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भारत में संसदीय पर्यवेक्षण

Lokesh Pal May 06, 2025 02:21 10 0

संदर्भ

भारत में, संसदीय प्रणाली को दैनिक संसदीय पर्यवेक्षण के माध्यम से कार्यकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अपनाया गया था, जिसमें स्थिरता पर जिम्मेदारी को प्राथमिकता दी गई थी। हालाँकि, विधायी पर्यवेक्षण प्रायः कमजोर हो जाता है, जिससे दक्षता प्राप्ति के लिए पारदर्शिता को जोखिम में डाल दिया जाता है।

संसदीय पर्यवेक्षण के बारे में

  • संसदीय पर्यवेक्षण से तात्पर्य विधायिका (संसद) द्वारा कार्यकारी शाखा (सरकार) पर पारदर्शिता, जवाबदेही और प्रभावी शासन सुनिश्चित करने के लिए की जाने वाली जाँच और पर्यवेक्षण से है।

भारत में संसदीय पर्यवेक्षण का महत्त्व

  • कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करना: संसदीय पर्यवेक्षण सुनिश्चित करता है कि मंत्रिपरिषद संविधान के अनुच्छेद-75(3) के अनुसार, लोकसभा के प्रति उत्तरदायी बनी रहे, जो डॉ. बी.आर. अंबेडकर के स्थिरता पर दैनिक जवाबदेही पर जोर देने के लक्ष्य के साथ संरेखित है।
  • शासन में पारदर्शिता को बढ़ावा: प्रश्नकाल, बहस और CAG रिपोर्ट जैसी पर्यवेक्षण व्यवस्थाएँ सरकारी कार्यों को जनता और संसदीय जाँच के लिए रखती हैं, जिससे विश्वास में वृद्धि होती है।
  • सत्ता के दुरुपयोग को रोकना: कार्यपालिका के कार्यों की जाँच करके, संसद मनमाने निर्णयों और अतिक्रमण को रोकती है, संवैधानिक जाँच और संतुलन बनाए रखती है।
  • विधायी गुणवत्ता को बढ़ाती है: समितियों और बहसों के माध्यम से पर्यवेक्षण सुनिश्चित करता है कि कानूनों की पूरी तरह से जाँच करके इन्हें जनता की आवाश्यकताओं और संवैधानिक सिद्धांतों के साथ संरेखित किया जाए।
  • सार्वजनिक निधियों की सुरक्षा: वित्तीय पर्यवेक्षण बजट जाँच और CAG ऑडिट के माध्यम से अनुच्छेद-112-114 के अनुसार सार्वजनिक संसाधनों के कुशल और वैध उपयोग को सुनिश्चित करता है।
  • सार्वजनिक शिकायतों का समाधान: शून्य काल और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव जैसे तंत्र सांसदों को तत्काल सार्वजनिक मुद्दे उठाने की अनुमति देते हैं, जिससे नागरिक चिंताओं के प्रति सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित होती है।
  • लोकतांत्रिक शासन को मजबूत करना: कार्यपालिका को जवाबदेह बनाकर, पर्यवेक्षण लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखता है, यह सुनिश्चित करता है कि शासन निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से लोगों की इच्छा को दर्शाता है।

