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ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा द्वारा फिलिस्तीन को मान्यता

Lokesh Pal September 23, 2025 02:12 101 0

संदर्भ

हाल ही में ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, पुर्तगाल और कनाडा ने औपचारिक रूप से फिलिस्तीन राज्य (स्टेट) को मान्यता दी।

संबंधित तथ्य 

  • न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पूर्व संध्या पर पुर्तगाल ने फिलिस्तीन को मान्यता देने की पुष्टि की, जबकि फ्रांस ने इसके पक्ष में मतदान करने का वचन दिया, जिससे वह पहले से ही समर्थन कर रहे लगभग 150 संयुक्त राष्ट्र सदस्यों में शामिल हो गया।

फिलिस्तीन का एक भौगोलिक अवलोकन

  • फिलिस्तीन पश्चिमी एशिया में, मध्य पूर्व के संक्रमण क्षेत्र में अवस्थित है।
  • भौगोलिक विस्तार: यह मुख्यतः वेस्ट कोस्ट (पूर्वी यरुशलम सहित) और गाजा पट्टी के क्षेत्र को संदर्भित करता है।

  • सीमाएँ
    • पश्चिम: भूमध्य सागर
    • पूर्व: जॉर्डन
    • उत्तर: लेबनान और सीरिया
    • दक्षिण-पश्चिम: मिस्र
    • वेस्ट कोस्ट: जॉर्डन नदी के पश्चिम में स्थित स्थलरुद्ध क्षेत्र, जो इजराइल और जॉर्डन की सीमा से लगा हुआ है।।
    • गाजा पट्टी: भूमध्य सागर के किनारे अवस्थित एक संकरा तटीय क्षेत्र, इजराइल और मिस्र की सीमा से लगा हुआ।
  • सामरिक महत्त्व
    • यह लेवेंट क्षेत्र (Levant Region) का हिस्सा है।
    • एशिया और अफ्रीका के बीच आवागमन मार्गों को नियंत्रित करता है।
    • यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम के पवित्र स्थलों (विशेषकर यरुशलम में) के निकट अवस्थित है।

फिलिस्तीन को मान्यता देने संबंधी पृष्ठभूमि

  • ऐतिहासिक संदर्भ: फिलिस्तीनी समस्या का इतिहास ब्रिटिश शासनादेश (1920-48) से संबंधित है, जब यहूदियों और अरबों से किए गए परस्पर विरोधी वादों की परिणति वर्ष 1947 की संयुक्त राष्ट्र विभाजन योजना के रूप में हुई।
  • इजराइल का निर्माण (1948): इजराइल की स्वतंत्रता की घोषणा के बाद, नकबा (आपदा) की घटना के दौरान लगभग 7,00,000 फिलिस्तीनियों को विस्थापित होना पड़ा।
  • युद्ध और अधिकार: वर्ष 1967 के छह-दिवसीय युद्ध के परिणामस्वरूप वेस्ट कोस्ट, गाजा पट्टी और पूर्वी यरुशलम पर इजराइल का अधिकार हो गया, ये वे क्षेत्र हैं जिन्हें फिलिस्तीनी राज्य की माँग के लिए प्रमुख माना जाता है।
  • शांति प्रक्रिया का विकास: ओस्लो समझौते (1993) से लेकर शांति के रोडमैप (2003) तक, बार-बार प्रयास किए गए, फिर भी बस्तियों, सुरक्षा चिंताओं और विभाजित फिलिस्तीनी नेतृत्व (वेस्ट कोस्ट में फतह, गाजा में हमास) ने प्रगति को रोक दिया।
    • फतह (Fatah): वेस्ट कोस्ट पर फिलिस्तीनी प्राधिकरण (Palestinian Authority- PA) का नेतृत्व करने वाली धर्मनिरपेक्ष फिलिस्तीनी पार्टी, इजराइल के साथ वार्ता के जरिए समाधान की पक्षधर है।
    • हमास: गाजा पट्टी को नियंत्रित करने वाला यह इस्लामी संगठन, राजनीतिक और उग्रवादी गुटों को जोड़ता है, इजराइल के अस्तित्व का विरोध करता है और स्थानीय स्तर पर सामाजिक सेवाएँ प्रदान करता है।
    • फतह-हमास प्रतिद्वंद्विता: वर्ष 2006 के चुनावों के बाद से, वेस्ट कोस्ट (फतह) और गाजा (हमास) के बीच विभाजन के कारण शासन खंडित हो गया है, जिससे शांति वार्ता जटिल हो गई है।
  • अंतरराष्ट्रीय मान्यता: 140 से अधिक संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों (अधिकतम ग्लोबल साउथ के देश) ने फिलिस्तीन को मान्यता दी है, लेकिन प्रमुख पश्चिमी शक्तियों द्वारा मान्यता न मिलने से इसकी वैधता लंबे समय से कमजोर रही है।
    • ‘वर्ष 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 67/19 द्वारा फिलिस्तीन को गैर-सदस्य पर्यवेक्षक राज्य का दर्जा दिया गया था, और 140 से अधिक संयुक्त राष्ट्र सदस्य देश इसे मान्यता देते हैं, जो प्रमुख पश्चिमी शक्तियों की हिचकिचाहट के बावजूद व्यापक वैश्विक समर्थन को दर्शाता है।’

