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प्रस्तावना से समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को हटाना

Lokesh Pal February 12, 2024 04:33 328 0

संदर्भ

हाल ही में उच्चतम न्यायालय में भारतीय संविधान की प्रस्तावना से “पंथनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्दों को हटाने की माँग करने से संबंधित दो याचिकाओं पर सुनवाई की गई।

संबंधित तथ्य

  • अंगीकृत तिथि: हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने इस बात की जाँच करने पर सहमति दी है कि क्या वर्ष 1976 में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्द शामिल किए जा सकते थे, भले ही संविधान को अंगीकृत करने की तिथि 26 नवंबर, 1949 निर्धारित की गई थी। 
  • प्रस्तावना में संशोधन की संभावना: उच्चतम न्यायालय की पीठ ने प्रस्तावना में संशोधन की संभावना को लेकर एक प्रश्न उठाया गया था। 
    • क्या अन्य तिथि को यथावत रखते हुए प्रस्तावना में परिवर्तन किया जा सकता है?

भारतीय संविधान की प्रस्तावना:

  • उत्पत्ति: प्रस्तावना जवाहरलाल नेहरू द्वारा वर्ष 1946 में तैयार और प्रस्तुत किए गए ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ पर आधारित है, जिसे संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था।
    • संवैधानिक सिद्धांतों का परिचय: प्रस्तावना संविधान के मार्गदर्शक उद्देश्य और सिद्धांतों को निर्धारित करती है। इसे संविधान का मूल दस्तावेज माना जाता है।
    • अंगीकरण और प्रभावी तिथि: प्रस्तावना को भारत की संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर, 1949 को अंगीकृत किया गया तथा यह 26 जनवरी, 1950 को प्रभाव में आया।
  • प्रस्तावना की संशोधनशीलता:
    • बेरुबारी संघवाद (1960): प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है।
    • केशवानंद भारती वाद (1973): प्रस्तावना संविधान का एक भाग है। यह न तो शक्ति का स्रोत है और न ही सीमाओं का। लेकिन संविधान की  विधियों और प्रावधानों की व्याख्या में प्रस्तावना की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
    • एलआईसी ऑफ इंडिया वाद (1995): उच्चतम न्यायालय ने एक बार फिर माना है कि प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न अंग है, लेकिन भारतीय न्यायपालिका में इसे सीधे लागू नहीं किया जा सकता है।
  • प्रस्तावना में संशोधन: आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा प्रस्तुत किया गया।
    • इसमें समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता शब्द शामिल किए गए।
    • मूल प्रस्तावना: संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य।
    • संशोधित प्रस्तावना: संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणतंत्र। इसने “राष्ट्र की एकता” को “राष्ट्र की एकता और अखंडता” में परिवर्तित कर दिया।

विश्लेषकों की राय 

  • एन.ए. पालकीवाला: प्रस्तावना को संविधान का पहचान-पत्र कहा।
  • सर अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर: प्रस्तावना को लंबे समय से देखे गए सपनों और विचारों को व्यक्त करने वाला बताया।
  • के.एम. मुंशी: प्रस्तावना की तुलना संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य की “कुंडली” से की।
  • पंडित ठाकुर दास भार्गव ने संविधान की आत्मा, कुंजी और आभूषण के रूप में प्रस्तावना के महत्त्व को व्यक्त किया। इसे संविधान की महत्ता मापने का एक पैमाना बताया।
  • अर्नेस्ट बार्कर: प्रस्तावना में परिलक्षित राजनीतिक ज्ञान की प्रशंसा की। इसे संविधान का “की-नोट” बताया। इसे अपनी पुस्तक “प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल एंड पॉलिटिकल थ्योरी” में उद्धृत किया है।
  • एम. हिदायतुल्लाह: इसे संविधान की आत्मा बताते हुए कहा कि प्रस्तावना राजनीतिक समाज के स्वरूप को निर्धारित करती है।

प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को बनाए रखने के पक्ष में तर्क:

