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बहुपक्षवाद

Lokesh Pal March 24, 2025 12:57 45 0

संदर्भ

हाल ही में लेक्स फ्रिडमैन (Lex Fridman) के साथ पॉडकास्ट में भारतीय प्रधानमंत्री ने बहुपक्षीय संगठनों, विशेषकर संयुक्त राष्ट्र की, अंतरराष्ट्रीय संघर्षों को रोकने में उनकी अक्षमता के लिए आलोचना की।

संबंधित तथ्य

  • ट्रंप प्रशासन की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति ने बहुपक्षवाद और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन की संभावना को बढ़ा दिया है।

अमेरिका का पृथकतावाद की ओर रुख

  • ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति: अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं पर राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देती है।
  • एकतरफा वापसी: विभिन्न संगठनों से अमेरिका द्वारा अपनी सदस्यता वापस लेना: 
    • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO)
    • संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC)
    • पेरिस जलवायु समझौता
    • अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) के विरुद्ध प्रतिबंध
  • DEFUND एक्ट: इसे रिपब्लिकन सीनेटर माइक ली द्वारा प्रस्तावित किया गया है, इसका उद्देश्य है:-
    • संयुक्त राष्ट्र से अमेरिका द्वारा अपनी सदस्यता त्यागना।
    • संयुक्त राष्ट्र भागीदारी अधिनियम (1945) और संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय समझौते (1947) को निरस्त करना।
    • संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना में अमेरिकी योगदान को रोकना और संयुक्त राष्ट्र अधिकारियों की प्रतिरक्षा को रद्द करना।

बहुपक्षवाद (Multilateralism) के बारे में 

  • परिभाषा: बहुपक्षवाद सहमत सिद्धांतों के आधार पर तीन या अधिक राज्यों के बीच संबंधों के समन्वय की एक प्रणाली है, जहाँ कोई भी एक पक्ष निर्णय लेने की प्रक्रिया पर प्रभावशाली नहीं होता है।
  • मुख्य सिद्धांत
    • हितों की अविभाज्यता (Indivisibility of Interests): एक सामूहिक हित जो व्यक्तिगत राष्ट्रीय हितों से ऊपर होता है।
    • विस्तृत पारस्परिकता (Diffuse Reciprocity): लाभ हमेशा तत्काल या प्रत्यक्ष नहीं होते हैं, लेकिन समय के साथ संतुलित होने की उम्मीद की जाती है।
    • विवाद निपटान: अनुपालन सुनिश्चित करने और शिकायतों का समाधान करने के लिए तंत्र​ मैजूद है।

बहुपक्षीय संगठनों में अमेरिका की भूमिका

  • वैश्विक संस्थाओं में प्रमुख वित्तीय योगदानकर्ता: संयुक्त राष्ट्र में यू.एस.ए सबसे बड़ा वित्तीय योगदानकर्ता है, जो यू.एन. के नियमित बजट का लगभग 22% और शांति स्थापना अभियानों का 25% कवर करता है।
    • यह WHO, UNESCO और UNICEF जैसी प्रमुख विशेष एजेंसियों को भी फंड देता है, जिससे इसे वैश्विक पहलों पर लाभ मिलता है।
  • ब्रेटन वुड्स संस्थानों में प्रभुत्व: अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक में अमेरिका के पास 16.5% वोटिंग पॉवर है, जो इसे प्रभावी रूप से प्रमुख निर्णयों पर वीटो शक्ति प्रदान करती है।
    • IMF और विश्व बैंक अक्सर अमेरिकी नीति प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं, वैश्विक आर्थिक शासन को आकार देते हैं।
  • विश्व व्यापार संगठन और वैश्विक व्यापार में संस्थागत प्रभाव: विश्व व्यापार संगठन (WTO) में अमेरिका ने वैश्विक व्यापार नियमों को आकार देते हुए अग्रणी भूमिका निभाई है।
  • जलवायु कार्रवाई और वैश्विक स्वास्थ्य में नेतृत्व: अमेरिका ने वर्ष 2021 में पेरिस जलवायु समझौते में पुनः शामिल होकर वैश्विक जलवायु शासन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की।
    • यह GAVI और ग्लोबल फंड जैसी वैश्विक स्वास्थ्य पहलों का एक प्रमुख वित्तपोषक है, जो महामारी से निपटने और वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा में सुधार के लिए अरबों डॉलर का योगदान देता है।
  • सुरक्षा और शांति स्थापना प्रभाव: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के स्थायी सदस्य के रूप में, अमेरिका प्रमुख प्रस्तावों पर वीटो शक्ति रखता है, जो वैश्विक सुरक्षा निर्णयों को प्रभावित करता है।
    • यह NATO और संयुक्त राष्ट्र शांति मिशनों में एक प्रमुख योगदानकर्ता बना हुआ है, हालाँकि हालिया रुझानों ने ऐसी भूमिकाओं के लिए कम उत्साह दिखाया है।
  • चयनात्मक सहभागिता एवं एकपक्षीयता: अमेरिका ने ईरान परमाणु समझौते (JCPOA) जैसे बहुपक्षीय समझौतों से खुद को अलग कर लिया है और पहले WHO और UNHRC से भी बाहर निकल गया है, जिससे बहुपक्षीय सहयोग कमजोर हुआ है।

