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डिजिटल वाणिज्यिक भाषण को विनियमित करना

Lokesh Pal September 06, 2025 04:17 75 0

संदर्भ

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को सोशल मीडिया सामग्री को विनियमित करने के लिए दिशा-निर्देश तैयार करने का निर्देश दिया, जिसमें इन्फ्लुएंसर्स द्वारा संचालित व्यावसायिक भाषणों में वृद्धि का हवाला दिया गया, जिससे दिव्यांगजन (PwDs) जैसे सुभेद्य समूहों को नुकसान पहुँचने का खतरा है।

मामले की पृष्ठभूमि

  • याचिकाकर्ता: स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी क्योर फाउंडेशन द्वारा कुछ हास्य कलाकारों के विरुद्ध दायर की गई थी।
  • मुद्दा: दिव्यांग व्यक्तियों के बारे में अपमानजनक टिप्पणियाँ, जिनमें स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी के उपचार की लागत का मजाक उड़ाना भी शामिल है, गरिमा एवं समावेशिता का उल्लंघन करती हैं।

सोशल मीडिया आचरण पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बारे में

  • पीठ की मुख्य टिप्पणियाँ
    • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्यावसायीकरण: जब अभिव्यक्ति का मुद्रीकरण किया जाता है, तो वक्ता की जिम्मेदारी बढ़ जाती है; इन्फ्लुएंसर्स सुभेद्य समूहों को नुकसान पहुँचाकर लाभ नहीं कमा सकते हैं।
    • हास्य की सीमाएँ: हास्य महत्त्वपूर्ण है, लेकिन वंचित समुदायों की गरिमा को ठेस नहीं पहुँचा सकता है।
    • दिव्यांग व्यक्तियों को मुख्यधारा में लाना: दिव्यांग व्यक्तियों के विरुद्ध टिप्पणियाँ समावेशिता और समानता के संवैधानिक उद्देश्य को कमजोर करती हैं।
    • आनुपातिक दंड: केवल सांकेतिक या प्रतीकात्मक माफी पर्याप्त नहीं है; प्रभावी और लागू करने योग्य दंड आवश्यक हैं।
    • व्यापक दिशा-निर्देशों की आवश्यकता: नियमों का दायरा व्यापक होना चाहिए, जिसमें पॉडकास्ट और ऑनलाइन कॉमेडी शो जैसे उभरते हुए प्लेटफॉर्म शामिल हों।
  • न्यायालय के निर्देश
    • हास्य कलाकारों द्वारा माफी: अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सार्वजनिक रूप से माफी माँगने और दिव्यांगजन के अधिकारों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए अपने प्रभाव का प्रयोग करने का आदेश दिया गया।
    • दिशा-निर्देशों का निर्माण: केंद्र सरकार को न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के परामर्श से सोशल मीडिया आचरण नियमों का मसौदा तैयार करने का निर्देश दिया गया।
    • समय-सीमा: ये मसौदा दिशा-निर्देश नवंबर तक तैयार हो जाएँगे; साथ ही ये भविष्योन्मुखी और व्यापक होने चाहिए, न कि केवल कभी-कभार होने वाली घटनाओं पर त्वरित प्रतिक्रियाएँ होनी चाहिए।
  • व्यापक नैतिक और सामाजिक निहितार्थ
    • एंबेसडर के रूप में इन्फ्लुएंसर्स: सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स राय बनाने वाले के रूप में कार्य करते हैं और उन्हें नैतिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए।
    • प्लेटफॉर्म जवाबदेही: विनियमन व्यक्तियों से आगे बढ़कर YouTube, पॉडकास्ट और ऑनलाइन शो जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म तक भी विस्तारित होना चाहिए।
    • अधिकारों का संतुलन: अनुच्छेद-19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अनुच्छेद-21 के तहत सम्मान के अधिकार के साथ संरेखित किया जाना चाहिए।
    • सीमाएँ: सोशल मीडिया मुक्त अभिव्यक्ति, व्यावसायिक अभिव्यक्ति और निषिद्ध अभिव्यक्ति के बीच के अंतर को कम कर देता है, जिससे विनियमन आवश्यक हो जाता है।
  • निर्णय का महत्त्व
    • प्रभावशाली व्यक्तियों के लिए जवाबदेही: डिजिटल उत्तरदायित्व के लिए एक राष्ट्रीय उदहारण कायम करता है।
    • डिजिटल नैतिकता ढाँचा: भारत को संहिताबद्ध डिजिटल नैतिकता और जवाबदेही की ओर अग्रसर करता है।
    • संस्थागत परामर्श: सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (भारत सरकार) और समाचार प्रसारकों एवं डिजिटल एसोसिएशन को शामिल करके वैधता और व्यापक स्वीकृति सुनिश्चित करता है।
    • हाशिये पर पड़े समुदायों का संरक्षण: दिव्यांगजन, महिलाओं, बच्चों, अल्पसंख्यकों और वरिष्ठ नागरिकों की गरिमा की रक्षा करके संवैधानिक मूल्यों को सुदृढ़ करता है।

