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रुपये का अवमूल्यन एवं उसके प्रभाव

Lokesh Pal December 03, 2025 01:51 17 0

संदर्भ

पिछले एक वर्ष में, भारतीय रुपए (INR) का सभी प्रमुख मुद्राओं की तुलना में अवमूल्यन हुआ है और यह अधिमूल्यांकित से अवमूल्यांकित हो गया है। नवंबर 2024 के अंत से अब तक, रुपये में लगभग 7% की गिरावट आई है, जो ₹83.4 से गिरकर ₹89.2 हो गया है।

  • रिकॉर्ड व्यापार घाटे तथा वैश्विक टैरिफ अवरोध के बीच यह अवमूल्यन निर्यात प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ाता है और सस्ते आयात के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है।

रुपये के अवमूल्यन के बारे में

  • रुपये का अवमूल्यन प्रमुख वैश्विक मुद्राओं, विशेषकर अमेरिकी डॉलर (USD) की तुलना में भारतीय रुपये (INR) के मूल्य में गिरावट को संदर्भित करता है।

प्रमुख आँकड़े

  • व्यापकता-आधारित नाममात्र मूल्यह्रास: पिछले एक वर्ष में, रुपया सभी प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले कमजोर (अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 5.6%, यूरो के मुकाबले 9.4%, पाउंड के मुकाबले 14.3%) हुआ है, जो व्यापक पैमाने पर नाममात्र मूल्यह्रास का संकेत देता है।
  • अधिमूल्यन से अवमूल्यन की ओर परिवर्तन: अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोजोन और जापान की तुलना में भारत में मुद्रास्फीति कम होने के कारण, वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (REER) सूचकांक 108.1 (नवंबर 2024) से गिरकर 97.5 (अक्टूबर 2025) हो गया है, जो कम मूल्यांकन की ओर स्पष्ट कदम है।

REER सूचकांक के बारे में

  • प्रकाशक: भारतीय रिजर्व बैंक (RBI)
  • संदर्भ: REER भारत के प्रमुख व्यापारिक साझेदार देशों की मुद्राओं के मुकाबले रुपये की विनिमय दर का भारित औसत है, जिसे भारत और उन साझेदार देशों के बीच मुद्रास्फीति के अंतर के लिए समायोजित किया जाता है।
  • उद्देश्य: यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रुपये की वास्तविक क्रय शक्ति को मापता है।
  • सूचकांक की व्याख्या: सूचकांक 100 पर आधारित है। 100 से इसका विचलन मुद्रा की रणनीतिक स्थिति को निर्धारित करता है:

REER मूल्य निहितार्थ व्यापार पर प्रभाव
REER > 100 अत्यधिक मूल्यांकित मुद्रा
  • भारतीय सामान वैश्विक स्तर पर अधिक महँगे हैं।
  • निर्यात प्रभावित होता है, आयात बढ़ता है।
REER < 100 कम मूल्यांकित मुद्रा
  • भारतीय सामान विश्व स्तर पर सस्ते हैं।
  • निर्यात बढ़ता है, आयात कम होता है।

  • इसका महत्त्व
    • नीति संकेत: RBI अपनी प्रबंधित लचीली’ नीति को निर्देशित करने के लिए REER का उपयोग करता है। यदि REER बहुत अधिक है, तो RBI संतुलन स्थापित करने के लिए नाममात्र मूल्यह्रास की अनुमति दे सकता है।
    • वर्तमान संदर्भ: रुपये का अधिक-मूल्यांकित REER (लगभग 108) से कम-मूल्यांकित REER (लगभग 97.5) की ओर संक्रमण इस तथ्य की पुष्टि करता है कि वर्तमान मूल्यह्रास एक रणनीतिक-स्वरूप का समायोजन है, जो वैश्विक बाजारों में भारतीय वस्तुओं एवं सेवाओं को सापेक्ष मूल्य प्रतिस्पर्द्धात्मकता प्रदान करता है।