बहुपक्षवाद पर अमेरिकी बदलाव का प्रभाव

  • अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से पीछे हटना: वैश्विक जलवायु कार्रवाई ढाँचे और सार्वजनिक स्वास्थ्य समन्वय को कमजोर करना।
    • वैश्विक शासन में अमेरिकी नेतृत्व में विश्वास को कम किया, जिससे अन्य राष्ट्रों को जलवायु और स्वास्थ्य कूटनीति (जैसे- यूरोपीय संघ, चीन) में आगे आने के लिए प्रेरित किया।
  • अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) पर प्रतिबंध और हमला: गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने वाली अंतरराष्ट्रीय कानूनी संस्थाओं की वैधता को कमजोर किया।
  • WTO विवाद निपटान तंत्र पर अवरोध: वैश्विक व्यापार विवाद समाधान प्रणाली में संकट उत्पन्न किया, जिससे WTO तंत्र में विश्वास कम हुआ।
    • व्यापार विवादों के अनसुलझे रहने के कारण WTO अब ‘अस्तित्वगत संकट’ का सामना कर रहा है।
  • संरक्षणवादी नीतियों और व्यापार युद्धों की शुरूआत: GATT/WTO के तहत स्थापित नियम-आधारित व्यापार प्रणाली को कमजोर किया है। वैश्विक व्यापार पर निर्भर विकासशील देशों के लिए अनिश्चितता बढ़ाई।
    • अमेरिका ने राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए व्यापार विस्तार अधिनियम की धारा 232 के तहत स्टील एवं एल्युमीनियम के आयात पर उच्च टैरिफ लगाया है।
  • संयुक्त राष्ट्र और शांति मिशनों के लिए खतरा: संयुक्त राष्ट्र के भीतर अमेरिकी प्रभाव को कमजोर किया और वैश्विक शांति प्रयासों को कमजोर किया।
    • वैश्विक शांति और सुरक्षा बनाए रखने का भार अन्य देशों, विशेष रूप से यूरोपीय और एशियाई देशों पर डाल दिया।
  • वैकल्पिक बहुपक्षीय ढाँचों का उदय: पश्चिमी प्रभुत्व वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को कमजोर किया, जिससे चीन और रूस को अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिला।
  • बहुपक्षीय ढाँचे से अमेरिका के अलग होने से ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे वैकल्पिक समूहों और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) जैसी क्षेत्रीय पहलों का उदय हुआ है।