वाणिज्यिक भाषण के बारे में

  • परिभाषा: व्यावसायिक भाषण, वाणिज्य को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की जाने वाली अभिव्यक्तियों को संदर्भित करता है, जैसे- विज्ञापन, प्रायोजित पोस्ट और इन्फ्लुएंसर्स का समर्थन। यह विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत भाषण से भिन्न है क्योंकि यह लाभ-उन्मुख होता है और उपभोक्ता व्यवहार से जुड़ा होता है।
  • डिजिटल संदर्भ: यूट्यूब, इन्स्टाग्राम, ओवर-द-टॉप (OTT) प्लेटफॉर्म और ई-कॉमर्स साइटों के उदय के साथ, व्यावसायिक भाषण का व्यापक रूप से विस्तार हुआ है। इन्फ्लुएंसर्स अक्सर व्यक्तिगत राय से पैसा कमाते हैं, जिससे वास्तविक सामग्री और भुगतान किए गए प्रचार में अंतर करना मुश्किल हो जाता है।
  • व्यावसायिक भाषण का कानूनी विकास
    • हमदर्द दवाखाना बनाम भारत संघ (1959): विशुद्ध रूप से व्यापारिक विज्ञापनों को, यदि वे केवल लाभ-प्रेरित हों, संवैधानिक अधिकार (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के अंतर्गत नहीं माना गया है।
    • टाटा प्रेस बनाम महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (MTNL) 1995: जनहित (जैसे- उपभोक्ताओं को सूचित करना) को बढ़ावा देने वाले वाणिज्यिक भाषण को अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत संरक्षित माना गया।
    • सुरेश बनाम तमिलनाडु राज्य (1997): इस न्यायिक निर्णय में कहा गया कि वाणिज्यिक अभिव्यक्ति को सामाजिक हित के साथ संतुलित होना चाहिए; समाज के लिए हानिकारक निजी वाणिज्यिक उद्देश्यों को संरक्षण नहीं दिया जाता है।
    • वर्तमान परिप्रेक्ष्य: न्यायालय उपभोक्ता/जनहित को बढ़ावा देने वाले वाणिज्यिक भाषण और केवल निजी लाभ को बढ़ावा देने वाले भाषण के बीच अंतर करते हैं।

भारत में वाणिज्यिक भाषण से जुड़ी चिंताएँ

  • उपभोक्ता संरक्षण: विज्ञापनों में भ्रामक दावे, छिपे हुए प्रचार और असुरक्षित उत्पादों (जंक फूड, सट्टा, असत्यापित दवाएँ) का समर्थन जनहित को खतरे में डालता है।
  • गोपनीयता का उल्लंघन: लक्षित विज्ञापन अक्सर बिना सूचित सहमति के एकत्रित किए गए व्यक्तिगत डेटा पर निर्भर करते हैं, जिससे निगरानी पूँजीवाद (Surveillance Capitalism) का जोखिम उत्पन्न होता है।
  • सामाजिक क्षति: जैसा कि स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी (SMA) मामले में देखा गया, अपमानजनक सामग्री सुभेद्य समुदायों को कलंकित कर सकती है। इससे गरिमा, समानता और समावेशिता पर सवाल उठते हैं।
    • स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी क्योर फाउंडेशन ने दिव्यांगजन के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने और उनके द्वारा उपचार की लागत को लेकर मजाक उड़ाने, जिससे गरिमा और समावेशिता का उल्लंघन होता है, के लिए शीर्ष हास्य कलाकारों और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के विरुद्ध कार्रवाई की है।
  • पारदर्शिता का अभाव: इन्फ्लुएंसर्स कभी-कभी प्रायोजनों का खुलासा करने में चूक जाते हैं, जिससे दर्शक भ्रमित होते हैं।
  • निराशाजनक प्रभाव का जोखिम: साथ ही, अत्यधिक विनियमन व्यंग्य, हास्य, कलात्मक अभिव्यक्ति और सामाजिक आलोचना को हतोत्साहित कर सकता है, जो सभी लोकतंत्र में आवश्यक हैं।