भारत की प्रबंधित अस्थायी विनिमय दर व्यवस्था 

  • भारत एक प्रबंधित अस्थायी विनिमय दर व्यवस्था (जिसे हस्तक्षेप सहित बाजार-निर्धारित विनिमय दर भी कहा जाता है) का अनुसरण करता है।
    • विनिमय दर सरकार द्वारा तय नहीं की जाती है।
    • यह मुद्रा बाजार में माँग और आपूर्ति के आधार पर तय होती है।
    • हालाँकि, RBI ‘अस्थिरता को नियंत्रित’ करने और रुपये की व्यवस्थित स्थिति सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करता है।
    • जब रुपया अत्यधिक तेजी से वृद्धि करता है, तब RBI डॉलर की खरीद के माध्यम से अत्यधिक उतार-चढ़ाव को संतुलित करता है; वहीं जब रुपया तीव्र गिरावट दर्शाता है, तो RBI डॉलर की बिक्री द्वारा विनिमय दर को स्थिरता प्रदान करता है।

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रुपये के अवमूल्यन के कारक

  • बाह्य क्षेत्र का दबाव
    • अमेरिकी डॉलर का सुदृढ़ीकरण: अमेरिकी फेडरल रिजर्व की उच्च ब्याज दरें, मजबूत अमेरिकी श्रम बाजार डेटा तथा सुरक्षित-आश्रय परिसंपत्तियों की ओर रुझान ने अमेरिकी डॉलर की वैश्विक माँग में वृद्धि की है।
      • वर्ष 2018 का उदाहरण – वैश्विक डॉलर की मजबूती, अमेरिकी ब्याज दरों में वृद्धि और व्यापार संघर्ष ने रुपये सहित उभरते बाजार की मुद्राओं को प्रभावित किया।
    • पूँजी बहिर्वाह: विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (FPI) और विदेशी संस्थागत निवेशकों (FII) द्वारा इक्विटी और ऋण बाजारों से लगातार निकासी के कारण भारतीय रुपये की माँग कमजोर हुई है।
      • नवंबर 2024 और जनवरी 2025 के मध्य, FPI ने भारतीय इक्विटी और ऋण बाजारों से लगभग 38,000 करोड़ रुपये निकाले, क्योंकि वैश्विक निवेशक उच्च फेडरल रिजर्व ब्याज दरों के बीच सुरक्षित अमेरिकी परिसंपत्तियों की ओर स्थानांतरित हो गए।
    • वैश्विक अनिश्चितता: भू-राजनीतिक तनाव, आपूर्ति-शृंखला में व्यवधान और जोखिम-विरोधी व्यवहार ने पूँजी के अमेरिकी डॉलर पर आधारित होने  की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया है।
  • घरेलू समष्टि आर्थिक कारक
    • उच्च आयात निर्भरता: कच्चे तेल, इलेक्ट्रॉनिक सामान, रसायनों और सोने पर भारत की निर्भरता ने आयात बिल को बढ़ा दिया है और डॉलर की माँग में वृद्धि की है।
    • चालू खाता घाटा (CAD): लगातार चालू खाता घाटा रुपये पर दबाव डालता है क्योंकि विदेशी मुद्रा की माँग, आपूर्ति से अधिक हो जाती है।
      • अनिश्चित समय में बचाव के लिए अधिक ‘बुलियन’ आयात के कारण चालू खाता घाटा आंशिक रूप से बढ़ रहा है।
    • मुद्रास्फीति अंतर: अमेरिकी मुद्रास्फीति की तुलना में उच्च घरेलू खुदरा मुद्रास्फीति भारतीय रुपये के वास्तविक मूल्य को कम करती है (क्रय शक्ति समता प्रभाव)।
  • व्यापार एवं विकास गतिशीलता
    • कमजोर निर्यात वृद्धि: वस्तु निर्यात में वैश्विक मंदी और सूचना प्रौद्योगिकी सेवाओं के निर्यात में मंदी के कारण विदेशी मुद्रा आय में कमी आई है।
    • वस्तुओं की बढ़ती कीमतें: कच्चे तेल, धातुओं और खाद्यान्नों की वैश्विक कीमतों में वृद्धि से व्यापार घाटा बढ़ रहा है।
    • बाधित व्यापार वार्ताएँ: प्रमुख मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर चर्चाओं में देरी से निवेशकों की धारणा और निर्यात संभावनाएँ प्रभावित हुई हैं।
    • उच्च अमेरिकी व्यापार शुल्क, भारतीय निर्यातकों पर दबाव डाल रहे हैं, जिससे उन्हें प्रतिस्पर्द्धात्मकता बनाए रखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
  • नीति एवं बाजार आधारित कारक
    • भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) हस्तक्षेप: RBI अस्थिरता को कम करने के लिए हस्तक्षेप करता है, लेकिन वैश्विक डॉलर की मजबूती के दौरान मूल्यह्रास को पूरी तरह से नहीं रोक सकता है।
      • रुपये को स्थिर करने के लिए RBI ने नवंबर 2024 से अब तक लगभग 50 अरब डॉलर की शुद्ध बिक्री की है।
      • रुपये में दीर्घकालिक तरलता लाने के लिए RBI ने फरवरी 2025 में 10 अरब डॉलर की डॉलर/रुपया खरीद विनिमय नीलामी आयोजित की।
    • अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) पुनर्वर्गीकरण: IMF द्वारा भारत की विनिमय दर व्यवस्था को क्रॉल’ के समान व्यवस्था में पुनर्वर्गीकृत करने से बाजार में धीरे-धीरे मूल्यह्रास की उम्मीदें प्रबल हुई हैं।
    • उच्च हेजिंग लागत: बढ़ते कमोडिटी बाजार और उच्च मुद्रा-हेजिंग लागत भारतीय रुपये में और कमजोरी की आशंका का संकेत देते हैं।