राष्ट्र/राज्य (स्टेट) मान्यता के मानदंड

  • पृष्ठभूमि
    • अंतरराष्ट्रीय कानून में मान्यता की अवधारणा वेस्टफालियन प्रणाली (Westphalian System) (1648) से उत्पन्न हुई है, जहाँ संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता राज्यत्व की आधारशिला बन गई।
    • राज्यों के अधिकारों और कर्तव्यों पर मोंटेवीडियो कन्वेंशन (Montevideo Convention) (1933) राज्यत्व के लिए सबसे व्यापक रूप से स्वीकृत मानदंड प्रदान करता है।
    • मान्यता एक कानूनी प्रक्रिया (अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिए क्षमता को परिभाषित करना) और एक राजनीतिक कार्य (मौजूदा राज्यों के रणनीतिक हितों से प्रेरित) दोनों है।
  • राज्य का दर्जा देने के कानूनी मानदंड (मोंटेवीडियो कन्वेंशन, 1933)
    • परिभाषित क्षेत्र: किसी राज्य का भौगोलिक क्षेत्र स्पष्ट रूप से सीमांकित होना चाहिए, भले ही सीमाएँ विवादित हों (जैसे- इजराइल-फिलिस्तीन)।
    • स्थायी जनसंख्या: एक स्थिर समुदाय का अस्तित्व जो उस क्षेत्र से जुड़ा हो (केवल अस्थायी या खानाबदोश नहीं)।
    • सरकार: एक कार्यशील राजनीतिक प्राधिकरण, जो क्षेत्र और जनसंख्या पर प्रभावी नियंत्रण रखता हो।
    • अन्य राष्ट्रों के साथ संबंध बनाने की क्षमता: संधि, कूटनीतिक और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में शामिल होने की क्षमता को दर्शाता हो।
    • फिलिस्तीन मुख्यतः मोंटेवीडियो मानदंडों को पूरा करता है: इसका एक परिभाषित क्षेत्र (वेस्ट कोस्ट और गाजा), एक स्थायी जनसंख्या (लगभग 50 लाख) और विदेशी संबंधों की क्षमता है।
      • हालाँकि, फतह और हमास के बीच आंतरिक विभाजन इसकी सरकार की प्रभावशीलता को सीमित करते हैं, जिससे अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत पूर्ण मान्यता प्रभावित होती है।
  • मान्यता के प्रकार
    • विधि सम्मत मान्यता: अंतरराष्ट्रीय कानून में किसी राज्य की संप्रभुता की पूर्ण और औपचारिक मान्यता (उदाहरण के लिए, वर्ष 1988 में भारत द्वारा फिलिस्तीन को मान्यता)।
