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भारत में मानसून का आगमन

Lokesh Pal May 29, 2025 02:36 43 0

संदर्भ

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, दक्षिण-पश्चिम मानसून ने 1 जून की अपनी सामान्य अनुमानित तिथि से आठ दिन पहले 24 मई को केरल में दस्तक दे दी।

संबंधित तथ्य

  • इससे पहले ऐसा वर्ष 2009 में हुआ था, जब मानसून ने इतनी जल्दी (23 मई) केरल में दस्तक दी थी।
  • IMD के पूर्वानुमान के अनुसार, पूरे देश में मौसमी वर्षा दीर्घावधि औसत (Long Period Average- LPA) का 106% होने की संभावना है, जो मानसून के मौसम में सामान्य से अधिक वर्षा की उच्च संभावना को दर्शाता है।

‘मानसून का आगमन’ (Onset of Monsoon) का अर्थ

  • मानसून ऋतु की शुरुआत: मानसून की शुरुआत (जून-सितंबर) भारतीय उपमहाद्वीप पर दक्षिण-पश्चिम मानसून के आगमन का प्रतीक है।
    • यह तब होता है, जब मानसूनी पवनें भारत के सबसे दक्षिणी राज्य केरल तक पहुँचती हैं।
  • शुरुआती महीने: यह आगमन आमतौर पर मई के अंत या जून की शुरुआत में होता है।
  • वार्षिक वर्षा: दक्षिण-पश्चिम मानसून भारत की वार्षिक वर्षा का 70% से अधिक प्रदान करता है।
    • यह कृषि, जल संसाधन और समग्र आर्थिक कल्याण के लिए महत्त्वपूर्ण है।

मानसून की उत्तरी सीमा (Northern Limit of Monsoon- NLM)

  • किसी दिन मानसून की सबसे उत्तरी दिशा में प्रगति को दर्शाने वाली काल्पनिक रेखा को मानसून की उत्तरी सीमा (NLM) कहा जाता है।

मानसून के बारे में

  • ‘मानसून’ शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ ‘मौसम’ है।
  • यह वायु की दिशा में मौसमी परिवर्तन के साथ-साथ वर्षा के पैटर्न में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को संदर्भित करता है।
  • भारतीय मानसून की विशेषता दो अलग-अलग चरणों से होती है:-
    • दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून-सितंबर): प्रमुख वर्षा ऋतु।
    • उत्तर-पूर्व मानसून (अक्टूबर-दिसंबर): तमिलनाडु और आस-पास के क्षेत्रों को प्रभावित करता है।

दक्षिण-पश्चिम मानसून के गठन को प्रभावित करने वाले कारक

  • विभेदक तापन और शीतलन (Differential Heating and Cooling)
    • स्थल-जल विरोधाभास: स्थल और जल के मध्य तापमान में भिन्नता के कारण भारतीय भू-भाग पर निम्न दाब तथा आसपास के समुद्रों पर उच्च दाब उत्पन्न होता है।
  • अंतर उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (Inter Tropical Convergence Zone- ITCZ) की स्थिति 
    • ग्रीष्मकालीन चरण: ग्रीष्मकाल के दौरान, ITCZ गंगा के मैदानी क्षेत्र में विस्तृत हो जाता है, जो सामान्यतः भूमध्य रेखा से लगभग 5° उत्तर में स्थित होता है।
    • इस क्षेत्र को मानसून गर्त भी कहा जाता है, जो मानसून गठन की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।

  • हिंद महासागर पर उच्च दाब क्षेत्र
    • मेडागास्कर के पूर्व में: हिंद महासागर में लगभग 20°S पर मेडागास्कर के पूर्व में एक उच्च दाब क्षेत्र मौजूद रहता है।
      • इस क्षेत्र की तीव्रता एवं स्थिति भारतीय मानसून को प्रभावित करती है।