भारत में संसदीय पर्यवेक्षण का संवैधानिक ढाँचा

  • निरीक्षण की नींव
    • अनुच्छेद-75(3): यह बताता है कि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है।
      • यह वेस्टमिंस्टर शैली के लोकतंत्र में संसदीय जवाबदेही का मूल है।
    • बी.आर. अंबेडकर का दृष्टिकोण (संविधान सभा): संसदीय प्रणाली का समर्थन किया क्योंकि यह ‘अधिक जिम्मेदारी और कम स्थिरता’ सुनिश्चित करती है, जो लोकतंत्र के लिए उपयुक्त है।
      • संसदीय बहस, प्रश्नों और प्रस्तावों के माध्यम से दैनिक जवाबदेही की वकालत की।
  • विधायी प्रक्रिया तथा नियंत्रण
    • अनुच्छेद-107: संसद में विधेयकों के प्रस्तुतीकरण और पारित होने से संबंधित है।
    • अनुच्छेद-108: विधायी गतिरोधों को हल करने के लिए दोनों सदनों की संयुक्त बैठकों से संबंधित है।
    • अनुच्छेद-111: राष्ट्रपति किसी विधेयक (धन विधेयक के अलावा) पर स्वीकृति दे सकता है, रोक सकता है या पुनर्विचार के लिए वापस कर सकता है।
  • वित्तीय निरीक्षण
    • अनुच्छेद-112 (वार्षिक वित्तीय विवरण): राष्ट्रपति द्वारा संसद में केंद्रीय बजट प्रस्तुत करने का आदेश देता है।
    • अनुच्छेद-113 (विनियोग विधेयक): संसद को भारत की संचित निधि से सभी निकासी को मंजूरी देनी चाहिए।
    • अनुच्छेद-114: कानून द्वारा संचित निधि से व्यय के प्राधिकरण को नियंत्रित करता है।
    • अनुच्छेद-117: निर्दिष्ट करता है कि धन विधेयक केवल राष्ट्रपति की सिफारिश के साथ लोकसभा में पेश किए जा सकते हैं।

भारत में संसदीय पर्यवेक्षण की व्यवस्था

  • संसदीय प्रश्न
    • प्रश्नकाल संसद सदस्यों (सांसदों) को सरकार की नीतियों, कार्यों तथा विफलताओं के बारे में मंत्रियों से प्रश्न पूछने का अवसर देता है। यह कार्यपालिका की दैनिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण तंत्र है।
      • हालाँकि, लगातार व्यवधानों के कारण इसकी प्रभावशीलता कम होती जा रही है; उदाहरण के लिए, 17वीं लोकसभा (वर्ष 2019-24) के दौरान, प्रश्नकाल के लिए तय अवधि का केवल 60% (लोकसभा में) और 52% (राज्यसभा में) भाग ही प्रयोग किया गया।
    • शून्यकाल सांसदों को बिना किसी पूर्व सूचना के तत्काल सार्वजनिक मुद्दे उठाने की अनुमति देता है।
      • अनौपचारिक होने के बावजूद, यह सरकार के ध्यान में तत्काल चिंताओं को लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • संसदीय समितियाँ
    • विभाग-संबंधित स्थायी समितियाँ (Department-related Standing Committees- DRSC) विशिष्ट मंत्रालयों से संबंधित विधेयकों, बजट आवंटन और नीतियों का विश्लेषण करती हैं।
      • हालाँकि ये विस्तृत रिपोर्ट तैयार करती हैं, लेकिन संसद में इन पर शायद ही कभी चर्चा की जाती है और कानून पर उनका प्रभाव सीमित रहता है।
    • लोक लेखा समिति (Public Accounts Committee- PAC) नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General- CAG) द्वारा तैयार की गई लेखापरीक्षा रिपोर्टों की जाँच करती है तथा सार्वजनिक धन का उचित उपयोग सुनिश्चित करती है।
      • इसने वर्ष 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार सहित कई अनियमितताओं को उजागर किया है।
      • पिछले आठ वर्षों में PAC ने औसतन वार्षिक रूप से 180 सिफारिशें की हैं, जिनमें से 80% को सरकार ने स्वीकार किया है।
    • अनुमान समिति बजटीय व्यय तथा योजनाओं के कार्यान्वयन की दक्षता का मूल्यांकन करती है। 
      • उदाहरण के लिए, इसने आयात निर्भरता को कम करने के लिए घरेलू यूरेनियम उत्पादन को बढ़ाने की सिफारिश की। 
    • सार्वजनिक उपक्रमों की समिति सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के कामकाज की देख-रेख करती है। 
      • इसने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (National Highways Authority of India- NHAI) को देरी से बचने के लिए 80% भूमि अधिग्रहण और सभी मंजूरी प्राप्त करने के बाद ही परियोजनाएँ शुरू करने की सलाह दी।
  • बहस और प्रस्ताव: अविश्वास प्रस्ताव, निंदा प्रस्ताव, ध्यानाकर्षण नोटिस और स्थगन प्रस्ताव जैसे साधन सांसदों को तत्काल या विवादास्पद मुद्दों पर बहस करने और सरकार से स्पष्टीकरण माँगने की अनुमति देते हैं।
    • ये चर्चाएँ मंत्रिपरिषद की जवाबदेही को मजबूत करती हैं और नागरिकों की चिंताओं को व्यक्त करने में मदद करती हैं।