    • वास्तविक मान्यता: अस्थायी मान्यता, जहाँ राज्य का दर्जा व्यवहार में स्वीकार किया जाता है, लेकिन अभी तक कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है (उदाहरण के लिए, कुछ राज्यों द्वारा ताइवान को मान्यता)।
    • सामूहिक मान्यता: संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ या क्षेत्रीय समूहों जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं के माध्यम से मान्यता प्रदान की जाए।
    • सशर्त मान्यता: विशिष्ट राजनीतिक या कानूनी अपेक्षाओं से जुड़ी (उदाहरण के लिए, कोसोवो की स्वतंत्रता यूरोपीय संघ में प्रवेश के ढाँचों से संबंधित)।
  • मान्यता के सिद्धांत
    • प्रलक्षित सेवामुक्‍ति सिद्धांत (Constitutive Theory): एक राज्य तभी राज्य बनता है जब उसे मौजूदा राज्यों द्वारा मान्यता प्राप्त हो।
    • घोषणात्मक सिद्धांत (Declaratory Theory): एक राज्य तभी अस्तित्व में आता है जब वह मोंटेवीडियो मानदंडों को पूरा करता है, चाहे उसे मान्यता मिले या न मिले (वर्तमान में यह प्रचलित दृष्टिकोण है)।
  • केस स्टडी
    • फिलिस्तीन: 140 से अधिक देशों द्वारा मान्यता प्राप्त, लेकिन प्रमुख पश्चिमी शक्तियों द्वारा मान्यता न मिलने के कारण इसका पूर्ण राज्य का दर्जा सीमित है।
    • कोसोवो (2008): 100 से अधिक देशों द्वारा मान्यता प्राप्त, लेकिन रूस, चीन या भारत द्वारा नहीं, जिससे इसकी संयुक्त राष्ट्र सदस्यता सीमित हो गई है।
    • ताइवान: एक संप्रभु इकाई के रूप में कार्य करता है, लेकिन ‘वन- चाइना’ नीति के कारण बहुत कम देशों द्वारा आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त है।
    • दक्षिण सूडान (2011): जनमत संग्रह के बाद इसे विश्व स्तर पर शीघ्र मान्यता मिली, जो दर्शाता है कि अंतरराष्ट्रीय सहमति कैसे वैधता को गति प्रदान करती है।
  • भारत का दृष्टिकोण
    • भारत व्यावहारिक, मामला-दर-मामला दृष्टिकोण अपनाता है।
      • उपनिवेश-विरोधी एकजुटता के अनुरूप, वर्ष 1988 में फिलिस्तीन को मान्यता दी गई।
      • वन- चाइना नीति के कारण ताइवान को मान्यता नहीं दी गई।
      • अलगाववादी आंदोलनों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करने से बचने के लिए कोसोवो को मान्यता नहीं दी गई।

