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नदी जल स्तर और सूखे का संकट

Lokesh Pal April 18, 2024 05:00 175 0

संदर्भ

केंद्रीय जल आयोग (Central Water Commission- CWC) द्वारा जारी आँकड़ों के विश्लेषण के अनुसार, महानदी और पेन्नार के बीच पूर्व की ओर बहने वाली कम-से-कम 13 नदियों में वर्तमान समय में जलस्तर अत्यंत कम हो गया है।

  • इनमें रुशिकुल्या (Rushikulya), बाहुदा (Bahuda), वंशधारा (Vamsadhara), नागावली (Nagavali), सारदा (Sarada), वराह (Varaha), तांडव (Tandava), एलुरु (Eluru), गुंडलकम्मा (Gundlakamma), तम्मिलेरु (Tammileru), मुसी (Musi), पलेरु (Paleru) और मुनेरु (Munneru) शामिल हैं।

केंद्रीय जल आयोग (CWC)

  • यह जल संसाधन के क्षेत्र में एक प्रमुख तकनीकी संगठन है।
  • अधिदेश: इसकी स्थापना जल संसाधनों के प्रबंधन के लिए एकीकृत और सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिए की गई है।
  • नोडल मंत्रालय: जल शक्ति मंत्रालय (भारत सरकार)।

संबंधित तथ्य

  • नदियों की जल निकासी: ये नदियाँ आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा राज्यों से 86,643 वर्ग किलोमीटर (वर्ग किमी.) क्षेत्र में बहने के बाद सीधे बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं।
  • नदी प्रणालियों का महत्त्व: भारत में नदी प्रणालियाँ सिंचाई, पेय जल और घरेलू खपत के साथ-साथ सस्ते परिवहन एवं विद्युत उत्पादन के लिए जल उपलब्ध कराती हैं।
    • नदी घाटियों में जल की कमी उस क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों, आजीविका और कृषि गतिविधियों को गंभीर रूप से प्रभावित करती है, जो जल आपूर्ति के लिए नदियों पर निर्भर हैं।

नदी घाटियों की स्थिति

  • सबसे अधिक कमी वाले राज्य: भारत मौसम विज्ञान (IMD) डेटा के अनुसार, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में 1 मार्च से वर्षा में ‘अधिक कमी’ (क्रमशः 65 और 67 प्रतिशत) को दर्ज किया गया है।
  • जल संग्रहण में कमी: गंगा बेसिन, जो देश का सबसे बड़ा बेसिन है, में इसकी कुल क्षमता के आधे से भी कम (41.2 प्रतिशत) जल संग्रहण दर्ज किया गया।
    • नर्मदा, तापी, गोदावरी, महानदी और साबरमती नदी घाटियों में उनकी क्षमता के सापेक्ष क्रमशः 46.2 प्रतिशत, 56 प्रतिशत, 34.76 प्रतिशत, 49.53 प्रतिशत और 39.54 प्रतिशत भंडारण दर्ज किया गया।

    • पेन्नार और कन्याकुमारी के बीच पूर्व की ओर बहने वाली नदियों में औसतन दस वर्षों के संबंध में केवल 12 प्रतिशत भंडारण और 50 प्रतिशत से अधिक का निकास दर्शाया गया है।
  • नदी घाटियों के भीतर सूखे की स्थिति: भारत सूखा मॉनिटर के अनुसार, नदी घाटियों की सीमाओं के भीतर कई क्षेत्र ‘अत्यधिक’ से ‘असाधारण’ सूखे का अनुभव कर रहे हैं।
    • देश में कम-से-कम 35.2 प्रतिशत क्षेत्र वर्तमान में ‘असामान्य’ से ‘असाधारण’ स्तर के सूखे के अंतर्गत है।
    • कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्य वर्षा की कमी के कारण सूखे जैसी स्थिति का सामना कर रहे हैं, जिससे देश के प्रमुख जलाशय भी सूख गए हैं।
  • भंडारण क्षमता में कमी: भारत के 150 प्रमुख जलाशयों में भंडारण क्षमता उनकी कुल क्षमता का 36 प्रतिशत तक गिर गई है, कम-से-कम छह जलाशयों में कोई जल भंडारण दर्ज नहीं किया गया है।
    • कम-से-कम 86 जलाशय ऐसे हैं, जिनमें भंडारण या तो 40 प्रतिशत अथवा उससे कम है।
    • इनमें से अधिकतर दक्षिणी राज्यों और महाराष्ट्र तथा गुजरात में हैं।