भारत में संसदीय पर्यवेक्षण का समर्थन करने से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख मामले

  • राम जवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य (1955): इस मामले में संसदीय प्राधिकरण के संबंध में कार्यपालिका की शक्तियों पर विचार किया गया।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कार्यपालिका को संसद से अधिकार प्राप्त होते हैं और उसे संसद की विधायी पर्यवेक्षण में काम करना चाहिए, जिससे लोकसभा को सामूहिक उत्तरदायित्त्व संबंधी अनुच्छेद-75(3) के तहत घोषित प्रावधान का सही उपयोग हो।
  • मनोहर लाल शर्मा बनाम प्रधान सचिव (2014): इसे कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाला मामले के रूप में जाना जाता है, इसमें CAG रिपोर्ट द्वारा चिह्नित अनियमितताएँ शामिल थीं।
  • न्यायिक समर्थन: सर्वोच्च न्यायालय ने CAG निष्कर्षों और PAC जाँच पर भरोसा करते हुए 204 कोयला ब्लॉक आवंटन रद्द कर दिए, जिससे कुप्रबंधन और वित्तीय घाटे का खुलासा हुआ।
  • कृष्ण कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य (2017): इस मामले में विधायी जाँच को दरकिनार करते हुए बार-बार अध्यादेश जारी करने की वैधता की जाँच की गई।
    • न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि अध्यादेशों को संसद के समक्ष रखा जाना चाहिए तथा वे नियमित कानून का स्थान नहीं ले सकते, जिससे कार्यकारी अतिक्रमण पर अंकुश लगता है और संसदीय पर्यवेक्षण को समर्थन मिलता है।
  • पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य (1998): यह मामला रिश्वत कांड के संदर्भ में संसदीय विशेषाधिकारों से संबंधित था।
    • न्यायालय ने संसदीय विशेषाधिकारों के दायरे को स्पष्ट किया, सांसदों के अधिकारों की रक्षा की, जैसे कि बाह्य हस्तक्षेप के बिना प्रस्ताव प्रस्तुत करना और बहस करना।
  • सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन बनाम भारत संघ (2012): 2G स्पेक्ट्रम घोटाला के रूप में जाना जाने वाला यह मामला CAG और PAC द्वारा पहचानी गई अनियमितताओं को संबोधित करता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने CAG रिपोर्ट और PAC जाँच के आधार पर 122 दूरसंचार लाइसेंस रद्द कर दिए, जिसमें ₹1.76 लाख करोड़ के नुकसान का अनुमान लगाया गया था, जिससे संसदीय पर्यवेक्षण प्रयासों को वैधता मिली।
  • एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): संसद के प्रति कार्यपालिका की सामूहिक जिम्मेदारी को मजबूत किया (अनुच्छेद-75(3))।
    • इसने लोकसभा के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करके पर्यवेक्षण को मजबूत किया।

संसदीय पर्यवेक्षण को समर्थन देने में विपक्ष की भूमिका

  • सरकारी नीतियों और कार्यों की जाँच करना: विपक्ष प्रश्नकाल, शून्यकाल तथा बहस के दौरान सरकारी नीतियों की आलोचना करता है, जवाबदेही सुनिश्चित करता है और नीतिगत खामियों को उजागर करता है।
  • मुख्य पर्यवेक्षण समितियों का नेतृत्व करना: विपक्षी सांसद प्रायः लोक लेखा समिति (Public Accounts Committee- PAC) जैसी महत्त्वपूर्ण समितियों की अध्यक्षता करते हैं, जिससे सार्वजनिक निधियों और कार्यकारी कार्यों की निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित होती है।
  • प्रस्तावों के माध्यम से जन शिकायतें उठाना: विपक्ष तत्काल सार्वजनिक मुद्दों को संबोधित करने के लिए प्रस्तावों (जैसे- ध्यानाकर्षण, स्थगन या अविश्वास प्रस्ताव) का उपयोग करता है, जिससे कार्यकारी प्रतिक्रियाएँ होती हैं।
  • कार्यकारी अतिक्रमण को चुनौती देना: विपक्ष उन अध्यादेशों तथा कार्यकारी कार्यों की जाँच करता है, जो संसदीय पर्यवेक्षण को दरकिनार करते हैं, जिससे संवैधानिक जाँच सुनिश्चित होती है।
  • विधायी जाँच को बढ़ाना: विपक्षी सांसद समिति की समीक्षा तथा विधेयकों पर बहस में योगदान देते हैं, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि कानून सार्वजनिक हित और संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हों।
  • जनमत जुटाना: विपक्ष निरीक्षण निष्कर्षों को उजागर करने के लिए मीडिया तथा सार्वजनिक मंचों का लाभ उठाता है, जिससे कार्यपालिका पर कार्रवाई करने का दबाव बढ़ता है।