अंतरराष्ट्रीय कानून और जवाबदेही पर एकपक्षीयता की ओर बदलाव का प्रभाव

  • अंतरराष्ट्रीय कानूनी मानदंडों का क्षरण: इससे एक नई व्यवस्था उत्पन्न होती है जहाँ शक्तिशाली राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय कानूनी जाँच से बच सकते हैं।
    • न्याय एवं जवाबदेही को बनाए रखने के लिए कार्य करने वाले अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के अधिकार को कमजोर करता है।
  • बहुपक्षीय जवाबदेही तंत्र को कमजोर करना: अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार प्रवर्तन तंत्र को कमजोर करता है, जिससे उल्लंघनकर्ता जाँच से बच जाते हैं।
    • वर्ष 2018 में पक्षपात का हवाला देते हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) से अमेरिका के हटने से परिषद की वैधता कमजोर हुई और वैश्विक मानवाधिकार उल्लंघनों से निपटने में इसका प्रभाव कम हुआ। 
  • संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद का हाशिए पर जाना: संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अध्याय VII के तहत सामूहिक कार्रवाई के सिद्धांत को कमजोर करता है, जो बल के उपयोग पर UNSC को अधिकार देता है।
    • सीरिया में एकतरफा अमेरिकी सैन्य कार्रवाइयों (वर्ष 2017 एवं वर्ष 2018) ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) को दरकिनार कर दिया, जिससे वैश्विक शांति बनाए रखने में संयुक्त राष्ट्र का अधिकार कमजोर हो गया। 
  • WTO विवाद निपटान तंत्र में व्यवधान: WTO के माध्यम से विवादों को हल करने में असमर्थ देश एकतरफा जवाबी कार्रवाई का सहारा ले रहे हैं।
    • विवाद निपटान प्रणाली की शिथिलता से वैश्विक व्यापार में अनिश्चितता बढ़ती है।
  • एकतरफा प्रतिबंधों एवं बलपूर्वक कूटनीति का बढ़ता उपयोग: जब कोई पक्ष एकतरफा तरीके से बाहर निकलता है और प्रतिबंध लगाता है, तो बातचीत के जरिए किए गए समझौतों की विश्वसनीयता कमजोर हो जाती है।
    • अमेरिका ने वर्ष 2018 में संयुक्त व्यापक कार्य योजना (JCPOA) से हटने के बाद ईरान पर एकतरफा प्रतिबंध लगा दिए, जबकि ईरान ने IAEA द्वारा इसके अनुपालन की पुष्टि की थी। 