  • समकालीन मूल्यों का प्रतिबिंब: समर्थकों का तर्क है कि “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्दों का जुड़ाव भारतीय समाज के विकसित होते मूल्यों और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करता है।
      • उनका तर्क है कि प्रस्तावना को राष्ट्र के सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ का सटीक प्रतिनिधित्व करना चाहिए।
  • स्पष्टता और प्रासंगिकता में वृद्धि : समर्थकों का तर्क है कि संशोधन ने भारतीय राज्य के वैचारिक रुख को स्पष्ट किया है तथा यह पारदर्शिता और प्रासंगिकता को बढ़ावा देता है।
      • वे इस बात पर जोर देते हैं कि “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों को शामिल करने से प्रस्तावना समकालीन शासन प्रणाली और सामाजिक सिद्धांतों के अनुरूप हो जाती है।
      • सरकार का वर्ष 1976 में संविधान संशोधन करने का आधिकारिक उद्देश्य संविधान में पहले से ही किए गए प्रावधानों को स्पष्ट करना था।
  • संवैधानिक अनुकूलनशीलता: समर्थक संशोधनों के माध्यम से बदलती परिस्थितियों के लिए संविधान की अनुकूलन क्षमता पर जोर देते हैं। उनका तर्क है कि प्रस्तावना स्थिर नहीं रहनी चाहिए बल्कि उभरती चुनौतियों और आकांक्षाओं को संबोधित करने के लिए विकसित होनी चाहिए।
      • भारत के उच्चतम न्यायालय के अनुसार, प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है और इसे अनुच्छेद-368 के तहत संशोधित किया जा सकता है। हालाँकि, प्रस्तावना के मूल ढाँचे (Basic Structure) को नहीं बदला जा सकता है।
      • वर्ष 1973 के केशवानंद भारती वाद में, उच्चतम न्यायालय ने संविधान के  “मूल ढाँचे के सिद्धांत को स्थापित किया था
  • सामाजिक न्याय को बढ़ावा: संशोधन के समर्थकों का तर्क है कि “समाजवादी” शब्द सामाजिक न्याय और संसाधनों के समान वितरण के प्रति प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। उनका मानना ​​है कि प्रस्तावना में समाजवाद को स्वीकार करना सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने के राज्य के दायित्व की पुष्टि करता है।
  • उदाहरण के लिए, वर्ष 2008 में उच्चतम न्यायालय ने ‘समाजवादी’ शब्द को हटाने की माँग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया था। तब भारत के मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन ने कहा था कि समाजवाद का कोई निश्चित अर्थ नहीं है।  इसके अलग-अलग समय पर अलग-अलग अर्थ निकलते हैं।
      • भारत लोकतांत्रिक समाजवाद का अनुसरण करता है, जिसका उद्देश्य गरीबी, अज्ञानता, बीमारी और अवसर की असमानता को समाप्त करना है। जी.बी. पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद के अनुसार इस समाजवादी अवधारणा को संविधान की सच्ची भावना के अनुरूप लागू किया जाना चाहिए।
  • बहुलवादी मूल्यों का संरक्षण : कुछ लोगों का तर्क है कि “धर्मनिरपेक्ष” शब्द जोड़ना धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक सहिष्णुता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है। इस समावेशन का उद्देश्य भारत के विविध धार्मिक समुदायों के बीच एकता को बढ़ावा देना था।
  • 42वें संशोधन ने संविधान में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को स्पष्ट कर दिया, लेकिन इसके  अंतर्निहित सिद्धांत पहले से ही संविधान के विभिन्न प्रावधानों और समग्र दर्शन में अंतर्निहित थे। अनुच्छेद-25, 26 और 27 विशेष रूप से धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के लिए शामिल किए गए थे।
  • एक ऐतिहासिक फैसले एस.आर. बोम्मई वाद (1994) में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की ‘बुनियादी विशेषता’ (Basic Feature) है।
  • राजनीतिक वैधता: समर्थकों का तर्क है कि यह संशोधन संवैधानिक प्रक्रियाओं के माध्यम से अधिनियमित किया गया था, जो जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों की इच्छा को दर्शाता है।
  • उदाहरण के लिए, मिनर्वा मिल्स वाद में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि प्रस्तावना में 42वाँ  संशोधन न केवल संविधान के ढाँचे के भीतर था, बल्कि इसके दर्शन को भी जीवंतता प्रदान करता है

भारतीय धर्मनिरपेक्षता (सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता):

  • पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता और भारतीय धर्मनिरपेक्षता के बीच मुख्य अंतर:
    • भारतीय धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना और अपने सदस्यों के बीच किसी तरह का भेदभाव न करना है।
    • पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य पश्चिमी सभ्यता द्वारा राज्य और धर्म को अलग करने तथा विश्वव्यापी धार्मिक स्वतंत्रता से है।
  • भारतीय धर्मनिरपेक्षता भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप समाजवाद का एक अनूठा रूप था। यह फ्राँस की तरह धर्मनिरपेक्षता का पालन नहीं करता है और न ही राज्य प्रायोजित धर्म की पहचान करता है। पंथनिरपेक्ष एक हिंदी शब्द है जिसका अनुवाद “धार्मिक तटस्थता” है जो एक ऐसे राज्य का वर्णन करता है जो सभी धर्मों के प्रति तटस्थ और निष्पक्ष है और जो दूसरों के मुकाबले किसी विशेष धर्म को बढ़ावा या समर्थन नहीं करता है।
  • यह सोवियत संघ या चीन जैसे देशों की तुलना में अलग था। इसमें सभी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण शामिल नहीं था बल्कि जहाँ आवश्यक हो वहाँ चयनात्मक राष्ट्रीयकरण पर ध्यान केंद्रित किया गया था।

प्रस्तावना से समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाने के लिए तर्क