  • तिब्बती पठार का गर्म होना: तिब्बत का पठार गर्मियों के दौरान बहुत गर्म हो जाता है, जिससे तीव्र ऊर्ध्वाधर पवनों का निर्माण होता हैं और समुद्र तल से लगभग 9 किमी. ऊपर निम्न दाब क्षेत्र का निर्मित होता है।
  • जेट स्ट्रीम का प्रभाव
    • पश्चिमी जेट स्ट्रीम: हिमालय के उत्तर में पश्चिमी जेट स्ट्रीम की गति मानसून के निर्माण को प्रभावित करती है।
    • उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम: गर्मियों के दौरान भारतीय प्रायद्वीप पर उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम की उपस्थिति मानसून के पैटर्न को प्रभावित करती है।
  • दक्षिणी दोलन (Southern Oscillation)
    • दाब पैटर्न में बदलाव: सामान्यतः उष्णकटिबंधीय दक्षिण-पूर्वी प्रशांत महासागर में उच्च दाब तथा पूर्वी हिंद महासागर में निम्न दाब होता है।
      • हालाँकि, कुछ वर्षों में, यह पैटर्न उलट जाता है, जिसे दक्षिणी दोलन (SO) के रूप में जाना जाता है।
  • हिंद महासागर द्विध्रुव (Indian Ocean Dipole-IOD)
    • सकारात्मक IOD: पश्चिमी हिंद महासागर का गर्म होना वर्षा को बढ़ाता है।
    • नकारात्मक IOD: पश्चिमी हिंद महासागर का ठंडा होना, वर्षा में अवरोध उत्पन्न करता है।
  • स्थानीय कारक: शहरीकरण एवं वनों की कटाई से जलवायु परिवर्तन होता है, जिससे वर्षा वितरण प्रभावित होता है।

वर्ष 2025 में मानसून के जल्दी आने के कारण

  • सक्रिय मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन (Madden Julian Oscillation- MJO): MJO सक्रिय चरण (चरण 4) में था, जिसका आयाम >1 था, जिससे हिंद महासागर के ऊपर संवहन में वृद्धि हुई तथा मानसून-पूर्व बादलों के निर्माण में तेजी आई।
    • इसने केरल और पश्चिमी तट पर समय से पूर्व वर्षा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
  • मजबूत ‘क्रॉस-इक्वेटोरियल फ्लो’ और सोमाली जेट (Cross-Equatorial Flow and Somali Jet): दक्षिणी हिंद महासागर से असामान्य रूप से मजबूत निम्न-स्तरीय जेट धाराओं ने अरब सागर में नमी युक्त पवनों की बड़ी मात्रा का निर्माण किया।
    • इससे दक्षिण-पश्चिमी प्रवाह तीव्र हो गया और मानसून का अग्रभाग तेजी से उत्तर की ओर बढ़ गया।
  • अरब सागर पर मानसून पूर्व उष्णता: पाकिस्तान और आस-पास के क्षेत्रों में शुरुआती मौसम में निम्न दाब तंत्र विकसित होना।
    • इसने मानसून गर्त में नम पवन के लिए एक ‘सक्शन डिवाइस’ के रूप में कार्य किया तथा तटीय एवं प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में मानसून-पूर्व वर्षा को सक्रिय किया।
  • मानसून गर्त: यह एक लंबा निम्न दाब युक्त क्षेत्र है, जो निम्न ताप से लेकर बंगाल की खाड़ी के उत्तरी भाग तक फैला हुआ है।
    • इस गर्त के उत्तर-दक्षिण दिशा में घूर्णन से जून-सितंबर की अवधि में मुख्य मानसून क्षेत्र में वर्षा होती है।
  • मस्कारेन हाई (Mascarene High) में वृद्धि: मस्कारेन द्वीपसमूह के निकट सामान्य से अधिक प्रबल उच्च दाब प्रणाली के कारण भारत की ओर एक मजबूत दक्षिण-पश्चिमी प्रवाह उत्पन्न हुआ, जिससे दक्षिणी तट पर मानसून का समय से पूर्व आगमन संभव हो सका।
  • संवहन में वृद्धि: संवहनीय गतिविधियों में वृद्धि, अर्थात् वायुमंडल में ऊष्मा एवं नमी का ऊर्ध्वाधर परिवहन, भी वर्षा लाता है।
    • उदाहरण के लिए, हरियाणा के ऊपर एक संवहनीय प्रणाली हाल ही में दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ी और दिल्ली क्षेत्र में वर्षा हुई।
  • पश्चिमी हिमालय पर कम हिमपात: मार्च-अप्रैल 2025 में पश्चिमी हिमालय पर कम बर्फ के आवरण के कारण उपमहाद्वीप में तापमान में वृद्धि होगी।
    • इससे स्थल-समुद्र तापीय विषमता बढ़ गई तथा उत्तर-पश्चिम भारत पर निम्न दाब का क्षेत्र मजबूत हो गया।
  • तटस्थ ENSO स्थितियाँ: न तो अल नीनो और न ही ला नीना सक्रिय था।
    • तटस्थ ENSO चरण ने मानसून धाराओं के स्थिर और निर्बाध विकास को समर्थन दिया।
  • तटस्थ हिंद महासागर द्विध्रुव (IOD): IOD तटस्थ चरण में रहा, जिसने भूमध्यरेखीय हिंद महासागर में SST प्रवणता को बाधित नहीं किया, जिससे मानसून की सुचारू प्रगति सुनिश्चित हुई।
  • गर्म समुद्री सतह तापमान (SST): अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में सामान्य से अधिक समुद्र तल से तापमान में वृद्धि के कारण अतिरिक्त गुप्त ऊष्मा उत्पन्न हुई, जिससे संवहन को बढ़ावा मिला और मानसून की प्रारंभिक गतिशीलता में तेजी आई।

