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लैंगिक-तटस्थ न्यायपालिका के लिए महिला प्रतिनिधित्त्व को बढ़ावा (Promote female representation for gender-neutral judiciary)

Samsul Ansari January 12, 2024 06:24 290 0

संदर्भ 

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश बी. वी. नागरत्ना ने  न्यायपालिका में अधिक महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति की वकालत की है।  

भारतीय न्यायपालिका में महिला प्रतिनिधित्त्व

  • भारत न्याय रिपोर्ट (India Justice Report-IJR) 2022 :  IJR रिपोर्ट के अनुसार, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में केवल 13% महिलाएँ हैं और अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Court) के न्यायाधीशों में 35% महिलाएँ हैं। यह आँकड़ा दर्शाता है कि भारतीय न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की जरूरत है।
    • जिला स्तर पर महिला न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व: गोवा (70%), मेघालय (62.7%), तेलंगाना (52.8%), और सिक्किम (52.4%)।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय में महिलाओं का प्रतिनिधित्व:
    • नगण्य प्रतिनिधित्व: उच्चतम न्यायालय के इतिहास में कुल 268 न्यायाधीशों में से केवल 11 महिलाएँ रही हैं। इसका मतलब है कि उच्चतम न्यायालय की कुल न्यायाधीशों की संख्या में से केवल 4.1% महिलाएँ हैं।
    • वर्तमान परिदृश्य: केवल तीन महिला न्यायाधीश हैं।
  • उच्च न्यायालयों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व:
    • प्रतिनिधित्व: वर्तमान में, भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं जिनमें कुल स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 1,114 है। इनमें से केवल 107 महिला न्यायाधीश, या सभी उच्च न्यायालय न्यायाधीशों की केवल 13% महिलाएँ हैं।
  • निम्न न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व:   
    • बेहतर प्रतिनिधित्व: निचली न्यायपालिका में उच्च न्यायपालिका की तुलना में महिला न्यायाधीशों का बेहतर प्रतिनिधित्व है।
    • कारण: निचली न्यायपालिका में प्रवेश सामान्यतः एक परीक्षा के माध्यम से होता है, जबकि उच्च न्यायपालिका कॉलेजियम प्रणाली पर आधारित है जो अनौपचारिक रूप से उम्मीदवारों का चयन करता है।
  • आरक्षण की उपलब्धता: आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना और उत्तराखंड सहित कई राज्यों ने महिलाओं के लिए कोटा निर्धारित किया है।
    • सीधी भर्ती के माध्यम से भरे जाने वाले कुल पदों के 30% से 35% महिलाओं के लिए आरक्षित रखते हैं।
    • विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी (Vidhi Centre for Legal Policy) के वर्ष 2018 के एक अध्ययन के अनुसार,  27% हिस्से के साथ निचली न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अपेक्षाकृत अधिक है, शीर्ष पदों तक पहुँचने में- चाहे जिला न्यायाधीश के रूप में हों या फिर उच्च न्यायालय के स्तर पर, महिलाएँ एक अदृश्य/पारंपरिक बाधा को पार करने में असफल रही है।

  • संवैधानिक प्रावधान: उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियाँ संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 224 के तहत विनियमित की जाती हैं।
  • आरक्षण की उपलब्धता: उच्च न्यायपालिका “किसी भी जाति या वर्ग के व्यक्तियों के लिए” आरक्षण प्रदान नहीं करती है।
  • न्यायमूर्ति फातिमा बीवी उच्चतम न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश (भारत और एशिया की) थीं। उन्हें वर्ष 1989 में उच्चतम न्यायालय में नियुक्त किया गया था।

भारतीय न्यायपालिका में कम महिला प्रतिनिधित्व के कारण:

