को बाद में उस स्थान पर हथियार मिलता है, तो अभियुक्त का बयान ही साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा, बल्कि हथियार को स्वीकार किया जाएगा। 
  • विश्वसनीयता और वैज्ञानिक वैधता: “वास्तविक दुनिया की विभिन्न परिस्थितियों में छुपी सूचनाओं” को उजागर करने में DDT की प्रभावशीलता अनिश्चित बनी हुई है। 
    • पॉलीग्राफ परीक्षण की विश्वसनीयता संदिग्ध है, क्योंकि परीक्षण का अंतर्निहित सिद्धांत त्रुटिपूर्ण है: हृदय गति और रक्तचाप जैसे पैरामीटर, जो अति-उत्तेजना की स्थिति को इंगित करते हैं, झूठ बोलने का एकमात्र संकेत साबित नहीं हुए हैं। 
    • इसी प्रकार, संयुक्त राज्य अमेरिका में वर्ष 2019 में एक अध्ययन किया गया: इसमें झूठ के उच्च सकारात्मक बिंदुओं को चिह्नित किया गया और कहा गया कि व्यक्ति पॉलीग्राफ को मात देने के लिए स्वयं को प्रशिक्षित कर सकते हैं। 
  • मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव: पॉलीग्राफ टेस्ट से जुड़े तनाव और चिंता के प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक प्रभाव हो सकते हैं, विशेषकर तब जब व्यक्ति को लगता है कि उसके साथ गलत व्यवहार किया जा रहा है। 
  • सूचित सहमति: नैतिक रूप से, यह महत्त्वपूर्ण है कि पॉलीग्राफ परीक्षण से गुजरने वाला व्यक्ति सूचित सहमति प्रदान करे, प्रक्रिया और संभावित परिणामों दोनों को समझे। 
    • किसी व्यक्ति को ऐसे परीक्षण के लिए मजबूर करना या दबाव डालना नैतिक रूप से संदिग्ध होगा। 
    • उदाहरण के लिए: जिनी लोकनीता  (Jinee Lokaneeta) ने अपनी पुस्तक, द ट्रुथ मशीन्स: पुलिसिंग, वायलेंस, एंड साइंटिफिक इंटेरोगेशंस इन इंडिया (The Truth Machines: Policing, Violence, and Scientific Interrogations in India) में पॉलीग्राफ और अन्य संबद्ध परीक्षणों की अत्यधिक आक्रामक प्रकृति को रेखांकित किया है। 
      • उन्होंने सवाल उठाया कि क्या पुलिस हिरासत में कभी भी सूचित और स्वतंत्र सहमति प्राप्त की जा सकती है? 
      • उन्होंने ऐसे उदाहरणों का भी दस्तावेजीकरण किया है, जैसे वर्ष 2007 के मक्का मस्जिद विस्फोट मामले में दोषमुक्त व्यक्तियों और वर्ष 2006 के मुंबई विस्फोट मामले के अभियुक्तों के मामले में, जहाँ झूठे इकबालिया बयान लेने के लिए जबरन नार्को परीक्षण किया गया था, जिसके साथ अक्सर शारीरिक दुर्व्यवहार भी किया गया था। 
  • स्वायत्तता: किसी व्यक्ति की स्वायत्तता का सम्मान करना और ऐसे परीक्षणों से इनकार करने का उनका अधिकार एक मूल नैतिक सिद्धांत है। 

वर्ष 2010 से पूर्व के न्यायिक निर्णय 

वर्ष 2010 से पहले, भारतीय न्यायालय इन परीक्षणों के पक्ष में थे, यहाँ तक ​​कि इन परीक्षणों को कराने से पहले अभियुक्त की सहमति को भी अप्रासंगिक मानती थीं। 