मूल्यह्रास को नकारात्मक क्यों माना जाता है?

पारंपरिक दृष्टिकोण यह है कि कमजोर रुपया आर्थिक संकट का संकेत देता है, जिसका मुख्य कारण भारत की आयात पर अत्यधिक निर्भरता है।

  • आयात बिल और मुद्रास्फीति में वृद्धि: कमजोर रुपया आयात, विशेष रूप से कच्चे तेल, इलेक्ट्रॉनिक्स और सोने, को रुपये के संदर्भ में अत्यधिक महँगा बना देता है।
    • इससे सीधे तौर पर चालू खाता घाटा और आयातित मुद्रास्फीति बढ़ती है, जिससे घरेलू बजट पर प्रभाव पड़ता है।
    • रुपये का अवमूल्यन और रूसी कच्चे तेल से महँगे अमेरिकी तेल की ओर रुझान, आयातित मुद्रास्फीति के जोखिम को बढ़ाता है।
  • ऋण चुकौती का भार: जिन भारतीय कंपनियों ने विदेशी मुद्राओं [जैसे- बाह्य वाणिज्यिक उधार (ECB) या विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बॉण्ड (FCCB)] में ऋण लिया है, उन पर अधिक बोझ पड़ता है, क्योंकि समान मात्रा में डॉलर ऋण चुकाने के लिए उन्हें अधिक रुपये की आवश्यकता होती है।
  • निवेशकों का विश्वास कम होता है: तीव्र गिरावट विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों में भय उत्पन्न कर सकती है, जिससे पूँजी का बहिर्वाह हो सकता है और एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है, जो आर्थिक कमजोरी और अस्थिरता की धारणा उत्पन्न करता है।
  • अनुपातहीन सामाजिक-आर्थिक बोझ: आवश्यक आयातों (जैसे- कुछ खाद्य तेल, उर्वरक और चिकित्सा उपकरण) की बढ़ी हुई लागत जीवन यापन की लागत को असमान रूप से बढ़ाती है, जिससे निम्न-आय वाले परिवारों पर गंभीर दबाव पड़ता है और असमानता बढ़ती है।
    • इसके अलावा, विदेशी शिक्षा और विशेष चिकित्सा उपचार जैसी विदेशी सेवाओं की लागत में भी अत्यधिक वृद्धि होती है, जिसका प्रभाव मध्यम वर्ग पर पड़ता है।

