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पेसा महोत्सव 2025

Lokesh Pal December 25, 2025 05:06 8 0

संदर्भ

हाल ही में केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय ने आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में पेसा महोत्सव 2025 का आयोजन किया। इसका उद्देश्य पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 की स्मृति को चिह्नित करना तथा अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा की सर्वोच्चता, जनजातीय स्वशासन और सांस्कृतिक स्वायत्तता को पुनः सुदृढ़ करना था।

अनुसूचित क्षेत्र क्या हैं?

  • अनुच्छेद-244 (1) के अंतर्गत अनुसूचित क्षेत्रों को भारत के राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित किया जाता है।
  • अनुसूचित क्षेत्रों की पहचान भारतीय संविधान की पाँचवीं अनुसूची के अंतर्गत की जाती है।
  • भारत के 10 राज्यों में अनुसूचित क्षेत्र पाए जाते हैं, जहाँ जनजातीय समुदायों की जनसंख्या प्रमुख है।

पाँचवीं एवं छठी अनुसूचियाँ

  • पाँचवीं अनुसूची: यह प्रावधान किसी भी राज्य (असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम को छोड़कर) में अनुसूचित क्षेत्रों तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण पर लागू होता है।
  • छठी अनुसूची: यह प्रावधान असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन पर लागू होता है।

पेसा महोत्सव के बारे में

  • जनजातीय स्वशासन के लिए राष्ट्रीय मंच: पेसा महोत्सव एक राष्ट्रीय स्तर की पहल है, जिसका उद्देश्य पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 के प्रभावी क्रियान्वयन को सशक्त बनाना तथा शासन के केंद्र में जनजातीय परंपराओं, संस्थाओं एवं सामुदायिक निर्णय-प्रक्रियाओं को स्थापित करना है।
  • शासन–संस्कृति का समन्वय: यह महोत्सव संवैधानिक विकेंद्रीकरण को सांस्कृतिक अभिव्यक्ति से जोड़ता है और यह मान्यता देता है कि अनुसूचित क्षेत्रों में शासन एकरूप प्रशासनिक मॉडलों के बजाय प्रथागत मानदंडों और सामूहिक परंपराओं के माध्यम से संचालित होना चाहिए।
  • सहकारी संघवाद का स्वरूप: पाँचवीं अनुसूची वाले राज्यों की भागीदारी ने अनुभवों और सर्वोत्तम प्रथाओं के आदान–प्रदान को सक्षम बनाया, जिससे जनजातीय शासन में सहकारी संघवाद को बल मिला।

पेसा महोत्सव 2025 की प्रमुख विशेषताएँ

  • आधिकारिक शुभंकर: महोत्सव में ‘कृष्ण जिंका’ (काला हिरण) को शुभंकर के रूप में प्रस्तुत किया गया, जो जनजातीय समुदायों की सहनशीलता और प्रकृति के साथ उनके गहरे आध्यात्मिक संबंध का प्रतीक है।
  • मुख्य थीम: उत्सव लोक संस्कृति का’
    • यह विषय अनुसूचित क्षेत्रों में शासन की आधारशिला के रूप में संस्कृति को रेखांकित करता है तथा ग्राम सभा की सत्ता को जनजातीय परंपराओं, स्वदेशी ज्ञान और प्रथागत संसाधन प्रबंधन में निहित करता है, न कि नौकरशाही नियंत्रण में।
  • लोकतांत्रिक अभ्यास के रूप में सांस्कृतिक अभिव्यक्ति: चक्की खेल, उप्पन्ना बारेलु, चोलो, पुली मेका, मल्लखंब, पिट्ठूल, गेड़ी दौड़ और सिकोर जैसे स्वदेशी खेलों का प्रदर्शन किया गया, यह दर्शाते हुए कि जनजातीय संस्कृति सजावटी नहीं बल्कि स्वशासन की आधारभूत इकाई है।
  • डिजिटल एवं संस्थागत नवाचार: पोर्टल ग्राम सभा-आधारित योजना, निधियों की पारदर्शी निगरानी और विकास गतिविधियों के अनुश्रवण को सक्षम बनाता है, जिससे डिजिटल शासन को विकेंद्रीकृत लोकतंत्र के साथ जोड़ा गया है।
  • परिणामोन्मुख शासन: पेसा प्रदर्शन संकेतकों की शुरुआत की गई, जिनका उद्देश्य केवल प्रक्रियात्मक अनुपालन के बजाय ग्राम सभा के निर्णयों के वास्तविक अनुपालन जैसे प्रत्यक्ष परिणामों का आकलन करना है।
  • जनजातीय भाषाओं में प्रशिक्षण: संथाली, गोंडी, भीली और मुंडारी में क्षमता निर्माण सामग्री जारी की गई, जिससे भाषायी बहिष्करण को कम कर प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।
  • सांस्कृतिक प्रलेखन पहल: जनजातीय रीति-रिवाजों और प्रथाओं का दस्तावेजीकरण करने वाले इलेक्ट्रॉनिक प्रकाशन, स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों को शासन ढाँचों में संस्थागत रूप देते हैं।
  • नीतिगत गति: झारखंड की स्वीकृति के साथ अब दस में से नौ पाँचवीं अनुसूची वाले राज्यों ने पेसा नियमों को अधिसूचित कर दिया है; केवल ओडिशा अपवाद के रूप में शेष है।
    • महोत्सव के साथ ही झारखंड ने अपने पेसा नियमों को स्वीकृत किया, जिससे नियमबद्ध राज्यों की संख्या नौ हो गई।

पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 के बारे में

  • विकेंद्रीकृत शासन का संवैधानिक विस्तार: यह अधिनियम अनुच्छेद-243M(4)(b) के अंतर्गत संविधान के भाग IX को अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित करता है, जिसमें जनजातीय सामाजिक और सांस्कृतिक विशिष्टताओं का सम्मान करते हुए संशोधन किए गए हैं।
  • ग्राम सभा की सर्वोच्चता: पारंपरिक पंचायती राज संस्थाओं के विपरीत, पेसा शासन के शिखर पर ग्राम सभा को स्थापित करता है और भूमि, वन, जल संसाधन, संस्कृति तथा सामाजिक मानदंडों की रक्षा का दायित्व सौंपता है।
  • प्रथागत शासन प्रणालियों की मान्यता: यह अधिनियम प्रथागत कानूनों, पारंपरिक विवाद निवारण प्रणालियों और सामुदायिक संसाधनों के सामूहिक स्वामित्व को विधिक मान्यता प्रदान करता है।

पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 की आवश्यकता

  • 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1993 के अंतर्गत बहिष्करण: यद्यपि इस संशोधन ने विकेंद्रीकृत लोकतंत्र को संस्थागत किया, परंतु अनुसूचित क्षेत्रों को उनके विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ को मान्यता देते हुए बाहर रखा गया, जिससे शासन में एक रिक्तता उत्पन्न हुई।
  • भूरिया समिति (वर्ष 1995) की सिफारिशें: इस समिति ने इस बात पर बल दिया कि जनजातीय क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण समुदाय-नेतृत्व वाला होना चाहिए तथा ग्राम सभा की सत्ता और संसाधन नियंत्रण को संवैधानिक मान्यता देने की अनुशंसा की।
  • विस्थापन और शोषण की रोकथाम: पेसा से पूर्व भूमि अधिग्रहण और संसाधन दोहन न्यूनतम जनजातीय सहमति के साथ होता था, जिससे विस्थापन, संघर्ष और सामाजिक-आर्थिक हाशियाकरण बढ़ा।

सामान्य पंचायती राज (भाग IX) बनाम जनजातीय स्वशासन (पेसा अधिनियम) का तुलनात्मक विश्लेषण