नई मान्यता का महत्त्व

  • पश्चिमी सहमति में मतभेद: पश्चिमी गुट की कूटनीति में एक ऐतिहासिक बदलाव का संकेत, क्योंकि ये देश लंबे समय से अमेरिका और इजराइली दृष्टिकोण के साथ जुड़े रहे हैं।
  • फिलिस्तीन की वैधता में वृद्धि: फिलिस्तीनी राज्य की अंतरराष्ट्रीय वैधता को बढ़ाता है, जिससे फिलिस्तीनी प्राधिकरण को हमास के विरुद्ध एक मजबूत कूटनीतिक स्थिति प्राप्त होती है।
  • द्वि-राज्य समाधान को मजबूत करना: ‘द्वि-राज्य’ समाधान को विश्व स्तर पर स्वीकार्य ढाँचे के रूप में पुष्ट करता है, अनिश्चितकालीन अधिकार को सामान्य बनाने के प्रयासों का प्रतिकार करता है।
  • इजराइल पर दबाव: इजराइल बस्तियों के विस्तार और सैन्य कार्रवाइयों के प्रति बढ़ती अधीरता का संकेत, संभवतः इजराइल को अपने कठोर दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करता है।
  • भू-राजनीतिक तरंग प्रभाव (Geopolitical Ripple Effects): भारत, तुर्किए, ब्राजील जैसी मध्यम स्तर की शक्तियों के लिए मध्यस्थता की भूमिका निभाने के लिए जगह बनाता है, साथ ही चीन और रूस के लिए राजनयिक अवसर भी प्रस्तुत करता है।
  • आर्थिक कूटनीति और राज्य-निर्माण: इस मान्यता के आर्थिक निहितार्थ हैं। दुनिया के विभिन्न देश कुछ शर्तों (सुधार, भ्रष्टाचार-विरोधी, अहिंसा) के साथ वित्तीय सहायता प्रदान कर सकते हैं, इजराइली बस्तियों के साथ व्यापार पर पुनर्विचार कर सकते हैं, और वेस्ट कोस्ट में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को बढ़ावा दे सकते हैं, जिससे फिलिस्तीनी संस्थाओं और अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी।
  • नैतिक और मानवीय प्रतीकवाद: गाजा के मानवीय संकट के बीच यह मान्यता दी गई है, जो पश्चिमी देशों को मानवाधिकार संबंधी चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता को दर्शाती है।

द्वि-राज्य समाधान (Two-State Solution) के बारे में

  • दो स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करके इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष को हल करने के लिए एक प्रस्तावित ढाँचा:-
    • इजराइल: एक संप्रभु राज्य के रूप में जारी रहेगा।
    • फिलिस्तीन: वर्ष 1967 में अधिकार किए गए क्षेत्रों (वेस्ट कोस्ट, गाजा, पूर्वी यरुशलम) पर स्थापित किया जाएगा।
  • उद्देश्य: सीमाओं, शरणार्थियों और यरुशलम पर विवादों को सुलझाते हुए, दोनों देशों के लोगों के लिए पारस्परिक मान्यता, सुरक्षा और संप्रभुता सुनिश्चित करना।

भारत का दृष्टिकोण

  • ऐतिहासिक समर्थन: भारत फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO, 1974) को मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब देश था और बाद में वर्ष 1988 में फिलिस्तीन को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता दी।
  • संतुलित नीति: इजराइल के साथ मजबूत संबंध (रक्षा, प्रौद्योगिकी, कृषि) बनाए रखते हुए, भारत संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों पर आधारित द्वि-राज्य/राष्ट्र समाधान की वकालत करता रहा है।
  • रणनीतिक कूटनीति: भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा और यूनेस्को में लगातार फिलिस्तीन के पक्ष में मतदान किया है, फिर भी इजराइल के साथ संबंधों की रक्षा के लिए विवादास्पद बयान देने से बचता रहा है।
  • वर्तमान स्थिति: भारत द्वारा इस मान्यता का स्वागत किए जाने की संभावना है, क्योंकि यह उसकी दीर्घकालिक स्थिति की अंतरराष्ट्रीय वैधता को मजबूत करता है, साथ ही भारत को पश्चिम एशिया में निष्पक्षता और संतुलन की अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करता है।
    • यह मान्यता अरब देशों के साथ भारत के राजनयिक प्रभाव को मजबूत करती है, उसके ऊर्जा, प्रवासी और व्यापारिक हितों का समर्थन करती है, और भारत को पश्चिम एशिया में एक निष्पक्ष और संतुलित व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करती है।