संसदीय पर्यवेक्षण में मीडिया की भूमिका

  • निरीक्षण तंत्र को बढ़ाना: मीडिया प्रश्नकाल, शून्यकाल और समिति के निष्कर्षों पर रिपोर्टिंग करता है, संसदीय जाँच को जनता के संज्ञान में लाता है और जवाबदेही के लिए कार्यपालिका पर दबाव डालता है।
  • वित्तीय और नीतिगत अनियमितताओं को उजागर करना: मीडिया CAG रिपोर्ट और लोक लेखा समिति (PAC) के निष्कर्षों की जाँच करता है और उन्हें प्रचारित करता है, यह सुनिश्चित करता है कि अनियमितताएँ व्यापक दर्शकों तक पहुँचें तथा कार्यकारी कार्रवाई को प्रेरित करना।
  • समिति की सिफारिशों को प्रदर्शित करना: समिति की सिफारिशों की रिपोर्टिंग करके, मीडिया यह सुनिश्चित करता है कि वे अपने सलाहकारी स्वभाव के बावजूद गति प्राप्त करें तथा कार्यान्वयन के लिए दबाव डालें।
  • विधायी बहसों के संबंध में सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाना: मीडिया अध्यादेशों और विधेयकों पर बहस को शामिल करता है, नागरिकों को संसदीय जाँच तथा कार्यकारी जवाबदेही के बारे में सूचित करता है, विशेषतः तब जब व्यवधान प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण को सीमित करते हैं।
  • निरीक्षण संबंधी कमियों को संबोधित करना: मीडिया कमजोर निरीक्षण (जैसे- PRS विधान अनुसंधान के अनुसार, वर्ष 2014-2019 में PAC की केवल 60% अनुशंसाएँ लागू की गईं) के कारण उत्पन्न कमियों को कार्यकारी प्रभुत्व या विशेषज्ञता की कमी जैसे मुद्दों की जाँच करके भरता है।
  • सार्वजनिक सहभागिता को सुविधाजनक बनाना: मीडिया संसद और नागरिकों के बीच एक सेतु का काम करता है, शून्यकाल या ध्यानाकर्षण प्रस्तावों जैसे मुद्दों पर रिपोर्टिंग करके निरीक्षण में सार्वजनिक भागीदारी को प्रोत्साहित करता है।
  • कार्यपालिका को जवाबदेह ठहराना: खोजी पत्रकारिता कार्यकारी अतिक्रमण (जैसे- अध्यादेश) और नीति विफलताओं को प्रदर्शित करती है, संसदीय निरीक्षण को पूरक बनाती है और सुधारात्मक कार्रवाई पर दबाव डालती है।

