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भारत में न्यायिक भ्रष्टाचार

Lokesh Pal March 26, 2025 01:14 71 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने सर्वसम्मति से दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को पुनः इलाहाबाद उच्च न्यायालय स्थानांतरित करने का निर्णय लिया, जहाँ वह मूल रूप से पदस्थ थे।

  • यह घटना तब घटी, जब आग लगने के बाद न्यायमूर्ति वर्मा के आवास से कथित तौर पर बड़ी मात्रा में नकदी बरामद की गई थी।

भारत में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कानूनी और संस्थागत ढाँचा

संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद-124(4) और 218: ‘सिद्ध दुर्व्यवहार या अक्षमता’ के लिए सर्वोच्च न्यायालय/उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर महाभियोग चलाया जाना।
  • अनुच्छेद-311: भ्रष्ट लोक सेवकों (न्यायाधीशों को छोड़कर) को अपदस्थ करना।

प्रमुख कानून

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (PCA), 1988: सरकारी कर्मचारियों द्वारा रिश्वतखोरी, अनुचित प्रभाव और अवैध संवर्द्धन को अपराध घोषित करता है।
    • वर्ष 2018 संशोधन: रिश्वत देने को अपराध घोषित करता है, त्वरित सुनवाई का आदेश देता है।
  • लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013: प्रधानमंत्री, मंत्रियों, सांसदों और नौकरशाहों के विरुद्ध भ्रष्टाचार की जाँच के लिए लोकपाल (केंद्र) और लोकायुक्त (राज्य) की स्थापना करता है।
    • अपवर्जन: न्यायाधीश (सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2024 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर लोकपाल के अधिकार क्षेत्र पर रोक लगा दी)।
  • बेनामी लेन-देन अधिनियम, 1988: अघोषित संपत्तियों को लक्षित करता है; प्रवर्तन निदेशालय (ED) जाँच करता है।
  • धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA), 2002: ईडी भ्रष्टाचार से जुड़े धन शोधन के मामलों में मुकदमा चलाता है।
  • केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC), 2003: सतर्कता प्रशासन की निगरानी करना और लोक प्रशासन में भ्रष्टाचार को रोकना है।
    • CVC भ्रष्टाचार के मामलों की निगरानी और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) के कामकाज की निगरानी करता है।