शासन विशेषता सामान्य पंचायती राज (73वाँ संविधान संशोधन, 1992) पेसा अधिनियम, 1996 (पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र)
सत्ता का केंद्र ग्राम पंचायत केंद्रित: शक्ति निर्वाचित कार्यकारी निकाय (ग्राम पंचायत) में केंद्रित रहती है। ग्राम सभा मुख्यतः अनुशंसा करने वाली संस्था होती है। ग्राम सभा केंद्रित: ग्राम सभा सर्वोच्च’ इकाई है। पंचायत की किसी भी कार्रवाई से पूर्व विकास योजनाओं की स्वीकृति तथा लाभार्थियों की पहचान का विधिक अधिकार ग्राम सभा को प्राप्त है।
संवैधानिक अभिप्राय प्रशासनिक सुविधा: सेवा वितरण में सुधार और स्थानीय अवसंरचना विकास पर केंद्रित है। सांस्कृतिक संरक्षण: जनजातीय पहचान, प्रथागत कानूनों तथा भूमि, जल और वन के पारंपरिक प्रबंधन की रक्षा पर केंद्रित है।
भूमि एवं संसाधन अधिकार राज्य की सर्वोच्चता: ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के लिए राज्य न्यूनतम स्थानीय परामर्श के साथ भूमि अधिग्रहण कर सकता है। खनिज और वन राज्य के स्वामित्व में होते हैं। सामुदायिक संप्रभुता: भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास तथा लघु खनिजों के खनन पट्टों हेतु ग्राम सभा की पूर्व, सूचित एवं अनिवार्य सहमति आवश्यक।
प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन नियंत्रित पहुँच: लघु वनोपज और जल निकाय सामान्यतः राज्य के विभागों (जैसे-वन विभाग) द्वारा प्रबंधित होते हैं। स्वामित्व अधिकार: लघु वनोपज पर ग्राम सभा का पूर्ण स्वामित्व तथा स्थानीय जल निकायों के प्रबंधन का अधिकार।
सामाजिक एवं नैतिक पर्यवेक्षण सीमित शक्तियाँ: मादक पदार्थों या साहूकारी के नियमन की शक्ति राज्य-विशेष के कानूनों पर निर्भर। अनिवार्य शक्तियाँ: ग्राम सभा को मदिरा बिक्री पर प्रतिबंध/नियमन तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रति शोषणकारी साहूकारी पर नियंत्रण का अंतर्निहित अधिकार।
आरक्षण नीति आनुपातिक: प्रत्येक स्तर पर अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण। उन्नत संरक्षण: सभी स्तरों पर कम-से-कम 50% सीटें तथा 100% अध्यक्ष पद (सरपंच/अध्यक्ष) अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित।
विवाद समाधान औपचारिक न्याय व्यवस्था: विवादों का निपटारा पुलिस और औपचारिक न्यायालयों के माध्यम से। प्रथागत कानून: परंपरागत एवं प्रथागत तरीकों से विवादों के प्रबंधन और समाधान की क्षमता ग्राम सभा को मान्य।
विधायी अधिरोहण राज्य अधीनता: राज्य विधानसभाओं को पंचायत शक्तियों में संशोधन की व्यापक संभावना। अक्षीणता उपबंध: राज्य कानून पेसा के अनिवार्य प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकते; यह जनजातीय क्षेत्रों के लिए संविधान के भीतर संविधान’ के रूप में कार्य करता है।

पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 के क्रियान्वयन का महत्त्व

  • संवैधानिक एकीकरण एवं लोकतांत्रिक समावेशन: पेसा अधिनियम, 1996 संविधान के अनुच्छेद-243M(4)(b) को क्रियान्वित करते हुए भाग-IX (पंचायती राज संस्थाएँ) का विस्तार पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों में करता है, वह भी जनजातीय विशिष्टता को नुकसान किए बिना।
    • यह जनजातीय शासन को संवैधानिक विकेंद्रीकरण से जोड़ता है, जिससे सहकारी संघवाद और समावेशी संवैधानिकता सुदृढ़ होती है।
      • उदाहरण: केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, पेसा नियमों की अधिसूचना के बाद तेलंगाना और महाराष्ट्र में ग्राम सभा की भागीदारी में वृद्धि हुई है।
  • ग्राम सभा की सर्वोच्चता के माध्यम से सहभागी लोकतंत्र: पेसा ग्राम सभा को अंतिम निर्णय लेने का अधिकार देकर, टॉप-टू-बॉटम तक शासन करने की प्रथा को सहभागी लोकतंत्र से प्रतिस्थापित करता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि विकास थोपने के बजाय सहमति पर आधारित हो।
    • उदाहरण: छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में ग्राम सभाओं ने पवित्र उपवनों को प्रभावित करने वाली खनन परियोजनाओं को अस्वीकार किया।
    • पंचायती राज मंत्रालय द्वारा वर्ष 2024–25 में एक लाख से अधिक जनजातीय प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण दिए जाने से ग्राम पंचायत विकास योजनाओं की गुणवत्ता में सुधार हुआ।
  • पर्यावरणीय सततता एवं संसाधन संप्रभुता: भूमि, वन और जल के प्राथमिक संरक्षक के रूप में जनजातीय समुदायों को मान्यता देकर पेसा समुदाय-नेतृत्व वाले संरक्षण को बढ़ावा देता है तथा बाहरी अति-दोहन को रोकता है।
    • उदाहरण: नियामगिरि निर्णय (वर्ष 2013) में ग्राम सभा के सांस्कृतिक एवं धार्मिक अधिकारों को प्रभावित करने वाले संसाधन-निर्णयों पर उसकी सर्वोच्चता को मान्यता दी गई।
    • महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में समुदाय-नियंत्रित लघु वनोपज प्रणालियों से वन प्रबंधन में सुधार दर्ज किया गया।
  • आर्थिक आत्मनिर्भरता एवं स्थानीय राजस्व सृजन: पेसा लघु वनोपज, लघु खनिज और स्थानीय बाजारों पर नियंत्रण समुदायों को सौंपकर ग्राम-स्तरीय चक्रीय अर्थव्यवस्थाओं को सक्षम बनाता है।
    • उदाहरण: तेलंगाना के वडागुडेम गाँव में जनजातीय रेत खनन सहकारी समिति प्रतिवर्ष ₹40 लाख अर्जित कर शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि ऋण का वित्तपोषण करती है।
  • सामाजिक सुधार एवं महिला नेतृत्व: यह अधिनियम ग्राम सभाओं को समुदाय-आधारित सामाजिक सुधार लागू करने की शक्ति देता है तथा शासन और आर्थिक निर्णय-निर्माण में महिलाओं की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करता है।
    • उदाहरण: मध्य प्रदेश के मंडला जिले में ग्राम सभा-नेतृत्व वाली मद्य निषेध पहल से घरेलू हिंसा में कमी आई, जबकि झारखंड में महिला-नेतृत्व वाले वन-धन विकास केंद्र वनोपज मूल्य शृंखलाओं का प्रबंधन कर रहे हैं।
  • संघर्ष में कमी एवं आंतरिक सुरक्षा का सुदृढ़ीकरण: भूमि हस्तांतरण, विस्थापन और बिना सहमति संसाधन दोहन जैसे मुद्दों का समाधान कर पेसा वामपंथी उग्रवाद के संरचनात्मक कारणों को संबोधित करता है तथा जनजातीय क्षेत्रों में राज्य की वैधता बढ़ाता है।
    • उदाहरण: केंद्रीय गृह मंत्रालय के आकलनों में गढ़चिरौली और बस्तर सहित उन जिलों में सामुदायिक सहयोग अधिक पाया गया है, जहाँ ग्राम सभाएँ प्रभावी रूप से कार्यरत हैं।
  • अधिकार-आधारित विकास योजना एवं अंतिम-स्तर तक सेवा वितरण: पेसा योजना-केंद्रित क्रियान्वयन से हटकर ग्राम पंचायत विकास योजना के माध्यम से अधिकार-आधारित नियोजन को प्रोत्साहित करता है, जिससे लक्ष्य-निर्धारण, अभिसरण और जवाबदेही में सुधार होता है।
    • उदाहरण: मध्य प्रदेश के अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा-स्वीकृत योजनाओं से जल जीवन मिशन और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के कार्यों के बीच बेहतर समन्वय हुआ।