घरेलू स्तर पर प्रभाव: छात्र, यात्री और मध्यम वर्गीय परिवार; रुपये में गिरावट से सभी को समान रूप से नुकसान नहीं होता है; इसका छात्रों, पर्यटकों और मध्यम आय वाले परिवारों पर असमान रूप से प्रभाव पड़ता है।

  • विदेश में पढ़ने वाले छात्रों पर प्रभाव
    • भारतीय रुपये में उच्च शिक्षण शुल्क: भले ही अमेरिकी डॉलर में फीस अपरिवर्तित रहे, लेकिन कमजोर रुपया छात्रों को प्रत्येक किस्त के लिए भारतीय रुपये में अत्यधिक भुगतान करने के लिए मजबूर करता है।
    • बढ़ते जीवन यापन व्यय: प्रतिकूल विनिमय दरों के कारण किराए, किराने का सामान, परिवहन और उपयोगिताओं की लागत में तेजी से वृद्धि होती है।
    • बजट संबंधी तनाव: मुद्रा में उतार-चढ़ाव परिवारों, विशेष रूप से मध्यम वर्गीय परिवारों, जो दीर्घकालिक बचत पर निर्भर हैं, के लिए वित्तीय नियोजन को बाधित करता है।
    • उधार का अधिक बोझ: शिक्षा ऋण पर निर्भर छात्रों को अधिक धन निकासी का सामना करना पड़ता है, क्योंकि कमजोर भारतीय रुपये के साथ EMI की गणना बढ़ जाती है।
  • यात्रियों पर प्रभाव
    • महँगी अंतरराष्ट्रीय छुट्टियाँ: होटल, भोजन, घरेलू उड़ानें और स्थानीय परिवहन की कीमतों में रुपये के हिसाब से बढोतरी के कारण विदेश यात्राएँ अत्यधिक महँगी हो गई हैं।
    • गंतव्य परिवर्तन: यात्री विनिमय दर के अनुकूल गंतव्यों (जैसे- दक्षिण-पूर्व एशिया) को अधिक पसंद कर रहे हैं, जहाँ रुपये का मूल्य अधिक रहता है।
    • छुट्टियों के बजट पर दबाव: एक यूरोपीय यात्रा, जिसकी लागत कभी प्रति व्यक्ति लगभग ₹2.2 लाख थी, अब ₹2.6 लाख से अधिक हो सकती है, जो दर्शाता है कि मूल्यह्रास यात्रा की सामर्थ्य को कैसे बदल देता है।
  • व्यक्तियों के लिए शमन रणनीतियाँ
    • फॉरेक्स कार्ड का उपयोग करना: जीरो-मार्कअप फॉरेक्स कार्ड के माध्यम से विनिमय दरों को दोहन करने से छात्रों को अप्रत्याशित भारतीय रूपये (INR) मूल्यह्रास से सुरक्षा मिलती है।
    • विदेश में स्थानीय बैंक खाते खोलना: इससे रूपांतरण घाटा कम होता है और छात्रों के लिए दीर्घकालिक बजट नियंत्रण में सुधार करता है।
    • फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट्स’ के माध्यम से हेजिंग: माता-पिता पहले से ही अनुकूल भारतीय रुपया (INR)-अमेरिकी डॉलर (USD) दर तय करके भविष्य के भुगतानों को ‘हेज’ कर सकते हैं।
    • विवेकाधीन खर्च कम करना: विदेश में छात्र साझा आवास, नियंत्रित खर्च और अंशकालिक कार्य (जहाँ कानूनी रूप से अनुमति हो) के माध्यम से लागत कम कर सकते हैं।
    • स्मार्ट यात्रा योजना: बुकिंग, सामूहिक यात्रा, क्रेडिट कार्ड माइलेज पॉइंट और मौसमी फॉरेक्स समझौते विदेश यात्राओं की लागत को कम करते हैं।
  • ये सूक्ष्म स्तरीय प्रभाव व्यापक आर्थिक लाभों के साथ-साथ मौजूद रहते हैं, जिससे मूल्यह्रास की विधि बहुआयामी हो जाती है और इसके लिए संतुलित नीति संचार की आवश्यकता होती है।

कमजोर रुपया वास्तव में भारत को मजबूत क्यों कर सकता है (मुख्य लाभ)