भारत में संसदीय पर्यवेक्षण की चुनौतियाँ

  • बार-बार व्यवधान: विरोध प्रदर्शन, स्थगन और वाकआउट जैसे व्यवधान बहस एवं प्रश्नकाल जैसी प्रभावी पर्यवेक्षण गतिविधियों के लिए उपलब्ध समय को काफी कम कर देते हैं।
    • 16वीं लोकसभा (वर्ष 2014-2019) में व्यवधानों के कारण कुछ सत्रों में उत्पादकता 40% तक कम रही, जबकि वर्ष 2018 के मानसून सत्र में स्थगन के कारण 34% समय बर्बाद हुआ।
  • कमजोर समिति प्रणाली: संसदीय समितियों में बाध्यकारी अधिकार का अभाव है, और उनकी सिफारिशें सलाहकारी होती हैं, जिससे कार्यकारी कार्यों पर उनका प्रभाव सीमित हो जाता है।
    • 2G घोटाले जैसी वित्तीय अनियमितताओं पर लोक लेखा समिति की सिफारिशों को पूरी तरह से लागू नहीं किया गया, वर्ष 2014-2019 के बीच केवल 60% PAC सुझावों पर कार्रवाई की गई।
  • कार्यकारी प्रभुत्व: एक मजबूत बहुमत वाली सरकार संसदीय कार्यवाही को प्रभावित कर सकती है, वस्तुनिष्ठ जाँच को कम कर सकती है तथा अध्यादेशों जैसे तंत्रों के माध्यम से पर्यवेक्षण को दरकिनार कर सकती है।
    • वर्ष 2014-2019 के बीच, सरकार ने 76 अध्यादेश जारी किए, जिनमें से कुछ, जैसे ट्रिपल तलाक अध्यादेश, की संसदीय बहस को दरकिनार करने के लिए आलोचना की गई।
  • विशेषज्ञता की कमी: सांसदों में प्रायः साइबर सुरक्षा, आर्थिक सुधार या तकनीकी नीतियों जैसे जटिल मुद्दों की प्रभावी ढंग से जाँच करने के लिए तकनीकी ज्ञान की कमी होती है।
    • आधार विधेयक (वर्ष 2016) पर चर्चा के दौरान, केवल 15% सांसदों ने डेटा गोपनीयता के बारे में तकनीकी चिंताएँ उठाईं, जो सीमित विशेषज्ञता को दर्शाता है।
  • पक्षपातपूर्ण राजनीति: राजनीतिक ध्रुवीकरण रचनात्मक आलोचना के बजाय व्यवधान पैदा करता है, जिससे वस्तुनिष्ठ पर्यवेक्षण कमजोर होती है।
    • वर्ष 2019 के शीतकालीन सत्र में नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे राजनीतिक मुद्दों पर विपक्ष के वॉकआउट के कारण प्रश्नकाल का 20% समय बर्बाद हुआ।
  • सीमित वित्तीय पर्यवेक्षण: वित्तीय जाँच में संसद की भूमिका काफी हद तक व्यय के बाद की होती है और यह प्रमुख बजट प्रावधानों में बदलाव नहीं कर सकती, जिससे सक्रिय पर्यवेक्षण सीमित हो जाती है।
    • विपक्ष की माँगों के बावजूद केंद्रीय बजट वर्ष 2020-21 को न्यूनतम परिवर्तनों के साथ पारित किया गया, और समय की कमी के कारण PAC ने CAG ऑडिट पैराग्राफ के केवल 5% की समीक्षा की, जैसा कि CAG रिपोर्ट में बताया गया है।
  • बैठक के दिनों में कमी: छोटे संसदीय सत्रों में बहस, समिति की बैठकों और पर्यवेक्षण गतिविधियों के लिए समय सीमित होता है, जिससे सरकारी कार्यों की जाँच कम होती है।
    • 17वीं लोकसभा (वर्ष 2019-2024) में वार्षिक रूप से औसतन 55 बैठक दिन होते हैं, जो अनुशंसित 100 दिनों से बहुत कम है, जिसके कारण कृषि कानून (वर्ष 2020) जैसे विधेयक जल्दबाजी में पारित किए गए।
  • विधायी जाँच के बाद की अनुपस्थिति: भारत में कानून बनने के बाद उनके प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए कोई औपचारिक तंत्र नहीं है।
    • यूके मॉडल के विपरीत, जहाँ विभाग 3-5 वर्षों के भीतर कानूनों की समीक्षा करते हैं, भारतीय कानून प्रायः कार्यान्वयन के बाद अनियंत्रित हो जाते हैं, जिसके कारण देरी होती है या कोई सुधार नहीं होता है।
  • अपर्याप्त अनुसंधान और तकनीकी सहायता: सांसद विशेष कर्मचारियों या डेटा विश्लेषण उपकरणों के बिना कार्य करते हैं, जिससे उनकी पर्यवेक्षण क्षमता सीमित हो जाती है।
    • बड़े पैमाने पर बजट दस्तावेजों और ऑडिट रिपोर्ट के युग में, एआई और डेटा एनालिटिक्स टूल की कमी के कारण सांसदों के लिए अनियमितताओं को चिह्नित करना या रुझानों को प्रभावी ढंग से निगरानी करना मुश्किल हो जाता है।

