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राजेंद्र चोल प्रथम

Lokesh Pal July 22, 2025 02:46 11 0

संदर्भ

राजा राजेंद्र चोल प्रथम द्वारा गंगा के मैदानों पर विजय की 1000वीं वर्षगाँठ (सहस्राब्दी) के उपलक्ष्य में एक भव्य समारोह आयोजित किया जाएगा।

  • अपनी सफलता के प्रतीक के रूप में, वे पवित्र गंगा जल को तमिलनाडु लाए, गंगईकोंड चोलपुरम शहर की स्थापना की और विशाल गंगईकोंड चोलिसवरम शिव मंदिर का निर्माण कराया, जो वर्तमान में चोल साम्राज्य के वैभव का प्रतीक है।

राजेंद्र चोल प्रथम के बारे में

  • राजराज प्रथम के पुत्र राजेंद्र प्रथम ने चोल साम्राज्य को सैन्य विस्तार और प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुँचाया।
  • दक्कन में सैन्य विस्तार
    • उन्होंने पश्चिमी चालुक्यों के विरुद्ध अभियान चलाया और चोल प्रभाव का तुंगभद्रा नदी तक विस्तार किया।
    • मदुरै में पांड्यों को पराजित किया, जिससे वे श्रीलंका भाग गए, जिस पर उन्होंने बाद में आक्रमण किया।
  • उत्तरी अभियान और उसका प्रभाव
    • राजेंद्र चोल प्रथम (शासन काल: 1012-1044 ई.) ने उत्तर भारत में एक सैन्य अभियान चलाया और बंगाल के पाल राजा महिपाल, कलिंग शासक और अन्य उत्तर भारत के सरदारों को पराजित किया।
    • इन राजाओं पर उनकी विजय का वर्णन तिरुवलंगडु, करंथई, तिरुक्कलार ताम्रपत्रों एवं विभिन्न शिलालेखों तथा तमिल साहित्यिक कृतियों में स्पष्ट रूप से मिलता है।
    • परंपरा के अनुसार, पराजित राजाओं को अपने सिर पर गंगा जल ढोकर चोल राजधानी ले जाया जाता था। इस जल कोचोल गंगम्’ (वर्तमान पोन्नेरी) झील में समर्पित किया जाता था।
    • राजेंद्र चोल प्रथम, चालुक्य वंश और कलिंग की मूर्तियाँ पुरस्कार स्वरूप वापस लाए थे।
  • नौसेना और समुद्री उपलब्धियाँ
    • श्री विजय साम्राज्य (वर्तमान सुमात्रा में) के विरुद्ध एक सफल नौसैनिक अभियान का नेतृत्व किया और दक्षिण-पूर्व एशियाई समुद्री मार्गों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
    • उनकी समुद्री विजयों ने मलय प्रायद्वीप और दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य भागों के साथ व्यापार को बढ़ावा दिया।
  • उपाधि
    • मुदिकोंडा चोल (मुकुटधारी चोल)
    • कदारामकोंड (मलेशिया में कदाराम यानी केदाह का विजेता)
    • पंडित चोल (विद्वान चोल)।

गंगईकोंड चोलपुरम् 

  • पृष्ठभूमि: अपनी उत्तरी विजय के बाद, राजेंद्र चोल प्रथम नेगंगईकोंड चोल’ (‘गंगा पर विजय प्राप्त करने वाले चोल’) की उपाधि धारण की।
  • राजधानी की स्थापना: उन्होंने लगभग 1025 ई. में तमिलनाडु के वर्तमान अरियालुर जिले में गंगईकोंड चोलपुरम्’ की स्थापना की। यह शहर 1279 ई. तक चोलों की शाही राजधानी बना रहा।
  • वास्तुशिल्प महत्त्व: उन्होंने भगवान शिव को समर्पित भव्य गंगईकोंड चोलेश्वरम् मंदिर का निर्माण कराया, जो तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर की शैली का प्रतिरूप है।
  • नगरीय नियोजन: गंगईकोंड चोलपुरम् किलों, महलों और सड़कों वाला एक नियोजित नगरीय केंद्र था।
    • कुलोत्तुंग प्रथम के शासनकाल (49वां वर्ष – 1119 ई.) के शिलालेखों में कई शाही इमारतों का उल्लेख है।
  • सांस्कृतिक और राजनीतिक महत्त्व: चोलों के शासनकाल में यह शहर एक प्रमुख राजनीतिक, वाणिज्यिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में कार्य करता था।
    • यह उत्तर में तुंगभद्रा से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक चोल प्रभुत्व का प्रतीक था।
  • साहित्य में इस शहर को विभिन्न नामों से जाना जाता था
    • ओट्टकुट्टार द्वारा मुवर उला (Muvar Ula by Ottakuttar): गढ़ का वर्णन।
    • राजराजा चोल उल (Rajaraja Cholan Ula): शहर के प्रमुख स्थलों की सूची।
    • कलिंगट्टुपर्णी (Kalingattuparani): शहर को गंगापुरी कहता है।