अल नीनो-दक्षिणी दोलन (ENSO) के बारे में

  • अल नीनो-दक्षिणी दोलन (ENSO) एक युग्मित महासागर-वायुमंडल घटना है, जो उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में उत्पन्न होती है।
  • इसमें दो प्रमुख चरण शामिल हैं:-
    • अल नीनो: भूमध्यरेखीय पूर्वी प्रशांत महासागर का असामान्य रूप से गर्म होना।
    • ला नीना: उसी क्षेत्र का असामान्य रूप से ठंडा होना।

हिंद महासागर द्विध्रुव (Indian Ocean Dipole- IOD) के बारे में

  • यह भूमध्यरेखीय हिंद महासागर में महासागर-वायुमंडल की परस्पर क्रिया की घटना है, जो ENSO के समान है, लेकिन हिंद महासागर बेसिन के लिए विशिष्ट है।
  • इसकी विशेषता समुद्र की सतह के तापमान (SST) में अंतर के बीच है:
    • पश्चिमी हिंद महासागर (पूर्वी अफ्रीका के तट से दूर)।
    • दक्षिण-पूर्वी हिंद महासागर (इंडोनेशिया और सुमात्रा के पास)।

मस्कारेन हाई (Mascarene High) के बारे में

  • मस्कारेन हाई एक उच्च दाब युक्त क्षेत्र है, जो मानसून अवधि के दौरान मस्कारेन द्वीप (दक्षिण हिंद महासागर में) के आस-पास पाया जाता है।
  • यह दक्षिणी अरब सागर के माध्यम से भूमध्यरेखीय प्रवाह के लिए जिम्मेदार है और यह दक्षिणी गोलार्द्ध लिंकेज के रूप में कार्य करता है।

दक्षिणी दोलन (Southern Oscillation- SO) के बारे में

  • दक्षिणी दोलन (SO) पूर्वी एवं पश्चिमी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर के बीच एक बड़े पैमाने पर वायुमंडलीय दाब दोलन है।
  • यह वायुदाब के उतार-चढ़ाव पैटर्न को दर्शाता है:
    • ताहिती (पूर्वी प्रशांत में) और डार्विन (उत्तरी ऑस्ट्रेलिया, पश्चिमी प्रशांत में) के बीच

सोमाली जेट के बारे में

  • सोमाली जेट एक निम्न-स्तरीय जेट स्ट्रीम (पवन का एक अंतर-गोलार्द्ध, क्रॉस-भूमध्यरेखीय प्रवाह) है, जो अफ्रीका के पूर्वी तट पर निर्मित होता है और दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान जेट गति (लगभग 50-60 किमी/घंटा) तक पहुँच जाता है।
  • उत्पत्ति: मॉरीशस और मेडागास्कर के उत्तरी भाग के पास।
    • केन्या, इथियोपिया और सोमालिया से होकर गुजरता है।
    • मई में अरब सागर में प्रवेश करता है और जून तक भारत के पश्चिमी तट तक पहुँचता है।

मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन (Madden Julian Oscillation-MJO) क्या है?