मान्यता के भू-राजनीतिक और राजनयिक परिणाम

  • क्षेत्रीय प्रतिक्रियाएँ
    • इजराइल: इजराइल सरकार ने इस मान्यता की निंदा करते हुए इसे एक ‘एकतरफा निर्णय’ बताया है जो वार्ता को कमजोर करता है और ‘सुरक्षा-प्रथम’ के उसके दृष्टिकोण को मजबूत करता है।
    • फिलिस्तीनी प्राधिकरण (PA): इस निर्णय का स्वागत अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक लंबे समय से लंबित सुधार के रूप में किया, जिससे हमास के विरुद्ध इसकी वैधता मजबूत हुई है। 
    • अरब देश: अधिकतम अरब देशों (विशेषतः अरब लीग) ने इस कदम की सराहना की है, और इसे फिलिस्तीनी संप्रभुता के उनके दशकों पुराने आह्वान के अनुरूप माना है।
    • खाड़ी देश: हालाँकि सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कतर ने समर्थन व्यक्त किया है, लेकिन अमेरिका और इजराइल के साथ उनकी रणनीतिक सतर्कता प्रभाव को कम कर रही है।
  • वैश्विक प्रतिक्रियाएँ
    • संयुक्त राज्य अमेरिका: अमेरिका ने मान्यता देने से इनकार किया है और अपने इस रुख पर दृढ़ है कि फिलिस्तीनी राज्य का दर्जा सीधी वार्ता के जरिए हासिल किया जाना चाहिए। यह ट्रांस अटलांटिक संबंधी मतभेदों को रेखांकित करता है।
    • यूरोपीय संघ: यूरोप इस मुद्दे पर विभाजित है, स्पेन, आयरलैंड, स्वीडन और नॉर्वे पहले से ही फिलिस्तीन को मान्यता दे चुके हैं, जबकि फ्राँस और जर्मनी सतर्क दृष्टिकोण अपनाते हुए वार्ता के परिणाम की प्रतीक्षा करना पसंद करते हैं।
    • ग्लोबल साउथ: व्यापक रूप से समर्थन, क्योंकि मान्यता उनके उपनिवेश-विरोधी एकजुटता के आख्यानों और वैश्विक शासन में सुधार के व्यापक आह्वान के अनुरूप है।
    • रूस और चीन: दोनों ने फिलिस्तीनी राज्य के लिए अपने समर्थन को दोहराया है, और इसका इस्तेमाल पश्चिमी गुट के विरुद्ध मध्य पूर्व में राजनयिक प्रभाव बढ़ाने के लिए किया है।

मान्यता को प्रभाव में बदलने में चुनौतियाँ एवं बाधाएँ

  • अमेरिकी प्रतिरोध: अमेरिकी समर्थन के बिना, मान्यता प्रतीकात्मक तो हो सकती है, लेकिन परिवर्तनकारी नहीं, क्योंकि अमेरिका मध्य पूर्व शांति वार्ता में केंद्रीय भूमिका में है।
  • इजराइली विरोध: इजराइल इस तरह की मान्यता को प्रत्यक्ष वार्ता को कमजोर करने वाला मानता है, जिससे उसकी घरेलू राजनीति और दक्षिणपंथी दृष्टिकोण और सख्त हो सकता है।
  • विखंडित फिलिस्तीनी नेतृत्व: फतह-हमास प्रतिद्वंद्विता मान्यता की प्रभावशीलता को कमजोर करती है, क्योंकि गाजा और वेस्ट कोस्ट में शासन विभाजित बना हुआ है।
  • क्षेत्रीय अस्थिरता: व्यापक पश्चिम एशियाई अस्थिरता (ईरान-इजराइल तनाव, हिजबुल्लाह-इजराइल संघर्ष, हूती हमले) फिलिस्तीनी मुद्दे को कमजोर करते हैं।
  • यूरोपीय संघ में विभाजन: एकीकृत यूरोपीय संघ दृष्टिकोण का अभाव गति को कम कर सकता है, क्योंकि फ्राँस और जर्मनी जैसे प्रमुख देश अभी भी सतर्क हैं।
  • प्रतीकात्मकता बनाम कार्यान्वयन: केवल मान्यता जमीनी स्तर पर संप्रभुता में परिवर्तित नहीं होती है, क्योंकि अधिकार और नाकाबंदी की वास्तविकताएँ बनी रहती हैं।
  • कानूनी और सुरक्षा संबंधी परिणाम: मान्यता प्रदान करने से अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) और अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) में फिलिस्तीन को समर्थन प्राप्त होगा, राजनयिक मिशनों को पूर्ण दूतावासों में उन्नत किया जा सकेगा और अंतरराष्ट्रीय कानून में उसकी कानूनी स्थिति मजबूत होगी। हालाँकि, इससे इजराइल के साथ ख़ुफ़िया सहयोग और आतंकवाद-रोधी समन्वय पर दबाव पड़ने का खतरा है।

