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मृदा केंद्रित कृषि नीति में परिवर्तन की आवश्यकता

Lokesh Pal July 22, 2025 02:32 24 0

संदर्भ

भारत खाद्य सहायता पर निर्भरता से आगे बढ़कर व्यापक खाद्य वितरण कवरेज के साथ चावल का एक प्रमुख निर्यातक बन गया है। फिर भी, कुपोषण (क्षरित मृदा और उर्वरकों के दुरुपयोग के कारण) की स्थिति बनी हुई है, जो मृदा केंद्रित पोषण सुधारों की तत्काल आवश्यकता को उजागर करता है।

संबंधित तथ्य

  • वर्ष 2025 में 10 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना (Soil Health Card Scheme) ने पूरे भारत में एक मानकीकृत, बहुभाषी डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से मृदा की उर्वरता में सुधार करते हुए, किसानों को पोषक तत्त्वों के संबंध में सलाह देकर सशक्त बनाया है।

मृदा स्वास्थ्य कार्ड (Soil Health Card-SHC) योजना के बारे में

  • इस योजना को उर्वरक के संतुलित उपयोग को बढ़ावा देने और मृदा स्वास्थ्य में सुधार के लिए शुरू किया गया था।
    • यह मृदा स्वास्थ्य और उर्वरक प्रयोग पर व्यक्तिगत सुझाव प्रदान करता है। मृदा परीक्षण के माध्यम से भूमि क्षरण की समस्या को दूर करने में मदद करता है।
  • कार्यान्वयन और पहुँच: देश भर में 247 मिलियन से अधिक मृदा स्वास्थ्य सेवाएँ वितरित की गईं। 17 राज्यों में 665 ग्राम-स्तरीय मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं (Village-level STLs-VSTL) सहित 8,272 मृदा परीक्षण प्रयोगशालाएँ (soil-testing labs- STL) स्थापित की गईं।
    • मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं का विकेंद्रीकरण सुनिश्चित करता है कि किसानों को समय पर और सटीक मृदा विश्लेषण परिणाम प्राप्त हों।
    • उद्यमी नेतृत्व और स्वयं सहायता समूह (SHG) सतत् जीवन यापन (STL) तक पहुँच को सशक्त रूप से बढ़ाते हैं।

मृदा-केंद्रित पोषण सुधारों के बारे में

  • मृदा केंद्रित पोषण सुधार एकीकृत कृषि पद्धतियों और नीतिगत पहलों का एक समूह है, जिसका उद्देश्य पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्यान्न उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए मृदा स्वास्थ्य को पुनर्जीवित करना है।
  • उद्देश्य: ये सुधार उपज को अधिकतम करने से हटकर पोषण-संवेदनशील कृषि पर ध्यान केंद्रित करते हैं, यह मानते हुए कि ‘मृदा स्वास्थ्य ही जन स्वास्थ्य है’ (Soil Health is Public Health)।