भारत में संसदीय पर्यवेक्षण की सफलताएँ

  • रेलवे लाभांश छूट (वर्ष 2016): रेलवे पर स्थायी समिति ने लाभांश भुगतान दायित्व को माफ करने की सिफारिश की, जिसे वर्ष 2016 में लागू किया गया।
  • मोटर वाहन (संशोधन) विधेयक, 2017: परिवहन पर स्थायी समिति ने तीसरे पक्ष के बीमा पर ‘कैप’ हटाने और राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा बोर्ड के निर्माण जैसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों को प्रभावित किया।
  • राजमार्ग परियोजनाओं को सुव्यवस्थित करना: सार्वजनिक उपक्रमों की समिति (Committee on Public Undertakings- COPU) ने सिफारिश की कि NHAI परियोजनाएँ 80% भूमि अधिग्रहण तथा सभी मंजूरी के बाद ही शुरू होनी चाहिए, ताकि दक्षता सुनिश्चित हो सके।
  • भूमि अधिग्रहण अध्यादेश (2014): भूमि अधिग्रहण अध्यादेश (2014) को गहन संसदीय जाँच का सामना करना पड़ा, जिसके कारण इसे वापस ले लिया गया और अधिक हितधारक परामर्श के साथ एक संशोधित विधेयक प्रस्तुत किया गया।
  • परमाणु क्षेत्र में आयात निर्भरता को कम करना: प्राक्कलन समिति ने नई खदानें खोलकर घरेलू यूरेनियम उत्पादन को बढ़ावा देने का सुझाव दिया – आयात पर निर्भरता को कम करने के लिए एक कदम।
  • राष्ट्रमंडल खेल भ्रष्टाचार का खुलासा (2010): लोक लेखा समिति (Public Accounts Committee- PAC) ने वर्षं 2010 राष्ट्रमंडल खेलों से संबंधित देरी, अनियमित नियुक्तियों तथा  भ्रष्टाचार को उजागर किया।
  • PAC का लगातार प्रदर्शन: मंत्रालयों में संस्थागत जवाबदेही।
    • पिछले 8 वर्षों में, PAC ने प्रतिवर्ष औसतन 180 सिफारिशें की हैं, जिनमें से लगभग 80% को सरकार द्वारा स्वीकार किया गया है – जो कार्यकारी जवाबदेही को दर्शाता है।
  • प्रश्नकाल के माध्यम से कार्यपालिका को जवाबदेह बनाना: वर्ष 2019 में, लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान 15,000 से अधिक प्रश्न उठाए गए, जिनमें से 20% से नीतिगत स्पष्टीकरण प्राप्त किए गए, जैसे कि मनरेगा फंड में देरी।

संसदीय पर्यवेक्षण में वैश्विक मानक

  • यूनाइटेड किंगडम: यू.के. में यह अनिवार्य है कि सरकारी विभाग प्रमुख कानूनों की समीक्षा उनके अधिनियमन के 3 से 5 वर्षों के भीतर करेगा।
    • संसदीय समितियाँ इन समीक्षा रिपोर्टों की गहन जाँच करती हैं तथा आवश्यक संशोधनों की संस्तुति करती हैं।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: कांग्रेस की समितियाँ नियमित रूप से कार्यकारी अधिकारियों और स्वतंत्र विशेषज्ञों की शपथ-पत्र गवाही के साथ सुनवाई करती हैं।
    • समितियों के पास दस्तावेज प्रस्तुत करने तथा गवाहों की उपस्थिति को बाध्य करने के लिए सम्मन शक्तियाँ होती हैं।
  • जर्मनी में अनुसंधान आधारित निरीक्षण: बुंडेस्टैग समितियाँ विभिन्न नीति डोमेन में विषय-वस्तु विशेषज्ञों का एक स्थायी स्टाफ रखती हैं।
    • विशेष समितियाँ विस्तृत जाँच के माध्यम से लगभग 60% कानून बनाती हैं।
  • स्वीडन का पारदर्शिता तंत्र: स्वीडन का सार्वजनिक पहुँच का सिद्धांत नागरिकों और सांसदों को लगभग सभी सरकारी दस्तावेजों तक पहुँच की गारंटी प्रदान करता है।
    • संसदीय समितियाँ नियमित रूप से मंत्रिस्तरीय पत्राचार और निर्णय लेने के रिकॉर्ड की जाँच करती हैं।
  • कनाडा में वित्तीय जवाबदेही: कनाडा का स्वतंत्र संसदीय बजट कार्यालय (Parliamentary Budget Office- PBO) सरकारी व्यय का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण प्रदान करता है।
    • यह कार्यालय गैर-पक्षपाती शोध तथा विश्लेषण के माध्यम से समिति की जाँच का प्रत्यक्ष समर्थन करता है।