  • MJO वायुमंडलीय दाब, पवन और संवहन से संबंधित एक उष्णकटिबंधीय अंतर-मौसमी दोलन है।
  • इस घटना का नाम उन दो वैज्ञानिकों (रोलांड मैडेन और पॉल जूलियन) के नाम पर रखा गया है जिन्होंने वर्ष 1971 में इसकी पहचान की थी, जो उस समय कोलोराडो के बोल्डर में नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च में कार्य करते थे।
  • वर्षा प्रभाव: इसके सक्रिय चरण के दौरान सामान्य से अधिक वर्षा हो सकती है। एक मानसून सत्र में कई MJO घटनाएँ घटित हो सकती हैं।

MJO की संरचना

  • संवहनीय (नम) चरण: बादल छाए रहना और वर्षा में वृद्धि।
  • दाबित (शुष्क) चरण: बादल छाए रहना और वर्षा में कमी।

रियल टाइम मल्टीवेरिएट (Real Time Multivariate- RMM) इंडेक्स

  • MJO को 8 चरणों में विभाजित किया गया है, जिनमें से प्रत्येक इसके संवहन केंद्र के स्थान को दर्शाता है:-
    • चरण 1: अफ्रीका में सीमित प्रभाव
    • चरण 2–3: पश्चिमी हिंद महासागर (मानसून की शुरुआत को प्रभावित करता है)।
    • चरण 4–5: पूर्वी हिंद महासागर (मानसून महोर्मि को उत्प्रेरित करता है)।
    • चरण 6–7–8: समुद्री महाद्वीप से पश्चिमी प्रशांत तक।

मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन (MJO) की मुख्य विशेषताएँ

  • प्रकृति: उष्णकटिबंधीय बेल्ट में होने वाली एक युग्मित महासागर-वायुमंडलीय घटना, जो अल्पकालिक मौसम और जलवायु परिवर्तनशीलता को प्रभावित करती है।
  • उत्पत्ति: आमतौर पर पूर्वी अफ्रीकी तट के पास पश्चिमी हिंद महासागर में विकसित होती है।
  • गति: 4-8 मीटर प्रति सेकंड की गति से मध्य और पूर्वी प्रशांत की ओर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पूर्व की ओर फैलती है।
  • चक्र अवधि: 30 `से 60 दिनों में एक पूर्ण दोलन पूरा करती है, जो अंतर-मौसमी परिवर्तनशीलता का आधार बनती है।
  • भौगोलिक क्षेत्र: 30°N और 30°S के बीच सबसे प्रमुख है। भारत, इस बैंड में होने के कारण, MJO चक्रों से अधिक प्रभावित है।
  • मुख्य घटक: इसमें संवहन के आर्द्र (सक्रिय) और शुष्क (दाबित) चरण बारी-बारी से आते हैं, जो वर्षा के पैटर्न को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं।
  • अवलोकन उपकरण: रियल-टाइम मल्टीवेरिएट MJO (RMM) इंडेक्स का उपयोग करके निगरानी की जाती है, जो 8 वैश्विक क्षेत्रों में MJO चरणों के स्थान एवं क्षमता की पहचान करता है।

मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन (MJO) बनाम ENSO 

मापदंड

MJO

ENSO

प्रकार अंतर-मौसमी अंतर वार्षिक
अवधि 30–60 दिन 6–18 महीने
संचलन पूर्व की ओर  स्थिर (प्रशांत)
पूर्वानुमान अल्पकालिक मौसम मौसमी जलवायु
प्रभाव दैनिक वर्षा मौसमी मानसून परिवर्तनशीलता।

प्रारंभिक अवस्था में जलवायु परिवर्तन की भूमिका

  • स्थल का तेजी से गर्म होना: भारतीय उपमहाद्वीप में ग्रीष्म ऋतु में उच्च तापमान के कारण उत्तर-पश्चिम भारत में कम दाब का क्षेत्र अधिक मजबूत बन जाता है।
    • स्थलीय-समुद्री तापीय विषमता में वृद्धि से मानसूनी पवनों का प्रभाव बढ़ जाता है।
  • हिमालय में बर्फ का कम होना: अध्ययनों से पता चलता है कि वसंत में बर्फ के कम जमाव के कारण स्थल का तेजी से गर्म होना होता है, जिससे कम दाब प्रणाली का निर्माण पहले होता है।
    • वर्ष 2025 में बर्फ का आवरण काफी कम होगा, जिससे जल्दी शुरुआत होगी।

