हाल ही में भारत के पहले भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल ने अपनी स्थापना के बाद से अपनी सीमित उत्पादकता को दर्शाने वाले आँकड़े उजागर किए।
लोकपाल
लोकपाल एक राष्ट्रीय स्तर की भ्रष्टाचार विरोधी संस्था है, जिसकी स्थापना सरकारी अधिकारियों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच और उन पर मुकदमा चलाने के लिए की गई है।
यह मंत्रियों और सरकारी कर्मचारियों के बीच जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक स्वतंत्र निकाय के रूप में कार्य करता है।
स्थापना: वर्ष 2013 में पारित लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम वर्ष 2014 में लागू हुआ।
हालाँकि, पहले लोकपाल, न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष को लगभग पाँच वर्षों की देरी के बाद वर्ष 2019 में ही नियुक्त किया गया था।
अधिनियम राज्य स्तर पर लोकायुक्तों की स्थापना को अनिवार्य बनाता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: इसकी स्थापना विभिन्न समितियों और आयोगों, जैसे कि प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (1966) और द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2005) की सिफारिशों के बाद हुई है।
लोकपाल की संरचना
लोकपाल में एक अध्यक्ष और अधिकतम आठ सदस्य होते हैं, जिनमें से कम-से-कम 50% न्यायिक सदस्य होते हैं।
सदस्यों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक और महिलाओं के प्रतिनिधि शामिल होने चाहिए।
चयन समिति में प्रधानमंत्री (अध्यक्ष), लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश या नामित न्यायाधीश और एक प्रतिष्ठित न्यायविद शामिल होते हैं।
लोकपाल की कम उत्पादकता
सीमित मामलों को सँभाला गया
इसकी स्थापना के बाद से केवल 24 जाँचों का आदेश दिया गया और छह अभियोजन प्रतिबंध दिए गए।
90% से अधिक शिकायतें गलत प्रारूप या प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के अनुपालन की कमी के कारण खारिज कर दी गईं।
प्राप्त शिकायतें
अप्रैल से दिसंबर 2024 तक 226 शिकायतें दर्ज की गईं।
3% शिकायतें प्रधानमंत्री या केंद्रीय मंत्रियों के विरुद्ध, 21% शिकायतें ग्रुप A-D केंद्र सरकार के अधिकारियों के खिलाफ और 41% शिकायतें राज्य के अधिकारियों सहित “अन्य” के विरुद्ध थीं।
लोकपाल की कम उत्पादकता के कारक
विलंबित नियुक्ति: पहला लोकपाल अधिनियम के क्रियान्वयन के पाँच वर्ष बाद नियुक्त किया गया था।
अन्य एजेंसियों पर निर्भरता: आंतरिक जाँच तंत्र की अनुपस्थिति के कारण यह जाँच, केंद्रीय सतर्कता आयोग (Central Vigilance Commission-CVC) और केंद्रीय जाँच ब्यूरो (Central Bureau of Investigation-CBI) पर निर्भर करती है।
संरचनात्मक सीमाएँ: वित्तीय और प्रशासनिक स्वतंत्रता की अनुपस्थिति इसकी कार्यात्मक प्रभावकारिता को कम करती है।
शिकायतों की विषय-वस्तु की अपेक्षा उनके प्रारूप पर अधिक जोर देने से अस्वीकृति दर अधिक हो जाती है।
विधायी चुनौतियाँ: लोक सेवकों के विरुद्ध स्वतंत्र रूप से जाँच शुरू करने की शक्ति का अभाव।
शिकायत दर्ज करने के लिए 7 वर्ष की अवधि और झूठी शिकायतों के लिए कठोर दंड जैसी सीमाएँ रिपोर्टिंग को रोकती हैं।
अपर्याप्त समन्वय: राज्य लोकायुक्तों और अन्य विकेंद्रीकृत भ्रष्टाचार विरोधी निकायों के साथ कमजोर सहयोग।
आगे की राह
कार्यात्मक स्वायत्तता को बढ़ावा देना: अन्य एजेंसियों पर निर्भरता कम करने के लिए लोकपाल की वित्तीय, प्रशासनिक और परिचालन स्वतंत्रता सुनिश्चित करना।
शिकायत प्रक्रियाओं को सरल बनाना: शिकायत प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को सरल बनाना ताकि प्रारूप के बजाय विषय-वस्तु पर ध्यान केंद्रित किया जा सके।
रिक्तियों को भरना: जाँच निदेशक और अभियोजन निदेशक जैसे प्रमुख कर्मियों की नियुक्ति में तेजी लाना।
राज्य समन्वय को मजबूत बनाना: देश भर में भ्रष्टाचार विरोधी तंत्र को सुसंगत बनाने के लिए राज्य लोकायुक्त अधिनियमों को लोकपाल अधिनियम के साथ संरेखित करना।
सार्वजनिक जागरूकता: भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए लोकपाल की भूमिका और प्रक्रियाओं के बारे में नागरिकों को शिक्षित करने के लिए अभियान संचालित करना।
तकनीकी एकीकरण: बेहतर शिकायत ट्रैकिंग, जाँच निगरानी और परिचालन पारदर्शिता के लिए डिजिटल उपकरणों का लाभ उठाना।
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