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संक्षेप में समाचार

Lokesh Pal August 16, 2024 05:19 66 0

नीलकुरिंजी 

(स्ट्रोबिलैंथेस कुंथियाना)

नीलकुरिंजी (स्ट्रोबिलैंथेस कुंथियाना), एक फूल वाली झाड़ी है, जिसमे प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार पुष्पन होता है, अब इसे IUCN रेड लिस्ट में संवेदनशील (मानदंड A2c) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

नीलकुरिंजी (स्ट्रोबिलैंथेस कुंथियाना)

  • कुरिंजी या नीलकुरिंजी एक झाड़ीदार पौधा है, जो दक्षिण भारत में पश्चिमी घाट के शोला वनों में पाया जाता है। वे प्रकृति में सेमलपेरस हैं।
  • नाम: इस पौधे का नाम प्रसिद्ध कुंथी नदी के नाम पर रखा गया है जो केरल के साइलेंट वैली नेशनल पार्क से होकर प्रवाहित है।
  • IUCN स्थिति: संवेदनशील (Vulnerable)
  • जीनस: कुरिंजी पौधा जीनस स्ट्रोबिलैंथेस, परिवार एकेंथेसी से संबंधित है एवं इसकी पहचान 19वीं शताब्दी में की गई थी।
  • अन्य प्रजातियाँ
    • स्ट्रोबिलैंथेस एनामलाइका (Strobilanthes Anamallaica)
    • स्ट्रोबिलैंथेस हेनेनस (Strobilanthes Heyneanus)
    • स्ट्रोबिलैंथेस पुल्नियेन्सिस (Strobilanthes Pulnyensis)
    • स्ट्रोबिलैंथेस नियोएस्पर (Strobilanthes Neoasper)
  • विशेषताएँ: कुरिंजी 30 से 60 सेमी. की ऊँचाई तक वृद्धि करता है एवं 1,300-2,400 मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है।
  • परागणक: मधुमक्खियाँ नीलकुरिंजी के परागणक के रूप में कार्य करती हैं। 
  • नीलगिरि पर्वत: कुरिंजी कभी तमिलनाडु में नीलगिरि पहाड़ियों (पश्चिमी घाट का भाग) में बहुतायत से उगता था।
    • कुरिंजी के नीले रंग के कारण पहाड़ियों को ‘नीलगिरि’ नाम दिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘नीला पर्वत’ है। 
  • प्राप्ति: केरल में, इडुक्की जिले की अनामलाई पहाड़ियाँ, पलक्कड़ जिले की अगाली पहाड़ियाँ एवं मुन्नार का एराविकुलम् राष्ट्रीय उद्यान में पाया जाता है।
    • पश्चिमी घाट के अतिरिक्त, कुरिंजी तमिलनाडु के पूर्वी घाट की शेवरॉय पहाड़ियों के साथ-साथ कर्नाटक के बेल्लारी जिले में भी पाया जाता है।
  • अंतिम पुष्पन: वर्ष 2006 वह समय था जब 12 वर्षों की अवधि के बाद नीलकुरिंजी का  केरल एवं तमिलनाडु में आखिरी बार पुष्पन हुआ था। 
    • इस वर्ष को ‘कुरिंजी का वर्ष’ घोषित किया गया एवं केरल में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया। 
  • सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व: तमिलकम या तमिल देश के प्राचीन संगम साहित्य में भूमि को पाँच प्रकारों में वर्गीकृत किया गया था। 
    • वे हैं कुरिंजी (पहाड़ी), मुल्लई (वन), मारुथम (कृषि), नीथल (तटीय) एवं पलाई (रेगिस्तान)।
    • पहाड़ी परिदृश्य, जिसे कुरिंजी कहा जाता है, कुरिंजी फूलों से भरपूर है। 
    • दक्षिण-पश्चिमी घाट के पर्वतीय वर्षा वनों में रहने वाला पलियार जनजाति समुदाय अपनी उम्र की गणना करने के लिए इस पौधे के फूल आने की अवधि का उपयोग करता है।
  • मुख्य खतरे: प्रमुख खतरों में चाय और सॉफ्टवुड बागानों से आवास का नुकसान, शहरीकरण, आक्रामक प्रजातियाँ और जलवायु परिवर्तन शामिल हैं।
    • इसका लगभग 40% क्षेत्र  नष्ट हो गया है।

गुरमार (Gurmar)