भारतीय मृदा स्वास्थ्य पर चिंताजनक आँकड़े

  • मृदा क्षरण की सीमा: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research-ICAR) का अनुमान है कि भारत की 37% भूमि क्षरण के विभिन्न रूपों से प्रभावित है, जिसमें अपरदन, मृदा अम्लता और लवणता शामिल हैं।
    • समग्र क्षरण: भारतीय मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस (SAC 2021) के अनुसार, भारत में भूमि क्षरण का वर्तमान विस्तार 97.85 मिलियन हेक्टेयर (देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 29.77%) है।
    • मृदा क्षरण: जल और वायु क्षरण के कारण भारत में प्रतिवर्ष अनुमानित 5.3 बिलियन टन मृदा क्षरण होता है, जिससे फसल उत्पादकता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।
  • मृदा कार्बनिक कार्बन (Soil Organic Carbon-SOC) का स्तर: पिछले 70 वर्षों में 1% से घटकर 0.3% रह गया है।
    • SOC मृदा कार्बनिक पदार्थ में संगृहीत कार्बन को संदर्भित करता है, जिसमें आमतौर पर लगभग 58% कार्बन होता है।
    • कमी: भारत की लगभग आधी कृषि योग्य भूमि में SOC की कमी है।
    • राज्य-विशिष्ट चिंताएँ: पंजाब जैसे राज्यों में, जिन्हें प्रायः गहन कृषि के कारण भारत का अन्न भंडार माना जाता है, केवल 9% मृदा में उच्च कार्बन था और यह प्रतिशत और भी कम हो गया है।
    • आदर्श बनाम वास्तविक: जबकि भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Soil Science- IISS) 0.5-0.75% SOC को पर्याप्त मानता है, विश्व खाद्य पुरस्कार विजेता रतन लाल 1.5-2% को आदर्श मानते हैं, जो अधिकांश भारतीय मृदाओं में महत्त्वपूर्ण अंतर को उजागर करता है।
  • असंतुलित उर्वरक प्रयोग मृदा स्वास्थ्य को विकृत करता है: नाइट्रोजन का अत्यधिक प्रयोग और फास्फोरस (P) तथा पोटेशियम (K) का कम प्रयोग एक प्रमुख चिंता का विषय है।
    • पंजाब: पंजाब में नाइट्रोजन का 61% अधिक प्रयोग जबकि पोटेशियम का 89% कम प्रयोग देखा गया है।।
    • तेलंगाना: तेलंगाना में नाइट्रोजन का 54% अधिक प्रयोग तथा पोटेशियम का 82% कम प्रयोग दर्ज किया गया है।।
    • इस असंतुलन के कारण उर्वरक अनाज प्रतिक्रिया अनुपात में भारी गिरावट (1970 के दशक में 1:10 से वर्ष 2015 में 1:2.7 तक) आई है।
    • नाइट्रोजन के अत्यधिक उपयोग के पर्यावरणीय परिणाम: दानेदार यूरिया से केवल 35-40% नाइट्रोजन ही फसलों द्वारा अवशोषित किया जाता है।
    • शेष यूरिया के कारण
      • नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन, जो CO₂ से 273 गुना अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है।
      • नाइट्रेट निक्षालन के माध्यम से भूजल संदूषण
      • सब्सिडी वाले यूरिया का दुरुपयोग और तस्करी।
    • सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी: 615 जिलों और 28 राज्यों में 2,40,000 से अधिक मृदा नमूनों के एक व्यापक अध्ययन से सल्फर (S) और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की व्यापक कमी का पता चला।
      • लौह (Fe), ताँबा (Cu), और मैंगनीज (Mn) की तुलना में सल्फर (S), जस्ता (Zn), और बोरॉन (B) की कमी अधिक थी।
      • भारत भर में औसत कमी
        • जिंक (Zn): मृदा में 5% से 49% (जो इसे सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की सबसे प्रमुख कमी बनाता है)।
        • बोरॉन (B): मृदा में 24.2% से 33%
        • लौह (Fe): मृदा में 12.8%
        • मैंगनीज (Mn): मृदा में 7.1%
        • ताँबा (Cu): मृदा में 4.2%
        • मोलिब्डेनम (Mo): मृदा में 11-15%।
    • बहु-पोषक तत्त्वों की कमी भी सामान्य है, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में दो पोषक तत्त्वों (जैसे- S+Zn, Zn+B) और यहाँ तक कि तीन या चार-पोषक तत्त्वों की कमी भी पाई जाती है।
  • मृदा स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले अन्य कारक
    • लवणता: भारत में 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता से प्रभावित है, जिसके परिणामस्वरूप अनुमानित रूप से प्रतिवर्ष 11.18 मिलियन टन फसलों का नुकसान होता है।
    • भूजल क्षरण: कुल वार्षिक भूजल निष्कर्षण (वर्ष 2022 में 239.16 bcm) का लगभग 87% कृषि क्षेत्र में होता है, जिससे दीर्घकाल में मृदा की नमी और उर्वरता प्रभावित होती है।
    • जलवायु परिवर्तन: बढ़ते तापमान से मृदा में कार्बन का क्षरण तेज होता है। जलवायु परिवर्तन के कारण सदी के अंत तक उच्च से अति उच्च मृदा अपरदन क्षेत्रों के 35.3% से बढ़कर 40.3% हो जाने का अनुमान है।
    • अस्थायी कृषि पद्धतियाँ: एकल फसल, अत्यधिक जुताई और फसल अवशेषों को जलाने से मृदा की उर्वरता और कार्बनिक पदार्थ की मात्रा और कम हो जाती है।