भारत में संसदीय पर्यवेक्षण को मजबूत करने की दिशा में आगे की राह

  • संसदीय समितियों को सशक्त बनाना: PAC और अनुमान समिति जैसी समितियों को चुनिंदा सिफारिशों तथा सम्मन प्राधिकरण के लिए बाध्यकारी शक्तियाँ प्रदान करना।
    • प्रक्रिया के नियमों में संशोधन करना तथा समर्पित वित्तपोषण और अनुसंधान कर्मचारियों को सुनिश्चित करना।
  • विधायी जाँच के बाद संस्थागत बनाना: मंत्रालयों को अधिनियमन के 3-5 वर्षों के भीतर कानूनों की समीक्षा करने का आदेश देना; संसदीय मूल्यांकन कार्यालय स्थापित करना।
    • समीक्षा समय-सीमा को औपचारिक बनाना और उन्हें समिति-आधारित पर्यवेक्षण से जोड़ना।
  • वित्तीय पर्यवेक्षण को मजबूत बनाना: संसद के तहत एक स्वतंत्र संसदीय बजट कार्यालय (PBO) बनाना।
    • PBO के लिए कानून बनाना और प्रमुख योजनाओं की बजट जाँच को अनिवार्य बनाना।
  • संसदीय बैठक के दिनों में वृद्धि: ब्रिटेन के 140-160 दिनों की तुलना में न्यूनतम 100 बैठक दिन/वर्ष अनिवार्य बनाना।
    • अनुच्छेद-85 में संशोधन करना या लंबे और नियमित सत्र सुनिश्चित करने के लिए संसदीय नियम बनाना।
  • व्यवधानों को कम करना तथा विपक्ष को सशक्त बनाना: ‘विपक्षी दिवस’ आवंटित करना, ‘शैडो कैबिनेट’ को औपचारिक बनाना और शिष्टाचार नियमों को लागू करना।
    • विपक्ष को एजेंडा प्रदान करने और बहस का समय देने के लिए नियमों को अपडेट करना।
  • सांसदों के लिए अनुसंधान सहायता बढ़ाना: डोमेन विशेषज्ञों और नीति विश्लेषकों के साथ संसदीय अनुसंधान सेवा स्थापित करना।
    • लोकसभा/राज्यसभा सचिवालयों के तहत अनुसंधान टीमों को संस्थागत बनाना और सांसदों को प्रशिक्षित करना।
  • सार्वजनिक सहभागिता और प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देना: समिति की कार्यवाही की लाइवस्ट्रीमिंग, सार्वजनिक प्रस्तुतियाँ आमंत्रित करना तथा ट्रैकिंग के लिए AI टूल का उपयोग करना।
    • वास्तविक समय निगरानी और आंशिक रूप से समिति की लाइवस्ट्रीम बैठकों के लिए एक सार्वजनिक डैशबोर्ड का निर्माण करना।

निष्कर्ष 

भारत में संसदीय पर्यवेक्षण, ​​संवैधानिक आदेशों, प्रश्नकाल तथा समितियों जैसे तंत्रों में निहित है, यह कार्यकारी जवाबदेही के लिए महत्त्वपूर्ण है, लेकिन यह व्यवधान और कमजोर समिति प्राधिकरण जैसी चुनौतियों का सामना करता है। बाध्यकारी समिति शक्तियाँ, विधायी जाँच के बाद उन्नत अनुसंधान सहायता जैसी वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाकर भारत अपने पर्यवेक्षण ढाँचे को मजबूत कर सकता है, जिससे पारदर्शिता और प्रभावी शासन सुनिश्चित हो सके।

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