  • पितृसत्तात्मक सोच: “ओल्ड बॉयज क्लब मानसिकता” (Old Boys’ Club Mentality) महिलाओं के लिए न्यायिक पदों के लिए पैरवी करना कठिन बना देती है। 
    • इसके अलावा, अपर्याप्त पारिवारिक सहयोग के कारण कई महिलाएँ अपना करियर बीच में ही छोड़ देती हैं, जो पितृसत्तात्मक रूप से निर्धारित लैंगिक भूमिकाओं को दर्शाता है।
  • घरेलू जिम्मेदारियाँ:  महिलाएँ औपचारिक कार्यबल में प्रवेश कर सकती हैं, लेकिन अक्सर घरेलू कामों के असमान बंटवारे और बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी के कारण उन्हें आगे बढ़ने में बाधा आती है
  • नियम और विनियम:
    • निरंतर अभ्यास: जिला न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए अनुच्छेद 233 के तहत 7 वर्ष के  निरंतर अभ्यास की शर्त होती है।
    • आयु सीमा: अधिकांश राज्यों के न्यायिक नियमों के अनुसार सीधे भर्ती के माध्यम से जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु 35 वर्ष है।
      • इसके अलावा, 55 वर्ष से कम आयु के किसी व्यक्ति को उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
    • विवाह और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ: विवाह और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बाधित करती हैं।
  • भर्ती प्रक्रिया में लैंगिक पूर्वाग्रह: उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियाँ एक अपारदर्शी कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से होती हैं जहाँ पात्रता और चयन मानदंड स्पष्ट नहीं होते हैं। आलोचकों के अनुसार, नियुक्ति की यह प्रणाली अनुकूल मूल्यांकन और पेशेवर/व्यक्तिगत नेटवर्क पर आधारित होती है।
    • ‘संरचनात्मक और विवेकाधीन पूर्वाग्रह: भारत में महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति’ नामक शोध पत्र के अनुसार साक्षात्कार में शामिल 19 में से 13 न्यायाधीशों ने उच्चतम  न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में मौजूद लैंगिक पूर्वाग्रह को स्वीकार किया है।
  • बंधन का अभाव: वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने वर्ष 2017 में कहा था कि भले ही महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है, लेकिन वे अलग-थलग हैं।
  • उच्च न्यायपालिका में आरक्षण का अभाव: जहाँ कई राज्यों की निचली अदालतों में महिलाओं के लिए आरक्षण उपलब्ध है, वहीं उच्च न्यायपालिका में अभी तक ऐसी नीतियाँ लागू नहीं की गई हैं।
  • शिक्षाविदों की उपेक्षा: उच्चतम न्यायालय में (जहाँ महिलाएँ अपनी राह बना सकती हैं) किसी प्रतिष्ठित न्यायविद की नियुक्ति का कोई प्रावधान नहीं है।
  • विविध कारक: यौन उत्पीड़न, उच्च जोखिम वाले मामलों में वादी/मुवक्किलों द्वारा महिला अधिवक्ताओं पर भरोसा न करना इसके अतिरिक्त शौचालय से लेकर मातृत्व अवकाश जैसे सहायक बुनियादी ढाँचे की कमी प्रमुख चुनौतियाँ हैं।
    • देश भर की 6,000 अदालतों में से 22% में महिलाओं के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं हैं।

न्यायपालिका में उच्च महिला प्रतिनिधित्व का महत्त्व:

  • न्यायिक समीक्षा और निर्णय की गुणवत्ता में सुधार: न्याय व्यवस्था में अधिक महिलाओं की उपस्थिति निम्नलिखित सुधारों हेतु आवश्यक है:
    • अदालतों की विश्वसनीयता और वैधता 
    • निर्णयों की भाषा और शब्दावली
    • न्यायालयों का लैंगिक-तटस्थ प्रशासन
      • पीठ में  अधिक महिलाओं की भागीदारी न्याय प्रणाली को और अधिक प्रभावी बना सकती है।
      • उदाहरण: न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर ने क्रांतिकारी विशाखा दिशानिर्देशों को लिखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
  • महिला सशक्तिकरण: न्यायपालिका में अधिक महिलाओं के होने से महिला सशक्तिकरण और न्याय को बढ़ावा मिलेगा।
  • व्यापक न्याय और समावेशिता: यह न्यायपालिका में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या को कम करने में मदद कर सकती है साथ ही, महिला न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने से महिलाओं का विश्वास बढ़ेगा और वे अधिक आसानी से न्याय पाने के लिए आगे आएंगी। इससे समाज में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने में भी मदद मिलेगी।
    • महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व महिलाओं और अन्य वंचित समुदायों की जरूरतों को पूरा करेगा।
  • विविध विचारों की उपलब्धता: न्यायाधीशों की उच्च विविधता अलग-अलग और बेहतर दृष्टिकोण लाएगी तथा यह न्यायिक तर्क की क्षमता को समृद्ध एवं मजबूत करेगी, जिससे वह विभिन्न सामाजिक संदर्भों एवं अनुभवों को समाहित करने के साथ उन पर प्रतिक्रिया करने की क्षमता को मजबूत करेगी।
  • निर्णयों में लैंगिक संवेदनशीलता बढ़ाना: ऐसे कई उदाहरण हैं जब मुद्दे की संवेदनशीलता पर विचार किए बिना महिला सुरक्षा कानूनों को कमजोर कर दिया गया है। हालाँकि न्यायपालिका में महिलाओं  का प्रतिनिधित्व बढ़ने से इस समस्या को हल करने में सहायता प्राप्त हो सकती है।
  • अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का पालन: संयुक्त राष्ट्र का सतत विकास लक्ष्य 5 (SDG-5) लैंगिक समानता और न्यायपालिका में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व का आह्वान करता है। यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति एक वांछनीय कदम होगा