  • मूल उद्देश्य को खतरा: कुछ लोगों का तर्क है कि प्रस्तावना में संशोधन संविधान निर्माताओं के मूल उद्देश्य को कमजोर करता है। उनका तर्क है कि नए शब्द शामिल करने से संस्थापकों द्वारा परिकल्पित मौलिक चरित्र बदल जाता है।
    • उदाहरण के लिए, विष्णु शंकर जैन की याचिका: मूल संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर इन अवधारणाओं को प्रस्तावना से बाहर रखने का फैसला किया था ।
      • 15 नवंबर, 1948 को प्रोफेसर के.टी. शाह ने “पंथनिरपेक्ष, संघीय और समाजवादी राष्ट्र” शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा था , लेकिन संविधान सभा (Constituent Assembly-CA) ने लंबी चर्चा के बाद इसे खारिज कर दिया।
      • 25 नवंबर, 1948 को एक दूसरा संशोधन प्रस्तुत किया गया और संविधान के मसौदे में “पंथनिरपेक्ष” शब्द को शामिल करने पर चर्चा की गई। लेकिन इसे भी खारिज कर दिया गया। 
      • 3 दिसंबर, 1948 को संविधान के अनुच्छेद-18 में “पंथनिरपेक्ष” शब्द को शामिल करने का तीसरा प्रयास किया गया, जिसे भी संविधान सभा ने खारिज कर दिया।
  • संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन: “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्द शामिल करना अन्य संवैधानिक सिद्धांतों के विपरीत हो सकता है। उनका तर्क है कि प्रस्तावना के माध्यम से विशिष्ट विचारधाराओं को थोपना संविधान की बहुलवादता और तटस्थता के प्रति प्रतिबद्धता का उल्लंघन हो सकता है।
    • उदाहरण के लिए, वर्ष 2020 में बलराम सिंह, करुणेश शुक्ला और प्रवेश कुमार की एक संयुक्त याचिका में वर्ष 1976 के संशोधन को संवैधानिक सिद्धांतों के साथ विरोधाभासी बताया गया है। उन्होंने तर्क दिया कि यह वाक्, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता {अनुच्छेद-19(1)(अ)}, और धर्म की स्वतंत्रता (अनुच्छेद-25) का उल्लंघन करता है।
      • याचिका में वर्ष 1989 में एक संशोधन द्वारा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29 A (5) में “पंथनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्दों को शामिल करने को भी चुनौती दी गई थी।
      • याचिका में यह घोषणा करने की माँग की गई कि ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को केवल राज्य के संप्रभु कार्यों तक सीमित रखा जाए और यह नागरिकों, राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों पर लागू नहीं हो।
  • राजनीतिक उपकरण: संशोधन के विरोधियों ने संविधान में संशोधन करने के लिए शक्ति के दुरुपयोग के बारे में चिंता व्यक्त की है, जो संभावित रूप से संविधान की स्थिरता और अखंडता को कमजोर कर रहा है।
    • उदाहरण के लिए, मूल संविधान में  पंथनिरपेक्ष और समाजवाद की पुष्टि करने वाले कई सिद्धांत निहित थे, जैसे राज्य नीति के निदेशक तत्त्व, मौलिक अधिकार जो किसी के धर्म को मानने और प्रचार करने की स्वतंत्रता की अनुमति देते हैं, आदि।
  • ऐतिहासिक संदर्भ: कुछ ऐसे तर्क हैं कि यह संशोधन संविधान के मूल सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हो सकता है।
    • डॉ. बी आर अंबेडकर का इन शब्दों को छोड़ने का तर्क इस विश्वास पर आधारित था कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धांत स्वाभाविक रूप से संविधान के ढाँचे में पहले से ही अंतर्निहित थे।
  • कानूनी निहितार्थ: विद्वानों और कानूनी विशेषज्ञों ने यह सवाल उठाया है कि क्या प्रस्तावना में बदलाव करने के लिए वही कठोर प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए, जो संविधान के अन्य भागों में संशोधन के लिए अपनाई जाती है।
    • उदाहरण के लिए, वर्ष 2020 में सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका में तर्क दिया गया कि नीति निर्माताओं के लिए प्रस्तावना में बदलाव, परिवर्तन या निरस्त करना संभव नहीं है क्योंकि यह एक सामान्य कानून के समान नहीं है।
    • उन्होंने दावा किया कि प्रस्तावना में समाजवाद शब्द जोड़ना धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार और न्यायिक समीक्षा की अवधारणा के विरुद्ध था, जो संविधान के मूल ढाँचे का एक अभिन्न अंग है।

निष्कर्ष

भारतीय संविधान की प्रस्तावना से “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्दों को हटाना मूल संवैधानिक मंशा को कायम रखता है। जबकि प्रस्तावना में “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्द को बनाए रखना समकालीन मूल्यों को दर्शाता है, स्पष्टता बढ़ाता है और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है।

इस प्रकार, यह उच्चतम न्यायालय पर निर्भर है कि वह भारत के संविधान की प्रस्तावना में इन शब्दों को बरकरार रखे या हटा दे।

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