जल संकट के कारण

  • जलवायु परिवर्तन: उच्च तापमान, लगातार चरम मौसम की घटनाओं और वर्षा के बदलते पैटर्न के कारण जल के प्राकृतिक प्रवाह में व्यवधान होता है, जिससे जल की उपलब्धता कम हो जाती है और वह क्षेत्र सूखे से प्रभावित हो जाता है।
  • बाँधों का अंधाधुंध निर्माण: जब पनबिजली उत्पादन, सिंचाई परियोजनाओं और शहरी जल आपूर्ति के लिए बाँध, जलाशय और डायवर्जन बनाए जाते हैं तो प्राकृतिक नदी प्रवाह पैटर्न बदल जाते हैं।
    • कंक्रीट संरचनाओं के कारण भू-जल का नदी से संपर्क टूट रहा है, जिसके परिणामस्वरूप अधिकांश नदियाँ सूख रही हैं।
  • वनों की कटाई और भूमि उपयोग में परिवर्तन: बड़े पैमाने पर वनों की कटाई से मिट्टी का क्षरण होता है, भू-जल पुनर्भरण में कमी आती है और जल विज्ञान चक्र में परिवर्तन होता है।
    • बुनियादी ढाँचे के विकास, शहरीकरण और कृषि विकास के कारण नदी के प्रवाह में कमी और निवास स्थान का नुकसान और भी बढ़ गया है।
  • अकुशल जल प्रबंधन प्रथाएँ: इसमें सिंचाई, औद्योगिक उपयोग और घरेलू खपत के लिए अत्यधिक जल निकासी शामिल है।
  • भू-जल की कमी: भू-जल के अत्यधिक दोहन, लंबे समय तक सूखे और अस्थिर भू-जल निष्कर्षण तकनीकों के कारण नदियों का आधार प्रवाह कम हो जाता है।
  • रेत खनन: नदी से रेत का अत्यधिक खनन प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ता है, जिससे नदी प्रणाली में जलीय पौधों और सूक्ष्मजीवों एवं खाद्य शृंखलाओं पर असर पड़ता है।
    • उदाहरण के रूप में यमुना से रेत निकालने से भू-जल स्तर में गिरावट आई है।
  • प्रदूषण: प्रदूषण-प्रेरित तनाव के कारण नदी का पारिस्थितिकी तंत्र कमजोर हो जाता है, जिससे सूखे के दौरान उनके सूखने की आशंका बढ़ जाती है।
    • नदी का जल अनुपचारित सीवेज, औद्योगिक अपशिष्ट और कृषि अपवाह के प्रदूषण से दूषित होता है, जो जल की गुणवत्ता को कम करता है और जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचाता है।

सूखे से प्रभावित नदियों की समस्या के समाधान के लिए आवश्यक उपाय

  • नदियों का पुनरुद्धार: इसमें शामिल हैं:
    • राजस्व/कैडस्ट्रल मानचित्रों का उपयोग करके जल निकासी मानचित्र पर नदियों के दोनों किनारों पर दो किलोमीटर के बफर क्षेत्र पर अतिक्रमण की पहचान और अंकन करना।
    • महत्त्वपूर्ण विस्तार की पहचान जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है जैसे कि चैनल अवरोध, चैनल विखंडन, आदि।
    • विशेष संरक्षण क्षेत्र/प्राथमिकताओं के लिए संबंधित जिलों में नदी/धारा के उद्गम बिंदुओं के साथ-साथ संगम बिंदुओं को चिह्नित करना।
  • पारंपरिक जल संरक्षण तकनीकें: तालाबों, जलाशयों और पारंपरिक जल प्रणालियों के पुनर्जीवन से दस गुना अधिक जल बचाया जा सकता है, वह भी बहुत कम लागत पर।
    • जल की कमी वाले क्षेत्रों में मौजूदा जल निकायों के जीर्णोद्धार, पुनरुद्धार और नवीनीकरण को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
  • तकनीकी नवाचार: उन्नत सिंचाई तकनीक जैसे- ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई से लेकर जल-कुशल उपकरण और स्मार्ट जल प्रबंधन प्रणाली, प्रौद्योगिकी रूप से जल के उपयोग को अनुकूलित करने और बर्बादी को कम करने के लिए समाधान प्रदान करती है।
    • रिमोट सेंसिंग और GIS प्रौद्योगिकियाँ जल संसाधनों की निगरानी तथा लक्षित हस्तक्षेपों को लागू करने में सहायता कर सकती हैं।
  • जल निकायों की सूची बनाना और भू-मानचित्रण करना: गाँवों और आस-पास के क्षेत्रों में जल निकायों की सूची तैयार करने और भू-मानचित्रण करने की आवश्यकता है।
    • जब इन जल निकायों का उपयोग जल भंडारण के लिए किया जाएगा तो इससे पेयजल और सिंचाई की माँग को पूरा करने के लिए रिचार्जिंग की सुविधा मिलेगी और यह वर्षा ऋतु में अतिरिक्त जल के लिए प्राकृतिक सिंक के रूप में कार्य करेगा।
  • सतत् भू-जल उपयोग: इसके लिए कृषि क्षेत्र में माँग प्रबंधन, आपूर्ति वृद्धि, जल उपयोग दक्षता में वृद्धि की आवश्यकता है।
    • किसानों की सक्रिय भागीदारी के साथ जलभृत मानचित्रण के आधार पर भू-जल का विनियमन एवं प्रबंधन महत्त्वपूर्ण है।
  • विद्युत फीडर पृथक्करण: कृषि के लिए विद्युत फीडरों को अलग करना और विद्युत के उपयोग को विनियमित करना और इसका उचित मूल्य निर्धारण भू-जल के टिकाऊ निष्कर्षण के लिए आवश्यक है।
  • सामुदायिक भागीदारी: स्थानीय समुदायों को जल संरक्षण प्रयासों में संलग्न होना चाहिए, स्थायी प्रथाओं को अपनाना चाहिए और उत्तरदायी जल उपयोग के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिए।
  • शिक्षा और जागरूकता: स्कूल और कॉलेज और सामुदायिक संगठन जैसे शैक्षणिक संस्थान जल संरक्षण प्रथाओं के बारे में जानकारी प्रसारित करने तथा व्यवहार परिवर्तन को प्रोत्साहित करने में भूमिका निभा सकते हैं।
  • अन्य उपायों में शामिल हैं-
    • नदियों का मानचित्रण।
    • जल के पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण जैसी अच्छी प्रथाओं को प्रोत्साहित करना और प्रदूषण जैसी बुरी प्रथाओं को हतोत्साहित करना।
    • वित्तीय संस्थानों, निवेशकों के पास जल जोखिमों और बेहतर जल प्रबंधन प्रथाओं को अपनाने के आधार पर निर्णयन संबंधी रूपरेखा होनी चाहिए।
    • भारत को तटीय क्षेत्रों में अलवणीकरण की नवीनतम तकनीकों को अपनाने की आवश्यकता है।