शोधकर्ताओं ने गया के ब्रह्मयोनि पहाड़ी पर मधुमेह रोधी औषधीय जड़ी-बूटी गुरमार की खोज की है।

गुरमार 

  • वैज्ञानिक नाम: जिम्नेमा सिल्वेस्ट्रे (Gymnema Sylvestre)
  • यह एक उष्णकटिबंधीय पौधा है, जो भारतीय मूल का पौधा है एवं अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया तथा चीन के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में भी पाया जाता है।
  • गुण
    • जिम्नेमा सिल्वेस्ट्रे एक औषधीय पौधा है। यह धीमी गति से बढ़ने वाला, बारहमासी, लतायुक्त पौधा है। 
    • आयुर्वेदिक प्रणाली में, इसे ‘मेषश्रृंग’ या ‘गुरमार’ कहा जाता है। 
    • जिम्नेमिक एसिड- जिम्नेमा सिल्वेस्ट्रे की पत्तियों से अलग किया गया एक सक्रिय घटक है।  जिसमें मोटापा-रोधी और मधुमेह-रोधी गुण होते हैं, यह शरीर के वजन में कमी लाता है और ग्लूकोज अवशोषण को रोकता है।
    • जिम्नेमा में ऐसे पदार्थ होते हैं, जो आँत से शर्करा के अवशोषण को कम करते हैं। जिम्नेमा शरीर में इंसुलिन की मात्रा भी बढ़ा सकता है एवं अग्नाशय में कोशिकाओं की वृद्धि भी कर सकता है, जो शरीर में वह स्थान है जहाँ इंसुलिन बनता है।

मॉनिटर छिपकली  (Monitor Lizard)

विश्व छिपकली दिवस प्रत्येक वर्ष 14 अगस्त को मनाया जाता है।

मॉनिटर लिजर्ड

  • छिपकली: छिपकलियाँ सरीसृप हैं, जिनकी विशेषता पपड़ीदार त्वचा, लंबा शरीर, चार पैर एवं चलती पलकें हैं। अधिकांश छिपकलियाँ अंडे देती हैं, लेकिन कुछ जीवित बच्चों को जन्म देती हैं।
  • मॉनिटर छिपकली: यह वनों, मैंग्रोव दलदलों एवं यहाँ तक ​​कि मानव निर्मित नहरों में भी पाई जा सकती है।
  • विशेषताएँ
    • मॉनिटर लिजर्ड अधिकतर मांसाहारी होती हैं।
    • वे अपने आस-पास की चीजों को देखने के लिए अपने पिछले पैरों पर खड़े हो सकती हैं।
    • वे फुर्तीली पर्वतारोही भी हैं, क्योंकि उनके पंजे सुरक्षित पकड़ प्रदान करते हैं।
  • वितरण: भारत चार मॉनिटर लिजर्ड का आवास स्थल है: 
    • बंगाल मॉनिटर (वरनस बेंगालेंसिस)
    • एशियाई जल मॉनिटर (वरानस साल्वेटर)
    • येलो मॉनिटर (वैरेनस फ्लेवेसेंस) 
    • डेजर्ट मॉनिटर (वारानस ग्रिसियस)

महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक भूमिकाएँ

  • शिकार की आबादी पर नियंत्रण: मॉनिटर छिपकलियाँ विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों (जैसे कीड़े, केकड़े, साँप, मछली, आदि) को खाती हैं, वे अपने शिकार की आबादी को नियंत्रित करते हैं, एवं बदले में बड़े शिकारियों (जैसे मगरमच्छ) के लिए भोजन का स्रोत होते हैं।

बंगाल मॉनिटर 

  • बंगाल मॉनिटर या कॉमन इंडियन मॉनिटर का वैज्ञानिक नाम वरानस बेंगालेंसिस है। 
  • बंगाल मॉनिटर लिजर्ड CITES परिशिष्ट I एवं  वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अनुसूची I का एक भाग है। 
  • IUCN रेड लिस्ट स्थिति: निकट संकटग्रस्त (NT)।
  • इस प्रजाति का औषधीय प्रयोजनों एवं उपभोग के लिए भी शिकार किया जाता है।
  • वितरण: अफगानिस्तान, बांग्लादेश, बर्मा, भारत, ईरान, नेपाल, पाकिस्तान एवं श्रीलंका।

DRDO ने लंबी दूरी के ग्लाइड बम ‘गौरव’ का उड़ान परीक्षण किया

भारत ने भारतीय वायु सेना के Su-30 MK-I फाइटर जेट से लॉन्ग रेंज ग्लाइड बम ( long-range glide bomb- LRGB) गौरव का ‘सफल’ पहला उड़ान परीक्षण किया है।