  • रोजो जॉर्ज बनाम पुलिस उपाधीक्षक (2006) मामले में: केरल उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि अपराध करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकें ‘बहुत परिष्कृत और आधुनिक’ हो गई हैं, जिससे प्रभावी जाँच के लिए इन वैज्ञानिक परीक्षणों का उपयोग आवश्यक हो गया है। 
    • उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया: जब ऐसे परीक्षण विशेषज्ञ की सख्त निगरानी में किए जाते हैं, तो यह नहीं कहा जा सकता कि भारत के नागरिक को दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। 
  • दिनेश डालमिया बनाम राज्य (2006) में: मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि जाँच एजेंसियों द्वारा इन परीक्षणों पर भरोसा करके “साक्ष्य देने संबंधी बाध्यता” नहीं है। 
    • न्यायालय ने इन “वैज्ञानिक जाँच विधियों” को सूचना प्राप्त करने के लिए अक्सर इस्तेमाल की जाने वाली हिरासत में हिंसा के मुकाबले अधिक सुरक्षित विकल्प बताया। 
  • वर्ष 2008 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने श्री शैलेंद्र शर्मा बनाम राज्य एवं अन्य मामले में कहा था कि समाज के विरुद्ध बढ़ते अपराधों के मद्देनजर, व्यक्तिगत अधिकारों के विरुद्ध गहन और उचित जाँच की आवश्यकता को ध्यान में रखना आवश्यक है, साथ ही यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन न हो। 
    • न्यायालय ने यह कहते हुए कि नार्को-विश्लेषण परीक्षण में कोई संवैधानिक कमी नहीं है तथा यह ‘जाँच में सहायता के लिए उठाया गया कदम’ है, परीक्षण की अनुमति दे दी। 

आगे की राह

  • स्पष्ट दिशा-निर्देश और विनियम: सरकार को उन परिस्थितियों के संबंध में स्पष्ट और व्यापक दिशा-निर्देश स्थापित करने चाहिए, जिनके तहत पॉलीग्राफ परीक्षण किया जा सकता है, जिससे संवैधानिक अधिकारों का अनुपालन सुनिश्चित हो सके। 
    • इन दिशा-निर्देशों में सूचित सहमति, स्वैच्छिक भागीदारी और दुरुपयोग को रोकने के लिए सख्त निगरानी अनिवार्य होनी चाहिए। 
  • वैज्ञानिक अनुसंधान और सत्यापन को बढ़ावा देना: पॉलीग्राफ परीक्षणों की सटीकता और विश्वसनीयता के बारे में आगे वैज्ञानिक अनुसंधान को प्रोत्साहित करने से उनकी वैधता के बारे में चल रही चिंताओं को दूर करने में मदद मिल सकती है। 
  • तृतीय पक्ष निरीक्षण: पॉलीग्राफ परीक्षणों के उपयोग की निगरानी के लिए स्वतंत्र निरीक्षण निकायों की स्थापना से दुरुपयोग को रोकने में मदद मिल सकती है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि नैतिक मानकों को बरकरार रखा जाए। 
  • उपयोग में पारदर्शिता: कानून प्रवर्तन एजेंसियों को पॉलीग्राफ परीक्षणों के उपयोग में पारदर्शिता बनाए रखनी चाहिए, जिसमें उनके उपयोग की आवृत्ति, परिणाम और व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के लिए मौजूद सुरक्षा उपायों की रिपोर्टिंग शामिल है।
  • कानून प्रवर्तन आवश्यकताओं और व्यक्तिगत अधिकारों में संतुलन: पॉलीग्राफ परीक्षण के उपयोग का निर्णय मामला-दर-मामला आधार पर किया जाना चाहिए तथा व्यक्तिगत अधिकारों के लिए जोखिम के विरुद्ध संभावित लाभों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। 
    • ऐसे मामलों में जहाँ पॉलीग्राफ परीक्षण आवश्यक समझा जाता है, वहाँ कड़े सुरक्षा उपाय किए जाने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके प्रयोग से संवैधानिक सुरक्षा का उल्लंघन न हो।

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