क्रमिक एवं प्रबंधित मूल्यह्रास एक संरचनात्मक सुधार के रूप में कार्य करता है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ाता है।

  • निर्यात प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा: मामूली रूप से कम मूल्यांकित रुपया भारतीय वस्तुओं और सेवाओं को वैश्विक स्तर पर सस्ता बनाता है, जिससे IT-ITES, कपड़ा, फार्मास्यूटिकल्स, पेट्रोलियम उत्पादों में मूल्य प्रतिस्पर्द्धा में सुधार होता है और 41.7 अरब डॉलर के व्यापार घाटे को कम करने में मदद मिलती है।
    • इससे J-वक्र प्रभाव उत्पन्न हो सकता है, जिससे समय के साथ निर्यात मात्रा और रुपया मजबूत हो सकता है।
  • धन प्रेषण मूल्य में वृद्धि: विश्व के सबसे बड़े धन प्रेषण प्राप्तकर्ता (लगभग 125 अरब डॉलर, 2024) के रूप में, कमजोर रुपया अंतर्वाह के भारतीय रुपये के मूल्य को बढ़ाता है, जिससे घरेलू खपत और ग्रामीण आय को बढ़ावा मिलता है तथा विदेशी मुद्रा विनिमय को स्थिर समर्थन मिलता है।
  • पर्यटन और सेवाओं को मजबूती: मूल्यह्रास भारत को विदेशी पर्यटकों और छात्रों के लिए एक अधिक वहनीय गंतव्य बनाता है, जिससे अंतर्देशीय पर्यटन, आतिथ्य, चिकित्सा यात्रा और शिक्षा निर्यात को बढ़ावा मिलता है।
  • पहले के अधिमूल्यन को ठीक करता है: पहले अधिमूल्यित REER के साथ, रुपये में गिरावट मुद्रा को अधिक संतुलन-संरेखित स्तर पर पुनर्स्थापित करती है, जिससे भुगतान संतुलन (BoP) की स्थिरता और दीर्घकालिक प्रतिस्पर्द्धात्मकता में सुधार होता है।
  • लागत-प्रभावी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को आकर्षित करता है: भारतीय परिसंपत्तियाँ (रियल एस्टेट, विनिर्माण इकाइयाँ) डॉलर के संदर्भ में सस्ती हो जाती हैं, जिससे भारत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए, विशेष रूप से विनिर्माण और संपत्ति बाजारों में, अधिक आकर्षक हो जाता है।
  • बाहरी व्यापार तनावों को अवशोषित करता है: कमजोर रुपया अमेरिकी राष्ट्रपति के टैरिफ आक्रमण और संभावित चीनी प्रतिक्रिया के विरुद्ध एक आघात अवशोषक के रूप में कार्य करता है, जिससे भारतीय बाजारों में सस्ते, पुनर्निर्देशित चीनी आयातों की बढ़ोतरी आने का खतरा कम हो जाता है।
  • संरक्षणवाद की तुलना में बेहतर: विनिमय दर का लचीलापन, टैरिफ, निर्यात प्रतिबंध या गुणवत्ता नियंत्रण प्रतिबंधों जैसे विकृतकारी उपायों की तुलना में व्यापार असंतुलन को ठीक करने के लिए एक अधिक कुशल, बाजार-अनुकूल उपकरण है।

मूल्यह्रास-आधारित प्रतिस्पर्द्धा का समर्थन करने वाले ऐतिहासिक साक्ष्य

  • वर्ष 1991 का संकट: संकट के बाद हुए तीव्र अवमूल्यन ने 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में निर्यात में तेजी की नींव रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • वर्ष 2013 का ‘टेपर टैंट्रम’: रुपये में लगभग 20% की गिरावट आई, लेकिन इसके परिणामस्वरूप वर्ष 2014 और वर्ष 2016 के बीच व्यापारिक निर्यात में 15% से अधिक की वृद्धि हुई।
  • वर्ष 2022-23 का अवमूल्यन: रुपये के कमजोर होने के बावजूद, भारत का समग्र निर्यात मजबूत बना रहा, जिससे भारत को वैश्विक स्तर पर पाँचवाँ सबसे बड़ा निर्यातक (2024) बनने में मदद मिली।