न्यायिक भ्रष्टाचार के बारे में

  • न्यायपालिका के भीतर भ्रष्टाचार में रिश्वतखोरी, भाई-भतीजावाद, राजनीतिक प्रभाव और अन्य अनुचित तरीके शामिल हैं, जो न्यायिक स्वतंत्रता और अखंडता से समझौता करते हैं। 
  • भ्रष्टाचार के रूप
    • न्यायिक भ्रष्टाचार: न्यायाधीश रिश्वतखोरी या राजनीतिक प्रभाव जैसे बाह्य कारकों के कारण मामलों का अनुचित तरीके से निर्णय करते हैं।
    • प्रशासनिक भ्रष्टाचार: न्यायिक प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप, जैसे कि रिश्तेदारों को पदों पर नियुक्त करना या केस रिकॉर्ड के साथ छेड़छाड़ करना।
    • अंकल जज सिंड्रोम: न्यायाधीशों से संबंधित वकील अपने रिश्तेदारों के सामने पेश होते हैं, जिससे एक ऐसा नेटवर्क बनता है, जो न्यायिक भ्रष्टाचार के कारण न्यायिक परिणामों को प्रभावित करता है। 
  • नियुक्तियों और स्थानांतरणों में पारदर्शिता का अभाव: नियुक्तियों और स्थानांतरणों में अनुचित प्रभाव के आरोप बार-बार सामने आए हैं, लेकिन पारदर्शिता की कमी के कारण इन पर ध्यान नहीं दिया गया है।
    • कॉलेजियम प्रणाली: कॉलेजियम प्रणाली के तहत न्यायाधीशों के चयन और स्थानांतरण में पारदर्शिता की कमी पक्षपात और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देती है।
      • उन्नति और स्थानांतरण के लिए स्पष्ट, वस्तुनिष्ठ मानदंडों का अभाव, बदले की भावना को बढ़ावा देता है।
  • राजनीतिक प्रभाव और कार्यकारी दबाव: न्यायाधीशों पर राजनीतिक व्यक्तियों द्वारा हाई-प्रोफाइल मामलों में अनुकूल निर्णय देने के लिए दबाव डाला जा सकता है।
    • स्थानांतरण का खतरा: प्रतिकूल निर्णय के परिणामस्वरूप दंडात्मक स्थानांतरण या पदोन्नति से इनकार किया जा सकता है।
  • मामले के परिणामों में रिश्वतखोरी और पक्षपात
    • न्यायिक भ्रष्टाचार: न्यायाधीश मामले के परिणामों को प्रभावित करने के लिए रिश्वत ले सकते हैं, जिससे चयनात्मक न्याय हो सकता है।
    • प्रशासनिक भ्रष्टाचार: न्यायालय के क्लर्क और कर्मचारी पैसे के बदले में फाइलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं या कार्यवाही में देरी कर सकते हैं।
  • सेवानिवृत्ति के बाद लाभ और नियुक्तियाँ: सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधिकरणों, आयोगों या सलाहकार बोर्डों में आकर्षक पद स्वीकार करने वाले न्यायाधीशों से पद पर रहते हुए लाभ-हानि के संबंध में चिंताएँ पैदा होती हैं।
    • न्यायाधीश भविष्य के लाभों को सुरक्षित करने के लिए अनुकूल निर्णय दे सकते हैं।
  • भाई-भतीजावाद और पक्षपात (‘अंकल जज सिंड्रोम’)
    • पारिवारिक नेटवर्क: न्यायाधीशों के रिश्तेदार उसी न्यायालय में वकालत करते हैं, जहाँ वे कार्यरत हैं, जिससे हितों का टकराव होता है।
    • पारस्परिक पक्षपात: न्यायाधीशों से संबंधित वकीलों को तरजीह दी जाती है, जिससे व्यवस्था की निष्पक्षता कमजोर होती है।
    • विधि आयोग की 230वीं रिपोर्ट (वर्ष 2009) ने “अंकल जज सिंड्रोम” को स्वीकार किया, जिसमें इस तरह के टकरावों से बचने के लिए न्यायाधीशों को उनके मूल उच्च न्यायालयों से स्थानांतरित करने की सिफारिश की गई।
  • अप्रभावी अनुशासनात्मक तंत्र: ‘इन-हाउस’ तंत्र में बाहरी निगरानी का अभाव होता है और यह अक्सर अपारदर्शी होता है, जिससे भ्रष्ट आचरण अनियंत्रित हो जाता है।
    • कार्यवाही की गोपनीयता: न्यायाधीशों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही गोपनीय रखी जाती है, जिससे जवाबदेही कम हो जाती है।
    • वर्ष 2017 से वर्ष 2021 के मध्य न्यायाधीशों के विरुद्ध 1,600 से अधिक शिकायतें प्राप्त होने के बावजूद, केवल कुछ मामलों में ही अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई।
  • व्हिसलब्लोअर सुरक्षा और आंतरिक निगरानी का अभाव: न्यायाधीश या न्यायालय के अधिकारी, जो तंत्र के भीतर भ्रष्टाचार को उजागर करते हैं, उन्हें दंडात्मक कार्रवाई का सामना करना पड़ता है।
    • न्यायपालिका में व्हिसलब्लोअर की सुरक्षा के लिए कोई औपचारिक तंत्र मौजूद नहीं है।