पेसा के क्रियान्वयन में समस्याएँ एवं चुनौतियाँ

  • कमजोर कानूनी प्रवर्तनीयता और कमजोर सहमति: यद्यपि पेसा अधिनियम, 1996 एक केंद्रीय कानून है, परंतु इसका प्रवर्तन राज्य-विशिष्ट नियमों पर निर्भर करता है, जिससे असमान क्रियान्वयन होता है।
    • यह केवल पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों पर लागू होता है और अनुसूचित क्षेत्रों से बाहर रहने वाले जनजातीय समुदायों को आच्छादित नहीं करता।
      • उदाहरण: ओडिशा में पेसा नियम अभी मसौदा स्थिति में हैं, जिससे ग्राम सभा की शक्ति कमजोर पड़ती है।
    • साथ ही, अनिवार्य ग्राम सभा सहमति को कोयला धारक क्षेत्र (अर्जन एवं विकास) अधिनियम, 1957 तथा भूमि अर्जन, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 के माध्यम से प्रायः दरकिनार किया जाता है।
      • उदाहरण: Xaxa समिति ने ऐसे मामलों का दस्तावेजीकरण किया, जहाँ परामर्श भूमि अर्जन के निर्णय के बाद किया गया।
  • संस्थागत विखंडन एवं प्रशासनिक प्रभुत्व: पेसा ग्राम सभा में अधिकार निहित करता है, जबकि वन अधिकार अधिनियम, 2006 सामुदायिक वन संसाधन समितियाँ बनाता है, जिससे अधिकार-क्षेत्र की अस्पष्टता उत्पन्न होती है।
    • उदाहरण: कई वन क्षेत्रों में वन विभाग सामुदायिक वन संसाधन समितियों को मान्यता देता है पर ग्राम सभा के प्रस्तावों की उपेक्षा करता है, जिससे समुदाय-नियंत्रण कमजोर होता है।
  • वित्तीय एवं प्रशासनिक बाधाएँ: खनन, वन और आबकारी जैसे विभाग ग्राम सभाओं को राजस्व शक्तियों के हस्तांतरण का विरोध करते हैं।
    • उदाहरण: पंचायतों को निधि हस्तांतरण के बावजूद ग्राम सभाओं के पास समर्पित वित्तीय स्रोत नहीं होते हैं, जिससे जिम्मेदारी बिना राजस्व’ की स्थिति उत्पन्न होती है, जैसा कि पंद्रहवें वित्त आयोग की परामर्श प्रक्रियाओं में उल्लेखित है।
  • पाँचवीं अनुसूची के संरक्षणों का अपर्याप्त उपयोग: पाँचवीं अनुसूची के अनुच्छेद-5 के अंतर्गत राज्यपालों को जनजातीय हितों को क्षति पहुँचाने वाले कानूनों में संशोधन या निरसन की शक्ति प्राप्त है।
    • उदाहरण: जहाँ राज्य कानून ग्राम सभा की सहमति के प्रावधानों को कमजोर करते हैं, वहाँ भी राज्यपालों द्वारा इस शक्ति का विरल उपयोग किया गया है।
  • स्थानीय स्तर पर कम जागरूकता एवं विधिक साक्षरता: वैधानिक सशक्तीकरण के बावजूद अनेक ग्राम सभाएँ अपने विधिक अधिकारों से अनभिज्ञ हैं, जिससे वे प्रशासनिक दबाव के प्रति संवेदनशील बनी रहती हैं।
    • उदाहरण: क्षेत्रीय आकलनों से पता चलता है कि जनजातीय भाषाओं में सामग्री के बिना एक-मात्र प्रशिक्षण प्रभावी अधिकार-प्रयोग को सीमित कर देता है।