मृदा स्वास्थ्य और मानव-स्वास्थ्य संबंध

  • मृदा और पोषण: भोजन की गुणवत्ता मृदा स्वास्थ्य से गहराई से जुड़ी हुई है। सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी वाली मृदाएँ फसल की पैदावार और पोषक तत्त्वों के घनत्व दोनों को कम करती हैं।
    • सूक्ष्म पोषक तत्त्व प्रवाह: फसलों को आवश्यक पोषक तत्त्व मृदा से प्राप्त होते हैं; मनुष्य विकास और प्रतिरक्षा के लिए इन्हीं पोषक तत्त्वों पर निर्भर रहते हैं।
    • उदाहरण: जिंक की कमी वाली मृदा से फसलों में भी जिंक की कमी हो जाती है, जिससे बच्चों का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
  • वर्ष 2024 का मृदा स्वास्थ्य कार्ड सर्वेक्षण: पोषक तत्त्वों की कमी से ग्रस्त मृदा में व्यापक कमी होती है, भले ही कैलोरी की आवश्यकता पूरी हो जाती हो।
    • मृदा स्वास्थ्य कार्ड सर्वेक्षण (2024) से व्यापक पोषक तत्त्वों की कमी का पता चला:
      • 5% से भी कम नमूनों में पर्याप्त नाइट्रोजन पाया गया।
      • केवल 20% नमूनों में पर्याप्त मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) पाया गया।
      • सल्फर, जिंक, बोरॉन और आयरन में कमी देखी गई।
  • मृदा पुनर्स्थापन की तत्काल आवश्यकता: कई भारतीय मृदाओं को अपनी उर्वरता पुनः प्राप्त करने और पौष्टिक खाद्य उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए गहन चिकित्सा इकाई (intensive care unit-ICU) स्तर के पुनर्स्थापन की आवश्यकता है।
    • सुरक्षित खाद्य उत्पादन: सक्रिय सूक्ष्मजीव स्वस्थ मृदा फसलों में भारी धातुओं जैसे हानिकारक पदार्थों के अवशोषण को कम करते हैं।

मृदा-केंद्रित पोषण सुधारों के प्रमुख घटक

  • स्मार्ट पोषक तत्त्व प्रबंधन: पोषक तत्त्वों के उपयोग के लिए 4R – सही स्रोत, सही खुराक, सही समय और सही स्थान (Right Source, Right Dose, Right Time, and Right Place) को अपनाना।
    • इसमें जैविक खाद, कंपोस्ट, जैव उर्वरक तथा मैक्रो एवं माइक्रोन्यूट्रिएंट्स को मिलाकर संतुलित उर्वरक का प्रयोग शामिल है, जिससे सिंथेटिक इनपुट पर निर्भरता कम हो जाती है।
  • मृदा जैविक संवर्द्धन: आवरण फसल, फसल चक्र, न्यूनतम जुताई और कृषि वानिकी जैसी पद्धतियाँ मृदा कार्बनिक पदार्थ को बढ़ाती हैं, जल धारण क्षमता में सुधार करती हैं और पोषक चक्रण को बढ़ावा देती हैं।
  • मृदा जैव विविधता में वृद्धि: एक स्वस्थ मृदा माइक्रो बायोम पौधों के स्वास्थ्य का समर्थन करता है, पोषक तत्त्वों के अवशोषण को बढ़ाता है और कीटों तथा जलवायु तनाव के प्रति प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करता है।
  • रासायनिक निर्भरता को कम करना: रासायनिक कीटनाशकों और शाकनाशियों के अत्यधिक उपयोग को कम करने के लिए एकीकृत कीट प्रबंधन (Integrated Pest Management- IPM), कीट-प्रतिरोधी फसल किस्मों और प्राकृतिक कीट नियंत्रण विधियों को बढ़ावा देना।
    • IPM कीट नियंत्रण का एक स्थायी दृष्टिकोण है, जो कीटनाशकों के उपयोग को न्यूनतम करने और एक स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देने के लिए कई रणनीतियों को जोड़ता है।
    • यह रोकथाम, निगरानी और सांस्कृतिक, भौतिक, यांत्रिक और जैविक विधियों के संयोजन पर जोर देता है और केवल आवश्यक होने पर ही रासायनिक नियंत्रण का उपयोग करता है।
  • मृदा परीक्षण और किसान जागरूकता: मृदा स्वास्थ्य निदान और स्थानीय परामर्श सेवाओं तक व्यापक पहुँच किसानों को पोषक तत्त्वों की कमी को समझने तथा स्थायी पद्धतियाँ अपनाने में मदद करती है।
  • नीतिगत और संस्थागत समर्थन: स्थायी मृदा प्रबंधन को सक्षम और पुरस्कृत करने में सरकारी प्रोत्साहन, नियामक ढाँचे और कार्यक्रम महत्त्वपूर्ण हैं।