गंगईकोंड चोलेश्वरम मंदिर 

  • निर्माण: राजेंद्र चोल प्रथम (शासनकाल 1014-1044 ई.)।
  • मुख्य देवता: यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है, जिनकी पूजा गर्भगृह में स्थित 13 फुट ऊँचे शिवलिंग के रूप में की जाती है।
  • यह बृहदेश्वर मंदिर (तंजावुर) और ऐरावतेश्वर मंदिर (दारासुरम्) के साथवृहद चोल मंदिरों” में से एक है, जिन्हें उनकी असाधारण वास्तुकला और सांस्कृतिक महत्त्व के लिए यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों में शामिल किया गया है।
  • मंदिर की संरचना
    • विमान (मुख्य मीनार) एक ऊँचे चबूतरे पर बना है और 55 मीटर ऊँचा है।
    • प्रांगण 170 मीटर लंबा और 98 मीटर चौड़ा है, जिसमें मूर्तियाँ और जटिल नक्काशी की गई है।
  • मंदिर उत्कृष्ट पत्थर की नक्काशी से सुसज्जित है, जो चोल काल की कलात्मक और अभियांत्रिकी कौशल को दर्शाता है।

  • शाही चोल शक्ति और भक्ति का प्रतीक, यह मंदिर द्रविड़ मंदिर वास्तुकला के शिखर और मंदिर निर्माण के प्रति चोल वंश की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
  • अपनी भव्यता के बावजूद, मंदिर में राजेंद्र चोल प्रथम का कोई भी शिलालेख नहीं मिला है।
    • उनकी भूमिका की जानकारी उनके पुत्र वीर राजेंद्र के शिलालेखों से मिलती है, जिसमें महल को चोल-केरल थिरुमालीगई कहा गया है।

मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली

द्रविड़ शैली मुख्य रूप से दक्षिण भारत में 8वीं शताब्दी से 13वीं-14वीं शताब्दी तक पल्लव, चोल, पांड्य और विजयनगर शासकों जैसे राजवंशों के संरक्षण में विकसित हुई।

प्रमुख वास्तुशिल्पीय विशेषताएँ

  • परिक्षेत्र: मंदिर ऊँची चहारदीवारी से घिरे होते हैं, जो पवित्र स्थान को धर्मनिरपेक्ष दुनिया से अलग करती हैं।
    • उदाहरण: श्रीरंगम् (तिरुचिरापल्ली) स्थित श्रीरंगनाथ मंदिर में सात संकेंद्रित आयताकार दीवारें हैं, जिनमें प्रत्येक तल पर गोपुरम् और केंद्र में गर्भगृह है।
  • गोपुरम्: गोपुरम् नामक स्मारकीय प्रवेश द्वार, सामने की दीवार में बना है और समय के साथ सबसे प्रमुख वास्तुशिल्प तत्त्व बन गया है।
  • विमान (मुख्य मीनार): विमान एक सीढ़ीदार, पिरामिडनुमा संरचना है जो गर्भगृह (गर्भगृह) के ऊपर बनाई जाती है।
  • पंचायतन शैली: मंदिर परिसर प्रायः पंचायतन शैली का अनुसरण करते हैं, जिसमें एक केंद्रीय मंदिर होता है, जिसके चारों ओर कोनों पर चार सहायक मंदिर होते हैं।
  • मंदिर तालाब: मंदिर परिक्षेत्र के अंदर एक जल कुंड या मंदिर तालाब की उपस्थिति एक प्रमुख विशेषता है, जिसका उपयोग अनुष्ठान शुद्धि के लिए किया जाता है।
  • मंदिर नगर: द्रविड़ मंदिर वास्तुकला के प्रसिद्ध केंद्रों में कांचीपुरम्, तंजावुर (तंजौर), मदुरै और कुंभकोणम शामिल हैं।

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