समष्टि आर्थिक समझौते, नीतिगत विकल्प और मूल्यह्रास जोखिम

  • RBI की ‘इंपॉसिबल ट्रिनिटी’ चुनौती: रुपये की स्थिति, ‘इंपॉसिबल ट्रिनिटी’ के रूप में प्रसिद्ध व्यापक आर्थिक बाधा को उजागर करती है, एक देश एक साथ एक निश्चित विनिमय दर, मुक्त पूँजी प्रवाह और एक स्वतंत्र मौद्रिक नीति को बनाए नहीं रख सकता है।
    • जब रुपया दबाव में आता है, तो RBI को इनमें से एक विकल्प चुनना होता है:
      • डॉलर की बिक्री और नकदी की सख्ती के माध्यम से रुपये की रक्षा करना, या
      • विकास को बढ़ावा देने के लिए मौद्रिक नीति की स्वतंत्रता को बनाए रखना।
      • नियत मूल्यह्रास की अनुमति देना एक व्यावहारिक विकल्प है, जो कठोर मुद्रा रक्षा की तुलना में व्यापक आर्थिक स्थिरता को प्राथमिकता देता है।
  • राजकोषीय अनुशासन क्यों महत्त्वपूर्ण है: कमजोर रुपये का प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ तभी बना रहता है जब सरकार राजकोषीय अनुशासन बनाए रखे।
    • उच्च राजकोषीय घाटा मुद्रास्फीति को बढ़ाता है और वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (REER) को अधिमूल्यन की ओर धकेलता है, जिससे नाममात्र मूल्यह्रास के लाभ समाप्त हो जाते हैं।
  • मूल्यह्रास कब हानिकारक हो जाता है: मूल्यह्रास तभी लाभदायक होता है, जब वह व्यवस्थित हो। यह निम्नलिखित स्थितियों में हानिकारक हो जाता है:
    • अनियंत्रित मुक्त गिरावट: तीव्र, तनाव से प्रेरित गिरावट पूँजी पलायन को बढ़ावा देती है और बाजार के विश्वास को नष्ट कर देती है।
    • कमजोर बुनियादी ढाँचे: कम विदेशी मुद्रा भंडार, उच्च मुद्रास्फीति, या बढ़ता राजकोषीय घाटा, अवमूल्यन को मुद्रा संकट में बदल सकता है।
    • वैश्विक जोखिम-मुक्त संकट: फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में आक्रामक वृद्धि, भू-राजनीतिक तनाव या वैश्विक वित्तीय दबाव, FPI के अचानक बाहर निकलने का कारण बनते हैं।
    • राजनीतिक लोकलुभावनवाद और विकृतियाँ: तीव्र अवमूल्यन सरकारों को अल्पकालिक निर्यात प्रतिबंधों और मूल्य-नियंत्रण उपायों के लिए मजबूर करता है, जिससे दीर्घकालिक आर्थिक विश्वसनीयता को नुकसान पहुँचता है।
  • RBI का विनिमय दर रुख क्यों बदला है: भारत का दृष्टिकोण लचीलेपन की ओर स्थानांतरित हो गया है, इसका कारण है:
    • RBI का अधिक लचीला दृष्टिकोण: बाजार-संरेखित मूल्यह्रास के प्रति अधिक सहनशीलता, भंडार और विश्वसनीयता को सुरक्षित रखती है।
    • आयातित मुद्रास्फीति का कम जोखिम: वैश्विक कमोडिटी कीमतों और घरेलू मुद्रास्फीति में कमी, कमजोर रुपये के जोखिम को कम करती है।
    • समष्टि आर्थिक वास्तविकता के साथ संरेखण: बढ़ते चालू खाते घाटे (CAD) के लिए ऐसी मुद्रा की आवश्यकता होती है, जो वास्तविक बुनियादी बिंदुओं को प्रतिबिंबित करे।
  • भारत के नए दृष्टिकोण के पीछे संरचनात्मक तर्क: मध्यम रूप से कमजोर रुपये के दीर्घकालिक तर्क में शामिल हैं
    • चालू खाते के घाटे के दबावों का समाधान: प्रतिस्पर्द्धी रुपया भारत के निर्यात-आयात असंतुलन को बेहतर ढंग से दर्शाता है।
    • निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता में वृद्धि: थोड़ा कम मूल्यांकित रुपया प्रमुख क्षेत्रों में निरंतर निर्यात वृद्धि को बढ़ावा देता है।
    • विकृत व्यापार उपायों में कमी: एक लचीली विनिमय दर, शुल्कों, आयात प्रतिबंधों और प्रतिबंधात्मक गुणवत्ता-नियंत्रण आदेशों पर अत्यधिक निर्भरता से बचाती है।