आगे की राह

  • अंतरराष्ट्रीय सहमति को सुदृढ़ करना: मान्यता को सार्थक महत्त्व देने के लिए यूरोपीय संघ, संयुक्त राष्ट्र और ‘ग्लोबल साउथ’ में व्यापक समन्वय आवश्यक है।
  • शांति वार्ता को पुनर्जीवित करना: फिलिस्तीन को मान्यता देने वाले देशों को एक नए सिरे से वार्ता ढाँचे के लिए प्रयास करना चाहिए, संभवतः संयुक्त राष्ट्र या बहुपक्षीय मध्यस्थता के तहत, न कि केवल अमेरिका के नेतृत्व में।
  • फिलिस्तीनी शासन के लिए समर्थन: फिलिस्तीनी प्राधिकरण को वित्तीय और तकनीकी सहायता संस्थानों और शासन क्षमता को मजबूत करने में मदद कर सकती है।
  • फिलिस्तीनी क्षेत्रों के बीच सुलह: फतह-हमास के बीच साझेदारी को प्रोत्साहित करना बाह्य मान्यता को प्रभावी शासन में बदलने के लिए महत्त्वपूर्ण है, जिससे फिलिस्तीन को जमीनी स्तर पर संप्रभुता का प्रयोग करने और इजराइल तथा अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ वार्ता में अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद मिलेगी।
  • मानवीय कूटनीति: इस मान्यता को गाजा और वेस्ट कोस्ट में ठोस मानवीय राहत से जोड़ा जाना चाहिए, जिससे लोगों को तत्काल लाभ मिल सके।
  • इजराइल के साथ सशर्त जुड़ाव: व्यापार, कूटनीतिक और रक्षा संबंधों का लाभ उठाकर इजराइल पर बस्तियों को रोकने और बातचीत के लिए प्रतिबद्ध होने का दबाव डालना।
  • द्वि-राज्य समाधान को सुदृढ़ करना: यह मान्यता वर्ष 1967 के सीमा सिद्धांत की पुष्टि करती है, बस्तियों के विस्तार को चुनौती देती है, और ओस्लो समझौते में परिकल्पित द्वि-राज्य ढाँचे को पुनर्जीवित करती है। हालाँकि एक-राज्य या परिसंघ मॉडल मौजूद हैं, फिर भी उन्हें गहरी राजनीतिक और जनसांख्यिकीय बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
  • भारत की भूमिका: भारत एक सेतु-निर्माता के रूप में कार्य कर सकता है, फिलिस्तीन के प्रति अपने दीर्घकालिक समर्थन को बनाए रखते हुए और इजराइल, अमेरिका तथा अरब देशों के साथ अपने संबंधों का लाभ उठाकर क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा दे सकता है।

निष्कर्ष

ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा द्वारा फिलिस्तीन को मान्यता देना पश्चिम एशियाई भू-राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है, जो पश्चिमी कूटनीतिक दृष्टिकोण में क्रमिक बदलाव का संकेत देता है। हालाँकि इससे संघर्ष का तुरंत समाधान तो नहीं होगा, लेकिन यह फिलिस्तीनी राज्य की आकांक्षाओं को मानक, राजनीतिक और कूटनीतिक बल प्रदान करता है।

  • भारत के लिए, यह उसकी संतुलित पश्चिम एशिया नीति के अनुरूप है और एक उभरती हुई बहुध्रुवीय व्यवस्था में इसकी प्रासंगिकता को रेखांकित करता है।

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