गैर-पश्चिमी देशों के लिए अवसर

  • वैश्विक शासन में नेतृत्व की धारणा
    • वैश्विक मानदंडों को आकार देना: गैर-पश्चिमी राष्ट्र समतापूर्ण और समावेशी वैश्विक शासन की वकालत करके बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था को बढ़ावा दे सकते हैं।
    • क्षेत्रीय ढाँचों को मजबूत करना: गैर-पश्चिमी गठबंधनों और क्षेत्रीय समूहों के माध्यम से वैश्विक एजेंडे को आकार देने में अधिक प्रभावकारी होते हैं।
  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार और अधिक प्रतिनिधित्व के लिए प्रयास
    • उभरती शक्तियों के लिए स्थायी सीटें: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार के लिए बढ़ती माँग गैर-पश्चिमी देशों को वीटो शक्ति के साथ स्थायी सदस्यता हासिल करने का अवसर देती है।
    • वैश्विक निर्णय-निर्माण का लोकतंत्रीकरण: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार से एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे कम प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों को वैश्विक सुरक्षा मामलों में अधिक दृढ़ता से रखने का अवसर मिलेगा।
  • क्षेत्रीय व्यापार और आर्थिक ढाँचे को मजबूत करना
    • क्षेत्रीय व्यापार में आर्थिक नेतृत्व: गैर-पश्चिमी देश आर्थिक लचीलापन बनाने और पश्चिमी-प्रभुत्व वाली व्यापार प्रणालियों पर निर्भरता कम करने के लिए क्षेत्रीय समझौतों का लाभ उठा सकते हैं।
    • पश्चिमी प्रतिबंधों के प्रति संवेदनशीलता को कम करना: मजबूत क्षेत्रीय व्यापार ढाँचे पश्चिमी-लगाए गए प्रतिबंधों के आर्थिक प्रभाव को कम करते हैं।
  • स्वदेशी तकनीकी और डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देना
    • तकनीकी निर्भरता में कमी: अपना खुद का डिजिटल इकोसिस्टम विकसित करके, गैर-पश्चिमी देश पश्चिमी तकनीक पर निर्भरता कम कर सकते हैं।
    • डिजिटल गवर्नेंस में नेतृत्व: गैर-पश्चिमी देश AI, साइबर सुरक्षा और डेटा गोपनीयता सहित वैश्विक डिजिटल गवर्नेंस ढाँचे को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
  • वैकल्पिक बहुपक्षीय ढाँचे का विस्तार
    • समानांतर बहुपक्षीय संस्थाओं का निर्माण: गैर-पश्चिमी राष्ट्र वैकल्पिक ढाँचे का निर्माण कर सकते हैं जो IMF और विश्व बैंक जैसी पश्चिमी-प्रभुत्व वाली संस्थाओं को चुनौती देते हैं।
    • वैश्विक नीति एजेंडा पर प्रभाव: ये संस्थाएँ वैश्विक दक्षिण के हितों को आगे बढ़ाने और जलवायु, व्यापार और प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में नए मानदंडों को आकार देने के लिए एक मंच प्रदान करती हैं।
  • एक अधिक न्यायपूर्ण वैश्विक वित्तीय प्रणाली की वकालत
    • वैश्विक वित्तीय संरचना में विविधता लाना: गैर-पश्चिमी राष्ट्र वैकल्पिक वित्तीय तंत्र बना सकते हैं और उन्हें बढ़ावा दे सकते हैं जो विकासशील देशों के लिए न्यायसंगत वित्तपोषण प्रदान करते हैं।
    • IMF/विश्व बैंक पर निर्भरता कम करना: मजबूत गैर-पश्चिमी वित्तीय संस्थान पश्चिमी-प्रभुत्व वाली वित्तीय संरचनाओं पर निर्भरता कम करते हैं, और उचित ऋण शर्तें प्रदान करते हैं।

भारत की बहुपक्षीय रणनीति: ऐतिहासिक चरण

चरण 1: उच्च-स्तरीय सार्वभौमिकता (1947-1960)

  • विउपनिवेशीकरण का समर्थन: भारत ने एशिया और अफ्रीका में विउपनिवेशीकरण आंदोलन का सक्रिय रूप से समर्थन किया।
  • वैश्विक निरस्त्रीकरण का चैंपियन: भारत ने परमाणु निरस्त्रीकरण और परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध की वकालत की।
    • व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) का प्रस्ताव रखा गया तथा संघर्षों के शांतिपूर्ण समाधान का आह्वान किया गया।
  • संयुक्त राष्ट्र तंत्र में विश्वास: भारत ने संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय विवादों को हल करने की माँग की।
    • कोरिया, कांगो और मध्य पूर्व में संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन में सक्रिय रूप से योगदान दिया।

चरण 2: शासन परिवर्तन (1961-1991)

  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का गठन: भारत ने यूगोस्लाविया, मिस्र, इंडोनेशिया और घाना के साथ मिलकर शीत युद्ध में तटस्थता को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 1961 में NAM की स्थापना की।
  • G-77 का निर्माण: वर्ष 1964 में, भारत ने आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विकासशील देशों के गठबंधन, ग्रुप ऑफ 77 (G-77) की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • दक्षिण-दक्षिण सहयोग: भारत ने विकासशील देशों के बीच आर्थिक और तकनीकी सहयोग को बढ़ावा देने के लिए दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा दिया।
  • वैश्विक वित्तीय संस्थानों की आलोचना: भारत ने पश्चिमी प्रभुत्व को कायम रखने के लिए ब्रेटन वुड्स संस्थानों (IMF एवं विश्व बैंक) की आलोचना की और सुधारों की वकालत की।

चरण 3: बहु-संरेखण (वर्ष 1991 के बाद)