जल संरक्षण की दिशा में सरकारी हस्तक्षेप

  • वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम: हरियाली केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित एक वाटरशेड विकास परियोजना है, जिसका उद्देश्य ग्रामीण आबादी को पेयजल, सिंचाई, मत्स्यपालन और वनीकरण के लिए जल के संरक्षण में सक्षम बनाना है।
  • अटल भू-जल योजना: इसका उद्देश्य चिह्नित राज्यों (गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश) में चुनिंदा जल संकट वाले क्षेत्रों में भू-जल संसाधनों के प्रबंधन में सुधार करना है। 
  • राष्ट्रीय जल मिशन: इसका उद्देश्य एकीकृत जल संसाधन विकास और प्रबंधन के माध्यम से जल का संरक्षण करना, बर्बादी को कम करना और राज्यों के भीतर अधिक समान वितरण सुनिश्चित करना है।
  • जल प्रबंधन सूचकांक: यह जल संसाधनों के प्रबंधन में राज्यों को रैंक देता है।

सर्वोत्तम प्रथाएँ

  • मुख्यमंत्री जल स्वावलंबन अभियान: राजस्थान में, इस योजना ने समुदाय के नेतृत्व वाली पहल के माध्यम से प्रत्येक जल संरचना के विस्तृत मानचित्रण के लिए एकीकृत वाटरशेड कार्यक्रम, मनरेगा और राज्य योजनाओं के तहत उपलब्ध संसाधनों का अभिसरण किया है।
  • मेरा गाँव मेरी योजना: झारखंड में, इस योजना ने एक सामुदायिक परियोजना के माध्यम से जल निकायों के संरक्षण और सुरक्षा के लिए एक एकीकृत भागीदारी योजना अभ्यास को बढ़ावा दिया है।
  • कृषि तालाबों की जियो-टैगिंग: आंध्र प्रदेश में, पिछले दो वर्षों में 55,000 कृषि तालाब विकसित किए गए हैं और 10 मिलियन हेक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए मनरेगा के माध्यम से कवर किया गया है और उन सभी की जियो-टैगिंग की गई है।

सिंगापुर में सर्वोत्तम अभ्यास: सभी अपशिष्ट जल एकत्र किया जाता है और शहर में एक अलग जल निकासी प्रणाली है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह अपवाह के साथ मिश्रित न हो।

  • अपशिष्ट जल और जल निकासी जल दोनों को पुनर्चक्रित किया जाता है और शहर की जल आपूर्ति में डाल दिया जाता है।
  • सिंगापुर में जल का गतिशील मूल्य निर्धारण भी है और विभिन्न उपभोग स्तरों के लिए अलग-अलग दरें निर्धारित करता है। इससे जल के उपयोग पर काफी असर पड़ा है।

निष्कर्ष

भारत को नदियों को सूखने से रोकने के लिए जल प्रबंधन और प्रबंधन के लिए 3J रणनीति जल संचय (जल भंडारण), जल सिंचन (कुशल जल उपयोग) और जल संरक्षण की आवश्यकता है।

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