ये सुधार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं?

  • पोषक तत्त्वों से भरपूर फसलें: स्वस्थ मृदा, लौह, जस्ता और सेलेनियम जैसे सूक्ष्म पोषक तत्त्वों से युक्त फसलें पैदा करती है, जो आबादी में प्रछन्न भुखमरी को सीधे तौर पर दूर करती है।
  • खाद्य सुरक्षा और जलवायु लचीलापन: उपजाऊ मृदा अधिक उपज देती है और जलवायु के तनावों को बेहतर ढंग से झेलती है, जिससे दीर्घकालिक उत्पादकता सुनिश्चित होती है।
  • किसानों के लिए आर्थिक लाभ: कम लागत, बेहतर पैदावार और पोषक तत्त्वों से भरपूर उपज के लिए प्रीमियम मूल्य किसानों की आय बढ़ाते हैं।
  • पर्यावरणीय लाभ
    • कार्बन पृथक्करण: स्वस्थ मृदा कार्बन सिंक के रूप में कार्य करती है, जिससे जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद मिलती है।
    • जल दक्षता: मृदा संरचना में सुधार से जल धारण क्षमता बेहतर होती है और सिंचाई की आवश्यकता कम होती है।
    • प्रदूषण में कमी: उर्वरकों और कीटनाशकों से कम अपवाह जल निकायों और पारिस्थितिकी तंत्रों की रक्षा करता है।
    • जैव विविधता पुनरुद्धार: स्वस्थ मृदा विविध ऊपरी और भूमिगत पारिस्थितिकी तंत्रों को सहारा देती है।
    • जन स्वास्थ्य लाभ: सुरक्षित और अधिक पौष्टिक भोजन सीधे तौर पर मानव स्वास्थ्य में सुधार करता है और स्वास्थ्य सेवा के बोझ को कम करता है।
  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने असुरक्षित भोजन से उत्पन्न जन स्वास्थ्य खतरों के संबंध में संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जीवन के अधिकार पर जोर दिया।

भारत की खाद्य यात्रा: निर्भरता से वैश्विक नेता तक

  • निर्भरता का युग: 1960 के दशक में, भारत अमेरिकी PL-480 खाद्य सहायता पर निर्भर था, जिसने “शिप-टू-माउथ” युग को चिह्नित किया।
  • निर्यात महाशक्ति: वित्त वर्ष 2025 तक, भारत दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक बन गया। वैश्विक 61 मीट्रिक टन में से 20.2 मिलियन टन (MT) का निर्यात किया।
  • विशाल खाद्य सुरक्षा जाल: विश्व का सबसे बड़ा खाद्य वितरण कार्यक्रम संचालित करता है। प्रधानमंत्री-गरीब कल्याण योजना (PMGKY) 80 करोड़ से अधिक लोगों को प्रति व्यक्ति/माह 5 किलो मुफ्त चावल/गेहूँ प्रदान करती है।
  • अतिरिक्त खाद्य भंडार: भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पास 57 मीट्रिक टन चावल (1 जुलाई, 2025 तक) है, जो 13.54 मीट्रिक टन के बफर मानक का लगभग 4 गुना है।