न्यायपालिका में संस्थागत ढाँचा और जवाबदेही तंत्र

  • इन-हाउस मैकेनिज्म (वर्ष 1997): मई 1997 में सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण बैठक में इसकी स्थापना की गई।
    • उद्देश्य: न्यायिक मानकों या सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले न्यायाधीशों के विरुद्ध सुधारात्मक कार्रवाई करना।
    • प्रक्रिया: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतें भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को भेजी जाती हैं।
      • मुख्य न्यायाधीश या संबंधित मुख्य न्यायाधीश आंतरिक जाँच शुरू करते हैं।
  • न्यायाधीश (संरक्षण) अधिनियम, 1985: न्यायाधीशों और न्यायिक रूप से कार्य करने वाले अन्य लोगों के लिए अतिरिक्त सुरक्षा सुनिश्चित करने और उससे जुड़े मामलों के लिए एक अधिनियम।
    • न्यायाधीशों को उनके न्यायिक कर्तव्यों के निर्वहन में की गई कार्रवाइयों के लिए दीवानी और आपराधिक मुकदमेबाजी से उन्मुक्ति प्रदान करता है।
  • कॉलेजियम प्रणाली: उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली।
    • संरचना
      • सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम: मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में और इसमें 4 वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
      • उच्च न्यायालय कॉलेजियम: उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में इसमें 2 वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
  • महाभियोग प्रक्रिया (अनुच्छेद-124 और 217): सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को संसद द्वारा महाभियोग के माध्यम से हटाया जा सकता है।
    • आधार: सिद्ध दुर्व्यवहार या अक्षमता।
    • प्रक्रिया: संसद के किसी भी सदन में प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाना।
      • एक समिति द्वारा जाँच के बाद विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित किया जाएगा।
  • न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन (वर्ष 1997): वर्ष 1997 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाई गई आचार संहिता।
    • न्यायाधीशों के लिए नैतिक मानकों की रूपरेखा तैयार करती है, लेकिन इसमें प्रवर्तनीयता का अभाव है।
  • न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971: न्यायाधीश न्यायपालिका की गरिमा बनाए रखने के लिए अवमानना ​​शक्तियों का उपयोग कर सकते हैं।
    • न्यायालय को बदनाम करने या उसके अधिकार को कम करने के लिए आपराधिक अवमानना।
  • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) (वर्ष 2015 में निरस्त): न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता बढ़ाने के लिए कॉलेजियम प्रणाली को बदलने का प्रस्ताव।
  • संसद और कार्यपालिका की भूमिका
    • संसद: महाभियोग की कार्यवाही शुरू कर सकती है और न्यायिक जवाबदेही के लिए सुधार पेश कर सकती है।
      • न्यायपालिका की दिन-प्रतिदिन की निगरानी में सीमित भूमिका।
    • कार्यपालिका: न्यायिक नियुक्तियों की जाँच करती है, लेकिन न्यायिक परिणामों को प्रभावित करने की कोई शक्ति नहीं रखती।
  • लोकपाल तथा लोकायुक्त अधिनियम, 2013
    • न्यायपालिका का बहिष्कार: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है।
  • विधि आयोग की सिफारिशें
    • 230वीं रिपोर्ट (वर्ष 2009): पक्षपात से बचने के लिए न्यायाधीशों को उनके मूल उच्च न्यायालयों से स्थानांतरित करने की वकालत की गई। 
    • 214वीं रिपोर्ट (वर्ष 2008): कॉलेजियम प्रणाली में सुधार और अधिक पारदर्शिता की सिफारिश की गई।
  • प्रौद्योगिकी का उपयोग: कानूनी प्रक्रिया को डिजिटल बनाना तथा किसी मामले के पूरे जीवन चक्र की निगरानी करना।
    • कानूनी सूचना प्रबंधन एवं ब्रीफिंग प्रणाली (Legal Information Management & Briefing System-LIMBS): यह एक वेब-आधारित एप्लीकेशन है, जो भारत की केंद्र सरकार की भागीदारी वाले मामलों की अधिक प्रभावी और पारदर्शी तरीके से निगरानी करता है।
  • व्यापक आचार संहिता और जवाबदेही रिपोर्ट: न्यायाधीशों के लिए अधिक औपचारिक और व्यापक आचार संहिता होनी चाहिए, जो कानून द्वारा लागू हो।
    • जवाबदेही बढ़ाने के लिए कार्यप्रणाली और दक्षता पर वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित की जानी चाहिए, जैसा कि उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा किया गया है।