पेसा को सुदृढ़ करने हेतु भारत की पहल एवं कार्यवाहियाँ

  • जनजातीय स्वशासन के प्रति विधायी प्रतिबद्धता: संसद ने अनुच्छेद-243M(4)(b) के अंतर्गत पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 को अधिनियमित किया, ताकि जनजातीय क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण एवं स्वशासन को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया जा सके।
    • पाँचवीं अनुसूची वाले राज्यों को राज्य-विशिष्ट पेसा नियम बनाने हेतु प्रोत्साहित किया गया, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2025 तक दस में से नौ राज्यों में नियम अधिसूचित हो चुके हैं (हाल ही में झारखंड पेसा नियम, 2025 को स्वीकृत किया गया है)।
  • क्षमता एवं जवाबदेही के लिए कार्यकारी उपाय: केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय द्वारा विधि, सामाजिक विज्ञान और सार्वजनिक वित्त के विशेषज्ञों से युक्त एक समर्पित पेसा प्रकोष्ठ की स्थापना कर क्रियान्वयन को संस्थागत रूप दिया गया है, जो नीतिगत मार्गदर्शन प्रदान करता है।
    • व्यापक प्रशिक्षण अभियान: वर्ष 2024–25 के दौरान बड़े पैमाने पर मास्टर प्रशिक्षक कार्यक्रमों के माध्यम से एक लाख से अधिक निर्वाचित प्रतिनिधियों एवं अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया गया, जिससे जमीनी प्रशासनिक क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
    • विकास की मुख्यधारा में समावेशन: पेसा को ग्राम पंचायत विकास योजना ढाँचे के साथ एकीकृत किया गया है, जिससे ग्राम-स्तरीय योजना ग्राम सभा-प्रेरित एवं अधिकार-आधारित सुनिश्चित हो सके।
    • शैक्षणिक आधार: सोलह विश्वविद्यालयों में उत्कृष्टता केंद्रों की स्थापना की गई, जिनमें इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक (₹8.01 करोड़ की केंद्रीय सहायता सहित) भी शामिल है, ताकि जनजातीय परंपराओं पर विशेष अनुसंधान और प्रलेखन को बढ़ावा मिले।
    • मानकात्मक जागरूकता: प्रत्येक वर्ष 24 दिसंबर को पेसा दिवस का आयोजन जनजातीय स्वायत्तता के प्रति संस्थागत प्रतिबद्धता और सार्वजनिक जागरूकता को सुदृढ़ करता है।
  • पारदर्शिता एवं निगरानी हेतु डिजिटल शासन: पेसा पोर्टल तथा पेसा प्रदर्शन संकेतकों (वर्ष 2024–25 में प्रारंभ) के माध्यम से निधियों, ग्राम सभा निर्णयों और विकास परिणामों की वास्तविक समय में निगरानी संभव हुई है।
    • जवाबदेही: डिजिटल योजना उपकरणों के साथ एकीकरण से विभागीय जवाबदेही बढ़ी है और ग्राम सभाओं को दरकिनार करने की प्रशासनिक प्रवृत्ति में कमी आई है।
  • जनजातीय सशक्तीकरण हेतु अंतर-मंत्रालयी समन्वय: केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय, केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय तथा केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के साथ समन्वय कर पेसा को वन अधिकार, आजीविका मिशनों और सांस्कृतिक संरक्षण से जोड़ा गया है।
    • भाषायी समावेशन: संयुक्त पहलों के अंतर्गत पेसा से संबंधित मार्गदर्शिकाओं का संथाली, गोंडी, भीली और मुंडारी जैसी जनजातीय भाषाओं में अनुवाद किया गया, जिससे कानून समुदायों के लिए सुलभ बना।
  • संवैधानिक निगरानी एवं संस्थागत पर्यवेक्षण: अनुच्छेद-338A के अंतर्गत गठित राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग को पेसा क्रियान्वयन की निगरानी, ग्राम सभा सहमति के उल्लंघनों की जाँच तथा सुधारात्मक उपायों पर सरकार को परामर्श देने का दायित्व सौंपा गया है।
    • संतुलन एवं नियंत्रण: आयोग की आवधिक रिपोर्टें और क्षेत्रीय भ्रमण कार्यकारी विवेक से परे एक अतिरिक्त संवैधानिक पर्यवेक्षण प्रदान करते हैं।
    • राज्यपाल की विशेष जिम्मेदारी: पाँचवीं अनुसूची के अनुच्छेद-5 के अंतर्गत राज्यपाल को जनजातीय हितों के प्रतिकूल कानूनों में संशोधन या निलंबन की संवैधानिक शक्ति प्राप्त है।
  • जनजातीय अधिकारों का न्यायिक सुदृढ़ीकरण: नियमगिरि निर्णय (2013) में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा की सहमति को अनिवार्य आवश्यकता के रूप में पुनः पुष्टि की।
    • संवैधानिक नैतिकता: न्यायिक व्याख्याओं ने जनजातीय शासन में पर्यावरण संरक्षण और सामुदायिक सहमति को संवैधानिक नैतिकता के व्यापक ढाँचे से जोड़ा है।