पोषण सुरक्षा और उत्पन्न दुविधा

  • गरीबी में तीव्र गिरावट: चरम गरीबी 27.1% (वर्ष 2011) से घटकर 5.3% (वर्ष 2022) हो गई (जिसे 3 डॉलर प्रतिदिन से कम आय, 2021 PPP के रूप में मापा गया)।
  • निरंतर बाल कुपोषण: फिर भी, बच्चों में कुपोषण चिंताजनक बना हुआ है (NFHS-5, 2019-21): बौनेपन: 35.5%, कम वजन: 32.1% और कमजोर: 19.3%
  • पोषण सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करना: भारत के खाद्य सुरक्षा परिदृश्य में अब केवल कैलोरी की पर्याप्तता ही नहीं, बल्कि पोषण सुरक्षा भी मुख्य चुनौती है।

व्यापक पोषण सुरक्षा में बाधा डालने वाली सतत् चुनौतियाँ

  • उच्च कुपोषण और एनीमिया: NFHS-5 के अनुसार, पाँच वर्ष से कम आयु के 36% बच्चे अविकसित हैं और 57% महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित हैं। वैश्विक भूख सूचकांक, 2023 में 125 देशों में भारत का 111वाँ स्थान इस सतत् समस्या को रेखांकित करता है।
  • दोहरा बोझ: भारत कुपोषण के “दोहरे बोझ” का सामना कर रहा है, जहाँ 25% वयस्क अधिक वजन/मोटापे से ग्रस्त हैं। देश में 7.7 करोड़ वयस्क मधुमेह रोगी और 2.5 करोड़ मधुमेह से पहले के रोगी हैं। अति-प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ आसानी से उपलब्ध हैं, जबकि पौष्टिक भोजन कई लोगों की पहुँच से बाहर है।
  • लैंगिक और सामाजिक असमानताएँ: महिलाएँ, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, प्रायः सबसे आखिर में और सबसे कम खाती हैं। किशोर लड़कियों और बुजुर्ग महिलाओं को प्रायः लक्षित पोषण कार्यक्रमों से बाहर रखा जाता है।
  • जलवायु परिवर्तन: अनियमित मानसून, लू और सूखे के कारण फसल का नुकसान होता है और कीमतों में उछाल आता है। 124 वर्षों में सबसे गर्म फरवरी ने 2024 में गेहूँ की पैदावार पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला।
  • कार्यक्रम संबंधी अंतराल: 28% सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) अनाज लीकेज के कारण नष्ट हो जाता है। कई आंगनवाड़ी केंद्रों में बुनियादी सुविधाओं और पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव है।
  • खाद्य मूल्य मुद्रास्फीति: खाद्य मुद्रास्फीति महीनों से लगातार 8% से ऊपर बनी हुई है, वर्ष 2023-24 के दौरान दालों और सब्जियों की कीमतों में उल्लेखनीय वृद्धि के साथ, पौष्टिक भोजन के लिए घरेलू बजट पर दबाव डाल रही है।
  • शहरी खाद्य रेगिस्तान: गरीब शहरी क्षेत्रों में प्रायः ताजे फल, सब्जियाँ और प्रोटीन की पहुँच नहीं होती है। 68% पैकेज्ड खाद्य पदार्थों में चीनी, नमक या ट्रांस-वसा की मात्रा अधिक होती है।
  • कम पोषण साक्षरता: 85% आबादी शाकाहारी प्रोटीन स्रोतों से अनभिज्ञ है और 50% स्वस्थ वसा से अनभिज्ञ हैं, जो एक महत्त्वपूर्ण ज्ञान अंतराल को उजागर करता है।