स्वतंत्र एवं व्यावसायिक अभिव्यक्ति पर प्रमुख न्यायिक निर्णय

  • सकाल पेपर्स बनाम भारत संघ, 1962: विचारों के मुक्त बाजार के सिद्धांत की पुष्टि करते हुए, समाचार-पत्रों के प्रसार पर सरकारी प्रतिबंधों को हटा दिया गया।
  • टाटा प्रेस बनाम महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (MTNL), 1995: वाणिज्यिक भाषण को अनुच्छेद-19(1)(a) के भाग के रूप में मान्यता दी, यह देखते हुए कि विज्ञापन जनता के सूचना के अधिकार की पूर्ति करते हैं।
  • श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015): आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 66A को हटा दिया, यह मानते हुए कि ‘झुँझलाहट’ या ‘अपमान’ जैसे अस्पष्ट शब्द ऑनलाइन भाषण को आपराधिक बनाने का औचित्य नहीं दे सकते हैं।
  • सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ (2016): आपराधिक मानहानि को बरकरार रखा, इसे व्यक्तिगत गरिमा से जोड़ा, लेकिन स्पष्ट किया कि गरिमा एक स्वतंत्र प्रतिबंध का आधार नहीं है।
  • कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023): स्पष्ट किया कि अनुच्छेद-19(2) के आधार संपूर्ण हैं; न्यायिक नवाचार द्वारा ‘गरिमा’ जैसे नए आधार नहीं जोड़े जा सकते हैं।
  • इमरान प्रतापगढ़ी मामला (2025): इस बात की पुनः पुष्टि की गई कि असुविधा या अपमान का कारण बनने वाला भाषण तब तक संरक्षित रहेगा, जब तक कि वह अनुच्छेद-19(2) के प्रतिबंधों का उल्लंघन न करता हो।
  • सर्वोच्च न्यायालय का आदेश (अगस्त 2025): सरकार को न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन (NBDA) के परामर्श से नए दिशा-निर्देशों का मसौदा तैयार करने का निर्देश दिया गया, लेकिन इससे अति-नियमन की चिंताएँ उत्पन्न हुईं।

संवैधानिक स्थिति: वाणिज्यिक भाषण का औचित्य

  • संरक्षित भाषण: वाणिज्यिक भाषण, अनुच्छेद-19(1)(a) के अंतर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत संरक्षित है।
  • प्रतिबंध: कोई भी प्रतिबंध अनुच्छेद-19(2) के अंतर्गत आना चाहिए, जो सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता, राज्य की सुरक्षा, मानहानि, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, किसी अपराध के लिए उकसाना, या न्यायालय की अवमानना ​​के लिए प्रतिबंध लगाता है।
  • ‘गरिमा’ पर बहस: हालाँकि न्यायालयों ने गरिमा को मानहानि से जोड़ा है, लेकिन अनुच्छेद-19(2) के तहत इसे स्पष्ट आधार के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया गया है।
    • इसका विस्तार करने से अस्पष्ट और मनमाने सेंसरशिप का खतरा है।
  • आनुपातिकता का परीक्षण: कोई भी विनियमन अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए वैध, आवश्यक और कम से कम प्रतिबंधात्मक उपाय होना चाहिए।

भारत की पहल और कार्य

  • संरक्षण अधिनियम (CPA), 2019 और केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA) दिशा-निर्देश: भ्रामक विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाना, इन्फ्लुएंसर्स और समर्थकों के विरुद्ध दंड का प्रावधान करना।
  • भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (ASCI) दिशा-निर्देश, 2021: इन्फ्लुएंसर्स द्वारा भुगतान किए गए प्रचार का अनिवार्य प्रकटीकरण आवश्यक है।
  • सूचना प्रौद्योगिकी (IT) अधिनियम, 2000 और IT नियम, 2021: गैर-कानूनी सामग्री को हटाने की शक्तियाँ प्रदान करते हैं, लेकिन अक्सर अस्पष्टता और उचित प्रक्रिया के अभाव के लिए आलोचना की जाती है।
  • डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (DPDP) अधिनियम, 2023: डेटा गोपनीयता सुरक्षा को मजबूत करता है, विशेष रूप से शोषणकारी विज्ञापन लक्ष्यीकरण के विरुद्ध।
  • प्रसारण सेवा (विनियमन) विधेयक, 2024 का मसौदा: OTT और डिजिटल रचनाकारों तक विनियमन का विस्तार करने का प्रयास करता है, हालाँकि आलोचकों का तर्क है कि यह वाक् स्वतंत्रता पर अंकुश लगा सकता है और राज्य नियंत्रण बढ़ा सकता है।