 लॉन्ग रेंज ग्लाइड बम (LRGB) – गौरव 

  • ‘गौरव’ एक वायु से लॉन्च किया जाने वाला 1,000 किलोग्राम का क्लास ग्लाइड बम है, जो लंबी दूरी तक लक्ष्य को भेदने में सक्षम है।
  • गौरव को अनुसंधान केंद्र इमारत (Research Centre Imarat- RCI), हैदराबाद द्वारा स्वदेशी रूप से डिजाइन एवं विकसित किया गया है।
  • इसे भारतीय वायु सेना के Su-30 MK-I लड़ाकू विमान से प्रक्षेपित किया गया।
  • स्थान: ओडिशा के तट पर।
  • प्रतिभागी: इसकी निगरानी DRDO वैज्ञानिकों द्वारा की गई एवं अडाणी डिफेंस एवं भारत फोर्ज ने भी हिस्सा लिया।
  • महत्त्व: सशस्त्र बलों की क्षमता को और मजबूत करने के लिए स्वदेशी रक्षा प्रौद्योगिकियों को विकसित करने के देश के प्रयास में यह एक प्रमुख मील का पत्थर है।
  • विशेषताएँ: लॉन्च होने के बाद, ग्लाइड बम अत्यधिक सटीक हाइब्रिड नेविगेशन योजना का उपयोग करके लक्ष्य की ओर बढ़ता है, जो अत्यधिक सटीक लक्ष्यीकरण के लिए ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (Global Positioning System- GPS) डेटा के साथ इनर्शियल नेविगेशन सिस्टम (Inertial Navigation System- INS) को जोड़ता है।

चंद्र-सौर कैलेंडर

एडिनबर्ग विश्वविद्यालय के एक शोधकर्ता ने गोबेकली टेपे में एक ऐसी चीज की खोज की है जिसे वे सबसे पुराना चंद्र-सौर कैलेंडर मानते हैं। गोबेकली टेपे दक्षिणी तुर्की का एक प्राचीन स्थल है, जो कभी मंदिर जैसे परिसरों का एक भाग था।

मुख्य निष्कर्ष

  • गोबेकली टेपे: इसे अक्सर दुनिया के पहले मंदिर के रूप में जाना जाता है, इसमें अलंकृत नक्काशी से सजाए गए बड़े पत्थर के स्तंभों की एक शृंखला है। 
    • यह नक्काशियाँ  लंबे समय तक शोधकर्ताओं के लिए शोध का विषय रही  है, लेकिन हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि वे एक प्राचीन समयपालन प्रणाली का प्रतिनिधित्व करती  हैं।
  • दिनों की गणना: स्तंभों पर नक्काशी में V-आकार के प्रतीकों की एक शृंखला शामिल है, जिनमें से प्रत्येक एक दिन का प्रतिनिधित्व करता है। 
    • इन प्रतीकों की गणना करके, शोधकर्ताओं ने 365 दिनों के एक कैलेंडर की पहचान की, जिसे 12 चंद्र महीनों और अतिरिक्त 11 दिनों में विभाजित किया गया था।
    • यह प्रणाली आधुनिक सौर कैलेंडर के साथ निकटता से मेल खाती है, जो इसे बनाने वाले प्राचीन लोगों द्वारा खगोल विज्ञान की एक परिष्कृत ज्ञान का संकेत देती है।
  • ग्रीष्म संक्रांति का चित्रण: एक पक्षी जैसी आकृति के गले में पहना गया V आकार का प्रतीक इस महत्त्वपूर्ण खगोलीय घटना का प्रतिनिधित्व करता है।
    • इससे पता चलता है कि गोबेकली टेपे के प्राचीन निवासी आकाश के उत्सुक पर्यवेक्षक थे, जो बदलते मौसम एवं खगोलीय घटनाओं पर नजर रखने के लिए अपने कैलेंडर का उपयोग करते थे। 
    • इन नक्काशी में सूर्य एवं चंद्रमा दोनों का चित्रण भी शामिल है, जो एक संयुक्त सौर तथा चंद्र कैलेंडर का संकेत देता है।
  • ऐतिहासिक महत्त्व: गोबेकली टेपे का कैलेंडर न केवल अपनी प्राचीनता के लिए बल्कि अपने संभावित ऐतिहासिक महत्त्व के लिए भी उल्लेखनीय है। 
  • गोबेकली टेपे (GObekli Tepe): यह प्राचीन इंजीनियरिंग एवं कलात्मकता का अनुपम उदाहरण है।
    • इसका निर्माण शिकारी-संग्राहकों द्वारा 9,600 और 8,200 ईसा पूर्व के बीच किया गया था, तथा यह स्टोनहेंज से 6,000 वर्ष से भी अधिक पुराना है।
    • बड़े पत्थर के खंभे, जिनमें से कुछ का वजन 20 टन तक है, गोलाकार घेरे में व्यवस्थित हैं और जानवरों और अमूर्त प्रतीकों की नक्काशी से सजाए गए हैं।
    • गोबेकली टेपे के सटीक उद्देश्य पर लंबे समय से बहस चल रही है, लेकिन कई लोगों का मानना ​​है कि इसका उपयोग अनुष्ठानिक या औपचारिक समारोहों के लिए किया जाता था।

