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न्यायपालिका की भूमिका: सिद्धांत या लोकप्रियता

Lokesh Pal September 10, 2025 02:40 9 0

संदर्भ

उमर खालिद मामले (2025) में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (UAPA) के तहत जमानत याचिका अस्वीकार किए जाने से यह बहस पुनर्जीवित हुई है कि क्या न्यायपालिका को प्रबल जनभावनाओं के बीच भी संवैधानिक सिद्धांतों की रक्षा करनी चाहिए।

  • न्यायालयों पर प्रायः राजनीतिक टिप्पणियों, सोशल मीडिया पर आक्रोश और जनभावनाओं का दबाव रहता है, लेकिन उनकी असली परीक्षा लोकलुभावनवाद के बजाय संवैधानिक नैतिकता की रक्षा करने में है।

संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित न्यायपालिका की भूमिका

  1. संवैधानिक संरक्षक: न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा के माध्यम से संवैधानिक सर्वोच्चता को बनाए रखने का कार्य सौंपा गया था।
    • उदाहरण: केशवानंद भारती (1973) ने ‘मूल संरचना सिद्धांत’ की रक्षा की।
  2. मौलिक अधिकारों के रक्षक: नागरिकों को अधिकारों के प्रवर्तन के लिए सीधे न्यायालयों का रुख करने का अधिकार दिया गया।
    • उदाहरण: अंबेडकर ने अनुच्छेद-32 को ‘संविधान का हृदय और आत्मा’ कहा।
  3. स्वतंत्र मध्यस्थ: राजनीतिक हस्तक्षेप से अलगाव ने निष्पक्षता सुनिश्चित की।
    • उदाहरण: न्यायाधीशों को अनुच्छेद-124 और 217 के तहत कार्यकाल की सुरक्षा और निश्चित वेतन प्राप्त होता है।
  4. बहुसंख्यक विरोधी भूमिका: अल्पसंख्यकों को हानि पहुँचाने वाले बहुसंख्यकवादी आवेगों को रोकने के लिए डिजाइन किया गया।
    • उदाहरण: हाजी अली दरगाह (वर्ष 2016) और सबरीमाला (वर्ष 2018) में महिलाओं पर लगे प्रतिबंधों को हटाना।
  5. शक्ति संतुलन: न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायी निरंकुशताओं पर नियंत्रण का काम करती है।
    • उदाहरण: इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (वर्ष 1975) मामले में इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया गया था।

कॉन्सेप्ट बॉक्स

सिद्धांत

  • सिद्धांत संविधान में निहित मूलभूत, स्थायी मूल्य हैं, जैसे स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व।
  • ये न्यायपालिका के लिए नैतिक और कानूनी दिशासूचक के रूप में कार्य करते हैं, और अल्पकालिक दबावों से परे निर्णयों का मार्गदर्शन करते हैं।
  • ये अद्वितीय मानक हैं जो बहुमत की इच्छा के विरुद्ध भी अधिकारों और लोकतंत्र की रक्षा करते हैं।

लोकप्रियता

  • लोकप्रियता किसी निश्चित समय पर सामूहिक जनभावना, भावना या बहुमत की राय को दर्शाती है।
  • यह प्रायः राजनीति, मीडिया के आख्यानों या सामाजिक आंदोलनों से प्रभावित होती है।
  • हालाँकि यह स्वीकृति और सामाजिक वैधता सुनिश्चित कर सकती है, लेकिन यह अस्थिर और बहिष्कारकारी भी हो सकती है।