डिजिटल विज्ञापन पर वैश्विक कदम

  • संयुक्त राज्य अमेरिका – संघीय व्यापार आयोग (FTC) दिशा-निर्देश: प्रभावशाली मार्केटिंग और विज्ञापनों के लिए स्पष्ट और सुस्पष्ट प्रकटीकरण अनिवार्य करना।
  • यूरोपीय संघ (EU) – डिजिटल सेवा अधिनियम (DSA), 2022: नाबालिगों को लक्षित विज्ञापन देने पर प्रतिबंध लगाता है, एल्गोरिथम पारदर्शिता की आवश्यकता रखता है, और प्लेटफॉर्म पर कड़े जवाबदेही के उपाय लागू करता है।
  • ऑस्ट्रेलिया-ऑस्ट्रेलियाई प्रतिस्पर्द्धा और उपभोक्ता आयोग (ACCC): डिजिटल कॉमर्स में डार्क पैटर्न और भ्रामक प्रचारों पर नियंत्रण लगाता है।

डिजिटल विज्ञापन विनियमन में वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाएँ

  • यूनाइटेड किंगडम – मनोवैज्ञानिक उपचारों तक पहुँच में सुधार (IAPT): यह किफायती उपचारों तक पहुँच बढ़ाकर भ्रामक विज्ञापनों से होने वाले मानसिक स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान से निपटता है और डिजिटल विनियमन तथा स्वास्थ्य के बीच संबंध दर्शाता है।
  • यूरोपीय संघ-DSA: एल्गोरिथम पारदर्शिता के लिए मानक स्थापित करता है, यह सुनिश्चित करता है कि उपयोगकर्ता समझें कि विज्ञापन कैसे लक्षित किए जाते हैं।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका – FTC व्यवस्था: उपभोक्ता संरक्षण को मुक्त उद्यम के साथ संतुलित करता है, अभिव्यक्ति को बाधित किए बिना पारदर्शिता की रक्षा करता है।

आगे की राह 

  • दायरे को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना: व्यावसायिक विज्ञापनों को व्यंग्य, आलोचना या कला से अलग करना, ताकि अतिक्रमण को रोका जा सकता।
  • पारदर्शिता सुनिश्चित करना: प्रायोजित सामग्री की लेबलिंग और विज्ञापन-लक्ष्यीकरण मानदंडों का प्रकटीकरण लागू करना।
  • डेटा गोपनीयता की रक्षा करना: शोषणकारी विज्ञापनों को रोकने के लिए डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023 को कठोरता से लागू करना।
  • संकीर्ण रूप से तैयार किए गए नियम: ‘गरिमा’ जैसी अस्पष्ट श्रेणियों से बचना, जिनके दुरुपयोग का खतरा होता है।
  • सह-विनियमन दृष्टिकोण: संतुलित नियंत्रण के लिए सरकारी निगरानी के साथ-साथ भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (ASCI) के स्व-विनियमन का उपयोग करना।
  • समावेशी सार्वजनिक परामर्श: वैधता सुनिश्चित करने के लिए नियमों का मसौदा तैयार करने में रचनाकारों, उपभोक्ताओं, दिव्यांगजनों, नागरिक समाज और उद्योग निकायों को शामिल करना।

निष्कर्ष

डिजिटल प्लेटफॉर्म पर व्यावसायिक अभिव्यक्ति को सावधानीपूर्वक नियंत्रित किया जाना चाहिए, ताकि उपभोक्ताओं, सम्मान और सुभेद्य समूहों की रक्षा की जा सके और साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी बरकरार रखा जा सके। ऐसे विनियमन में न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के संवैधानिक मूल्यों को प्रतिबिंबित किया जाना चाहिए, जिससे अधिकारों और जवाबदेही के मध्य संतुलन सुनिश्चित हो सके।

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