  • उभरते बहुपक्षीय मंचों में भागीदारी
    • G20 सदस्यता (1999): भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ जुड़ने और वैश्विक वित्तीय एजेंडे को आकार देने के लिए G20 में शामिल हुआ।
    • ब्रिक्स (2009): भारत ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) का संस्थापक सदस्य बना, जिसने वैश्विक संस्थाओं में सुधार और दक्षिण-दक्षिण सहयोग को मजबूत करने की वकालत की।
  • क्वाड (QUAD) के माध्यम से हिंद-प्रशांत में रणनीतिक भूमिका
    • क्वाड गठन (वर्ष 2007, वर्ष 2017 में पुनर्सक्रिय): भारत ने स्वतंत्र, खुले और समावेशी हिंद-प्रशांत को बढ़ावा देने के लिए अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर कार्य किया।
  • अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) के माध्यम से जलवायु नेतृत्व: भारत द्वारा वर्ष 2015 में शुरू किया गया, ISA जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकासशील देशों के बीच सौर ऊर्जा अपनाने को बढ़ावा देता है।
  • क्षेत्रीय और वैश्विक संस्थाओं के साथ जुड़ाव: भारत संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में सक्रिय भूमिका निभाता रहता है और UNSC में सुधार की वकालत करता है।
    • कनेक्टिविटी एवं विकास को बढ़ावा देने के लिए आसियान, अफ्रीकी संघ और अन्य क्षेत्रीय समूहों के साथ जुड़ता है।

वैश्विक नेतृत्व के लिए भारत का मार्ग

  • UNSC सुधार और अधिक प्रतिनिधित्व: भारत अपनी भू-राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को दर्शाने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में स्थायी सदस्यता की वकालत करता है।
  • दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा देना: भारत विकासशील देशों के हितों को आगे बढ़ाने के लिए NAM, IBSA और ब्रिक्स जैसे मंचों के माध्यम से वैश्विक दक्षिण एकजुटता को बढ़ावा देता है।
  • जलवायु कार्रवाई में नेतृत्व: भारत अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) जैसी पहलों का नेतृत्व करता है और सतत विकास पर जोर देते हुए जलवायु न्याय का समर्थन करता है।
  • वैश्विक डिजिटल शासन को आकार देना: भारत G20 और अन्य मंचों के माध्यम से डिजिटल संप्रभुता और AI, डेटा गोपनीयता और साइबर सुरक्षा के लिए रूपरेखा पर जोर देता है।
  • क्षेत्रीय संपर्क और व्यापार: QUAD, SCO और ASEAN के माध्यम से, भारत क्षेत्रीय व्यापार, समुद्री सुरक्षा और संपर्क को बढ़ाता है।
  • वैकल्पिक वित्तीय संस्थानों का निर्माण: भारत IMF, विश्व बैंक में सुधारों का समर्थन करता है और न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) जैसी वैकल्पिक वित्तीय संरचनाओं को बढ़ावा देता है।

