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न्यायिक प्रयोगवाद

Lokesh Pal September 19, 2025 02:49 8 0

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय ने शिवांगी बंसल बनाम साहिल बंसल (2025) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय (2022) द्वारा IPC की धारा 498A (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85) के दुरुपयोग को रोकने के लिए जारी दिशा-निर्देशों को मंजूरी दी।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय (2022) द्वारा जारी मुख्य दिशा-निर्देश

मुकेश बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने IPC की धारा 498A के दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए।

  • ‘कूलिंग पीरियड’: उच्च न्यायालय ने FIR या शिकायत दर्ज होने के बाद जबरन कार्रवाई के लिए दो महीने का ‘कूलिंग पीरियड’ लागू किया है।
  • फैमिली वेलफेयर कमेटी (Family Welfare Committee- FWC): इस दौरान मामला फैमिली वेलफेयर कमेटी (FWC) को भेजा जाता है।
  • चिंता: इससे न्यायिक प्रयोगवाद पर बहस फिर से शुरू हो गई है, क्योंकि ऐसे उपायों का उद्देश्य दुरुपयोग रोकना है, लेकिन इससे पीड़ित को जल्द न्याय मिलने के अधिकार में देरी हो सकती है और कानूनी प्रक्रियाएँ भी प्रभावित हो सकती हैं।

धारा 498A और मौजूदा सुरक्षा उपायों के बारे में

  • उद्देश्य: वर्ष 1983 में महिलाओं को क्रूरता और दहेज संबंधी उत्पीड़न से बचाने के लिए कानून बनाया गया था।
  • गलत प्रयोग संबंधी चिंता: न्यायालयों ने अवलोकित किया कि कुछ लोग बिना वजह FIR दर्ज करवाते हैं और इसका गलत प्रयोग करके पति और ससुराल वालों को परेशान करते हैं।
  • न्यायिक और कानूनी सुरक्षा उपाय पहले से मौजूद हैं।
    • लता कुमारी (2013): घरेलू विवादों में FIR दर्ज करने से पूर्व प्रारंभिक जाँच की अनुमति दी।
    • CrPC संशोधन (2008): गिरफ्तारी के लिए आवश्यकता के सिद्धांत को शामिल किया।
    • अरनेश कुमार (2014): चेकलिस्ट और “उपस्थित होने का नोटिस” के माध्यम से मनमाने ढंग से गिरफ्तारी पर रोक लगाई।
    • सतेंद्र कुमार एंटील (2022): गिरफ्तारी के निर्देशों की अनदेखी करने पर जमानत के अधिकारों को मजबूत किया।
  • प्रभाव
    • सांख्यिकी: NCRB के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016 तक धारा 498A गिरफ्तारी के लिए टॉप 5 अपराधों में शामिल थी, बाद में यह टॉप 10 में रही।
    • वर्ष 2015 में 1,13,403 से बढ़कर वर्ष 2022 में 1,40,019 तक दर्ज अपराधों में वृद्धि के बावजूद, इसी अवधि में गिरफ्तारियों की संख्या 1,87,067 से घटकर 1,45,095 हो गई।
    • इससे पता चलता है कि मौजूदा सुरक्षा उपायों ने पीड़ितों को न्याय मिलने के अधिकार को प्रभावित किए बिना दुरुपयोग को कम कर दिया है।

न्यायिक प्रयोगवाद के बारे में

  • न्यायिक प्रयोगवाद: इसका अर्थ है कि न्यायालय कानून की व्याख्या करने के बजाय, संभावित कमियों को दूर करने के लिए नए तरीके अपनाती हैं।
  • मुख्य विशेषताएँ
    • नया तरीका: ‘कूलिंग-ऑफ पीरियड’ या गैर-कानूनी कमेटियों जैसे उपाय।
    • नीति पर प्रभाव: न्यायपालिका एक तरह से विधायिका का कार्य करती है और विधायिका/कार्यपालिका के क्षेत्र में दखल देती है।
    • परीक्षण और त्रुटि: अगर ऐसे प्रयोग व्यावहारिक या संवैधानिक नहीं पाए जाते हैं तो उन्हें प्रायः वापस लेना पड़ता है।
  • उदाहरण: विशाखा दिशा-निर्देश (1997): कार्यस्थल पर उत्पीड़न के मामले में, यह वर्ष 2013 के POSH अधिनियम तक कानूनी रिक्तता को भरने का कार्य करता रहा।
    • प्रकाश सिंह मामला (2006): पुलिस सुधार के लिए बाध्यकारी निर्देश जारी किए गए।
    • राजेश शर्मा (2017): 498A मामलों के लिए FWC शुरू किए गए, बाद में सोशल एक्शन फोरम (2018) ने इसे खारिज कर दिया।
  • इस मामले में न्यायिक प्रयोगवाद के निहितार्थ
    • सकारात्मक पहलू
      • यह निर्दोष पति/परिवार को गलत गिरफ्तारी से बचाता है।
      • विवाहित विवादों में सुलह को बढ़ावा देता है।
    • नकारात्मक पहलू
      • पीड़ितों को समय पर न्याय और तत्काल सुरक्षा नहीं मिलती।
      • कानूनी प्रक्रियाओं की उपेक्षा करके यह आपराधिक न्याय संस्थाओं को कमजोर करता है।
      • राजेश शर्मा मामले से संबंधित दिशा-निर्देशों जैसे पुराने असफल प्रयोगों को दोहराने का खतरा रहता है।