भारत में जनजातियों एवं उनके अधिकारों का संरक्षण

  • संवैधानिक संरक्षण एवं पर्यवेक्षण
    • प्रशासनिक ढाँचा: अनुच्छेद-244 और पाँचवीं अनुसूची अनुसूचित क्षेत्रों के लिए एक विशिष्ट प्रशासनिक व्यवस्था प्रदान करते हैं, जिससे सामान्य कानून स्वतः जनजातीय परंपराओं पर अधिरोपित न हों।
    • संवैधानिक निगरानी: अनुच्छेद-338A के अंतर्गत स्थापित राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग विशेष पर्यवेक्षण प्रदान करता है, अधिकारों के उल्लंघन की जाँच करता है और जनजातीय कल्याण पर सरकार को परामर्श देता है।
    • सामाजिक-आर्थिक दायित्व: राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) के अनुच्छेद 46 के तहत, राज्य को संवैधानिक रूप से अनुसूचित जनजातियों (STs) के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने और उन्हें सामाजिक अन्याय और शोषण के सभी रूपों से बचाने का दायित्व सौंपा गया है।
  • विधिक एवं विनियामक ढाँचे
    • स्वशासन: पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 ग्राम सभा के माध्यम से अनिवार्य परामर्श और समुदाय-आधारित निर्णय-निर्माण का अधिकार सुनिश्चित करता है।
    • संसाधन अधिकार: अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 व्यक्तिगत एवं सामुदायिक वन अधिकारों को मान्यता देता है, जिससे भूमि स्वामित्व और लघु वनोपज तक पहुँच सुरक्षित होती है।
    • भूमि हस्तांतरण से सुरक्षा: पाँचवीं अनुसूची राज्य सरकारों और राज्यपालों को आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर रोक लगाने या उसे सीमित करने का अधिकार देती है, जिससे पारंपरिक स्वामित्व की रक्षा होती है और मजबूरी में की गई बिक्री या मनमानी विस्थापन को रोका जा सकता है।
  • संस्थागत एवं राजनीतिक संरक्षण
    • सलाहकारी शासन: जनजातीय सलाहकार परिषदें राज्य में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण एवं उन्नति से संबंधित विषयों पर राज्यपाल को परामर्श देने हेतु अनिवार्य हैं।
    • राजनीतिक प्रतिनिधित्व: लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और पंचायती राज संस्थाओं में अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण लोकतांत्रिक विधि-निर्माण प्रक्रिया में उनकी प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित करता है।
  • सांस्कृतिक, धार्मिक एवं न्यायिक संरक्षण
    • पहचान का संरक्षण: संविधान अनुच्छेद 29 और अनुच्छेद 25 के माध्यम से जनजातीय पहचान की रक्षा करता है, जिसमें विशिष्ट भाषाएँ, लिपियाँ, परंपरागत कानून और पवित्र उपवन सम्मिलित हैं।
    • न्यायिक प्रहरी: न्यायपालिका ने बार-बार जनजातीय अधिकारों को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार से जोड़ा है।
      • नियामगिरि निर्णय (वर्ष 2013) जैसे ऐतिहासिक निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने ग्राम सभा की सहमति की सर्वोच्चता को मान्यता दी और सांस्कृतिक प्रथाओं को जनजातीय अस्तित्व का अभिन्न अंग स्वीकार किया।
    • पर्यावरणीय न्याय: न्यायालयों ने मनमाने विस्थापन के विरुद्ध हस्तक्षेप किया है तथा पर्यावरण संरक्षण और सामुदायिक संप्रभुता के बीच संबंध को सुदृढ़ किया है।
  • अंतरराष्ट्रीय मानक समर्थन
    • वैश्विक अनुरूपता: भारत संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वदेशी लोगों के अधिकारों की घोषणा, 2007 में निहित सिद्धांतों का समर्थन करता है।
    • सहमति एवं परामर्श: स्वतंत्र, पूर्व और सूचित सहमति पर आधारित ये वैश्विक मानक जनजातीय क्षेत्रों में बड़े विकास परियोजनाओं से संबंधित घरेलू न्यायिक व्याख्याओं और नीतिगत विमर्श को निरंतर प्रभावित कर रहे हैं।