PWOnlyIAS विशेष

  • विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (FPI) और विदेशी संस्थागत निवेशक (FII): इक्विटी और ऋण बाजारों में अल्पकालिक विदेशी निवेशक; उनके निवेश से रुपया मजबूत होता है और निकासी से रुपया कमजोर होता है।
    • वैश्विक ब्याज दरों, जोखिम धारणा और मुद्रा अपेक्षाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील।
  • चालू खाता घाटा (CAD): यह तब होता है, जब वस्तुओं, सेवाओं और हस्तांतरणों में आयात निर्यात से अधिक हो जाता है।
    • उच्च CAD विदेशी मुद्रा की माँग बढ़ाता है, जिससे रुपये पर दबाव पड़ता है।
  • क्रय शक्ति समता (PPP) प्रभाव: इसके अनुसार, विनिमय दरें विभिन्न देशों में समान वस्तुओं की कीमतों को समान करने के लिए समायोजित होती हैं।
    • कम घरेलू मुद्रास्फीति वास्तविक रूप से मुद्रा का कम मूल्यांकन करती है, जिससे प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ती है।
  • IMF की ‘क्रॉल’ के समान व्यवस्था: यह आर्थिक संकटों से बचने और असंतुलन को ठीक करने के लिए छोटे, क्रमिक विनिमय दर समायोजन की अनुमति देने वाली व्यवस्था है। भारत आधिकारिक तौर पर इसका पालन नहीं करता है, लेकिन इसके सुनियोजित रुपया समायोजन माध्यम इसी व्यवहार से मिलते-जुलते हैं।
  • हेजिंग लागत: फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट/फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट के माध्यम से मुद्रा अस्थिरता के विरुद्ध बीमा की लागत।
    • उच्च हेजिंग प्रीमियम, विदेशी निवेश और उधार की लागत बढ़ाते हैं, जिससे विदेशी निवेशकों की भागीदारी कम हो जाती है।
  • J-वक्र प्रभाव: मूल्यह्रास के बाद, व्यापार संतुलन शुरू में बिगड़ता है (आयात महँगा होता है) लेकिन बाद में निर्यात बढ़ने और आयात घटने से इसमें सुधार होता है,  जिससे J-आकार का समायोजन पथ का निर्माण होता  है।
  • बाह्य वाणिज्यिक उधार (ECB): भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी ऋणदाताओं से विदेशी मुद्राओं में लिए गए ऋण।
    • ये सस्ते वैश्विक ऋण तक पहुँच प्रदान करते हैं, लेकिन मुद्रा जोखिम बढ़ाते हैं क्योंकि पुनर्भुगतान डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य पर निर्भर करता है।
  • विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बांड (FCCBs): भारतीय कंपनियों द्वारा जारी विदेशी मुद्रा-मूल्य वर्ग वाले बॉण्ड, जिन्हें निवेशक बाद में इक्विटी शेयरों में बदल सकते हैं।
    • ये कम ब्याज दरें प्रदान करते हैं, लेकिन विनिमय दर जोखिम भी उठाते हैं।
  • भुगतान संतुलन (BoP): किसी देश के निवासियों और शेष विश्व के बीच सभी आर्थिक लेन-देन का एक व्यापक रिकॉर्ड, जिसमें चालू खाता, पूँजी खाता और वित्तीय खाता शामिल हैं।
    • इससे पता चलता है कि देश शुद्ध ऋणदाता है या उधारकर्ता तथा यह समग्र बाह्य क्षेत्र के स्वास्थ्य को दर्शाता है।