आगे की राह :

  • समावेशिता के माध्यम से संवेदनशीलता: संस्थागत, सामाजिक और व्यावहारिक  परिवर्तन लाने के लिए समावेशिता पर जोर देना आवश्यक है। अखिल भारतीय बार परीक्षा में लैंगिक संवेदीकरण से संबंधित प्रश्न या अनुभाग शामिल होने चाहिए।
    • पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ के मतानुसार, न्यायिक प्रक्रिया में नारीवादी दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिए।
  • पितृसत्तात्मक मानसिकता पर नियंत्रण: न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए पितृसत्तात्मक मानसिकता में बदलाव सबसे महत्वपूर्ण है। जब तक महिलाएँ सशक्त नहीं होंगी, उनके साथ न्याय नहीं हो सकता है।
    • यह अहसास होना चाहिए कि महिलाएँ विवाह के बाद पुरुष के अधीन नहीं हो जाती हैं और उन्हें काम एवं पारिवारिक जीवन में संतुलन बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • उच्च न्यायपालिका में महिलाओं के लिए आरक्षण: महिलाओं के लिए, उच्च न्यायपालिका की नियुक्ति में योग्यता को कम किए बिना आरक्षण का प्रावधान शामिल किया जाना चाहिए।
    • पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रमन्ना ने महिला अधिवक्ताओं से न्यायपालिका में 50% आरक्षण की मांग को मजबूती से उठाने का आह्वान किया था।
  • लैंगिक पूर्वाग्रह कार्य बलों का गठन: अमेरिका में न्याय प्रणालियों पर लैंगिक  प्रभाव को देखने के लिए गठित ‘जेंडर बायस टास्क फोर्सेस’ (Gender Bias Task Forces) के समान, भारत को भी इस तरह की एक समिति बनाने की आवश्यकता है जो महत्वपूर्ण सुझाव प्रदान करे (अंतर्राष्ट्रीय महिला न्यायाधीश संघ, 2019)
  • मेंटरशिप प्रणाली: जिनेवा फोरम ऑन वुमेन इन द ज्यूडिशियरी (Geneva Forum on Women in the Judiciary-2013) ने एक मेंटरशिप प्रणाली का सुझाव दिया, जिसके माध्यम से वरिष्ठ महिला न्यायाधीश और अधिवक्ता अपने सहयोगियों की सहायता कर सकते हैं तथा उन्हें उनके सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए मूल्यवान सुझाव देकर मार्गदर्शन दे सकते हैं।
  • नियमों और विनियमों में संशोधन: जिला न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु की आवश्यकता को कम करने पर विचार करना चाहिए।
    • सरकार और न्यायपालिका लैंगिक विविधीकरण एवं न्याय सुनिश्चित करने के लिए वरिष्ठता सिद्धांत में छूट प्रदान कर सकती है।
    • न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता बढ़ाने की जरूरत है।
      • महिलाओं के लिए अनुकूल वातावरण और पर्याप्त अवसरों का निर्माण किया जाने चाहिए।
  • प्रतिष्ठित महिला न्यायविदों को शामिल करना: यह उच्चतम न्यायालय में भौगोलिक प्रतिनिधित्व के मानदंडों को पूरा करने में मदद कर सकता है, क्योंकि कई बार किसी विशेष क्षेत्र में महिला न्यायाधीश नहीं होती हैं।
  • एक रोडमैप की आवश्यकता: न्यायपालिका में लैंगिक असमानता को कम करने के लिए उच्चतम न्यायालय को एक विजन दस्तावेज के निर्माण की आवश्यकता है।

निष्कर्ष: उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व एक गंभीर चुनौती है जिसे व्यापक रूप से संबोधित करने की आवश्यकता है। भारतीय न्याय प्रणाली को मजबूत बनाने के लिए विविधता और समान अवसरों को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए।

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