पोषण सुरक्षा बढ़ाने के उपाय

  • स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्रों को पोषण संसाधन केंद्रों में उन्नत करना: किशोरों, बुजुर्गों और प्रवासी श्रमिकों सहित, व्यक्तिगत परामर्श, NCD जाँच और स्थानीय रूप से तैयार भोजन योजनाएँ प्रदान करना।
  • मध्याह्न भोजन में सुधार करना: स्थानीय, मौसमी, पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्य पदार्थों को शामिल करना। विकेंद्रीकृत वितरण के लिए बाजरा मिशन, किसान उत्पादक संगठनों (Farmer Producer Organizations- FPOs) और स्वयं सहायता समूहों (Self-Help Groups- SHGs) के साथ जुड़ना।
  • अनिवार्य और स्मार्ट फोर्टिफिकेशन: सार्वजनिक वितरण प्रणाली में चावल, दूध और तेल जैसी आवश्यक खाद्य वस्तुओं को फोर्टिफाइड करना, साथ ही आहार विविधीकरण भी करना।
  • शहरी खाद्य वातावरण को स्वस्थ बनाना: जंक फूड पर कर लागू करना, पैकेट के आगे लेबलिंग (Front-of-pack labeling- FOPL) को बढ़ावा देना और विद्यालयों एवं स्वास्थ्य केंद्रों के पास फास्ट फूड की दुकानों को विनियमित करना।
  • जन पोषण साक्षरता अभियान शुरू करना: स्कूलों, कार्यस्थलों और मीडिया के माध्यम से “पोषण के अधिकार” को बढ़ावा देना और जमीनी स्तर पर जागरूकता के लिए प्रभावशाली लोगों एवं सामुदायिक नेतृत्वकर्ताओं का उपयोग करना।

मृदा-केंद्रित पोषण सुधारों को लागू करने में बाधाएँ

  • लघु और सीमांत किसानों में जागरूकता और तकनीकी ज्ञान का अभाव।
  • मृदा परीक्षण, जैविक उत्पादन और सलाहकार सेवाओं के लिए अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा।
  • उच्च प्रारंभिक लागत या संक्रमण के दौरान अल्पकालिक उपज में गिरावट की आशंकाओं के कारण आर्थिक बाधाएँ।
  • नीतिगत विसंगतियाँ, जहाँ सब्सिडी में अभी भी रासायनिक उर्वरकों को तरजीह देती है और पोषक तत्त्वों से भरपूर उपज के लिए बाजार प्रोत्साहन कमजोर हैं।
  • खंडित भूमि जोत, सामुदायिक स्तर पर मृदा सुधार के प्रयासों को कठिन बना देती है, विशेषतः भारत जैसे विविध कृषि-जलवायु क्षेत्रों में।

सफल उदाहरण- भारत के प्रयास

  • मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना (2015): उर्वरक उपयोग के मार्गदर्शन हेतु मृदा पोषक तत्त्व स्थिति पर व्यक्तिगत रिपोर्ट।
  • नीम-लेपित यूरिया (2015): धीमी गति से निकलने वाला नाइट्रोजन दक्षता में सुधार करता है और पर्यावरणीय क्षति को कम करता है।
  • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (2015): मृदा नमी और उर्वरता बनाए रखने के लिए आवश्यक जल के कुशल उपयोग को बढ़ावा देती है।
  • कृषि वानिकी मिशन (2016): ‘हर मेढ़ पर पेड़’ पोषक तत्त्वों के पुनर्चक्रण के लिए खेतों में वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करता है।
  • फसल अवशेष प्रबंधन (2018): फसल के ठूँठ को जलाने के बजाय जैविक पदार्थ में परिवर्तित करता है।
  • प्राकृतिक एवं जैविक खेती: हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में रासायनिक उपयोग को कम करने पर बल दिया जा रहा है।
    • सिक्किम को भारत का पहला “जैविक राज्य” होने का गौरव प्राप्त है।
  • नैनो-यूरिया और नैनो-डीएपी: सटीक मात्रा में उच्च-दक्षता वाले इनपुट का उपयोग, अति-उपयोग को कम करता है।
  • प्रधानमंत्री-प्रणाम (2023): संतुलित और सतत् उर्वरक उपयोग को प्रोत्साहित करता है।
  • प्रधानमंत्री धन-धान्य कृषि योजना (2025-26): क्षेत्र-विशिष्ट प्राकृतिक खेती, सिंचाई और भंडारण अवसंरचना का समर्थन करती है।
  • कम्पोस्टिंग और वर्मीकंपोस्टिंग: कृषि और शहरी अपशिष्ट को जैविक उर्वरकों में परिवर्तित करने को प्रोत्साहित करती है।