“कूलिंग पीरियड”

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय (2022): आदेश दिया कि धारा 498A के अंतर्गत प्रत्येक शिकायत को फैमिली वेलफेयर कमेटी (FWC) को भेजा जाए और 2 महीने तक कोई जबरदस्ती वाला कदम न उठाया जाए।
    • इसका उद्देश्य दुरुपयोग रोकना और सुलह को बढ़ावा देना था।
  • सर्वोच्च न्यायालय (2025): शिवांगी बंसल मामले में इन दिशा-निर्देशों को मंजूरी दी और कानूनी कार्रवाई से पहले अनिवार्य ‘कूलिंग पीरियड’ के सिद्धांत को कानूनी मान्यता प्रदान की।

राजेश शर्मा (2017) मामले के दिशा-निर्देशों को सोशल एक्शन फोरम (2018) ने खारिज कर दिया

  • राजेश शर्मा दिशा-निर्देश (2017): किसी भी कार्रवाई से पहले धारा 498A के तहत दर्ज सभी शिकायतों की जाँच के लिए परिवार कल्याण समितियों को अनिवार्य किया गया।
  • सोशल एक्शन फोरम (2018): सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया और पीड़ितों को जल्द न्याय पाने का अधिकार बहाल किया।

न्यायिक प्रयोगवाद की चुनौतियाँ

  • न्याय में देरी: प्रायोगिक तरीकों में प्रायः अतिरिक्त कदम शामिल होते हैं (जैसे- अनिवार्य कूलिंग पीरियड या स्क्रीनिंग कमेटी)।
    • उदाहरण के लिए: पीड़ित को FIR/शिकायत दर्ज करने के बाद भी 2 महीने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है, जिससे उनकी स्थिति और खराब हो जाती है।
  • अधिकार क्षेत्र से बाहर: न्यायालय कभी-कभी कानूनी मंजूरी के बिना ही समाधान तय कर देती हैं, जिससे कानूनी ढाँचे के बाहर समानांतर संरचनाएँ निर्मित होती हैं।
    • उदाहरण के लिए: FWCs को कानूनी समर्थन नहीं मिलता, जिससे उनके अधिकार क्षेत्र और शक्तियों के बारे में अस्पष्टता रहती है।
  • पिछली व्यवस्था से टकराव: न्यायिक प्रयोग पिछली व्यवस्थाओं से टकरा सकते हैं।
    • उदाहरण के लिए: राजेश शर्मा (2017) मामले के दिशा-निर्देशों को प्रगति विरोधी बताया गया और सोशल एक्शन फोरम (2018) में खारिज कर दिया गया।
  • क्रिमिनल जस्टिस एजेंसियों की क्षमता कम होती है: गैर-कानूनी जाँच रिपोर्ट लगाकर न्यायालय पुलिस, मजिस्ट्रेट और सरकारी एजेंसियों की स्वतंत्रता को सीमित करते हैं।
  • मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव: पीड़ितों को लंबे समय तक परेशान किया जाता है, उन्हें त्वरित सुरक्षा नहीं मिलती और न्याय प्रणाली पर उनका विश्वास कम हो जाता है।
  • प्रभावित पक्षों में मतभेद: कुछ प्रयोग एक समूह को तो प्रसन्न कर सकते हैं (जैसे- आरोपी पक्षों द्वारा कानून के दुरुपयोग को रोकना), लेकिन दूसरे समूह (पीड़ित, कार्यकर्ता) को असंतुष्ट  कर सकते हैं।
    • इससे न्यायिक निर्देशों की वैधता पर सवाल उठते हैं।

आगे की राह

  • फैसले पर पुनर्विचार: सर्वोच्च न्यायालय को सोशल एक्शन फोरम (2018) के आलोक में पुनर्विचार करना चाहिए, जिसने पीड़ितों के त्वरित न्याय के अधिकार को बहाल किया।
  • विधायी स्पष्टता: किसी भी सुलह तंत्र को कानूनी रूप से लागू किया जाना चाहिए, न्यायिक रूप से थोपा नहीं जाना चाहिए।
  • मौजूदा सुरक्षा उपायों को मजबूत करना: पुलिस प्रशिक्षण के माध्यम से अर्नेश कुमार मामले के निर्देशों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना।
  • स्वैच्छिक मध्यस्थता को प्रोत्साहित करना: मुकदमे-पूर्व मध्यस्थता को बढ़ावा दिया जा सकता है, लेकिन केवल एक विकल्प के रूप में, अनिवार्यता के रूप में नहीं।
  • आँकड़ों पर आधारित नीति: NCRB के आँकड़े बताते हैं कि गिरफ्तारियाँ पहले ही कम हो रही हैं, इसलिए अतिरिक्त बाधाएँ अनावश्यक हैं।

निष्कर्ष

न्यायिक प्रणाली को नवाचार और संयम के मध्य संतुलन बनाए रखना चाहिए। धारा 498A के दुरुपयोग की रोकथाम एक वैध चिंता है, किंतु न्याय में विलंब, न्याय से वंचित करने के समान है। न्यायिक व्याख्या को विधायिका की इच्छा का पूरक होना चाहिए, उसका विकल्प नहीं।

  • त्वरित न्याय तक पहुँच संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत एक संवैधानिक गारंटी है और किसी भी नए बदलाव से यह सुनिश्चित होना चाहिए कि पीड़ित को न्याय मिलने का अधिकार प्रभावित न हो।

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