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न्यायाधीश को हटाया जाना

Lokesh Pal May 12, 2025 03:21 31 0

संदर्भ

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा पर एक जाँच रिपोर्ट राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेज दी है, जिसमें उन्हें हटाने की सिफारिश की गई है।

न्यायिक स्वतंत्रता बनाम कार्यपालिका निगरानी

  • न्यायिक स्वायत्तता को बनाए रखना: न्यायिक स्वतंत्रता महत्त्वपूर्ण है, परंतु कथित कदाचार के मामलों में जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए तंत्र मौजूद होना चाहिए। 
  • संतुलित निगरानी की आवश्यकता: कार्यपालिका और विधायिका द्वारा निगरानी से न्यायाधीशों की स्वायत्तता को खतरा नहीं होना चाहिए, बल्कि यह सुनिश्चित करना चाहिए कि नैतिक मानकों को बनाए रखा जाए।

न्यायाधीश पर कार्रवाई की प्रक्रिया 

  • आंतरिक प्रक्रिया: CJI ने सर्वोच्च न्यायलय के आंतरिक दिशा-निर्देशों के अनुसार न्यायमूर्ति वर्मा के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच के लिए तीन सदस्यीय न्यायिक पैनल का गठन किया था। 
  • पैनल की संरचना: जाँच समिति में पंजाब, हरियाणा तथा हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश और कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश शामिल थे। 
  • राष्ट्रपति को सिफारिश: पैनल के निष्कर्षों के आधार पर, CJI ने एक रिपोर्ट और न्यायमूर्ति वर्मा का उत्तर राष्ट्रपति को सौंप दिया है, जिससे औपचारिक निष्कासन प्रक्रिया शुरू हो गई है।

हटाने के लिए संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद-124: यह अनुच्छेद सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना और गठन से संबंधित है, जिसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति और हटाने के प्रावधान भी शामिल हैं। अनुच्छेद-124 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने के लिए एक विशेष प्रक्रिया निर्धारित है, जिसे महाभियोग कहा जाता है। यह प्रक्रिया संसद में विशेष बहुमत द्वारा समर्थित होनी चाहिए।
  • अनुच्छेद-217: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और हटाने से संबंधित है तथा उनके कदाचार को संबोधित करने की प्रक्रिया प्रदान करता है।

न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968 के तहत उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया

  • प्रस्ताव की शुरूआत: उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के प्रस्ताव पर कम-से-कम 100 लोकसभा सदस्यों या 50 राज्यसभा सदस्यों द्वारा हस्ताक्षर किए जाने चाहिए।
  • प्रस्ताव की स्वीकृति: अध्यक्ष (लोकसभा) या सभापति (राज्यसभा) उचित विचार-विमर्श के बाद प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं।
  • जाँच समिति का गठन: स्वीकृति के बाद, एक तीन सदस्यीय समिति बनाई जाती है, जिसमें शामिल हैं:
    • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश,
    • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, और
    • एक प्रतिष्ठित न्यायविद।
  • जाँच प्रक्रिया: समिति विशिष्ट आरोप तय करती है, न्यायाधीश को उत्तर देने का अवसर प्रदान करती है साथ ही यदि अक्षमता का आरोप लगाया जाता है तो चिकित्सा जाँच की सिफारिश कर सकती है।
  • समिति की रिपोर्ट: यदि न्यायाधीश को दोषी नहीं पाया जाता है, तो प्रस्ताव को निरस्त कर दिया जाता है। यदि दोषी पाया जाता है, तो रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत की जाती है।
  • संसदीय स्वीकृति: दोनों सदनों को विशेष बहुमत (कुल सदस्यता का बहुमत और उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत) के साथ प्रस्ताव पारित करना चाहिए।
  • राष्ट्रपति की स्वीकृति: संसदीय स्वीकृति के बाद, राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है, जो फिर न्यायाधीश को हटाने का आदेश देते है।

न्यायिक जवाबदेही की आवश्यकता

  • सार्वजनिक विश्वास बनाए रखना: मामलों की असमान प्राथमिकता न्यायिक विश्वसनीयता को कम करती है और संपन्न वादियों के प्रति पक्षपात की धारणा को बढ़ावा देती है।
  • कॉलेजियम प्रणाली के साथ समस्याएँ: वर्तमान प्रणाली, जिसमें न्यायाधीश न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं, उसमें पारदर्शिता का अभाव है और इससे भाई-भतीजावाद या पक्षपात हो सकता है।
  • संभावित हितों का टकराव: प्रशासनिक और न्यायिक मामलों पर निर्णय लेने वाले मुख्य न्यायाधीश, जिनमें वे मामले भी शामिल हैं, जिनमें वे व्यक्तिगत रूप से शामिल हो सकते हैं, तटस्थता पर सवाल उठाते हैं।
  • कदाचार के आरोप: न्यायमूर्ति रामास्वामी और रंजन गोगोई से जुड़े पिछले मामलों से पता चलता है कि भ्रष्टाचार तथा उत्पीड़न के आरोप न्यायपालिका की छवि को धूमिल करते हैं।
  • न्यायिक अतिक्रमण: अत्यधिक न्यायिक सक्रियता, विशेष रूप से कार्यकारी और विधायी मामलों में, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को कमजोर करने का जोखिम उठाती है।
  • जवाबदेही न होने के परिणाम: मजबूत जाँच के बिना, न्यायिक स्वतंत्रता का उपयोग न्याय की रक्षा करने के स्थान पर अनैतिक व्यवहार को छिपाने के लिए किया जा सकता है।

न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए उठाए गए कदम

  • “न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन” नामक एक प्रस्ताव (वर्ष 1997): न्यायाधीशों के लिए नैतिक दिशा-निर्देश निर्धारित किए गए।
  • बंगलूरू सिद्धांत (वर्ष 2002): न्यायिक आचरण के लिए अंतरराष्ट्रीय मानक निर्धारित किए गए।
  • न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक (वर्ष 2010): एक राष्ट्रीय न्यायिक निगरानी समिति का प्रस्ताव रखा गया।
  • कार्यवाही की लाइव-स्ट्रीमिंग: पारदर्शिता बढ़ाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित।
  • प्रक्रिया ज्ञापन का मसौदा, 2016: न्यायाधीशों की नियुक्तियों में “योग्यता और ईमानदारी” पर जोर दिया गया।
  • सर्वोच्च न्यायालय बनाम अग्रवाल मामला: न्याय तक पहुँच को बढ़ावा देते हुए RTI अधिनियम के तहत CJI को सार्वजनिक प्राधिकरण घोषित किया गया।

जवाबदेही को मजबूत करने के लिए आवश्यक कदम

  • मीडिया जाँच को प्रोत्साहित करना: मीडिया और शिक्षाविदों को न्यायिक निर्णयों का आलोचनात्मक, विद्वत्तापूर्ण मूल्यांकन करना चाहिए।
  • न्यायिक लोकपाल की स्थापना: एक स्वतंत्र निकाय को न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतों की जाँच करनी चाहिए।
  • व्यापक आचार संहिता: सभी न्यायाधीशों के लिए एक विस्तृत नैतिक संहिता विकसित और लागू की जानी चाहिए।
  • द्वि-स्तरीय अनुशासन तंत्र
    • स्तर 1: जुर्माना या निलंबन जैसे दंड।
    • स्तर 2: गंभीर उल्लंघनों के लिए औपचारिक निष्कासन प्रक्रिया।
  • नियुक्तियों में विविधता के प्रति जागरूकता: निष्पक्ष और समावेशी न्याय सुनिश्चित करने के लिए नियुक्त व्यक्तियों को भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिए।

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