  • गर्म समुद्री सतह का तापमान (SST): अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में जलवायु-प्रेरित समुद्री तापमान में वृद्धि से गुप्त ऊष्मा का उत्सर्जन बढ़ रहा है, जिससे संवहन मजबूत हो रहा है।
    • शीघ्र बादल निर्माण में सहायता करता है तथा मानसून प्रवाह को तीव्र करता है।
  • जेट स्ट्रीम और ITCZ की गतिशीलता में बदलाव: ‘क्लाइमेट वार्मिंग’ उप-उष्णकटिबंधीय पश्चिमी जेट (Subtropical Westerly Jet-STWJ) को प्रभावित करती है, जिससे मौसम के शुरू में ही अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) का उत्तर की ओर प्रवास हो जाता है। 
    • इससे भारतीय उपमहाद्वीप पर मानसून गर्त का गठन समय से पूर्व हो जाता है।
  • भूमध्यरेखीय क्षेत्र में तीव्र पवनें: भूमध्य रेखा पर तापमान वृद्धि के कारण तापीय प्रवणता में वृद्धि से सोमाली जेट अधिक मजबूत हो जाती है तथा नमी से युक्त तेज पवनें भारत में पहले पहुँच रही हैं।
  • वैश्विक दोलनों में बदलाव: महासागरों के गर्म होने के कारण अधिक लगातार मजबूत MJO घटनाएँ देखी गई हैं।
    • वर्ष 2025 में, 1 से अधिक आयाम वाले MJO चरण 4 के कारण शीघ्र संवहन एवं वर्षा शुरू हो जाएगी, यह एक ऐसा पैटर्न है, जो जलवायु परिवर्तन से संबंधित है।

मानसून के समय से पूर्व आने का प्रभाव

सकारात्मक प्रभाव

  • शीघ्र कृषि बुवाई: खरीफ फसलों (चावल, दालें, कपास, आदि) की समय पर बुवाई की सुविधा प्रदान करता है।
    • देर से बुवाई के कारण फसल की उपज में देरी के जोखिम को कम करता है।
  • भूजल पुनर्भरण को बढ़ावा: शुरुआती वर्षा से मिट्टी की नमी और भूजल स्तर को पुनः भरने में मदद मिलती है, जो वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए महत्त्वपूर्ण है।
    • शुरुआती मौसम की फसलों में सिंचाई तनाव को कम करने में सहायता करता है।
  • हीटवेव पर शीतलन प्रभाव: मानसून-पूर्व हीटवेव की अवधि और तीव्रता को कम करता है, सार्वजनिक स्वास्थ्य परिणामों में सुधार करता है और विद्युत की माँग को कम करता है।
  • बेहतर जलविद्युत एवं जलाशय पुनर्भरण: वर्षा से शीघ्र अपवाह बाँधों एवं जलाशयों को तेजी से भरने में मदद करता है, जिससे विद्युत एवं सिंचाई प्रबंधन में मदद मिलती है।

नकारात्मक प्रभाव

  • कृषि संबंधी समस्या: यदि शुरूआती वर्षा के बाद लगातार वर्षा नहीं होती है, तो शुरुआती बुवाई विफल हो सकती है।
    • इससे बीज बर्बाद हो जाते हैं, दोबारा बुवाई की लागत बढ़ जाती है और फसल उत्पादकता कम हो जाती है।
  • बाढ़ एवं शहरी जल निकासी तनाव: शुष्क मृदा पर अचानक भारी वर्षा से अपवाह एवं अचानक बाढ़ आ जाती है।
    • मुंबई, गुवाहाटी और बंगलूरू जैसे शहरी केंद्रों में नालियों के जाम होने के कारण बाढ़ का सामना करना पड़ता है।
  • पूर्वानुमान एवं योजना संबंधी चुनौतियाँ: शीघ्र मानसून आने से कृषि संबंधी सलाह और IMD पूर्वानुमान जटिल हो जाते हैं, विशेषकर यदि यह मानसून के कम या अनियमित मौसम से जुड़ा हो।
  • पारंपरिक जलवायु कैलेंडर में व्यवधान: सौर-चंद्र आधारित बुवाई चक्रों पर निर्भर रहने वाले मूलनिवासी और कृषि-संबंधी समुदायों को अपनी पारंपरिक प्रथाओं में असंतुलन महसूस हो सकता है, जिससे सांस्कृतिक शृंखला और खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव पड़ सकता है।