आगे की राह

  • संवैधानिक एवं विधिक सुदृढ़ीकरण
    • राज्यपाल की विशेष जिम्मेदारी का सक्रिय उपयोग: राज्यपालों को पाँचवीं अनुसूची के अनुच्छेद-5 के अंतर्गत प्राप्त विवेकाधीन शक्तियों का सक्रिय रूप से प्रयोग करना चाहिए, ताकि पेसा के प्रावधानों को कमजोर करने वाले राज्य या केंद्रीय कानूनों में संशोधन अथवा उन्हें निलंबित किया जा सके।
      • भारत के राष्ट्रपति और संसद को राज्यपालों द्वारा नियमित प्रतिवेदन प्रस्तुत किए जाने से संवैधानिक जवाबदेही सुनिश्चित होगी।
    • विधिक सामंजस्य: भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर एवं पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 तथा खनन और खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम जैसे मौजूदा कानूनों को अनिवार्य ग्राम सभा सहमति की आवश्यकता के साथ स्पष्ट रूप से समन्वित किया जाना चाहिए।
    • संस्थागत भूमिकाओं की स्पष्टता: पेसा के अंतर्गत ग्राम सभाओं और वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन समितियों की भूमिकाओं में सामंजस्य हेतु स्पष्ट दिशा-निर्देश आवश्यक हैं। इससे वन प्रशासन में अधिकार क्षेत्र संबंधी अस्पष्टता और प्रशासनिक हस्तक्षेप को रोका जा सकेगा।
  • वित्तीय स्वायत्तता एवं आर्थिक संघवाद
    • स्थानीय राजस्व सृजन को सक्षम बनाना: ग्राम सभाओं को स्थानीय करों, शुल्कों और संसाधन रॉयल्टी, विशेष रूप से लघु खनिजों और लघु वन उत्पादों (MFP) से प्राप्त करों को लगाने, एकत्र करने और अपने पास रखने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
    • पूर्वानुमेय वित्तीय हस्तांतरण: स्थानीय राजस्व के अतिरिक्त, केंद्रीय वित्त आयोग और राज्य वित्त आयोग से पेसा ग्राम पंचायतों को प्रत्यक्ष एवं पूर्वानुमेय निधि प्रवाह सुनिश्चित किया जाना चाहिए, जिससे राज्य-स्तरीय अनुदानों पर निर्भरता कम हो।
  • जवाबदेही एवं लोकतांत्रिक पर्यवेक्षण
    • राजनीतिक जवाबदेही का सुदृढ़ीकरण: राज्य सरकारों को राज्य विधानसभाओं में वार्षिक पेसा क्रियान्वयन प्रतिवेदन प्रस्तुत करना अनिवार्य किया जाना चाहिए।
      • इससे लोकतांत्रिक पर्यवेक्षण स्थापित होगा और जनजातीय शासन को विधायी जाँच के दायरे में लाया जा सकेगा।
    • परिणाम-आधारित निगरानी: ग्राम सभा निर्णयों के जमीनी प्रभाव का आकलन करने हेतु सामाजिक अंकेक्षण और स्वतंत्र मूल्यांकन को संस्थागत बनाया जाना चाहिए।
      • इससे यह सुनिश्चित होगा कि पेसा–ग्राम पंचायत विकास योजना पोर्टल केवल डिजिटल आँकड़ों तक सीमित न रहकर वास्तविक सशक्तीकरण को प्रतिबिंबित करे।
  • क्षमता निर्माण एवं अधिकार चेतना
    • विधिक साक्षरता का सुदृढ़ीकरण: संथाली, गोंडी और भीली जैसी जनजातीय भाषाओं में निरंतर जागरूकता अभियानों की आवश्यकता है, जिनमें सामुदायिक रेडियो और उत्कृष्टता केंद्रों का उपयोग किया जाए, ताकि समुदाय अपने वैधानिक अधिकारों को समझें और उन्हें प्रभावी रूप से लागू कर सकें।
    • क्षमता संवर्द्धन: जनजातीय प्रतिनिधियों को तकनीकी एवं विधिक प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए, जिससे अभिजात वर्ग के वर्चस्व को रोका जा सके और ग्राम सभा में सबसे हाशिए पर स्थित वर्गों के मुद्दों को संबोधित किया जा सके।
  • तुलनात्मक अधिगम एवं वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाएँ
    • स्वदेशी मॉडलों से अनुकूलन: भारत लैटिन अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के स्वदेशी शासन मॉडलों से सीख लेकर आधुनिक विकास और जनजातीय पहचान तथा परंपरागत कानूनों के संरक्षण के बीच संतुलन स्थापित कर सकता है।

निष्कर्ष

पेसा महोत्सव 2025 ने यह पुनः पुष्टि की कि जनजातीय स्वशासन भारतीय लोकतंत्र की एक संवैधानिक आधारशिला है। विधिक सशक्तीकरण, संस्थागत क्षमता, डिजिटल पारदर्शिता और सांस्कृतिक गौरव के समन्वय से पेसा विकसित भारत की उस दृष्टि को आगे बढ़ाता है, जहाँ प्रत्येक ग्राम सभा एक गरिमापूर्ण, निर्णायक और संवैधानिक रूप से संरक्षित स्वर का प्रयोग कर सके।

अभ्यास प्रश्न PESA ढाँचे के अंतर्गत सहभागी लोकतंत्र को बढ़ावा देने में PESA रन, जनजातीय खेल, सांस्कृतिक प्रदर्शन और क्षमता निर्माण प्रयासों जैसे जमीनी स्तर के जुड़ावों के महत्व का मूल्यांकन कीजिए।

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