आगे की राह

  • RBI द्वारा प्रबंधित लचीली विनिमय दर: उच्च विदेशी मुद्रा भंडार (वर्तमान में 700 अरब डॉलर से अधिक) बनाए रखते हुए, अस्थिरता को कम करने के लिए सक्रिय हस्तक्षेप की नीति जारी रखना।
  • निर्यात विविधीकरण: उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) जैसी योजनाओं को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाना और वर्ष 2030 तक विश्व निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 1.8% से बढ़ाकर 3% करने के लक्ष्य के लिए और अधिक मुक्त व्यापार समझौते (FTA) करना।
    • व्यापार नीति सुविचारित होनी चाहिए; जापान, UAE, आसियान के साथ द्विपक्षीय FTA ने व्यापार संतुलन को भारत के विरुद्ध झुका दिया है।
  • आयात पर निर्भरता कम करना: आयात बिल को संरचनात्मक रूप से कम करने के लिए ऊर्जा (नवीकरणीय और हरित हाइड्रोजन) और इलेक्ट्रॉनिक्स के लिएआत्मनिर्भर भारत’ पर ध्यान केंद्रित करना।
    • भारत की दीर्घकालिक कमजोरी तेल पर उसकी भारी निर्भरता से उत्पन्न हुई है, जिससे परिवहन विद्युतीकरण में तेजी लाना एक तत्काल रणनीतिक प्राथमिकता बन गई है।
  • रुपया व्यापार को बढ़ावा देना: डॉलर की अस्थिरता से व्यापार संतुलन के एक हिस्से को सुरक्षित रखने के लिए रुपया-आधारित व्यापार (जैसे- रूस और संयुक्त अरब अमीरात के साथ) को सक्रिय रूप से बढ़ावा देना।
  • राजकोषीय-मौद्रिक समन्वय: सरकार द्वारा कठोर राजकोषीय अनुशासन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। राजकोषीय घाटे में वृद्धि से घरेलू स्तर पर अत्यधिक मुद्रास्फीति का खतरा होता है, जो REER को पुनः अधिमूल्यन की ओर बढ़ावा देकर नाममात्र मूल्यह्रास के लाभ को तुरंत विपरीत कर देगा।
  • डिजिटल और वित्तीय सेवाओं के निर्यात को बढ़ावा देना: प्रतिस्पर्द्धी रुपया भारत के सूचना प्रौद्योगिकी (IT/ITES) क्षेत्र और वैश्विक क्षमता केंद्रों (GCC) की लागत-प्रभावशीलता को बढ़ाता है।
    • यह गिफ्ट सिटी IFSC जैसे वित्तीय केंद्रों की भूमिका को मजबूत करता है, जहाँ डॉलर की कमाई उच्च रुपये के राजस्व में परिवर्तित होती है, जिससे सेवा-आधारित विकास की रणनीति को बल मिलता है।

निष्कर्ष

भारत जैसी विकासशील एवं निर्यात-उन्मुख अर्थव्यवस्था के लिए रुपये का क्रमिक और नियंत्रित अवमूल्यन, आघात-प्रेषक के बजाय आघात-अवशोषक की भूमिका निभाता है। वास्तविक चुनौती रुपये के मूल्य में गिरावट नहीं है, बल्कि इस गिरावट से प्राप्त संभावित प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ का उपयोग करने हेतु आवश्यक संरचनात्मक सुधारों की कमी में निहित है। कमजोर रुपया स्वयं में कोई संकट नहीं, बल्कि एक संकेत है; असली संकट भारत के निर्यात क्षेत्र की सीमित प्रतिस्पर्द्धात्मकता है।

अभ्यास प्रश्न 

भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए रुपये के दीर्घकालिक अवमूल्यन से जुड़े व्यापक आर्थिक जोखिमों और चुनौतियों पर चर्चा कीजिए। निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता बनाए रखते हुए इन जोखिमों को कम करने के लिए सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) को कौन से नीतिगत उपाय अपनाने चाहिए?

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