वैश्विक संस्थाओं में खामियाँ

  • गैर-प्रतिनिधित्व वाली UNSC संरचना: UNSC की संरचना ग्लोबल साउथ के बड़े हिस्से को हाशिए पर रखती है।
    • वीटो पावर अक्सर सीरिया और यूक्रेन जैसे मुद्दों पर नीतिगत शिथिलता की ओर ले जाती है।
  • ब्रेटन वुड्स संस्थानों में पश्चिमी शक्तियों का प्रभुत्व: विकासशील देशों का निर्णय लेने में न्यूनतम प्रभाव होता है।
    • IMF की ऋण शर्तें अक्सर स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान पहुँचाने वाले कठोर उपायों को लागू करती हैं।
  • विश्व व्यापार संगठन विवाद निपटान प्रणाली में संकट: देश एकतरफा जवाबी कार्रवाई का सहारा लेते हैं, जिससे वैश्विक व्यापार अनिश्चितता बढ़ती है।
    • छोटी अर्थव्यवस्थाएँ अनुचित व्यापार प्रथाओं को चुनौती देने के लिए एक मंच खो देती हैं।
  • संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना और संघर्ष समाधान की अप्रभाविता: कमजोर अधिदेश और अपर्याप्त संसाधन अप्रभावी संघर्ष प्रबंधन की ओर ले जाते हैं।
    • बार-बार विफलताएँ वैश्विक शांति बनाए रखने की संयुक्त राष्ट्र की क्षमता में विश्वास को कम करती हैं।
  • अंतरराष्ट्रीय कानून का कमजोर प्रवर्तन: सीमित प्रवर्तन तंत्र अंतरराष्ट्रीय कानून की विश्वसनीयता को कमजोर करते हैं।
    • शक्तिशाली राष्ट्र अक्सर जवाबदेही से बचते हैं, जिससे अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के समान अनुप्रयोग का सिद्धांत कमजोर हो जाता है।
  • जलवायु परिवर्तन पर अपर्याप्त कार्रवाई: स्वैच्छिक लक्ष्यों के परिणामस्वरूप असंगत प्रतिबद्धताएँ होती हैं, जिससे वैश्विक प्रगति धीमी हो जाती है।
    • छोटे द्वीपीय राष्ट्र और विकासशील देश जलवायु निष्क्रियता के असंगत परिणामों से पीड़ित हैं।
  • वैश्विक डिजिटल शासन में डिजिटल विभाजन और असमानता: वैश्विक डिजिटल शासन में प्रतिनिधित्व की कमी से उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के पक्ष में नीतियाँ बनती हैं।
    • प्रौद्योगिकी तक असमान पहुँच वैश्विक असमानताओं को बनाए रखती है।

भारत और विश्व के लिए आगे की राह

  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार और समावेशी वैश्विक शासन के लिए जोर देना: समकालीन वैश्विक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में सुधार की वकालत करना।
    • G4 गठबंधन (भारत, ब्राजील, जापान, जर्मनी) को मजबूत करना और सुधार के लिए एकीकृत आह्वान के लिए अफ्रीकी देशों को शामिल करना। 
  • वैश्विक वित्तीय संस्थाओं में सुधार: एक निष्पक्ष वैश्विक वित्तीय संरचना को बढ़ावा देना जो विकासशील देशों के मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित करे।
    • IMF और विश्व बैंक में विकासशील देशों के लिए अधिक मतदान अधिकार के लिए प्रयास करना और न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) जैसे वैकल्पिक तंत्रों को मजबूत करना।
  • जलवायु कार्रवाई और सतत विकास का नेतृत्व करना: विकासशील देशों के लिए जलवायु न्याय और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को बढ़ावा देना।
    • अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) की पहुँच का विस्तार करना और कमजोर देशों के लिए जलवायु वित्त में वृद्धि पर जोर देना। 
  • वैश्विक डिजिटल शासन को आकार देना: AI, साइबर सुरक्षा और डेटा गोपनीयता को संबोधित करने के लिए न्यायसंगत डिजिटल शासन ढाँचे की वकालत करना।
    • उभरती प्रौद्योगिकियों के लिए समावेशी वैश्विक मानदंड बनाने के लिए भारत के G20 नेतृत्व का लाभ उठाना।
  • दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ाना: IBSA, BRICS और NAM जैसे प्लेटफॉर्म के माध्यम से दक्षिण-दक्षिण साझेदारी को गहरा करना।
    • ‘ग्लोबल साउथ’ हितों को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक सहयोग और ज्ञान-साझाकरण को बढ़ावा देना।
  • क्षेत्रीय सुरक्षा और कनेक्टिविटी को मजबूत करना: क्षेत्रीय सुरक्षा और आर्थिक संबंधों को मजबूत करना, विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक और मध्य एशिया में।
    • क्षेत्रीय स्थिरता और कनेक्टिविटी सुनिश्चित करते हुए QUAD, SCO और ASEAN के माध्यम से जुड़ाव को गहरा करना।

निष्कर्ष 

भारत को अपने पड़ोसी देशों और ग्लोबल साउथ पर ध्यान केंद्रित करते हुए बहुपक्षवाद का अपना दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। वैश्विक नेतृत्व के लिए भारत का मार्ग दक्षिण एशिया से होकर गुजरेगा, जिसमें क्षेत्रीय सहयोग और अंतरराष्ट्रीय कानून के महत्त्व पर जोर दिया जाएगा।

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