लोकप्रियता बनाम सिद्धांत के उदाहरण

  1. सबरीमाला मामला (2018)
    • सिद्धांत: सर्वोच्च न्यायालय ने समानता और गैर-भेदभाव के आधार पर महिलाओं के पूजा-अर्चना के अधिकार को बरकरार रखा।
    • लोकप्रियता: केरल में व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि जनभावना महिलाओं के प्रवेश के विरुद्ध थी।
  2. धारा 66A निरस्त – श्रेया सिंघल (2015)
    • सिद्धांत: न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बरकरार रखा और इस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित किया।
    • लोकप्रियता: इस धारा को अधिकारियों और कुछ जन समूहों का प्रबल समर्थन प्राप्त था, जो ‘आपत्तिजनक’ भाषण पर अंकुश लगाना चाहते थे।
  3. तीन तलाक निर्णय (2017)
    • सिद्धांत: न्यायालय ने तत्काल तीन तलाक को असंवैधानिक करार देते हुए लैंगिक न्याय सुनिश्चित किया।
    • लोकप्रियता: महिला समूहों और जनमत द्वारा व्यापक रूप से स्वागत किया गया, जो सिद्धांत और लोकप्रियता के अभिसरण को दर्शाता है।
  4. समलैंगिकता का गैर-अपराधीकरण – नवतेज जौहर (2018)
    • सिद्धांत: न्यायालय ने LGBTQ+ समुदाय की गरिमा और समानता को बरकरार रखा।
    • लोकप्रियता: रूढ़िवादी समूहों से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, हालाँकि बाद में शहरी क्षेत्रों में इसका व्यापक रूप से स्वागत किया गया।

लोकप्रिय भावनाओं पर विचार करने के पक्ष में तर्क

  1. लोकतांत्रिक जवाबदेही: अदालतें जनता की संप्रभु इच्छा से अलग नहीं दिख सकतीं।
    • उदाहरण: तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करना (2017) लैंगिक न्याय की व्यापक माँगों के अनुरूप था।
  2. कानूनों की सामाजिक वैधता: निर्णयों को तभी स्वीकृति मिलती है, जब वे जनचेतना के अनुरूप हों।
    • उदाहरण: नवतेज जौहर (2018) मामले में समलैंगिकता को अपराधमुक्त करने की व्यापक रूप से सराहना की गई।
  3. संस्थागत विश्वास: सामाजिक भावनाओं के प्रति संवेदनशीलता नागरिकों के अलगाव को रोकती है।
    • उदाहरण: इंद्रा साहनी (1992) मामले में आरक्षण नीतियों को बरकरार रखा गया, जिससे सामाजिक न्याय में जनता का विश्वास बना रहा।
  4. व्यावहारिक स्वीकृति: क्रमिक समायोजन निर्णयों के सुचारू प्रवर्तन को सुनिश्चित करता है।
    • उदाहरण: प्रतिक्रिया से बचने के लिए OBC आरक्षण का विस्तार चरणों में किया गया।
  5. लोकतांत्रिक स्थिरता: लोकप्रिय रूप से स्वीकार्य निर्णय अशांति की संभावना को कम करते हैं।
    • उदाहरण: अयोध्या मामले के निर्णय (2019) ने शांति बनाए रखते हुए कानूनी सिद्धांतों के साथ आस्था को संतुलित किया।

लोकप्रिय भावनाओं के आगे झुकने के विरुद्ध तर्क

  1. संविधान की सर्वोच्चता: न्यायपालिका की वैधता कानून से आती है, जनता की स्वीकृति से नहीं।
    • उदाहरण: केशवानंद भारती (1973) ने राजनीतिक विरोध के बावजूद संवैधानिक सीमाओं को बरकरार रखा।
  2. अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा: न्यायालयों को बहुमत की राय के विरुद्ध कमजोर समूहों की रक्षा करनी चाहिए।
    • उदाहरण: नवतेज जौहर मामले के निर्णय (2018) ने रूढ़िवादी प्रतिरोध के बावजूद LGBTQ+ अधिकारों की रक्षा की।
  3. बहुमत के अत्याचार को रोकना: अनियंत्रित लोकलुभावनवाद बहुलवाद को नष्ट कर सकता है।
    • उदाहरण: बिजो इमैनुएल (1986) ने राष्ट्रवादी बहुसंख्यकवादी माँगों के विरुद्ध यहोवा के साक्षी छात्रों के अधिकारों का समर्थन किया।
  4. भीड़ के दबाव पर कानून का शासन: निर्णय कानून पर आधारित होने चाहिए, न कि भावनाओं या हैशटैग पर।
    • उदाहरण: श्रेया सिंघल मामले (2015) में अधिकारियों के बीच इसकी लोकप्रियता के बावजूद धारा 66A को रद्द कर दिया गया।
  5. दीर्घकालिक संवैधानिक दृष्टि: सिद्धांत अस्थायी भावनाओं से परे भी स्थायी होते हैं।
    • उदाहरण: पुट्टास्वामी मामले (2017) ने डिजिटल युग की चुनौतियों का अनुमान लगाते हुए गोपनीयता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी।

