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विधानमंडलों द्वारा कानून निर्माण न्यायालय की अवमानना ​​नहीं है: सर्वोच्च न्यायालय

Lokesh Pal June 05, 2025 03:40 84 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने नंदिनी सुंदर एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में निर्णय दिया कि कानून निर्माणकारी विधानमंडलों को अवमानना ​​का दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जिससे शक्तियों के संवैधानिक पृथक्करण की पुष्टि होती है।

महत्त्वपूर्ण बिंदु 

  • यह टिप्पणी छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 के विरुद्ध दायर वर्ष 2012 की अवमानना ​​याचिका का निपटारा करते समय की गई, जिसने सर्वोच्च न्यायालय के पहले के निर्देशों के बावजूद विशेष पुलिस अधिकारियों (SPOs) को नियमित कर दिया।
  • छत्तीसगढ़ में संचालित हिंसा को स्वीकार करते हुए, न्यायालय ने राज्य एवं केंद्र सरकार दोनों से शांति तथा पुनर्वास के लिए ठोस कदम उठाने का आग्रह किया।
  • इस आदेश में संविधान के अनुच्छेद-355 का हवाला दिया गया, जिसमें प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा एवं स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए सरकारों के कर्तव्य पर जोर दिया गया।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की मुख्य विशेषताएँ

  • न्यायालय ने कहा कि राज्य विधानसभाओं के पास कानून बनाने की पूर्ण शक्तियाँ हैं एवं जब तक कोई कानून असंवैधानिक घोषित नहीं किया जाता, तब तक वह वैध तथा लागू रहता है।
  • न्यायालय के आदेश से पहले या बाद में कानून पारित करना न्यायालय की अवमानना ​​नहीं है, भले ही वह कानून न्यायिक निर्देश के विरुद्ध प्रतीत होता हो।
  • यदि कोई कानून असंवैधानिक है तो सही प्रक्रिया यह है कि उसे संवैधानिक न्यायालय में चुनौती दी जाए ताकि कानूनों की संवैधानिकता या विधायी क्षमता की जाँच की जा सके।
  • न्यायालय ने शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर जोर देते हुए कहा कि विधायिकाओं को न्यायिक निर्णयों के जवाब में भी कानून बनाने, संशोधित करने या निरस्त करने का अधिकार है।
    • यह सिद्धांत भारत जैसे संवैधानिक लोकतंत्र में आवश्यक ‘जाँच एवं संतुलन’ प्रक्रिया का हिस्सा है।

भारतीय संविधान में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के बारे में

  • शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत सरकार के उत्तरदायित्व को तीन अलग-अलग शाखाओं, विधानमंडल, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में विभाजित करने को संदर्भित करता है, यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी शाखा अपने अधिकार का अतिक्रमण न करे।
  • संवैधानिक आधार
    • अनुच्छेद-50 (DPSP): राज्य को राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने का निर्देश देता है।
    • अनुच्छेद-121 एवं 211: न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए विधायिकाओं (संसद एवं राज्य विधानमंडल) को न्यायिक आचरण पर चर्चा करने से रोकता है।
    • अनुच्छेद-122 एवं 212: संसदीय विशेषाधिकार को संरक्षित करते हुए न्यायालय को संसद एवं राज्य विधानमंडल की विधायी कार्यवाही की जाँच करने से रोकता है।
    • अनुच्छेद-245-255: संसद एवं राज्य विधानमंडलों की विधायी शक्तियों को परिभाषित करता है।
    • अनुच्छेद-13 एवं अनुच्छेद-32/226: न्यायपालिका को कानून की न्यायिक समीक्षा करने एवं असंवैधानिक कानूनों को निरस्त करने का अधिकार देना, जाँच तथा संतुलन सुनिश्चित करना।
  • भारतीय न्यायालयों ने माना है कि पूर्ण अलगाव संभव नहीं है, लेकिन जाँच एवं संतुलन की व्यवस्था होनी चाहिए।
    • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (वर्ष 1973) में, शक्तियों के पृथक्करण को मूल संरचना सिद्धांत के हिस्से के रूप में मान्यता दी गई थी।

निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि विधायी कार्य अलग-अलग हैं एवं संविधान के तहत संरक्षित हैं। किसी कानून को पारित करना अवमानना ​​के बराबर नहीं माना जा सकता। इसकी उचित कानूनी मार्गों के माध्यम से संवैधानिक वैधता तथा विधायी क्षमता के आधार पर जाँच की जानी चाहिए।

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