मानसून पूर्वानुमान में सहायक प्रौद्योगिकियाँ

  • उपग्रह अवलोकन: INSAT-3D, INSAT-3DR, मेघा-ट्रॉपिक्स – वास्तविक समय की वर्षा, बादल और पवन के आँकड़े प्रदान करते हैं।
  • बॉय नेटवर्क (Buoy Networks): ARGO फ्लोट्स, OMNI बॉय और मूर्ड बॉय सिस्टम (Moored Buoy Systems) अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में SST, लवणता, समुद्री धाराओं की निगरानी करते हैं।
    • आर्गो फ्लोट्स (Argo floats): तापमान एवं लवणता को मापते हैं।
    • OMNI बॉय: धाराओं, चालकता और तापमान के साथ-साथ अन्य मापदंडों पर वास्तविक समय डेटा प्रदान करते हैं।
    • मूर्ड बॉय सिस्टम (Moored Buoy Systems): जहाजों को सुरक्षित करने और नेविगेशन सहायता प्रदान करने के लिए उपयोग किया जाता है।
  • डॉपलर मौसम रडार (DWR): IMD अल्पकालिक वर्षा ट्रैकिंग और नाउकास्टिंग के लिए 37+ DWR संचालित करता है।
    • चक्रवात, गरज और वर्षा बैंड का पता लगाने में मदद करता है।
  • सुपरकंप्यूटर: IMD के मिहिर (6.8 PFLOPS) और प्रत्युष (4 PFLOPS) मानसून मॉडल और जलवायु विश्लेषण के वास्तविक समय सिमुलेशन को सक्षम करते हैं।

सरकारी पहल

  • राष्ट्रीय मानसून मिशन (NMM): NMM को केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) द्वारा वर्ष 2012 में लॉन्च किया गया था। 
    • यह एक मिशन-मोड परियोजना है, जिसका उद्देश्य विभिन्न समय सीमाओं में मानसून वर्षा के लिए अत्याधुनिक गतिशील पूर्वानुमान प्रणाली विकसित करना है।
    • लक्ष्य: कृषि, जल संसाधन और आपदा प्रबंधन को लाभ पहुँचाने के लिए मानसून पूर्वानुमानों की सटीकता एवं विश्वसनीयता में सुधार करना।
  • मिशन मौसम: भारत की मौसम पूर्वानुमान प्रणाली को उन्नत करने के लिए जनवरी 2025 में मिशन मौसम की शुरुआत की गई।
    • नोडल मंत्रालय: केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES)।
    • उद्देश्य: चरम मौसम की घटनाओं और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की भविष्यवाणी करने और उनका जवाब देने की भारत की क्षमता को बढ़ाना।
  • किसानों को समर्थन
    • प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY): मानसून से संबंधित नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए फसल बीमा है।
    • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY): मानसून निर्भरता को कम करने के लिए सिंचाई को बढ़ाती है।
    • पीएम-किसान: किसानों के लिए आय सहायता प्रदान करना।
  • आपदा प्रबंधन: NDMA और SDRF बाढ़/चक्रवात प्रतिक्रिया का समन्वय करते हैं।
  • जल प्रबंधन: जल शक्ति अभियान और अटल भूजल योजना, भूजल पुनर्भरण को बढ़ावा देती है।

निष्कर्ष 

जलवायु और समुद्री कारकों के कारण वर्ष 2025 में दक्षिण-पश्चिम मानसून का समय से पूर्व आना भारत की कृषि, जल संसाधन और अर्थव्यवस्था में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करता है। उन्नत तकनीकों द्वारा समर्थित राष्ट्रीय मानसून मिशन और मिशन मौसम जैसी सरकारी पहल पूर्वानुमान की सटीकता एवं लचीलापन बढ़ाती हैं, जिससे सतत् विकास एवं आपदा रोधी तैयारी सुनिश्चित होती है।

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