न्यायिक कदाचार से जुड़े हाई-प्रोफाइल मामले

  • न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी (सर्वोच्च न्यायालय): पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अपने आधिकारिक आवास के नवीनीकरण के लिए सार्वजनिक धन का दुरुपयोग किया।
    • समिति द्वारा उन्हें दोषी पाए जाने के बावजूद पहला महाभियोग प्रस्ताव (वर्ष 1993) लोकसभा में विफल हो गया।
  • न्यायमूर्ति पी.डी. दिनाकरन (मुख्य न्यायाधीश, सिक्किम उच्च न्यायालय; पूर्व में कर्नाटक उच्च न्यायालय): आय से अधिक संपत्ति के मालिक थे।
    • राज्यसभा द्वारा महाभियोग प्रस्ताव पारित होने के बाद (वर्ष 2011) इस्तीफा दे दिया।
  • न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (कलकत्ता उच्च न्यायालय): अदालत द्वारा नियुक्त रिसीवर के रूप में बड़ी मात्रा में धनराशि का दुरुपयोग किया।
    • लोकसभा में महाभियोग पर मतदान से पूर्व ही वर्ष 2011 में इस्तीफा दे दिया।
  • न्यायमूर्ति एस.एन. शुक्ला (इलाहाबाद उच्च न्यायालय): मेडिकल कॉलेज मामले को प्रभावित करने के लिए रिश्वत (2017) ली।
    • न्यायिक कार्य वापस ले लिया गया, लेकिन सेवानिवृत्ति (2020) तक न्यायाधीश बने रहे। बाद में CBI ने उन पर आरोप लगाया।
  • न्यायमूर्ति आईएम कुद्दुसी (ओडिशा उच्च न्यायालय): सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से जुड़े मेडिकल कॉलेज रिश्वत घोटाले में (वर्ष 2017) बिचौलिया।
    • कार्रवाई: CBI द्वारा गिरफ्तार, जमानत मिली। मामला लंबित है।

न्यायिक भ्रष्टाचार के जोखिम और परिणाम

  • जनता के विश्वास तथा वैधता का ह्रास: भ्रष्टाचार न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कमजोर करता है, जिसे न्याय के लिए अंतिम उपाय माना जाता है।
    • यदि न्यायाधीशों को समझौतावादी माना जाता है, तो नागरिकों का कानून के शासन में विश्वास समाप्त हो जाता है, जिससे लोकतांत्रिक संस्थाएँ कमजोर होती हैं।
  • कानून के शासन में समझौता: भ्रष्ट न्यायाधीश प्रभावशाली दलों का पक्ष ले सकते हैं, जिससे कानून का चयनात्मक अनुप्रयोग होता है।
    • न्यायिक भ्रष्टाचार अराजकता को बढ़ावा देता है, क्योंकि गलत काम करने वालों को जवाबदेह नहीं ठहराया जाता।
  • राजनीतिक और कार्यकारी हस्तक्षेप: भ्रष्टाचार राजनीतिक अभिकर्ताओं को न्यायिक निर्णयों पर लाभ देता है।
    • नियंत्रण और संतुलन के लिए खतरा: प्रभावित न्यायपालिका शक्तियों के पृथक्करण से समझौता करती है तथा लोकतंत्र को कमजोर करती है।
  • विलंबित न्याय और न्यायिक बैकलॉग: जानबूझकर देरी करना, फाइलों से छेड़छाड़ करना और कुछ मामलों का पक्ष लेना जैसे भ्रष्ट व्यवहार न्यायिक प्रक्रिया को धीमा कर देते हैं।
    • लंबे समय तक देरी आम नागरिकों को समय पर न्याय से वंचित करती है, जिससे निराशा और मोहभंग बढ़ता है।
  • संगठित अपराध और भ्रष्टाचार में वृद्धि: न्यायपालिका के भीतर भ्रष्टाचार अपराधियों, राजनेताओं और व्यापारिक अभिजात वर्ग को दंड से मुक्त होकर कार्य करने में सक्षम बनाता है।
    • जब न्यायालय भ्रष्टाचार के मामलों में प्रभावी ढंग से मुकदमा चलाने में विफल रहते हैं, तो इससे अपराधियों का हौसला बढ़ता है।
    • असमानता और हाशिए पर होना: भ्रष्टाचार असमान रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों को प्रभावित करता है, जिनके पास न्याय को ‘खरीदने’ के लिए संसाधनों की कमी होती है।
    • अमीर और प्रभावशाली लोग तंत्र में हस्तक्षेप कर सकते हैं, जबकि गरीबों को निष्पक्ष सुनवाई से वंचित किया जाता है।
  • न्यायिक जवाबदेही की कमी: अप्रभावी अनुशासनात्मक तंत्र और सार्वजनिक जाँच की अनुपस्थिति के कारण भ्रष्ट न्यायाधीशों पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है।
    • भ्रष्टाचार के अनेक आरोपों के बावजूद, उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को कभी दोषी नहीं ठहराया गया, जो जवाबदेही की कमी को उजागर करता है।
  • विदेशी निवेश और अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव: न्यायिक भ्रष्टाचार निवेशकों के बीच कानूनी प्रणाली की निष्पक्षता और विश्वसनीयता के बारे में चिंताएँ बढ़ाता है।
    •  वाणिज्यिक मुकदमेबाजी में भ्रष्टाचार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को हतोत्साहित करता है, जिससे आर्थिक विकास में बाधा आती है। 
  • न्यायिक जवाबदेही की आवश्यकता कानून के शासन को बनाए रखना: न्यायपालिका लोकतंत्र का एक स्तंभ है और इसकी जवाबदेही सुनिश्चित करती है कि यह संवैधानिक सीमा के भीतर कार्य करे। 
    • जवाबदेही तंत्र न्यायिक शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए जाँच तथा संतुलन के रूप में कार्य करते हैं। 
  • जनता का विश्वास बनाए रखना: न्यायिक प्रक्रियाओं में पारदर्शिता तथा जवाबदेही न्यायपालिका में जनता का विश्वास बढ़ाती है। जब न्यायाधीशों को जवाबदेह ठहराया जाता है, तो नागरिक न्यायपालिका को निष्पक्ष मानते हैं। 
    • भ्रष्टाचार को रोकना: मजबूत जवाबदेही तंत्र न्यायाधीशों को भ्रष्ट आचरण में शामिल होने से रोकते हैं। जवाबदेही सुनिश्चित करती है कि न्यायिक कदाचार के मामलों को उजागर किया जाए और तुरंत संबोधित किया जाए। 
  • न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करना: जवाबदेही तंत्र यह सुनिश्चित करता है कि कदाचार को छिपाने के लिए न्यायिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग न किया जाए।
    • जवाबदेही के माध्यम से नैतिक मानकों को बनाए रखना न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मजबूत करता है।
  • न्यायिक देरी को संबोधित करना: जवाबदेही तंत्र न्यायिक प्रणाली में अक्षमताओं की पहचान करने और उन्हें संबोधित करने में मदद कर सकता है, जिससे देरी कम हो सकती है।
  • ‘केस’ प्रबंधन: पारदर्शी प्रक्रियाएँ ‘केस’ प्रबंधन को बेहतर बनाती हैं और लंबित मामलों को कम करती हैं।
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा करना: जवाबदेही सुनिश्चित करती है कि सभी नागरिकों को, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना, न्याय तक पहुँच प्राप्त हो।
    • जवाबदेही तंत्र न्यायिक पूर्वाग्रह को रोकने तथा कानून के तहत समान व्यवहार सुनिश्चित करने में मदद करते हैं।
  • शक्ति के दुरुपयोग को रोकना: जवाबदेही तंत्र न्यायिक अतिक्रमण को रोकता है और यह सुनिश्चित करता है कि न्यायाधीश अपने संवैधानिक जनादेश का उल्लंघन न करें।
    • अवमानना ​​शक्तियों का उचित उपयोग यह सुनिश्चित करता है कि न्यायपालिका की आलोचना रचनात्मक हो और उसे दबाया न जाए।