केरल के यहूदी समुदाय

हाल ही में 89 वर्षीय क्वीनी हेलेगुआ का निधन हो गया। वह केरल में परदेसी यहूदी समुदाय की आखिरी महिला थीं।

मालाबार यहूदी

  • जिन्हें कोचीन यहूदियों के रूप में भी जाना जाता है, ये अपना इतिहास राजा सोलोमन के समय से मानते हैं (लगभग 3,000 वर्ष पूर्व 10वीं शताब्दी ईसा पूर्व)। 
    • प्रारंभ में, वे क्रैंगनोर (वर्तमान में त्रिशूर जिले में कोडुंगल्लूर) में बस गए, जिसे समुदाय स्वयं शिंगली के नाम से संदर्भित करता था।
  • आर्थिक एवं औपचारिक विशेषाधिकार: इस समुदाय का सबसे पुराना दस्तावेजी साक्ष्य  क्रैंगनोर के हिंदू शासक द्वारा स्थानीय यहूदी नेता को लगभग 1,000 ईसवी में दिया गया ताँबे की प्लेटों का एक सेट था, जो विभिन्न आर्थिक एवं औपचारिक विशेषाधिकारों को सूचीबद्ध करता है, जो यहूदियों को इस क्षेत्र में प्राप्त थे।
  • पुर्तगालियों का आगमन: 14वीं शताब्दी के बाद से, एवं विशेष रूप से 16वीं शताब्दी में पुर्तगालियों के आगमन के बाद, मालाबार यहूदी क्रैंगनोर से आगे दक्षिण में कोचीन (अब कोच्चि) चले गए।

परदेसी यहूदी (Paradesi Jews)

  • इसका अर्थ है ‘विदेशी यहूदी’, जो कैथोलिक शासकों द्वारा उत्पीड़न के कारण इबेरियन प्रायद्वीप से 15वीं एवं 16वीं शताब्दी में भारत आए थे। 
  • वे स्पेन एवं पुर्तगाल के कैथोलिक शासकों द्वारा उत्पीड़न के कारण भारत आ गए  तथा मालाबार तट पर पहले से बसे यहूदी समुदायों के साथ-साथ मद्रास में भी बस गए।
  • परदेसी यहूदियों ने मलयालम भाषा एवं स्थानीय रीति-रिवाजों को अपनाया, लेकिन अंततः केरल में पुराने यहूदी समुदाय से खुद को दूर कर लिया, जिससे दो अलग-अलग समूहों का गठन हुआ।
  • पश्चिमी लेखक, पैराडेसिस (Paradesis) को ‘श्वेत यहूदी’ एवं मालाबारियों को ‘काले यहूदी’ कहते हैं।

इजरायल प्रवास

  • भारत का स्वागत: यूरोप या पश्चिम एशिया में यहूदी समुदायों के विपरीत, भारत में लोगों को शायद ही कभी यहूदी-विरोधी या उत्पीड़न का सामना करना पड़ा हो। कोडर्स जैसे कई लोग विदेशी व्यापार के एजेंट एवं डच तथा हिंदू शासकों के सलाहकार के रूप में उच्च पदों पर पहुँचे। 
  • प्रवास: वर्ष 1950 के दशक से, केरल के यहूदियों का इजरायल में लगातार प्रवास हो रहा है। 
    • अनुमान के मुताबिक, आज इजरायल में 4,000 से अधिक ‘कोचीनिम’ (Cochinim) हैं।

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