मृदा-केंद्रित पोषण सुधारों के लिए आगे की राह

  • शोध आवश्यकताएँ: मानव पोषण पर मृदा प्रथाओं के प्रभाव का आकलन करना।
    • मृदा सूक्ष्मजीवों और पोषक तत्त्वों के अवशोषण पर उनके प्रभाव का अध्ययन करना।
  • तकनीकी नवाचार: इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT), आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS)-आधारित मृदा मानचित्र और वास्तविक समय कृषि विश्लेषण, सटीक खेती को संभव बनाते हैं।
    • उदाहरण: उत्तर प्रदेश, एक प्रमुख कृषि प्रधान राज्य, राज्य स्वास्थ्य सेवा केंद्र और अन्य केंद्रीय योजनाओं को सक्रिय रूप से लागू कर रहा है। हालाँकि, जागरूकता, प्रयोगशाला अवसंरचना और किसानों तक पहुँच में अभी भी कमियाँ हैं।
    • मेरठ का एग्रीटेक हब, स्थानीय कृषि में प्रौद्योगिकी, मृदा विज्ञान और पोषण को एकीकृत करने के एक दूरदर्शी प्रयास का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें मृदा-आधारित खाद्य प्रणाली सुधार के लिए एक राष्ट्रीय मॉडल बनने की क्षमता है।
  • नीति एवं वित्त: जैविक और संतुलित उर्वरकों को बढ़ावा देने के लिए इनपुट सब्सिडी में सुधार करना।
    • पोषक तत्त्वों से भरपूर फसलें उगाने वाले किसानों को मूल्य वृद्धि या पोषण संबंधी प्रोत्साहनों के माध्यम से पुरस्कृत करना।
  • जलवायु-अनुकूल कृषि को बढ़ावा देना: एकल कृषि से बाजरा, दलहन और जैव-सशक्त फसलों की ओर रुख करना। पोषक तत्त्वों से भरपूर फसलों को शामिल करने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) में संशोधन करना।
    • NFSA, 2013, भारत में एक ऐतिहासिक कानून है, जिसका उद्देश्य आबादी के एक बड़े हिस्से को रियायती दरों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराना है, जिससे खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
    • यह कानूनी रूप से ग्रामीण आबादी के 75% और शहरी आबादी के 50% को लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Targeted Public Distribution System-TPDS) के माध्यम से रियायती दरों पर खाद्यान्न प्राप्त करने का अधिकार देता है।
  • सामाजिक सुरक्षा का विस्तार करना: दालों, डेयरी और बाजरे को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) में शामिल करना और कमजोर आबादी के लिए DBT से जुड़ी पोषण सहायता प्रदान करना।
  • कृषि में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता: एक मूलभूत परिवर्तन आवश्यक है, केवल उपज को अधिकतम करने से लेकर पोषण-संवेदनशील कृषि को बढ़ावा देने तक।
  • कठोर मृदा परीक्षण: विशिष्ट पोषक तत्त्वों की कमी का पता लगाने के लिए कठोर मृदा परीक्षण करना।
    • विभिन्न फसलों और क्षेत्रों के लिए अनुकूलित, विज्ञान-आधारित उर्वरक।
  • स्वस्थ मृदा, स्वस्थ लोग: यह मंत्र इस बात पर जोर देता है कि स्वस्थ मृदा पौष्टिक भोजन पैदा करती है, जिसका सीधा प्रभाव मानव कल्याण पर पड़ता है।
    • चक्रीय दृष्टिकोण अपनाना: “हल से थाली तक” से “थाली से हल तक और वापस” जैसा चक्रीय दृष्टिकोण अपनाना।