न्यायिक भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय अभ्यास

  • संयुक्त राज्य अमेरिका: न्यायिक आचरण और अनुशासन ढाँचा
    • न्यायिक आचरण प्रणाली: न्यायाधीश अपने-अपने सर्किट में न्यायिक परिषदों द्वारा जाँच के अधीन होते हैं।
    • बाहरी समीक्षा निकायों की उपस्थिति निष्पक्ष जाँच और निगरानी सुनिश्चित करती है।
  • यूनाइटेड किंगडम: न्यायिक नियुक्ति आयोग (JAC)
    • योग्यता आधारित नियुक्तियाँ: न्यायिक नियुक्ति आयोग (JAC) योग्यता, पारदर्शिता और विविधता के आधार पर न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। चयन प्रक्रिया राजनीतिक प्रभाव से स्वतंत्र होती है।
  • ऑस्ट्रेलिया: न्यू साउथ वेल्स का न्यायिक आयोग
    • स्वतंत्र निरीक्षण निकाय: न्यू साउथ वेल्स का न्यायिक आयोग (JCNSW) न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतों की जाँच करता है और न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करता है।
    • समय-समय पर निगरानी और निरंतर प्रशिक्षण ईमानदारी की संस्कृति को बढ़ावा देता है।
  • सिंगापुर: ईमानदारी और सख्त अनुशासनात्मक उपाय
    • न्यायिक सत्यनिष्ठा मानक: न्यायाधीश सत्यनिष्ठा बनाए रखने के लिए सख्त आचार संहिता और वित्तीय प्रकटीकरण मानदंडों का पालन करते हैं।
    • सक्रिय दृष्टिकोण से त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित होती है और भ्रष्टाचार को हतोत्साहित किया जाता है।
  • अंतरराष्ट्रीय मानक: बंगलूरू न्यायिक आचरण के सिद्धांत (2002)।
    • मुख्य सिद्धांत: वर्ष 2002 में अपनाए गए सिद्धांत (स्वतंत्रता, निष्पक्षता, अखंडता, औचित्य, समानता, क्षमता) न्यायिक आचरण के लिए एक वैश्विक मानक निर्धारित करते हैं।
    • नैतिक मानकों और अंतरराष्ट्रीय दिशा-निर्देशों का पालन करने को प्रोत्साहित करता है।