संतुलन बनाए रखने में चुनौतियाँ

  1. मीडिया और सोशल मीडिया का दबाव: तात्कालिक आक्रोश अप्रत्यक्ष रूप से धारणाओं को प्रभावित कर सकता है।
    • उदाहरण: निर्भया मामले (2012) के दौरान तीव्र सोशल मीडिया अभियान।
  2. कानूनी मुद्दों का राजनीतीकरण: राजनीतिक ढाँचे में प्रायः निर्णयों को पक्षपातपूर्ण रूप में चित्रित किया जाता है।
    • उदाहरण: जकिया जाफरी मामले (2022) ने राजनीतिक व्याख्याओं को आकर्षित किया।
  3. विशेष कानूनों की जटिलता: UAPA जैसे सुरक्षा कानून स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन की माँग करते हैं।
    • उदाहरण: उमर खालिद की जमानत याचिका (2025) ने इस दुविधा को रेखांकित किया।
  4. प्रतिकूल परिस्थितियों में जनता का अविश्वास।
  5. परिणाम: जब निर्णय जनभावना के विपरीत होते हैं, तो न्यायपालिका आलोचना का जोखिम उठाती है।
    • उदाहरण: सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले (2018) में बरी होने के कारण पक्षपात के आरोप लगे।
  6. सैद्धांतिक अस्पष्टता: असंगत न्यायिक दर्शन मनमानी का कारण बन सकता है।
    • उदाहरण: पदोन्नति में आरक्षण के मामलों में परस्पर विरोधी व्याख्याएँ।

आगे की राह

  1. संवैधानिक नैतिकता पर जोर देना: अदालतों को बहुसंख्यकवादी आवेगों के स्थान पर मूल्यों को बनाए रखना चाहिए।
    • उदाहरण: अंबेडकर का यह स्मरण कि संवैधानिक नैतिकता को विकसित किया जाना चाहिए।
  2. न्यायिक तर्क को मजबूत करना: स्पष्ट और तर्कसंगत निर्णय व्याख्या को स्पष्ट करते हैं।
    • उदाहरण: अयोध्या फैसले (2019) में विस्तृत तर्क।
  3. कानूनी साक्षरता को बढ़ावा देना: संवैधानिक मूल्यों के बारे में जन जागरूकता भीड़ की भावनाओं का मुकाबला करती है।
    • उदाहरण: NCERT नागरिक शास्त्र पाठ्यक्रम के माध्यम से लोगों तक पहुँच।
  4. संस्थागत लचीलापन: पारदर्शी कॉलेजियम प्रक्रिया जैसे सुरक्षा उपाय स्वतंत्रता को मजबूत करते हैं।
    • उदाहरण: द्वितीय न्यायाधीश मामले (1993) ने न्यायिक नियुक्तियों की स्वतंत्रता को मजबूत किया।
  5. संवेदनशीलता के साथ संतुलन: सिद्धांतों को कायम रखते हुए, अदालतें सहज स्वीकृति के लिए सुधारों को चरणबद्ध तरीके से लागू कर सकती हैं।
    • उदाहरण: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा GST की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखने के बाद इसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया गया।

निष्कर्ष

न्यायपालिका को संवैधानिक सिद्धांतों से अधिकार प्राप्त होता है, न कि जन-लोकप्रियता से। सामाजिक भावनाओं के प्रति संवेदनशीलता वैधता सुनिश्चित करती है, लेकिन लोकलुभावनवाद के आगे झुकने से अल्पसंख्यकों के अधिकार, संवैधानिक नैतिकता और विधि के शासन को नुकसान पहुँचने का खतरा रहता है।

  • जैसा कि अंबेडकर ने चेतावनी दी थी, लोकतंत्र संस्थागत नैतिकता पर टिका रहता है, क्षणिक भावनाओं पर नहीं। इसलिए, लोकप्रियता के बावजूद सिद्धांतों को कायम रखना भारत के संवैधानिक लोकतंत्र की रक्षा में न्यायपालिका की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।

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