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नीति आयोग का भारत को दालों के मामले में आत्मनिर्भर बनने हेतु सुझाए गए उपाए

Lokesh Pal September 06, 2025 04:53 30 0

संदर्भ

नीति आयोग ने भारत में दलहन उत्पादन बढाने संबंधी रिपोर्ट जिसका शीर्षक है:- ‘आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की ओर दलहनों के विकास में तेजी लाने की रणनीतियाँ एवं मार्ग’ (Strategies and Pathways for Accelerating Growth in Pulses towards the Goal of Atmanirbharta) जारी की।

  • इस रिपोर्ट में भारत की खाद्य सुरक्षा, पोषण, सतत् कृषि और किसानों की आजीविका में दालों की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है, साथ ही आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए एक रोडमैप भी प्रस्तुत किया गया है।

भारत में दालों की वर्तमान स्थिति

  • सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता और आयातक: भारत विश्व में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक (वैश्विक उत्पादन का 25%), उपभोक्ता (विश्व उपभोग का 27%) एवं आयातक (14%) देश  है।
  • पोषण संबंधी भूमिका: दालें, प्रोटीन का सबसे सस्ता स्रोत हैं, जो कुपोषण से निपटने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
  • आजीविका संबंधी भूमिका: 5 करोड़ से अधिक कृषक परिवार दालों पर निर्भर हैं।
  • उत्पादन पैटर्न: लगभग 80% उत्पादन मानसून आधारित है, इसलिए जलवायु परिवर्तनशीलता के प्रति दाल उत्पादन संवेदनशील है।
  • क्षेत्रीय संकेंद्रण: उत्पादन क्षेत्रीय रूप से संकेंद्रित है, जिसमें मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान का योगदान लगभग 55% है, और शीर्ष 10 राज्य राष्ट्रीय उत्पादन में 91% से अधिक का योगदान करते हैं।
    • निहितार्थ: कुछ राज्यों पर अत्यधिक निर्भरता उत्पादन को क्षेत्रीय रूप से विषम और जलवायु-संवेदनशील बनाती है।
  • हालिया प्रगति
    • दालो का उत्पादन वर्ष 2015-16 में 16.35 मीट्रिक टन से बढ़कर वर्ष 2022-23 में 26.06 मीट्रिक टन (+59.4%) हो गया।
    • उन्नत किस्मों और सरकारी योजनाओं के कारण उत्पादकता में 38% की वृद्धि हुई।
    • आयात पर निर्भरता 29% (वर्ष 2015-16) से घटकर 10.4% (वर्ष 2022-23) हो गई।

नीति आयोग की सिफारिशें

  • रणनीतिक रूपरेखा: इस रिपोर्ट में अनुमानित माँग-आपूर्ति अंतर को कम करने के लिए एक व्यापक रणनीतिक रूपरेखा प्रस्तुत की गई है, जिससे दाल उत्पादन की दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित होगी, जो दो मुख्य स्तंभों पर आधारित है:-
    1. क्षैतिज विस्तार: इसका उद्देश्य उच्च उपज वाली दलहनी फसलों और कुशल अंतर-फसलीकरण हेतु चावल के लिए परती भूमि जैसे अप्रयुक्त भूमि संसाधनों का उपयोग करके दलहनों के अंतर्गत क्षेत्रफल बढ़ाना है।
    2. ऊर्ध्वाधर विस्तार: उन्नत कृषि पद्धतियों और प्रौद्योगिकी-आधारित हस्तक्षेपों के माध्यम से उपज बढ़ाने पर केंद्रित है।
      • इनमें उन्नत किस्मों और सँकर किस्मों को अपनाना, बीज उपचार और गुणवत्ता आश्वासन, प्रसंस्करण के माध्यम से मूल्य संवर्द्धन, समय पर और वैज्ञानिक बुवाई पद्धतियाँ, साथ ही पोषक तत्त्व, कीट, खरपतवार और जल प्रबंधन के लिए एकीकृत दृष्टिकोण शामिल हैं।
  • ‘जिलावार चतुर्थांश दृष्टिकोण’ (District-wise Quadrant Approach): फसल-विशिष्ट हस्तक्षेपों को लागू करने के लिए जिला समूहों की पहचान करना।
    • उच्च-संभावित क्षेत्रों के लिए लक्षित संसाधन आवंटन।

  • क्षेत्र प्रतिधारण और विविधीकरण: यह सुनिश्चित करना कि मूल्य अस्थिरता के कारण किसान दालों की कृषि से विमुख न हों। कृषि को अनुकूलित करने के लिए क्षेत्र-विशिष्ट फसल समूहों को प्रोत्साहित करना।

दलहन में आत्मनिर्भरता मिशन (बजट 2025-26)

  • छह वर्षीय केंद्रित कार्यक्रम।
  • प्राथमिकता वाली फसलें: अरहर, उड़द, मसूर (जहाँ आयात अधिक रहता है)।
  • उद्देश्य: उत्पादन बढ़ाना, आयात पर निर्भरता कम करना, कीमतों को स्थिर करना।

  • अनुकूलित प्रौद्योगिकियाँ: कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्रों में अनुकूलित पद्धतियाँ अपनाई जाएँगी।
    • उदाहरण के लिए: शुष्क क्षेत्रों में सूखा-प्रतिरोधी किस्में।
  • बीज रणनीति: उच्च-गुणवत्ता वाले ‘बीज उपचार’ किट्स पर ध्यान केंद्रित करना और व्यापक वितरण सुनिश्चित करना, विशेष रूप से भारत के 111 उच्च-संभावित जिलों में, जो राष्ट्रीय उत्पादन में 75% का योगदान करते हैं।
  • क्लस्टर दृष्टिकोण: स्थानीय बीज प्रणालियों को मजबूत करने के लिए FPO द्वारा समर्थित ‘एक ब्लॉक – एक बीज ग्राम’।
  • जलवायु अनुकूलन: गर्मी, सूखे और अनियमित वर्षा के प्रति लचीली किस्मों को बढ़ावा देना।
  • डेटा-संचालित निगरानी: कृषकों और नीति निर्माताओं के लिए रियल टाइम निर्णय-समर्थन प्रणाली।

रिपोर्ट का महत्त्व 

  • खाद्य सुरक्षा: भारत की जनसंख्या की बढ़ती प्रोटीन माँग को पूरा करता है।
  • किसान कल्याण: वर्षा आधारित क्षेत्रों में सीमांत कृषकों का समर्थन करता है।
  • आयात प्रतिस्थापन: दालों के आयात पर विदेशी मुद्रा के बहिर्वाह को कम करता है।
  • पोषण सुरक्षा: कुपोषण और आहार प्रोटीन की कमी को दूर करने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • स्थायित्व: दालें नाइट्रोजन स्थिरीकरण के माध्यम से मृदा की उर्वरता में सुधार करती हैं, रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम करती हैं और जलवायु के अनुकूल फसलें हैं।

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