न्यायिक भ्रष्टाचार से निपटने के लिए आगे की राह

  • न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण में पारदर्शिता बढ़ाना
    • कॉलेजियम प्रणाली में सुधार: न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए आवश्यक सुरक्षा उपायों के साथ राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के संशोधित संस्करण को पुनर्जीवित करने पर विचार करना। 
    • पारदर्शिता और स्वतंत्रता को संतुलित करने के लिए बाहरी निगरानी को शामिल करते हुए न्यायिक प्रधानता बनाए रखने वाले हाइब्रिड मॉडल का पता लगाना।
  • आंतरिक अनुशासनात्मक तंत्र को मजबूत करना: जाँच प्रक्रिया को पारदर्शी और समयबद्ध बनाना।
    • न्यायिक नैतिकता आयोग का गठन: न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतों की जाँच करने के लिए सशक्त एक स्वतंत्र निकाय।
  • न्यायाधीशों द्वारा अनिवार्य संपत्ति घोषणा लागू करना: न्यायाधीशों द्वारा वार्षिक संपत्ति घोषणा अनिवार्य करें और उन्हें आधिकारिक वेबसाइटों पर प्रकाशित करना।
    • विसंगतियों का पता लगाने के लिए परिसंपत्ति घोषणाओं के स्वतंत्र सत्यापन हेतु एक तंत्र स्थापित करना।
  • न्यायपालिका को सुरक्षा उपायों के साथ लोकपाल के अंतर्गत शामिल करना: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को लोकपाल के दायरे में लाना। 
    • न्यायपालिका को आवश्यक सुरक्षा उपायों के साथ शामिल करने के लिए लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 में संशोधन करना।
  • डिजिटलीकरण और AI आधारित केस प्रबंधन: अदालती रिकॉर्ड तथा केस कार्यवाही का पूर्ण डिजिटलीकरण सुनिश्चित करने के लिए ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना को आगे बढ़ाना।
    • न्यायिक प्रणाली में बाधाओं की पहचान करने और उनका समाधान करने के लिए AI को एकीकृत करके केस प्रबंधन प्रणालियों को मजबूत करना।
  • अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं (AIJS) को पुनर्जीवित और कार्यान्वित करना: अधीनस्थ न्यायपालिका स्तर पर भर्ती के समान मानकों को सुनिश्चित करने और भाई-भतीजावाद को कम करने के लिए AIJS को लागू करना।
  • सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियों और लाभों को सीमित करना: न्यायाधीशों को सरकारी निकायों या आयोगों में सेवानिवृत्ति के बाद के पदों को स्वीकार करने से पहले कम-से-कम 2  वर्ष की अनिवार्य ‘कूलिंग-ऑफ’ अवधि लागू करना।
  • अवमानना ​​सुधार के लिए विधायी ढाँचा प्रस्तुत करना: अवमानना ​​को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने और दुरुपयोग को रोकने के लिए न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971 में संशोधन करना।

निष्कर्ष

न्यायिक भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें स्वतंत्र निगरानी, ​​पारदर्शी प्रक्रियाएँ, मुखबिरों की सुरक्षा और सार्वजनिक भागीदारी शामिल है। अंतरराष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाकर, देश अपनी न्यायिक प्रणाली को मजबूत कर सकते हैं, जनता का विश्वास बढ़ा सकते हैं और निष्पक्ष और कुशल न्याय सुनिश्चित कर सकते हैं। ये प्रथाएँ भारत के लिए मूल्यवान सीख प्रदान करती हैं क्योंकि देश अपनी न्यायपालिका में सुधार कर भ्रष्टाचार से प्रभावी ढंग से निपटना चाहता है।

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