वैश्विक मृदा नीति में बदलाव और सर्वोत्तम प्रथाएँ

  • यूरोपीय संघ
    • यूरोपीय संघ मृदा रणनीति 2030 (EU Soil Strategy 2030): यूरोपीय संघ ग्रीन डील और ‘फॉर्म टू फोर्क’ रणनीति का केंद्रबिंदु; स्थायी मृदा प्रबंधन और सुसंगत निगरानी ढाँचों को बढ़ावा देता है।
  • सामान्य कृषि नीति (Common Agricultural Policy- CAP): प्रत्यक्ष भुगतान को मृदा-अनुकूल प्रथाओं जैसे फसल विविधीकरण, पारिस्थितिकी केंद्र क्षेत्रों और चरागाह संरक्षण से जोड़ता है।
  • ऑस्ट्रेलिया: राष्ट्रीय मृदा रणनीति (2021): तीन प्रमुख लक्ष्यों वाला 20-वर्षीय रोडमैप:
    • मृदा स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना।
    • मृदा नवाचार और प्रबंधन को बढ़ावा देना।
    • मृदा ज्ञान और क्षमता का निर्माण करना।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: मृदा स्वास्थ्य सिद्धांतों को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन और तकनीकी सहायता प्रदान करता है, जैव विविधता को अधिकतम करना, फसलों को शामिल करना, जीवित जड़ों को बढ़ाना और व्यवधान को न्यूनतम करना।
    • मृदा स्वास्थ्य संस्थान (Soil Health Institute): एक गैर-लाभकारी संस्था, जो अनुसंधान और आउटरीच के माध्यम से मृदा स्वास्थ्य प्रणालियों को अपनाने में तेजी ला रही है।
  • चीन: राष्ट्रीय मृदा जनगणना, मृदा प्रदूषण और क्षरण से निपटने के लिए सुधारों को सूचित करने हेतु एक व्यापक मृदा आँकड़ा संग्रह किया गया।
    • नीतियाँ सतत् कृषि और मृदा संरक्षण पर जोर देती हैं।
  • अफ्रीका (केन्या, नाइजर, बेनिन, बुर्किना फासो): ध्यान केंद्रित करना:
    • मृदा संरक्षण और जल संचयन (जैसे- केन्या में जलग्रहण विधियाँ)
    • नाइजर में एकीकृत मृदा उर्वरता प्रबंधन (Integrated Soil Fertility Management- ISFM)।
    • कृषि वानिकी और सदाबहार कृषि (कृषि प्रणालियों में वृक्ष)
    • मृदा संवर्द्धन फसलें जैसे मुकुना (बेनिन)
    • IPM और सतत् प्रथाओं को बढ़ावा देने वाले किसान फील्ड स्कूल
  • वैश्विक मृदा भागीदारी (Global Soil Partnership) (FAO): वर्ष 2012 में स्थापित, यह एक स्वैच्छिक, बहु-हितधारक मंच है, जो सतत् मृदा प्रबंधन (Sustainable Soil Management-SSM) को बढ़ावा देता है।
    • नीति निर्माताओं और भूमि उपयोगकर्ताओं की सहायता के लिए SSM के लिए स्वैच्छिक दिशा-निर्देश विकसित किए गए हैं।
    • सतत् विकास लक्ष्यों, विशेष रूप से शून्य भुखमरी और जलवायु कार्रवाई में योगदान देता है।

निष्कर्ष

“एक पोषित राष्ट्र की शुरुआत पोषित मृदा, शिक्षित विकल्पों और समावेशी नीतियों से होती है।” मृदा-केंद्रित पोषण सुधार एक लचीली, स्वस्थ और समतामूलक खाद्य प्रणाली की नींव हैं। मृदा स्वास्थ्य में सुधार करके, भारत न केवल फसलों का पोषण करता है, बल्कि अपने लोगों की रक्षा भी करता है, किसानों का समर्थन करता है और पृथ्वी को पुनर्स्थापित करता है। इसलिए, 21वीं सदी में भारत की खाद्य, पोषण और जलवायु सुरक्षा के लिए मृदा-प्रथम रणनीति आवश्यक है।

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